Monday, 11 May 2015

नेपाल का दर्द महसूस करें @रामचंद्र गुहा

वर्ष 2011 की अपनी पुस्तक द ट्रिस्ट बेट्रायड ः रिफ्लेक्‍शंस ऑन डिप्लोमेसी ऐंड डेवलेपमेंट में जगत मेहता कहते हैं, 'नेहरू पूरी तरह से समझ नहीं पाए, और विदेश मंत्रालय उन्हें यह सलाह देने में नाकाम रहा कि 20वीं सदी में गैर-बराबर पड़ोसियों के बीच चल रही कूटनीति को समझने से मुश्किल कुछ भी नहीं था।' खासकर एक पड़ोसी का उल्लेख करते हुए मेहता लिखते हैं, ' पूरे इतिहास में स्थायी और परस्पर लाभप्रद अंतरनिर्भरता को नष्ट करने का वैसा उदाहरण नहीं दिखता, जैसा कि भारत और नेपाल के संबंधों में दिखाई देता है।

हाल ही में नेपाल में आए दर्दनाक भूकंप के बाद भारत की प्रतिक्रिया को देखकर मुझे मेहता के शब्द याद आ गए। जिस तेजी के साथ हमारी सरकार ने बचाव दलों को रवाना किया, वह वाकई प्रशंसनीय है, मगर इन सब पर कुछ हद तक पानी तब फिर गया, जब प्रधानमंत्री ने शेखी बघारते हुए यह कहा कि उनके नेपाली समकक्ष को भूकंप की सूचना उनके ट्वीटर संदेश के जरिये मिली। (अगर यह सच भी था, तो सम्मानजनक और कूटनीतिक तौर पर सही यह होता कि इसका खुलासा नहीं किया जाता।) स्थिति को बदतर करने का काम भारतीय टेलीविजन के अंग्रेजी और हिंदी चैनलों की सनसनीखेज कवरेज ने किया। जैसा कि काठमांडू के प्रतिष्ठित संपादक कनक मणि दीक्षित ने बीबीसी को बताया, 'आपदा की कवरेज के दौरान जिस तीखेपन, कट्टर राष्ट्रवाद, बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई बातों, असभ्यता और गलतबयानी का प्रदर्शन हुआ, उससे मेजबान देश भड़क गया।' एक दूसरे नेपाली स्तंभकार ने कहा कि भला हो सलमान खान मामले का, जिसकी बदौलत भारतीय मीडिया ने उनके देश का पीछा छोड़ा।

नेपाल को लेकर भारत के अहंकारी रवैये की जड़ें काफी पुरानी हैं। इसका भावनाप्रवण ब्योरा महान डेमोक्रेट बी पी कोईराला के संस्मरणों में मिलता है। कोईराला वही शख्स हैं, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और उसके बाद अपने देश में भी निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। वह महात्मा गांधी के भक्त थे, और जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और जवाहरलाल नेहरू के परम मित्र थे।

1947 में निर्वासन काल के दौरान कोईराला ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तर्ज पर समान नाम और संगठनात्मक ढांचे वाली नेपाल राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया। कड़े संघर्ष के बाद कोईराला और उनकी पार्टी ने 1959 में आखिरकार नेपाल के नरेश को देश के पहले लोकतांत्रिक चुनाव को संपन्न कराने पर मजबूर कर दिया। नेपाल कांग्रेस को भारी बहुमत मिला और कोईराला खुद देश के प्रधानमंत्री बन गए। अपनी निजी और राजनीतिक पृष्ठभूमि की वजह से कोईराला का भारत की ओर स्वाभाविक झुकाव था। मगर भारत उनके लिए लगातार हालात मुश्किल बनाता गया। अपने आत्मबृतांत में वह लिखते हैं कि बतौर नेपाली प्रधानमंत्री तीन पक्षों को उन्होंने अपने खिलाफ पाया। इनमें से दो तो स्वाभाविक थे, नेपाल की शाही अदालत और वहां का जमीदार अभिजात्य वर्ग। मगर उन्हें हैरत तीसरे पक्ष को लेकर थी, जिसमें भारतीय गणराज्य और उसके प्रतिनिधि आते थे। इससे पहले 1940 के दशक में नेहरू और कोईराला ने अंग्रेजों के खिलाफ साथ में लड़ाई लड़ी और फिर साथ में जेल गए। मगर इसके करीब पंद्रह वर्ष बाद नेहरू की सरकार यही चाहती थी कि नेपाल उसकी उंगलियों पर नाचे। उस वक्त के भारतीय राजदूत खुद को शाही राजदूत मानते थे। काठमांडू में हमारे अधिकारी खुद को नेपाल नरेश से भी ऊंचा मानते थे। एक अधिकारी तो अहंकार में इतने अंधे हो गए थे, कि कोईराला को सार्वजनिक तौर पर शिकायत दर्ज करानी पड़ी कि 'भारतीय राजदूत हमारे देश को जिला बोर्ड मानते हैं, और खुद को जिला बोर्ड का अध्यक्ष।'

भारत के दो सबसे मुश्किल पड़ोसी चीन और पाकिस्तान थे। इन दोनों ही मुल्कों के साथ हमारे संबंध तनावों से भरे रहे हैं। दरअसल, इसकी मुख्य वजह दोनों देशों से जुड़ी जटिल और विवादित ऐतिहासिक विरासत है। चीन दोनों देशों के बीच की सीमा मैकमहोन रेखा को नहीं मानता। उसका मानना है कि यह रेखा उन पर अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने थोपी हुई है। इसके अलावा भारत और पाकिस्तान तत्कालीन प्रिंसली स्टेट जम्मू और कश्मीर पर अपना दावा पेश करते हैं। सीमा से जुड़े इन विवादों के अलावा राष्ट्रवादी प्रतिद्वंद्विता भी हालात को और नाजुक बना देती है। एशिया और पूरी दुनिया पर अपना असर जमाने के लिए चीन भारत के साथ प्रतिस्पर्धा करता है। पाकिस्तान (खासकर पाकिस्तानी सेना) 1971 में मिली करारी शिकस्त का बदला लेना चाहता है। हालांकि चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों में कड़वाहट को समझना मुश्किल नहीं है, मगर नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ रिश्तों में तनाव वाकई हैरत में डालने वाला है। हालांकि इन तीनों ही देशों के मामले में यह स्थिति खुद हमारी बुलाई गई है। श्रीलंका में इंदिरा गांधी और एम जी रामचंद्रन ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) को छिपे तौर पर सैन्य और दूसरे तरह की मदद पहुंचाई। दूसरी ओर अपनी शेखी बखारने के क्रम में राजीव गांधी ने लिट्टे पर काबू पाने के लिए भारतीय सेना भेज दी। हमारी ऐसी नीतियों की वजह से सिंहला और तमिल दोनों समुदाय भारत से विमुख हुए। ऐसे हालात में सिंहला समुदाय ने मदद के लिए चीन की ओर देखा। वहीं, नाराज तमिल समुदाय ने अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करने के लिए समय-समय पर आतंकी हमलों का सहारा लिया। गौरतलब है कि खुद राजीव गांधी ऐसे ही एक हमले का शिकार बने थे। नेपाल की तरह श्रीलंका में भी हमारे कुछ राजनयिकों का बर्ताव 'वॉयसराय' सरीखा रहा है।

बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने में भारत की मदद और हस्तक्षेप की बड़ी भूमिका थी। 1970 में नब्बे लाख बंगाली शरणार्थियों को आश्रय देना भारतीय विदेश नीति की सर्वोच्च उपलब्धि थी। ठीक इसी तरह, इसके अगले वर्ष पाकिस्तान को शिकस्त देना भारतीय सेना के लिए ऐतिहासिक कामयाबी का क्षण था। मगर सब किए-कराए पर पानी फेरने में हमें ज्यादा समय नहीं लगा। दिल्ली में केंद्र सरकार और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार ने दोनों देशों के बीच नदी जल विवाद को लेकर हठीला रुख दिखाया। इतना ही नहीं, अवामी लीग को खुला समर्थन देकर भारत सरकार ने बांग्लादेश के दूसरे राजनीतिक समीकरणों को अनदेखा कर दिया।

बी पी कोईराला अपने संस्मरण में लिखते हैं, 'भारतीय साफ-सुथरी कूटनीति को नहीं समझते।' वहीं जगत मेहता लिखते हैं, 'आकार में छोटे पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते उसकी विदेश नीति की सबसे बड़ी नाकामयाबी है।' इन दोनों कड़ी टिप्पणियों में से पहली उस शख्स की है, जो भारत का पुराना मित्र रहा है, जबकि दूसरी टिप्पणी वरिष्ठ भारतीय राजनयिक और पूर्व विदेश सचिव की है। दिलचस्प यह है कि दोनों ही टिप्पणियां काफी हद तक सही हैं। फिलहाल जो हालात हैं, उससे तो यही लगता है कि दोनों देशों के बीच के स्वस्‍थ रिश्तों के मद्देनजर सरपरस्ती और अपनी वरिष्ठता थोपने के भारतीय रवैये की जगह नेपाल के प्रति सहानुभूति और मित्रता की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए प्रधानमंत्री के ट्वीट और खाद्य व दूसरी सामग्रियों से लदे विमान भेजने से ज्यादा कुछ किए जाने की जरूरत है

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