Sunday, 31 May 2015

'एवरेस्ट पर हमने गर्मागर्म कॉफ़ी पी..' @रेहान फ़ज़ल

मेजर अहलूवालिया, फू दोरजी एवरेस्ट पर
मेजर अहलूवालिया, फू दोरजी एवरेस्ट पर (तस्वीर: मेजर अहलूवालिया)
20 मई, 1965 की सुबह चीमा ने तीन बजे तड़के उठकर नवांग गोंबू को गुड मॉर्निंग कहा. दोनों ने गर्मागर्म कॉफ़ी पी, तैयार हुए और पांच बजे एवरेस्ट की ओर बढ़ चले. आसमान में बादल थे. तेज़ हवा चल रही थी. साढ़े सात बजते बजते वो दोनों साउथ समिट के बिल्कुल नीचे पहुंच गए.
वहाँ पर उन्होंने थोड़ी थोड़ी इस्तेमाल की हुई ऑक्सीजन बोतलें छोड़ीं. तेज़ी से बढ़ते हुए बिना किसी मुश्किल के वो मशहूर हिलैरी चिमनी पहुंच गए.
थकान नहीं, बल्कि रोमांच के कारण ज़ोर ज़ोर से धड़कते दिलों के साथ उन्होंने क़दम दर क़दम चढ़ना तब तक जारी रखा, जब तक उन्हें 1 मई, 1963 को जेम्स विटेकर और नवांग गोंबू का लगाया गया अमरीकी झंडा नहीं दिखाई दिया.
शिखर से दस फ़ुट पहले वो रुके और उन्होंने अपना रक सैक खोला. उन्होंने कैमरे और अपने साथ लाए तरह तरह के झंडे निकाले.
उस मई दिवस के ठीक साढ़े नौ बजे दुनिया के सबसे ऊँचे शिखर पर भारत का तिरंगा झंडा फहरा रहा था.

पढ़िए विवेचना विस्तार से

कैप्टेन कोहली बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
कैप्टेन कोहली बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
एडवांस बेस कैंप और बेस कैंप पर दल के सभी लोगों ने अपनी दूरबीनें दुनिया के सबसे ऊँचे शिखर पर लगा रखी थीं.
सबसे पहले गुरदयाल सिंह ने अपने वॉकी टॉकी से दल के नेता को बताया, "उन दोनों ने चढ़ना शुरू कर दिया है... साढ़े आठ बजे मैंने देखा है... अच्छी स्पीड से ऊपर जा रहे हैं."
फिर दल के उपनेता कर्नल नरेंद्र कुमार ने लगभग चीख़ते हुए कहा, "कॉन्ग्रेचुलेशन कैप्टेन कोहली... दोनों लोग शिखर से कुछ ही कदम दूर हैं.... सामने बादल आ गए हैं... लेकिन अब तक वो समिट पर पहुंच चुके होंगे."

आकाशवाणी की लीड ख़बर

एवरेस्ट फ़तह करने वाले दल के सदस्य
एवरेस्ट फ़तह करने वाले दल के सदस्य
चीमा और गोम्बू शिखर पर आधे घंटे रहे. चीमा ने वहाँ पर अपनी माँ के दिए हुए चाँदी के सिक्के गाड़े.
गोंबू ने अपनी पत्नी का दिया स्कार्फ़ और तेंज़िग नोर्गे की दी हुई बुद्ध की प्रतिमा वहाँ पर रखी. दस बजकर पांच मिनट पर उन्होंने नीचे उतरना शुरू किया.
दस बजकर पैंतालिस मिनट तक वो साउथ समिट पहुंच गए, लेकिन तब तक मौसम बहुत ख़राब हो चला था. बार बार उन्हें बर्फ़ हटाने के लिए अपने चश्मे उतारने पड़ रहे थे.
उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. नौबत यहाँ तक आई कि चीमा को आगे बढ़ने के लिए अपने हाथों और पैरों के बल रेंगना पड़ा.
कैप्टन कोहली एवरेस्ट के शिखर पर
एवरेस्ट शिखर पर कैप्टन कोहली
बारह बजकर पैंतालिस मिनट पर वो दोनों कैंप नंबर छह पहुंचे. सबसे पहले उन्होंने अपने को गर्मी पहुंचाने के लिए खूब सारा सूप पिया और फिर वायरलेस सेट उठाकर दल के नेता कैप्टेन कोहली को इसकी सूचना दी.
हालांकि कोहली को इस बारे में संकेत पहले मिल गया था, लेकिन चीमा के मुंह से ये समाचार सुनकर कोहली नाचने लगे.
सभी ने एक दूसरे को गले लगाया. पहले काठमांडू और फिर दिल्ली संदेश फ़्लैश किया गया. उस दिन पौने नौ बजे आने वाले आकाशवाणी बुलेटिन की ये लीड ख़बर थी.
दूसरे दिन भारत के सभी समाचार पत्रों ने इसे बैनर हेडलाइन के साथ छापा.

येती के हाथ के निशान

इसके बाद दो-दो दिन के अंतर पर सोनम ग्यात्सो, सोनम वांग्याल, सीपी वोहरा और अंग कामी एवरेस्ट शिखर पर पहुंचे.
इस दौरान कई दिन ऐसे भी आए जब मौसम बहुत ख़राब हो जाता. तब समय बिताने के लिए दल के सदस्य ताश खेलते.
कर्नल नरेंद्र कुमार बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
कर्नल नरेंद्र कुमार बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
दल के उप नेता कर्नल नरेंद्र कुमार अपने साथ यती के हाथ की शक्ल का एक सांचा ले गए थे.
एक दिन उन्होंने सुबह सबसे पहले उठकर उससे कुछ निशान बर्फ़ पर बना दिए. जब दल के सदस्य सुबह उठकर नित्य क्रिया के लिए जाने लगे तो वो निशान देखकर हंगामा मच गया.
लोग ये बताने के लिए वायरलेस सेट की तरफ दौड़े कि उनके शिविर में यती आया था.
मामला गंभीर होते देख कर्नल कुमार को उन्हें बताना पड़ा कि उन्होंने उनके साथ मज़ाक किया था.

दसियों फ़ुट बर्फ़ के नीचे

आंग कामी एवरेस्ट के शिखर पर
एवरेस्ट शिखर पर अंग कामी
25 मई की सुबह जब मेजर हरि अहलूवालिया जगे तो फू दोरजी उनके लिए चाय लेकर आए.
उन्होंने उन्हें बताया कि कल रात कैंप तीन पर ज़बर्दस्त बर्फ़ीला तूफ़ान आया, जिसने सब कुछ तहस-नहस कर दिया. चाय छोड़ अहलूवालिया बाहर भागे.
वहाँ उन्होंने जो दृश्य देखा, उससे उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई.
अहलूवालिया ने बीबीसी को बताया, "कैंप नंबर तीन बर्फ़ से अटा पड़ा था. वहाँ रखी हमारी ऑक्सीजन की सारी बोतलें बर्फ़ में कई फ़ुट नीचे दब गई थीं. हमारे नेता कोहली ने कहा कि अब ऑक्सीजन के बिना आगे जाना संभव नहीं है. इसलिए हम अपना अभियान यहीं समाप्त करते हैं. मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि हमने इस दल के छह लोगों को एवरेस्ट शिखर पर भेजकर अमरीकी रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है, लेकिन अगर हम एक भी और पर्वतारोही एवरेस्ट पर पहुंचाने में सफल हो गए तो हम विश्व रिकार्ड बना देंगे."
मेजर हरि अहलूवालिया, रेहान फ़ज़ल
रेहान फ़ज़ल के साथ मेजर हरि अहलूवालिया
कोहली किसी तरह मान गए और उन्होंने अहलूवालिया को ऑक्सीजन बोतलों खोजने के लिए चार शेरपा दिए.

छह घंटों तक चली खुदाई

एवरेस्ट की चढ़ाई
अहलूवालिया और शेरपा छह घंटों तक खुदाई करते रहे. उनके हाथ कुछ न लगा. एक एक मिनट साल की तरह लग रहा था.
तभी अहलूवालिया की नज़र शेरपाओं की तरफ़ गई. वो सभी अपने भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. अहलूवालिया ने भी भगवान को याद किया, "अगर आप नहीं तो कौन यहाँ पर मेरी मदद करेगा."
अहलूवालिया बताते हैं, "मैंने तीन चार कुदालें ही चलाई होंगी कि मुझे टन्न की आवाज़ सुनी दी. पहले एक बोतल निकली, फिर दूसरी और फिर तो बोतलों का अंबार निकलता चला गया. हमारे हाथ ऑक्सीजन की पच्चीस बोतलें लगीं. उसी समय मुझे लग गया कि अब हमें एवरेस्ट पर पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता."

भाप से पकाया चिकन

एवरेस्ट की चढ़ाई
28 मई का दिन अहलूवालिया, फू दोरजी, बहुगुणा और रावत ने 27,930 फ़ुट ऊंचे 'रेज़र्स एज' के नीचे बिताया.
अहलूवालिया याद करते हैं, "रावत मेरे टेंट में पूछने आए कि क्या हमारे पास तेल और मसाले हैं? दरअसल वो एक मुर्गा तलना चाहते थे. हमारे पास इनमें से कुछ भी नहीं था. फिर उन्होंने उसे पिघलाई गई बर्फ़ पर भाप की मदद से पकाया. भाप से पकाए चिकन को चबाना आसान नहीं होता. सर्दी में हमारे जबड़े धीमे धीमे चलते हैं और हमें चिकन के कुछ टुकड़े खाने में पूरा एक घंटा लग गया."
अहलूवालिया और फू दोरजी एक टेंट में सोए. अहलूवालिया को बहुत देर तक नींद नहीं आई क्योंकि फू दोरजी ज़ोर ज़ोर से खर्राटा ले रहे थे. साढ़े पांच बजे सुबह अहलूवालिया, फू दोरजी, बहुगुणा और रावत ने दो-दो के ग्रुप में एवरेस्ट की ओर बढ़ना शुरू किया.
एवरेस्ट की चढ़ाई
बहुगुणा और रावत अभी पचास साठ गज़ ही गए होंगे कि बहुगुणा ने कहा कि वो आगे नहीं बढ़ सकते. रात में उन्होंने नींद की गोली खाई थी जिससे उनके पूरे शरीर में दाने निकल आए थे और उन्हें ज़बर्दस्त ख़ारिश हो रही थी.
खुम्बू आइस फॉल से पहले कैम्प का दृश्य
खुम्बू आइस फॉल से पहले कैम्प का दृश्य
वो रावत के चांस को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आगे न बढ़कर वापस लौट जाने का फ़ैसला किया.
रावत कुछ देर अकेले चले फिर अहलूवालिया और फू दोरजी के साथ जा मिले.

गुरु नानक की तस्वीर रखी

एवरेस्ट नज़दीक आते-आते चढ़ाई उतनी खड़ी नहीं रह गई थी. तीनों ने हाथ में हाथ डाले एवरेस्ट पर कदम रखा. वहाँ पर पहले आए दल का लगाया हुआ तिरंगा झंडा फहरा रहा था, लेकिन हवा के वेग से वो तार तार हो गया था.
अहलूवालिया याद करते हैं, "उस समय तापमान शून्य से तीस डिग्री नीचे रहा होगा. सहसा हवा की रफ़्तार धीमी हो गई. हमने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर से नीचे की तरफ़ विहंगम नज़र डाली. हमें मकालू लोत्से और कंचनजंघा चोटियाँ नज़र आईं. मैं घुटने के बल झुका. मैंने गुरु नानक की तस्वीर और अपनी मां की दी हुई माला एवरेस्ट पर रखी."
मेजर हरि अहलूवालिया
मेजर हरि अहलूवालिया एवरेस्ट के शिखर पर
"फू दोरजी ने दलाई लामा की तस्वीर वाला चांदी का लॉकेट रखा. रावत ने इतनी तेज़ हवा में भी अगरबत्ती जलाई और दुर्गा की प्रतिमा वहाँ रखी. तभी मुझे लगा कि मुझे कुछ निजी चीज़ भी एवरेस्ट को समर्पित करनी चाहिए. मैंने अपनी घड़ी उतारी और एवरेस्ट के चरणों पर रख दी."
"अचानक फू दोरजी ने कहा मेरे पास आप दोनों के लिए एक तोहफ़ा है. उन्होंने एक छोटा सा थर्मस निकाला. उसमें गर्मागर्म कॉफ़ी थी. हम तीनों ने 29,029 फ़ुट की ऊंचाई पर उस कॉफ़ी का आनंद लिया."
इत्तेफ़ाक से ये वही दिन था जब बारह साल पहले 29 मई को एडमंड हिलेरी और तेंज़िग नोर्गे ने एवरेस्ट पर पहली बार क़दम रखा था.
यह पहला मौका था जब किसी दल के नौ सदस्यों ने एवरेस्ट पर क़दम रखा था. भारतीय दल के नाम यह रिकॉर्ड सोलह सालों तक रहा.

अभूतपूर्व स्वागत

21 सदस्यीय भारतीय दल जब दिल्ली लौटा तो पालम हवाई अड्डे पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलजारीलाल नंदा अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ स्वागत करने के लिए मौजूद थे.
हवाई अड्डे से पर्वतारोहियों का काफ़िला सीधे जवाहरलाल नेहरू की समाधि शाँति वन गया. दल के सभी सदस्यों को संसद के दोनों सदनों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया और सभी को अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

ममता बनर्जी का सियासी सफरनामा @ज़ुबैर अहमद

जनाधार वाली एक नेता या ग़रीबों की मसीहा. दयालु या तीखे तेवर वाली एक महिला. दबंग नेता या फिर तानाशाह. ईमानदार लेकिन भ्रष्टाचार की अनदेखी करने वाली एक शासक. ममता की पहचान से जुड़े कई सवाल हैं.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहचान अलग-अलग लोगों के बीच अलग-अलग तरह से है.
पुरुषोत्तम सेन कोलकता शहर से 50 किलोमीटर दूर जॉयनगर गाँव के रहने वाले हैं.
वे कहते हैं, "मेरे विचार में ममता बनर्जी सबसे ईमानदार नेताओं में से एक हैं."
लेकिन कोलकता के मीर शम्सी की राय कुछ भिन्न है, "ममता हैं सत्ता में लेकिन विपक्ष के तेवर अब भी गए नहीं हैं."
दो साल पहले ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल से वामपंथी मोर्चे के 34 साल पुराने शासन काल का खात्मा किया था. ये दुनिया की सबसे पुरानी निर्वाचित कम्युनिस्ट पार्टी सरकारों में से थी.

नेता की हैसियत

फ़िर्हाद हकीम राज्य के शहरी विकास मंत्री और ममता बनर्जी के करीबी साथी हैं.
वह कहते हैं, " राज्य से बाहर लोगों को हैरानी हुई होगी लेकिन इस विजय से हमें हैरानी नहीं हुई. चुनाव से दो साल पहले हमने राज्य से 19 लोक सभा सीटें जीती थीं."
ममता बनर्जी के बारे में ये कहा जाता है कि वो लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की तरह पारंपरिक तौर-तरीके वाली नेता नहीं हैं.
फ़िर्हाद हकीम जोर देकर कहते हैं, "ममता दीदी की असमानता ही नेता की हैसियत से उनकी पहचान है. वो ज़मीनी सतह पर आम लोगों से पूरी तरह से जुडी हैं."
शायद यही कारण है कि आज भी वो कोलकता के बाहर जहाँ जाती हैं वहां अक्सर लोगों को उनके नाम से पुकारती हैं या फिर अपने कार्यकर्ता को दूर से ही पहचान लेती हैं.
कोलकता टीवी में काम करने वाले एक वरिष्ट पत्रकार विश्व मजूमदार उन्हें 20 सालों से जानते हैं और आज भी वो उनके साथ कई जगहों का सफ़र साथ करते हैं.

राजनीतिक गुरु

अरुणाभ घोष
नेता अरुणाभ घोष ममता से मायूस होने वाले लोगों में से एक हैं.
टीवी पत्रकार विश्व मजूमदार कहते हैं, "दीदी का ग्रामीण इलाकों में नेटवर्क इतना ज़बरदस्त है कि इसका लोगों को अंदाज़ा नहीं. वो अपने कार्यकर्ता की ख़बर लेती हैं और उन्हें एसएमएस करती रहती है. इसीलिए उन्हें ज़मीनी सच्चाई की खबर रहती है."
सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदीग्राम में औद्योगीकरण के ख़िलाफ़ चले आन्दोलन के नेतृत्व के बाद उन्हें विपक्ष की एक दबंग नेता के रूप में देखा जाने लगा था.
इस आन्दोलन में राज्य के बुद्धीजीवी भी उनके साथ थे. उन्हीं में एक थे थिएटर जगत के माने जाने निर्देशक कौशिक सेन.
वह बताते हैं कि उस समय ममता बनर्जी आम आदमी की आवाज़ बन गयी थीं.
ममता बनर्जी भले ही कांग्रेस पार्टी और सोनिया गाँधी का विरोध करने वाली नेता हों लेकिन उनके करीबी लोग कहते हैं कि वह राजीव गाँधी को अपना राजनीतिक गुरु मानती हैं.
ममता बनर्जी का राजनितिक सफ़र कम उम्र में शुरू हुआ. वो कांग्रेस पार्टी मे एक युवा नेता की हैसियत से काफी सक्रिय रहती थीं लेकिन 1984 में केवल 29 साल की उम्र में जाधवपुर से लोक सभा का चुनाव जीत कर वो पार्टी की नज़रों में अचानक से उभर गई थीं.

अलग व्यक्तित्व

पत्रकार विश्व मजूमदार कहते हैं कि राजीव गाँधी ने ही सब से पहले उन्हें लोक सभा चुनाव के लिए जाधवपुर से टिकट दिया था. आज भी उनके घर में राजीव गाँधी की ‘छोबी’(फोटो) लगी है."
उनके अन्दर नेतागिरी के गुण कॉलेज के ज़माने से ही थे. कोलकता के जगमाया देवी कॉलेज में उन्हें पढ़ाने वालों में प्रोफ़ेसर कल्याणी चटर्जी भी थीं.
वह कहती हैं, "ममता छात्राओं के अधिकार के लिए अक्सर लड़ा करती थीं. इसके इलावा दुर्गा पूजा या किसी और समारोह का आयोजन करना हो तो वो उसमें आगे-आगे रहती थीं."
प्रोफ़ेसर चटर्जी के अनुसार वो पढने में ठीक थीं लेकिन बहुत उज्जवल नहीं.
उन्होंने बताया कि ममता कॉलेज के ज़माने से ही एक अलग व्यक्तित्व की मालिक थीं. वो अपने तरीके से काम करती थीं. एक तरह से बाग़ी भी थीं.
राजनीति में उनके विद्रोही तेवर 1997 में उस समय देखने को मिले जब उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की घोषणा की.
बाद में उन्होंने कांग्रेस के साथ केंद्र की सत्ता में भागेदारी भी की और दो बार रेल मंत्री भी रहीं.

'ईमानदारी पर शक नहीं'

विश्व मजूमदार
पेशे से पत्रकार मजूमदार ममता बनर्जी को सालों से जानते हैं.
पश्चिम बंगाल में उनके साथी कहते हैं ममता बनर्जी हिम्मत और आत्मविश्वास का दूसरा नाम है.
विश्व मजूमदार कहते हैं, "ममता ने कम्युनिस्ट सरकार को हिला दिया था. उसका एक ही कारण है कि वो नेता की हैसियत से कभी डिगी नहीं."
ममता बनर्जी को ईमानदार कहने वालों में उनके आलोचक भी है.
कौशिक सेन एक ज़माने में उनके करीबी समर्थकों में से एक थे लेकिन अब वो उन से अलग हो चुके हैं और उनके कड़े आलोचक बन गए हैं.
लेकिन वे भी ये स्वीकार करते हैं कि ममता बनर्जी एक ईमानदार नेता है.
उनका कहना है, "उनकी ईमानदारी पर शक नहीं लेकिन वो भ्रष्ट नेताओं से घिरी हैं."
नेता अरुणाभ घोष ममता बनर्जी से मायूस होने वाले लोगों में से एक हैं और अब वो कांग्रेस में शामिल हो गए है.
वो कहते हैं कि विपक्ष की नेता की हैसियत से ममता एक दबंग नेता थीं लेकिन सत्ता में आने के बाद 'उनकी पोल खुल गई'.
उन्होंने कहा, "ममता बनर्जी के पास दिमाग नहीं है. अनभिज्ञता उनकी शक्ति है."

सादा जीवन

दोस्त और शत्रु दोनों उनकी सादगी का भी लोहा मानते है. हमेशा एक साधारण साड़ी में लिपटी, पैरों में हवाई चप्पल पहनी ममता बनर्जी एक आम घरेलू महिला लगती है.
कोलकता की एक ग़रीब परिवार की इकलौती बेटी आज भी उसी घर में रहती हैं जहाँ मुख्यमंत्री बनने से पहले से रह रही थीं और आज भी उसी 'खटारा गाड़ी' में सफ़र करती हैं जो उनके पास सालों से है.
कोलकाता टीवी के विश्व मजूमदार कहते हैं, "इतना ईमानदार नेता मैंने कभी नहीं देखा."
मजूमदार आगे कहते हैं कि ममता अब भी उसी पुराने मकान में रहती हैं जिसकी छत से बरसात में पानी रिसता है. इस घर का दरवाज़ा भी बेहद तंग है.
एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया, "जब अटल बिहारी वाजपयी प्रधानमंत्री थे तो ममता दीदी से मिलने उनके घर आये. वो बड़ी मुश्किल से दरवाज़े के अन्दर घुस पाए थे. ये मेरी आँखों के सामने हुआ."

साधारण महिला

ममता बनर्जी 59 साल की हैं लेकिन उन्हों ने कभी शादी नहीं की. उनके पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था और माँ दो साल पहले गुज़र गई. उनके एक बड़े और दो छोटे भाई हैं.
विश्व मजूमदार के अनुसार यह कम ही लोगों को मालूम है कि ममता बनर्जी एक बहुत अच्छी गायिका भी हैं और खाना बहुत बढिया पकाती हैं.
उन्होंने बताया, "हम एक बार उनके साथ दिल्ली गये थे. वो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलीं और शाम को हमें घर पर बुलाया जहाँ उन्होंने हमें खाना बना कर खिलाया."
उनके अनुसार मुख्यमंत्री बहुत कम खाती हैं लेकिन खाना एक साधारण औरत की तरह बनाकर खिलाती ज़्यादा हैं.
उनके प्रशंसक यह भी कहते हैं कि मुख्यमंत्री एक अच्छी चित्रकार भी हैं.
इस के इलावा मजूमदार के अनुसार, "उन्हें पढ़ने का भी शौक़ है, सफ़र के दौरान वह ज्यादातर पढ़ती रहती हैं."
लेकिन उनके आलोचक घोष कहते हैं, "ममता के पास दम है लेकिन वे विवेकहीन हैं. वे दिमाग के बजाय दिल से शासन करती हैं.

जब राजीव गांधी ने कारों की चाबियां निकाल लीं @रेहान फ़ज़ल

प्रधानमंत्री होते हुए भी राजीव गांधी को यह कतई पसंद नहीं था कि जहां वे जाएं, उनके पीछे-पीछे उनके सुरक्षाकर्मी भी पहुंचें.
उनकी मां की हत्या और उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा दी गई थी. फिर भी राजीव गांधी की पूरी कोशिश होती थी कि वह अपने सुरक्षाकर्मियों को गच्चा दें, जहां चाहें वहां जा सकें.
जब भी राजीव ऐसा करते थे उनके एसपीजी अधिकारियों की नींद उड़ जाया करती थी. राजीव गांधी अपनी जीप खुद ड्राइव करना पसंद करते थे और वह भी बहुत तेज स्पीड में.
1 जुलाई, 1985 को मूसलाधार बारिश हो रही थी. तभी अचानक खबर आई कि वायुसेना अध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल लक्ष्मण माधव काटरे का निधन हो गया है.
दोपहर बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सोनिया गांधी उनके निवास स्थान पर पहुंचे और श्रीमती काटरे के साथ करीब पंद्रह मिनट बिताए.
प्रधानमंत्री के साथ उनका पूरा मोटरकेड था. चूंकि एसपीजी वालों को पता नहीं था कि काटरे के निवास से सोनिया गांधी राजीव की कार में बैठेंगी या अपनी कार में कहीं और जाएंगी, इसलिए सोनिया के सुरक्षाकर्मी भी उसी मोटरकेड में साथ साथ चल रहे थे.

हिदायत की अनदेखी

जैसे ही राजीव बाहर आए, उन्होंने इन सभी कारों को वहाँ खड़े देखा. उन्होंने एक अधिकारी को बुला कर हिदायत दी कि वे सुनिश्चित करें कि यह कारें उनकी कार के पीछे न आएं.
लेकिन जब वह सोनिया के साथ अपनी जीप में बैठे तो उन्होंने देखा कि सभी कारे उनके पीछे पीछे चल रही हैं. शायद पुलिस अधिकारी उनके निर्देश को ठीक ढंग से समझ नहीं पाया था.
राजीव ने अचानक अपनी जीप को रोका. मूसलाधार बारिश में बाहर निकले. अपने ठीक पीछे आ रही एस्कॉर्ट कार का दरवाज़ा खोला और उसकी चाबी निकाल ली. इसके बाद उन्होंने पीछे चल रही दो और कारों की चाबी निकाली. जैसे ही कारों का काफ़िला रुका पीछे आ रहे दिल्ली पुलिस के उप आयुक्त यह जानने के लिए अपनी कार आगे ले आए कि माजरा क्या है. उसके पांव से ज़मीन निकल गई जब राजीव ने बिना कुछ कहे उसकी कार की भी चाबी निकाल ली.
मज़ेदार चीज़ तब हुई जब राजीव गांधी ने सभी चाबियां पानी से भरे नाले में फेंक दीं और सोनिया के साथ अकेले आगे बढ़ गए. एसीपी की समझ में ही नहीं आया कि क्या करें.
ज़बरदस्त बारिश हो रही थी और प्रधानमंत्री के काफ़िले की सभी छह कारें बिना चाबी के राजाजी मार्ग के बीचों-बीच खड़ी थीं. उनको बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि राजीव गए कहां हैं.
पंद्रह मिनट बाद उनकी जान में जान आई जब उन्हें पता चला कि राजीव सकुशल सात रेसकोर्स रोड पर पहुंच गए हैं. कुछ महीनों बाद रात के बारह बजे उन्होंने गृह सचिव आर डी प्रधान को फ़ोन मिलाया.

पंडारा रोड किधर है?

अपनी माँ और पत्नी के साथ राजीव गांधी
उस समय प्रधान गहरी नींद सो रहे थे. उनकी पत्नी ने फ़ोन उठाया. राजीव बोले,’ क्या प्रधान जी सो रहें हैं. मैं राजीव गांधी बोल रहा हूँ.’ उनकी पत्नी ने तुरंत उन्हें जगा दिया.
राजीव ने पूछा, "आप मेरे निवास से कितनी दूर रहते हैं?" प्रधान ने बताया कि वह पंडारा रोड पर हैं. राजीव बोले, "मैं आपको अपनी कार भेज रहा हूँ. आप जितनी जल्दी हो, यहाँ आ जाइए."
उस समय राजीव के पास पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर राय कुछ प्रस्तावों के साथ आए हुए थे. चूंकि राय उसी रात वापस चंडीगढ़ जाना चाहते थे, इसलिए राजीव ने गृह सचिव को इतनी रात गए तलब किया था.
दो घंटे तक यह लोग मंत्रणा करते रहे. रात दो बजे जब सब बाहर आए तो राजीव ने आरडी प्रधान से कहा कि वह उनकी कार में बैंठें. प्रधान समझे कि प्रधानमंत्री उन्हें गेट तक ड्रॉप करना चाहते हैं.
लेकिन राजीव ने गेट से बाहर कार निकाल कर अचानक बाईं तरफ टर्न लिया और प्रधान से पूछा, "मैं आपसे पूछना भूल गया कि पंडारा रोड किस तरफ है."
अब तक प्रधान समझ चुके थे कि राजीव क्या करना चाहते हैं. उन्होंने राजीव का स्टेयरिंग पकड़ लिया और कहा, "सर अगर आप वापस नहीं मुड़ेंगे तो मैं चलती कार से कूद जाऊंगा."
प्रधान ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने उनसे वादा किया था कि वह इस तरह के जोखिम नहीं उठाएंगे. बड़ी मुश्किल से राजीव गांधी ने कार रोकी और जब तक गृह सचिव दूसरी कार में नहीं बैठ गए वहीं खड़े रहे.
(80 के दशक में भारत के गृह सचिव और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे आर डी प्रधान से बातचीत पर आधारित

बहादुरशाह ज़फ़र से नेताजी का नाता @नितिन श्रीवास्तव

नेताजी सुभाष चंद्र बोस

मुबारकपुर, आज़मगढ़ के पास के गाँव ढकुआ में रहने वाले 'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने सुभाष चंद्र बोस के साथ बिताए दिनों की याद ताज़ा कीं.
पिछली स्टोरी में आपने पढ़ा था निज़ामुद्दीन के मुताबिक़, कब और कैसे मिले वे सुभाष बोस से और उसके बाद उनके ड्राइवर बन गए.
आपने निज़ामुद्दीन के उस दावे को भी पढ़ा था, जिसमें उन्होंने नेताजी को ओर जा रहीं तीन गोलियों को अपनी पीठ पर ले लिया था.
बीबीसी से बातचीत में निज़ामुद्दीन ने ये भी बताया कि वे नेताजी बोस के साथ यूरोप और एशिया के देशों में गए थे.

बमबारी


कर्नल निज़ामुद्दीन

उन्होंने कहा, "बर्मा में नेताजी की बहुत इज़्ज़त थी. आज़ाद हिन्द फ़ौज का अपना रेडियो स्टेशन था, अपना बैंक था और हमारे अपने नोट भी छपते थे."
लेकिन 104 वर्ष की उम्र में भी निज़ामुद्दीन उस बात को याद करके भावुक हो उठते हैं, जिसके अनुसार नेताजी बोस को जंगलों में जगहें बदल-बदल कर रातें गुज़ारनी पड़ती थीं.
उन्होंने बताया, "हवाई बमबारी का ख़तरा हमेशा रहता था, इसलिए सुभाष चंद्र बोस हर रात बर्मा के जंगलों में कम से कम दो जगह बदलते थे. मैं ख़ुद उनको रात में उठाता था, ये कहते हुए कि उठिए अंडा (बम) गिर सकता है. इसलिए हमें निकलना चाहिए."
निज़ामुद्दीन के अनुसार, सुभाष हर बार नींद से उठाए जाने पर जवाब देते थे, "नींद से अच्छी तो मौत है."
निज़ामुद्दीन के मुताबिक़, नेताजी बोस अपने सहयोगियों को लेकर इतने मिलनसार थे कि अक्सर उनके जूठे गिलास में भी पानी पी लिया करते थे.

बहादुरशाह ज़फर


नेताजी सुभाष चंद्र बोस

'कर्नल' निज़ामुद्दीन 1940 के दशक की याद करते हुए बताते हैं कि, "उन दिनों ऐसा ही लगता था कि भारत को आज़ाद हिंद फ़ौज ही आज़ादी दिलाएगी."
उन्होंने बताया कि सुभाष बोस ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई.
वो बताते हैं, "ज़फर की कब्र को नेताजी बोस ने ही पक्का करवाया था. वहाँ कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई थी. मैं ख़ुद नेताजी के साथ कई मर्तबा ज़फर की मज़ार पर गया हूँ."
निज़ामुद्दीन के अनुसार, उन्होंने अपनी सौ वर्ष से भी ज़्यादा की उम्र में सुभाषचंद्र बोस जैसा दिलदार आदमी नहीं देखा.

विमान हादसा


गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस

इतिहास के मुताबिक़, सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु अगस्त, 1945 में फॉरमोसा, ताइवान में एक विमान हादसे हुई थी.
हालांकि 'कर्नल' निज़ामुद्दीन इस बात का खंडन करते हैं.
उन्होंने बताया, "जापान ने नेताजी को तीन हवाई जहाज़ दिए थे. जब मैंने उन्हें सितांग नदी के किनारे वर्ष 1947 में आख़िरी बार छोड़ा तब वो जापानी अफसरों के साथ मोटरबोट पर बैठने के पहले भावुक हो गए थे. मैंने कहा, मुझे भी अपने साथ ले चलिए, लेकिन उन्होंने कहा कि, तुम यहीं रुको जिससे दूसरों का ख़्याल रखा जा सके."
वैसे नेताजी बोस की मृत्यु से जुड़ी जानकारी जुटाने वाले और 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवरअप' नामक किताब लिखने वाले अनुज धर का भी मानना है कि सुभाष चंद्र बोस उस विमान में थे ही नहीं जिसका हादसा हुआ था.
लेकिन अनुज धर निज़ामुद्दीन के उन दावों को ख़ारिज करते हैं, जिनमें कहा गया है कि नेताजी 1945 से लेकर 1947 तक बर्मा में थे.

दावों पर सवाल


नेताजी क़िताब
सुभाष बोस की रहस्यमई मृत्यु पर लेखक अनुज धर की किताब ने कई सवाल खड़े किए हैं.

उन्होंने कहा, "जितने दस्तावेज़ मिले हैं उनके हिसाब से नेताजी इस दौरान रूस में थे. रही बात निज़ामुद्दीन की तो उन्हें कम से कम एक फ़ोटो या कोई प्रमाण तो दिखाना चाहिए अपने और नेताजी के दिनों का."
अब सच्चाई क्या है इसे पता लगाने में अनुज धर जैसे तमाम लोग लगे हैं.
कुछ दिन पहले ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पोती आजमगढ़ में निज़ामुद्दीन से मिलकर लौटीं हैं.
वहीँ पिछले वर्ष नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से अपने चुनाव लड़ने की घोषणा करने के बाद निज़ामुद्दीन का एक भरी जनसभा में झुक कर पैर छुआ था

कर्नल निज़ामुद्दीन
मुबारकपुर, आज़मगढ़ के पास के गाँव ढकुआ में रहने वाले 'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने सुभाष चंद्र बोस के साथ बिताए दिनों की याद ताज़ा की.
अभी तक आप उनके उन दावों को पढ़ चुके हैं कि कैसे वह नेताजी के ड्राइवर बने और कैसे उन्होंने नेताजी की ओर जा रहीं तीन गोलियों को अपनी पीठ पर ले लिया था.
उन्होंने वो याद भी ताज़ा की थी जिसके अनुसार रंगून में नेताजी बोस ने आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर की मज़ार को पक्का करवाया था.
बीबीसी से हुई बातचीत में निज़ामुद्दीन ने ये भी बताया कि कैसे रोज़ शाम को चार बजे के आसपास नेताजी अपने सहयोगियों से साथ बैठ कर आज़ादी की बात किया करते थे.

हिटलर

हिटलर
'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने ये भी बताया कि नेताजी बोस के साथ कई देशों की यात्रा के दौरान वो नामचीन लोगों से भी मिले.
उन्होंने बताया, "एक दफ़ा मैं नेताजी के साथ जापान गया था, जहाँ नेताजी की मुलाक़ात जर्मनी के चांसलर हिटलर से हुई. उस मीटिंग के दौरान जर्मनी के फील्ड मार्शल रोमेल भी मौजूद थे. मुझे भी हिटलर से हाथ मिलाने का मौका मिला था".
हालांकि सुभाष चंद्र बोस और उनकी मौत से जुड़े रहस्य पर शोध करने वाले अनुज धर निज़ामुद्दीन के इस दावे पर दूसरी राय रखते हैं.
उन्होंने कहा, "हो सकता है 100 से ज़्यादा उम्र होने के चलते निज़ामुद्दीन ये भूल रहे हों कि हिटलर और नेताजी की मुलाक़ात जर्मनी में हुई थी न कि जापान में. दूसरी बात ये कि नेताजी के साथ आईएनए के दूसरे बड़े अफ़सर जाया करते थे".

नाराज़गी

नेताजी सुभाषचंद्र बोस
'कर्नल' निज़ामुद्दीन बताते हैं कि जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्ति पर था तब नेताजी ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सभी सदस्यों को छुप कर आदेश दिए थे.
उन्होंने कहा, "विमान हादसे में नेताजी बोस की मौत की ख़बर ग़लत थी क्योंकि उन्होंने 1945 के बाद भी आईएनए के सदस्यों को सभी दस्तावेज़ नष्ट करने के लिए कहा था ताकि बाद में उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई न हो सके".
निज़ामुद्दीन का दावा है कि नेताजी कांग्रेस के अपने पुराने सहयोगियों से खासे आहत रहते थे जिसमे सभी शीर्ष नेता शामिल थे.
हालांकि नेताजी बोस पर 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवरअप' लिखने वाले अनुज धर के अनुसार निज़ामुद्दीन को अपने इन दावों के प्रमाण दिखाने की ज़रुरत है.

कश्मकश

अनुज धर
अनुज धर ने कहा, "अगर हिटलर से हाथ मिलाते हुए नेताजी बोस की तस्वीर मौजूद है तो उसमे निज़ामुद्दीन तो कहीं नहीं दिखते. न ही निज़ामुद्दीन सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर जांच के लिए बनी खोसला कमिटी या शाहनवाज़ कमीशन के समक्ष पहुंचे और न ही उनके पास दस्तावेज़ हैं".
मैं खुद भी इस कश्मकश में हूँ कि आख़िर सच क्या है.
'कर्नल' निज़ामुद्दीन के गाँव में तीन घंटे बिताने पर मुझे ये तो समझ में आया कि उन्हें कम से कम सात भाषाओं की समझ है और उनकी आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी बर्मा में बीती है.
नेताजी के साथ उनके सहयोग के दावों का सच निज़मुद्दीन के अलावा शायद अब कोई नहीं बता सकता.