Tuesday, 31 March 2015

शशि कपूर को सलाम @शशि शेखर

शशि कपूर को ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार देने की घोषणा उस समय हुई, जब वह अपने प्रशंसकों की स्मृतियों की पिछली तहों में समाने लगे थे। इस पुरस्कार की विडंबना यही है कि यह अक्सर कलाकारों को उस उम्र में हासिल होता है,  जब उनका नाता रुपहले परदे से सिर्फ नाम मात्र का रह जाता है। ‘इंसाफ’ की तरह ‘इनाम’ भी अगर देर से हासिल हों, तो वे अपनी अहमियत खो बैठते हैं। शशि कपूर का जीवन ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। खुद अपने घर में उनके दो बड़े भाई ऐसे थे, जिन्होंने फिल्म जगत में खास पहचान बना रखी थी। पृथ्वीराज कपूर तब जिंदा थे और शशि के लिए पिता और भाइयों की छाया से बाहर निकलना आसान नहीं था। उस जमाने में लोग अपनी खास अदा विकसित करते थे और उसके सहारे उनकी जिंदगी कट जाती थी। जब उनकी पहली फिल्म धर्म पुत्र रिलीज हुई, तब रुपहले परदे पर दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद की तिकड़ी राज कर रही थी। अंदाज के जरिये दिलीप ‘ट्रेजडी किंग’ और राज कपूर ‘ग्रेट शो मैन’ बनने का रास्ता हमवार कर चुके थे। देवानंद की एक ‘खिलंदड़ी इमेज’ थी। शम्मी कपूर ने इस तिकड़ी के बीच से अपना रास्ता बनाने के लिए अलग शैली बनाई थी।

ऐसे में क्या करें, शशि कपूर ने यकीनन यह सोचा होगा। उनकी दीक्षा ‘पृथ्वी थिएटर’ में हुई थी। उन्होंने अभिनय की सहज शैली को ही चुनने और उसके सहारे आगे बढ़ने का फैसला किया। अगर आपने धर्म पुत्र देखी हो, तो उस ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म में भी आपको उनकी आंखें बोलती नजर आएंगी। शशि की तरह यश चोपड़ा की अपने बैनर-तले बनी वह पहली ही फिल्म थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा सकी, अलबत्ता उसे अनेक पुरस्कार मिले। उस समय कोई सोच नहीं सकता था कि हिंदी सिनेमा के सबसे कारगर निर्देशक और अनूठे अभिनेता का इसके जरिए जन्म हो चुका है। यश चोपड़ा से इसी दौरान परवान चढ़ी उनकी दोस्ती भी ताजिंदगी अटूट रही। उनके निजी जीवन के बारे में बाद में बात करेंगे, पहले उनके कला पक्ष पर चर्चा करते हैं। कन्यादान फिल्म का एक हिट गाना है- लिखे जो खत तुझे..।  इसमें पहली नजर में आशा पारेख ज्यादा प्रभावित करती नजर आएंगी। इसके विपरीत शशि का चेहरा थोड़ा कम बोलता दिखता है, पर मामला उल्टा है। आशा अभिनय कर रही थीं, जबकि वह उस गाने को जी रहे थे।

दीवार फिल्म में उनके एक डायलॉग- मेरे पास मां है -का जिक्र बार-बार होता है। उसी फिल्म में ए के हंगल के सामने उन्होंने जो अभिनय किया था, वह यादगार है। पश्चाताप में जलता हुआ पुलिस इंस्पेक्टर पहले से ही पेशेवर मांग और निजी रिश्तों के द्वंद्व में उलझा हुआ है। युद्ध क्षेत्र में खड़े अर्जुन की तरह उसे अपने संशय का कोई किनारा नहीं मिल रहा। वह एक स्कूल मास्टर के बेटे को गोली मार देता है, जो अपने भूखे मां-बाप के लिए डबलरोटी चुरा रहा था। शिक्षक की भूमिका निभा रहे हंगल कहते हैं, ‘जुर्म तो जुर्म है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा।’ शशि कपूर कहते हैं, ‘ऐसी शिक्षा सिर्फ एक शिक्षक के यहां मिल सकती थी’ और इसके साथ ही लगता है कि जैसे उनके मन पर पड़ा बोझ हट रहा है। आप देख सकते हैं, ग्लानि से झूला शरीर आत्मा के फैलाव के साथ ही निर्णय पर पहुंचने की प्रक्रिया में तन जाता है। ग्लानि, पश्चाताप, कशमकश और निर्णय- इतने सारे भावों को उन्होंने कुछ ही पलों में दर्शा दिया।

अमिताभ के साथ उनकी एक और फिल्म कभी-कभी का जिक्र यहां जरूरी है। एक दृश्य में,  अमिताभ उनके घर आते हैं। शशि कपूर जान चुके हैं कि कॉलेज के दिनों में उनकी पत्नी और इस व्यक्ति के बीच प्रेम संबंध रहा है। इसके बावजूद वह पूरी गरिमा और शालीनता के साथ अपनी बात की शुरुआत में कहते हैं, माफ कीजिएगा विजय साहब..। एक पल को भी ऐसा नहीं लगता कि वह सत्य को स्वीकारने में कोई संकोच कर रहे हैं। वे हालात से पिटे नहीं, उन्हें पीटते नजर आ रहे हैं। जवाब में अमिताभ ‘एंग्री यंगमैन’ के दायरे में सिमटे-सिकुड़े हैं। यह दृश्य भी अभिनय के कर्म और किरदार में समा जाने के फर्क को साफ करता है। अगर ऐसे उदाहरण गिनाने लगूं, तो सैकड़ों पन्ने भर जाएंगे, पर सच यह है कि शशि कपूर को अपनी वास्तविक अभिनय शैली के लिए उस समय वह व्यावसायिक प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। 1960 के दशक में वह कई शिफ्टों में काम करने वाले अकेले अभिनेता हुआ करते थे। 1970 के दशक में उन्हें सहायक भूमिकाओं में आना पड़ा, पर वे भी कितनी जोरदार थीं, इसके कुछ उदाहरण मैंने अभी आपके सामने पेश किए हैं।

अब आते हैं,  उनकी निजी जिंदगी पर। यश चोपड़ा से दोस्ती का कुछ देर पहले जिक्र हुआ था। वह कितने भरोसेमंद दोस्त हैं, इसका नमूना देखिए। सिलसिला की कास्टिंग के दौरान यश ने स्मिता पाटिल और परवीन बॉबी का चयन किया था। शूटिंग शुरू होने ही वाली थी कि श्रीनगर में अमिताभ और यश के बीच फैसलाकुन बातचीत हुई। दोनों का मानना था कि इस रोल के लिए जया बच्चन और रेखा सबसे मौजूं हैं। संयोग से दोनों मान गईं। अब समस्या यह थी कि परवीन बॉबी को कैसे मना किया जाए? इसके लिए यश चोपड़ा ने शशि कपूर को चुना और उन्होंने इस कठिन दायित्व का पूरी जिम्मेदारी से निर्वाह किया। फिल्म बन गई और परवीन बॉबी से यश के संबंध भी बचे रहे।

अपनी निजी जिंदगी में वह अपनी पत्नी जेनिफर के प्रति भी बेहद समर्पित रहे। एक बार उन्होंने कहीं कहा कि विवाह के वक्त हम दोनों ने तय किया कि मैं और जेनिफर कभी एक-दूसरे की ओर पीठ करके नहीं सोएंगे। यही कारण है कि उनके बीच कोई मनमुटाव एक घंटे से ज्यादा नहीं चला। वे आजीवन प्रेमी-प्रेमिका ही बने रहे और सर्वाधिक ग्लैमरस हीरोइनों के साथ काम करने के बावजूद उनका ‘एक पत्नीव्रत’ कायम रहा। जेनिफर की मौत के बाद शशि कपूर टूट गए। वह सदैव संयम और अनुशासन का जीवन जीते रहे। उस जमाने के हीरो अपने शरीर को दुरुस्त रखने के लिए आज के नायकों जैसा जोर नहीं देते थे। खुद राज और शम्मी थुलथुल हो चले थे। शशि कपूर ने यहां भी अलग रहगुजर चुनी। वह नियमित तौर पर कम खाते और अपनी उम्र से हमेशा कम लगते।

जेनिफर के जाने के बाद कपूर खानदान के अन्य लोगों की तरह लगता है, वह भी दिमाग से ज्यादा अपने पेट की सुनने लगे। बढ़ते वजन के साथ बीमारियों ने उन्हें घेर लिया। जेनिफर के इंतकाल के बाद वह ऐसे जी रहे हैं, जैसे जिंदगी उनसे दूर हो गई हो। सुख-दुख हर इंसान के जीवन में आते हैं, परंतु उन्हें धीरता के साथ ग्रहण कर लेने की क्षमता कम लोगों में होती है। शशि कपूर ऐसे ही चुनिंदा लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आपको हमारा सलाम कपूर साहब।

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