शायद लोककथाएं यहीं से बननी शुरू होती हैं। अपने आखिरी मैच में कमाल की कप्तानी। एक बहती हुई बेहतरीन पारी। दुनिया की सबसे बड़ी ट्रॉफी अपने देश के नाम। अपने ही घर में खचाखच भरे ऐतिहासिक मैदान पर, तालियों के बीच साथियों के कंधे पर ‘विक्ट्री मार्च’ और अलविदा। क्या लमहा है यह! माइकल क्लार्क वनडे से विदा हो गए। इससे बेहतर विदाई की कल्पना और क्या हो सकती है? महान क्रिकेटरों की तरह उन्होंने भी शिखर पर रहते हुए अलविदा कहना बेहतर समझा। ताकि दुनिया कहे, ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।’ किसी भी महान खिलाड़ी को उसी वक्त विदाई लेनी चाहिए, जब लोगों को कसक हो। खेल को उनकी कमी खले। बेशक महान खिलाड़ी हैं क्लार्क! और ठीक वैसा ही बर्ताव उन्होंने किया है। इस बार का विश्व कप जब शुरू हुआ था, तब शायद ही किसी ने सोचा हो कि क्लार्क वनडे को अलविदा कह देंगे। यह ठीक है कि वह अपने शरीर की दिक्कतों से जूझ रहे थे। कमर दर्द और जांघों की मांसपेशियों के खिंचाव ने उन्हें परेशान कर दिया था। कमर की तो हाल ही में सजर्री हुई थी।उसकी वजह से वह भारत के साथ पूरी टेस्ट सीरीज नहीं खेल सके थे। लेकिन उन्होंने वापसी कर ली थी। और ठीकठाक फॉर्म में नजर भी आ रहे थे। फाइनल में तो उन्होंने बेहतरीन पारी खेली ही।
यों खबरें आ रही थीं कि क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उन्हें बांग्लादेश के मैच से पहले फिट होने का अल्टीमेटम दे दिया गया था। या फिर यह कि कोच डैरन लीमेन, नए कप्तान स्मिथ और चयन समिति के प्रमुख रोडनी मार्श के साथ उनके रिश्ते बिगड़ने लगे हैं। हो सकता है कि क्लार्क के इस फैसले में यह भी एक वजह हो। लेकिन शरीर भी एक सच्चाई है। वनडे खेलना कई मायनों में टेस्ट क्रिकेट से ज्यादा शरीर को तोड़ता है। यों उनकी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन शरीर की दिक्कतें दिखने लगी हैं। सो, उनका यह फैसला समझ में आता है। भारत से सेमीफाइनल जीतते ही उन्हें लगा कि अब अलविदा कहने का सही समय है। और आनन फानन में उन्होंने यह घोषणा कर दी। 12 साल पहले क्लार्क का वनडे करियर इंग्लैंड के खिलाफ एडिलेड में शुरू हुआ था। उस रात बेहद कम स्कोर के मैच में उन्होंने आउट हुए बिना 39 रन बनाए थे। लेफ्ट आर्म स्पिन करते हुए एक विकेट भी ले लिया था। उसी मैच से समझ में आ गया था कि एक महान खिलाड़ी ने क्रिकेट की दुनिया में दस्तक दे दी है। लेकिन वह कतई ऑस्ट्रेलियाई नहीं दिखलाई पड़े थे।
आम तौर पर ऑस्ट्रेलियाई पावर बैटिंग के लिए जाने जाते हैं। क्लार्क को देखकर वह ‘ऑस्ट्रेलियन फील’ नहीं आती। वह ‘टिपिकल ऑस्ट्रेलियाई’ हैं ही नहीं। ऑस्ट्रेलियाई तो अपनी ‘किलर इंस्टिंक्ट’ को चेहरे पर लिए खेलते हैं। गाली-गलौज, बदतमीजी, अक्खड़पन उनकी पूरी ‘बॉडी लैंग्वेज’ से टपकता है। ऐसे में, माइकल क्लार्क मुस्कराते हुए किसी और ग्रह के नजर आते हैं। ऑस्ट्रेलियाई टीम को देखकर अक्सर सर्जन याद आते हैं। महसूस होता है कि आप सजर्नों से भरपूर किसी टीम को देख रहे हैं। उनके लिए ‘क्लीनिकल अप्रोच’ की बात की जाती है। लेकिन क्लार्क को देखकर हमेशा कोई कलाकार याद आता है। मानो बल्ला उनके लिए कोई तलवार या चाकू न हो। कोई कूची हो। जो हरे मैदान के कैनवस पर चल रही है। अलग-अलग स्ट्रोक लगाती हुई। रनों की बौछार हो रही है या रंगों की कभी-कभी दुविधा पैदा करती हुई।
यह संयोग नहीं है कि पहली बार उन्हें बैटिंग करते देखकर मार्क वॉ की याद आई थी। मार्क एकदम अलग तरह के बैट्समैन थे। अपने जुड़वां भाई स्टीव से बिल्कुल अलग। स्टीव की पूरी शख्सियत में ऑस्ट्रेलियाई दिखता था। एक अड़ियल शख्सियत, चाहे बैटिंग हो या बॉलिंग। मार्क तो अलग ही दुनिया के बैट्समैन नजर आते थे। कुछ-कुछ एशियाई टच आर्टिस्ट की तरह। क्लार्क उसी परंपरा के बैट्समैन हैं। लेकिन क्लार्क के बाद उस परंपरा में कोई नजर नहीं आ रहा है। क्लार्क की क्रिकेटीय परवरिश में एक हिन्दुस्तानी मूल के शख्स की भूमिका रही है। उनके शुरुआती कोच नील डीकोस्टा के माता पिता की जन्मभूमि चेन्नई रही है। नील ने ही माइकल के पिता को मनाया था कि वह पढ़ाई छोड़कर क्रिकेट पर ध्यान दें। उनके माता-पिता ने नील का कहना माना। बाकी सब तो इतिहास है। अगर क्लार्क की बैटिंग में कुछ हिन्दुस्तानीपन नजर आता है, तो कोई अजीब बात नहीं है। नील का असर कहीं तो दिखाई पड़ना था न। शायद इसीलिए उनकी बैटिंग में कभी विश्वनाथ, कभी अजहर, तो कभी लक्ष्मण की परछाईं नजर आ जाती है। उनके स्क्वेयर कट, कवर या स्ट्रेट ड्राइव और फ्लिक में कलाकारी ज्यादा झलकती है। मानो पावर से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
एक चकल्लस यह भी है कि ऑस्ट्रेलियाई आका वनडे में उस किस्म के क्रिकेट का कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं। क्रिकेट बहुत तेजी से पावर गेम में बदलने लगा है। जहां कलाकारों को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। ट्वंटी-20 से तो उन्हें धकेल ही दिया गया है। यह संयोग नहीं कि उस फटाफट क्रिकेट में क्लार्क जैसा बैट्समैन भी अपने को खोया हुआ-सा पा रहा है। उन्होंने पहले ही अपने को उससे अलग कर लिया है। आज नहीं, तो कल उन्हें वनडे क्रिकेट में भी अजनबीपन का एहसास होना ही था। उस क्रिकेट को पावर गेम में बदलते देखना उन्हें रास नहीं आ रहा। यही वजह है कि उन्होंने आईसीसी से क्रिकेट में बदलाव की अपील की है, ताकि वह महज बल्ला मेले में तब्दील न हो जाए। एक ऐसा क्रिकेट, जिसमें कोई बॉलर होने की तमन्ना ही न करे। वनडे की एक बेहतरीन टीम स्टीव स्मिथ को देकर वह विदा हो रहे हैं। बीच में ऑस्ट्रेलियाई टीम को काफी मशक्कत करनी पड़ी है। उसको धीरे-धीरे फिर से बनाया है क्लार्क ने।
रिकी पॉन्टिंग से उन्हें जो टीम मिली थी, उससे बेहतर टीम देकर वह जा रहे हैं। एक चैंपियन टीम स्मिथ को विरासत में मिल रही है। अब 23 नंबर की पीली जर्सी मैदान पर दिख तो सकती है, लेकिन उस जर्सी की आत्मा क्लार्क अब उसमें नहीं होंगे। शेन वॉर्न ने रिटायर होते हुए अपनी लकी नंबर की जर्सी क्लार्क को दी थी। शेन अपनी तरह के कलाकार रहे। माइकल अपनी तरह के कलाकार हैं। शेन ने उसे पहनकर क्रिकेट को एक अलग आयाम दिया था। अब माइकल भी क्रिकेट को एक अलग ऊंचाई देकर विदा हो रहे हैं। वह टेस्ट खेलते रहेंगे। हम उन्हें वहां देख सकते हैं। अभी तो यही राहत की बात है। उनकी मुस्कराहट, सिल्की स्ट्रोक अब रंगीन कपड़ों में नहीं दिखलाई पड़ेंगे। सफेद कपड़ों में वह खेलते रहेंगे। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो उन्होंने क्रिकेट से वानप्रस्थ ले लिया हो। संन्यास भी बहुत दूर नहीं लगता। लेकिन हमारी चाहत है कि उस संन्यास के हम जल्द गवाह न बनें।
यों खबरें आ रही थीं कि क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उन्हें बांग्लादेश के मैच से पहले फिट होने का अल्टीमेटम दे दिया गया था। या फिर यह कि कोच डैरन लीमेन, नए कप्तान स्मिथ और चयन समिति के प्रमुख रोडनी मार्श के साथ उनके रिश्ते बिगड़ने लगे हैं। हो सकता है कि क्लार्क के इस फैसले में यह भी एक वजह हो। लेकिन शरीर भी एक सच्चाई है। वनडे खेलना कई मायनों में टेस्ट क्रिकेट से ज्यादा शरीर को तोड़ता है। यों उनकी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन शरीर की दिक्कतें दिखने लगी हैं। सो, उनका यह फैसला समझ में आता है। भारत से सेमीफाइनल जीतते ही उन्हें लगा कि अब अलविदा कहने का सही समय है। और आनन फानन में उन्होंने यह घोषणा कर दी। 12 साल पहले क्लार्क का वनडे करियर इंग्लैंड के खिलाफ एडिलेड में शुरू हुआ था। उस रात बेहद कम स्कोर के मैच में उन्होंने आउट हुए बिना 39 रन बनाए थे। लेफ्ट आर्म स्पिन करते हुए एक विकेट भी ले लिया था। उसी मैच से समझ में आ गया था कि एक महान खिलाड़ी ने क्रिकेट की दुनिया में दस्तक दे दी है। लेकिन वह कतई ऑस्ट्रेलियाई नहीं दिखलाई पड़े थे।
आम तौर पर ऑस्ट्रेलियाई पावर बैटिंग के लिए जाने जाते हैं। क्लार्क को देखकर वह ‘ऑस्ट्रेलियन फील’ नहीं आती। वह ‘टिपिकल ऑस्ट्रेलियाई’ हैं ही नहीं। ऑस्ट्रेलियाई तो अपनी ‘किलर इंस्टिंक्ट’ को चेहरे पर लिए खेलते हैं। गाली-गलौज, बदतमीजी, अक्खड़पन उनकी पूरी ‘बॉडी लैंग्वेज’ से टपकता है। ऐसे में, माइकल क्लार्क मुस्कराते हुए किसी और ग्रह के नजर आते हैं। ऑस्ट्रेलियाई टीम को देखकर अक्सर सर्जन याद आते हैं। महसूस होता है कि आप सजर्नों से भरपूर किसी टीम को देख रहे हैं। उनके लिए ‘क्लीनिकल अप्रोच’ की बात की जाती है। लेकिन क्लार्क को देखकर हमेशा कोई कलाकार याद आता है। मानो बल्ला उनके लिए कोई तलवार या चाकू न हो। कोई कूची हो। जो हरे मैदान के कैनवस पर चल रही है। अलग-अलग स्ट्रोक लगाती हुई। रनों की बौछार हो रही है या रंगों की कभी-कभी दुविधा पैदा करती हुई।
यह संयोग नहीं है कि पहली बार उन्हें बैटिंग करते देखकर मार्क वॉ की याद आई थी। मार्क एकदम अलग तरह के बैट्समैन थे। अपने जुड़वां भाई स्टीव से बिल्कुल अलग। स्टीव की पूरी शख्सियत में ऑस्ट्रेलियाई दिखता था। एक अड़ियल शख्सियत, चाहे बैटिंग हो या बॉलिंग। मार्क तो अलग ही दुनिया के बैट्समैन नजर आते थे। कुछ-कुछ एशियाई टच आर्टिस्ट की तरह। क्लार्क उसी परंपरा के बैट्समैन हैं। लेकिन क्लार्क के बाद उस परंपरा में कोई नजर नहीं आ रहा है। क्लार्क की क्रिकेटीय परवरिश में एक हिन्दुस्तानी मूल के शख्स की भूमिका रही है। उनके शुरुआती कोच नील डीकोस्टा के माता पिता की जन्मभूमि चेन्नई रही है। नील ने ही माइकल के पिता को मनाया था कि वह पढ़ाई छोड़कर क्रिकेट पर ध्यान दें। उनके माता-पिता ने नील का कहना माना। बाकी सब तो इतिहास है। अगर क्लार्क की बैटिंग में कुछ हिन्दुस्तानीपन नजर आता है, तो कोई अजीब बात नहीं है। नील का असर कहीं तो दिखाई पड़ना था न। शायद इसीलिए उनकी बैटिंग में कभी विश्वनाथ, कभी अजहर, तो कभी लक्ष्मण की परछाईं नजर आ जाती है। उनके स्क्वेयर कट, कवर या स्ट्रेट ड्राइव और फ्लिक में कलाकारी ज्यादा झलकती है। मानो पावर से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
एक चकल्लस यह भी है कि ऑस्ट्रेलियाई आका वनडे में उस किस्म के क्रिकेट का कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं। क्रिकेट बहुत तेजी से पावर गेम में बदलने लगा है। जहां कलाकारों को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। ट्वंटी-20 से तो उन्हें धकेल ही दिया गया है। यह संयोग नहीं कि उस फटाफट क्रिकेट में क्लार्क जैसा बैट्समैन भी अपने को खोया हुआ-सा पा रहा है। उन्होंने पहले ही अपने को उससे अलग कर लिया है। आज नहीं, तो कल उन्हें वनडे क्रिकेट में भी अजनबीपन का एहसास होना ही था। उस क्रिकेट को पावर गेम में बदलते देखना उन्हें रास नहीं आ रहा। यही वजह है कि उन्होंने आईसीसी से क्रिकेट में बदलाव की अपील की है, ताकि वह महज बल्ला मेले में तब्दील न हो जाए। एक ऐसा क्रिकेट, जिसमें कोई बॉलर होने की तमन्ना ही न करे। वनडे की एक बेहतरीन टीम स्टीव स्मिथ को देकर वह विदा हो रहे हैं। बीच में ऑस्ट्रेलियाई टीम को काफी मशक्कत करनी पड़ी है। उसको धीरे-धीरे फिर से बनाया है क्लार्क ने।
रिकी पॉन्टिंग से उन्हें जो टीम मिली थी, उससे बेहतर टीम देकर वह जा रहे हैं। एक चैंपियन टीम स्मिथ को विरासत में मिल रही है। अब 23 नंबर की पीली जर्सी मैदान पर दिख तो सकती है, लेकिन उस जर्सी की आत्मा क्लार्क अब उसमें नहीं होंगे। शेन वॉर्न ने रिटायर होते हुए अपनी लकी नंबर की जर्सी क्लार्क को दी थी। शेन अपनी तरह के कलाकार रहे। माइकल अपनी तरह के कलाकार हैं। शेन ने उसे पहनकर क्रिकेट को एक अलग आयाम दिया था। अब माइकल भी क्रिकेट को एक अलग ऊंचाई देकर विदा हो रहे हैं। वह टेस्ट खेलते रहेंगे। हम उन्हें वहां देख सकते हैं। अभी तो यही राहत की बात है। उनकी मुस्कराहट, सिल्की स्ट्रोक अब रंगीन कपड़ों में नहीं दिखलाई पड़ेंगे। सफेद कपड़ों में वह खेलते रहेंगे। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो उन्होंने क्रिकेट से वानप्रस्थ ले लिया हो। संन्यास भी बहुत दूर नहीं लगता। लेकिन हमारी चाहत है कि उस संन्यास के हम जल्द गवाह न बनें।
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