चौबीस दिसंबर, 1924 को गुजरात के वलसाड में जन्मे नारायण देसाई की मृत्यु रविवार को गुजरात में ही, सूरत के निकट वेडछी के संपूर्ण क्रांति विद्यालय में हुई। तो उम्र हुई नब्बे साल की-एकदम पकी उम्र! इस उम्र के किसी की मृत्यु न तो अकाल मृत्यु मानी जा सकती है, न ऐसी मृत्यु पर शोक का कोई कारण होना चाहिए। यह जानने के बाद तो हर्गिज नहीं कि पिछले 10 दिसंबर से वह मस्तिष्क आघात के कारण प्राय: चेतना शून्य ही थे। नारायण देसाई गांधी के कारखाने में गढ़े गए एक अनोखे इंसान थे। इतिहास में विराट हस्तियों की कमी नहीं है। कमी है, तो सेतुओं की, जो दिलों, धाराओं, प्रवाहों और एकाधिक बार इतिहास के कालखंडों को जोड़ते हैं। नारायण देसाई ऐसे ही एक पुल थे।
वह उन बिरले लोगों में थे, जो महात्मा गांधी, विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी विराट व मौलिक प्रतिभाओं के बीच सेतुबंध का काम करते थे। गांधी के पुत्रवत निजी सचिव महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई गांधी के ‘बाबला' थे और उनकी गोद में खेले-पढ़े-बढ़े थे। गांधी की हत्या होने तक उन्होंने वह जीवन दिशा खोज ली थी, जिसकी तलाश में हम जीवन भर भटकते हैं। इसलिए गांधी के बाद, गांधी की अहिंसक क्रांति की परिकल्पना को लेकर जब विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया, तो नारायण देसाई उसमें सहजता से समा गए। जयप्रकाश का साथ मिला, तो नारायण देसाई काफी खिले। दुनिया के शांतिवादियों में उनकी अग्रिम जगह बनी और युद्ध विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का उन्होंने मार्गदर्शन भी किया।
जयप्रकाश गए, तो गांधी क्रांति की धारा कुछ हतप्रभ हुई और कुछ भटकी भी। उस वक्त जिन कुछ लोगों ने आगे आकर उसे संभालने और दिशा देने का काम किया, उनमें ओडिशा के मनमोहन चौधरी, राजस्थान के सिद्धराज ढड्ढा, महाराष्ट्र के ठाकुरदास बंग के साथ नारायण देसाई भी एक थे। सूरत के निकट वेडछी गांव में उन्होंने संपूर्ण क्रांति का प्रशिक्षण देने हेतु एक विद्यालय प्रारंभ किया-संपूर्ण क्रांति विद्यालय! युवाओं को अहिंसक क्रांति से परिचित कराने की उनकी यह योजनाबद्ध कोशिश थी। प्रकृति से वह शिक्षक थे, वृत्ति से शांति सैनिक और विचारों से क्रांतिकारी। पिछले कुछ वर्षों से देश भर में गोलबंद हो रही प्रतिक्रियावादी ताकतों को भांपते हुए वह उसकी अहिंसक काट खोजने में लगे थे। वह राम जन्मभूमि विवाद के समय भी विवेक की आवाज लगाते रहे, फिर अयोध्या पहुंच कर, उपवास-धरना के कार्यक्रम में शरीक हुए और पिटाई आदि से गुजरे। और फिर गुजरात में 2002 का नरसंहार हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लगा कि उनके मुख्यमंत्री ने राजधर्म का पालन नहीं किया, तो नारायण देसाई को लगा कि राष्ट्रधर्म का पालन करने में चूक हुई। तो परिमार्जन क्या? उन्हें भीतर से रास्ता मिला और वह गांधी-कथा लेकर समाज के सामने उपस्थित हुए। उन्हें गांधी की जीवन-गाथा में ही एक हथियार नजर आया और वह उस हथियार को लेकर लोगों के बीच जाने लगे।
नारायण देसाई दिल के मरीज थे। उनकी ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी। वह पेसमेकर पर चलते थे। लेकिन अपना चरखा उठाए और अपना चरखा चलाते वह कितनी ही बार काल की गति को पीछे छोड़ते रहे। लेकिन हर स्पर्धा का अंत होता ही है। काल के साथ की अपनी स्पर्धा उन्होंने समाप्त कर दी। संपूर्ण क्रांति की प्रतिबद्धता को जैसे रेखांकित करते हुए संपूर्ण क्रांति विद्यालय में उन्होंने अंतिम विश्राम लिया। वेडछी गांव से सटकर बहने वाली वाल्मिकी नदी के किनारे सजाई चिता के सहारे वह अपने गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के पास पहुंच गए।
वह उन बिरले लोगों में थे, जो महात्मा गांधी, विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी विराट व मौलिक प्रतिभाओं के बीच सेतुबंध का काम करते थे। गांधी के पुत्रवत निजी सचिव महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई गांधी के ‘बाबला' थे और उनकी गोद में खेले-पढ़े-बढ़े थे। गांधी की हत्या होने तक उन्होंने वह जीवन दिशा खोज ली थी, जिसकी तलाश में हम जीवन भर भटकते हैं। इसलिए गांधी के बाद, गांधी की अहिंसक क्रांति की परिकल्पना को लेकर जब विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया, तो नारायण देसाई उसमें सहजता से समा गए। जयप्रकाश का साथ मिला, तो नारायण देसाई काफी खिले। दुनिया के शांतिवादियों में उनकी अग्रिम जगह बनी और युद्ध विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का उन्होंने मार्गदर्शन भी किया।
जयप्रकाश गए, तो गांधी क्रांति की धारा कुछ हतप्रभ हुई और कुछ भटकी भी। उस वक्त जिन कुछ लोगों ने आगे आकर उसे संभालने और दिशा देने का काम किया, उनमें ओडिशा के मनमोहन चौधरी, राजस्थान के सिद्धराज ढड्ढा, महाराष्ट्र के ठाकुरदास बंग के साथ नारायण देसाई भी एक थे। सूरत के निकट वेडछी गांव में उन्होंने संपूर्ण क्रांति का प्रशिक्षण देने हेतु एक विद्यालय प्रारंभ किया-संपूर्ण क्रांति विद्यालय! युवाओं को अहिंसक क्रांति से परिचित कराने की उनकी यह योजनाबद्ध कोशिश थी। प्रकृति से वह शिक्षक थे, वृत्ति से शांति सैनिक और विचारों से क्रांतिकारी। पिछले कुछ वर्षों से देश भर में गोलबंद हो रही प्रतिक्रियावादी ताकतों को भांपते हुए वह उसकी अहिंसक काट खोजने में लगे थे। वह राम जन्मभूमि विवाद के समय भी विवेक की आवाज लगाते रहे, फिर अयोध्या पहुंच कर, उपवास-धरना के कार्यक्रम में शरीक हुए और पिटाई आदि से गुजरे। और फिर गुजरात में 2002 का नरसंहार हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लगा कि उनके मुख्यमंत्री ने राजधर्म का पालन नहीं किया, तो नारायण देसाई को लगा कि राष्ट्रधर्म का पालन करने में चूक हुई। तो परिमार्जन क्या? उन्हें भीतर से रास्ता मिला और वह गांधी-कथा लेकर समाज के सामने उपस्थित हुए। उन्हें गांधी की जीवन-गाथा में ही एक हथियार नजर आया और वह उस हथियार को लेकर लोगों के बीच जाने लगे।
नारायण देसाई दिल के मरीज थे। उनकी ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी। वह पेसमेकर पर चलते थे। लेकिन अपना चरखा उठाए और अपना चरखा चलाते वह कितनी ही बार काल की गति को पीछे छोड़ते रहे। लेकिन हर स्पर्धा का अंत होता ही है। काल के साथ की अपनी स्पर्धा उन्होंने समाप्त कर दी। संपूर्ण क्रांति की प्रतिबद्धता को जैसे रेखांकित करते हुए संपूर्ण क्रांति विद्यालय में उन्होंने अंतिम विश्राम लिया। वेडछी गांव से सटकर बहने वाली वाल्मिकी नदी के किनारे सजाई चिता के सहारे वह अपने गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के पास पहुंच गए।
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