प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर काम को तामझाम और प्रचार के साथ करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने हमेशा उस पुरानी कहावत पर यकीन किया है, जिसे बाद में सिगरेट के एक भारतीय ब्रांड ने लोकप्रिय विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल किया-लिव लाइफ किंग साइज। यहां तक कि पिछले लगभग नौ महीनों में, जब से वह प्रधानमंत्री हैं, उनका हर कदम नाटकीय और सभी घोषणाएं जोर-शोर से की गई हैं। इस पृष्ठभूमि में यह अजीब ही है कि मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट धमाकेदार और बड़े सुधार पर केंद्रित नहीं है। इसके बजाय, जैसा कि कई टिप्पणीकारों ने रेखांकित किया है, यह बजट कई छोटे-छोटे उपायों का समन्वित रूप है। नतीजतन यह बजट मोदी के समग्र व्यक्तित्व और कार्यशैली से अलग है। यह मोदी की कार्यशैली में आए बदलाव का भी संकेत देता है, जहां वह महसूस करते हैं कि राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपनाए गए दृष्टिकोण की तुलना में केंद्र में काम करते हुए उसमें कुछ संशोधन किया जाना है।
देश की कई सरकारें देश की अर्थनीति का मोड़ घुमा देने वाले बजट के लिए जानी जाती हैं, जो समय के साथ उनकी स्थायी पहचान बन गया। पीवी नरसिंह राव ने अपनी सरकार में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया, हालांकि वह चंद्रशेखर के आर्थिक सलाहकार थे। इस तरह नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने 1991 के उस युगांतरकारी बजट की पटकथा लिखी, जिसने भारत में उदारीकरण की शुरुआत की। एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर पी चिदंबरम ने अपना पहला बजट पेश किया, जिसे निर्विवाद रूप से 'ड्रीम बजट' कहा जाता है, जिसका प्रभाव ऐसा था कि वाजपेयी सरकार में यशवंत सिन्हा जब वित्त मंत्री बने, तो उन्होंने भी शुरुआती कुछ वर्षों में उसी का अनुकरण किया।
सिंडिकेट से मुकाबले के दौरान इंदिरा गांधी ने राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे आर्थिक उपायों का सहारा लिया था। ये सभी उदाहरण एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करते हैं-हमारे देश में सरकारें अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में साहसिक कदम उठाती हैं। एक सर्वमान्य धारणा थी कि यदि मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक सुधार लाना है और निर्णायक ढंग से काम करना है, तो उसे कार्यकाल की शुरुआत में ही कुछ ठोस करना होगा। अगर बड़े आर्थिक सुधारों की पहल प्रारंभ में नहीं की गई, तो बाद में ऐसा करने की संभावना बहुत कम है।
मैंने पहले भी कहा था कि बजट सत्र मोदी के कार्यकाल के निर्णायक दौर की शुरुआत होगा। ऐसा सिर्फ बजट के कारण नहीं है, बल्कि इस सत्र में विकास और सुधार से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों पर भी राजनीतिक घमासान देखने को मिलेगा। यह बजट सत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि मोदी के प्रधानमंत्री काल में यह पहला मौका है, जब संसद का यह सत्र उन्हें लगे चुनावी और व्यक्तिगत झटके के बाद शुरू हुआ है। यह झटका सिर्फ दिल्ली की हार के कारण नहीं है, बल्कि पिछले कुछ हफ्तों में संघ परिवार के भीतर भी मोदी का नियंत्रण कमजोर हुआ है, क्योंकि संयम बरतने की उनकी अपील के बावजूद संघ के शीर्ष नेताओं ने लगातार भड़काऊ बयान दिए हैं। �
गौर करने लायक है कि भारतीय राजनीति में विगत दो दशक या उससे अधिक की अवधि में पहली बार किसी सरकार के पहले पूर्ण बजट में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा।
वर्ष 1991 में मनमोहन सिंह ने जब बजट पेश किया था, तब आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक वर्ग के बीच भी बहुत कम जागरूकता थी। लेकिन अब राजनीति काफी जटिल बन गई है और चूंकि आम लोग भी आर्थिक मुद्दों की गहन पड़ताल करते हैं, ऐसे में सरकार के पास चुनौतीपूर्ण सवालों से बचने का बहुत कम मौका होता है। इसे सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी स्वीकार किया है। आर्थिक सर्वे, और बाद में मीडिया से बातचीत में भी उन्होंने बताया कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से वैश्विक स्तर पर बड़े आर्थिक सुधार बड़े संकट के दौरान या उसके बाद ही शुरू हुए हैं। हालांकि उनका यह भी कहना था कि चीन जैसे अधिनायकवादी तंत्र के विपरीत, जहां ऐसे सुधार बाध्यकारी हैं, लोकतंत्र में ऐसे सुधार ज्यादातर अपवादस्वरूप ही होते हैं। मसलन, 1991 में भारत भुगतान संतुलन के मोर्चे पर बड़े संकट से गुजर रहा था, इसीलिए नरसिंह राव सरकार ने उदार आर्थिक नीतियों की शुरुआत की। फिर पहले की तुलना में भारत में नियामक प्राधिकरणों की संख्या आज बहुत अधिक है, इसलिए भी शायद बड़ा कदम उठाने की बहुत जरूरत नहीं।
ऐसे में, कोई भी सरकार बजट में बड़ा कदम उठाने के बजाय छोटे-छोटे उपायों के जरिये अर्थव्यवस्था को गति देने का काम करना ज्यादा पसंद करती है; जैसे क्रिकेट में एक-एक रन लेकर स्कोरबोर्ड को गतिमान बनाए रखा जाता है। जाहिर है, यह बजट में चौके-छक्के मारने का समय नहीं है। ये ही छोटे-छोटे उपाय बड़े आर्थिक सुधारों का काम करते हैं। मोदी ने इसे माना है और राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान जोर देकर कहा भी कि शुरू से ही उनकी सरकार ने छोटे-छोटे कदम उठाने पर जोर दिया है। कई मायनों में यह वही तरीका है, जिसे मोदी ने गुजरात में अपनाया था। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने सबसे पहले जो कदम उठाया, वह था ऊर्जा क्षेत्र में सुधार और मरणासन्न नौकरशाही में जान फूंकना।
बिना धूम-धड़ाके वाला यह बजट यह संकेत भी है कि मोदी शांत प्रशासक की अपनी पुरानी शैली में लौट रहे हैं। मोदी की सफलता उनके व्यक्तित्व के इन दोनों पहलुओं को नियंत्रित रखने की क्षमता पर निर्भर करेगी। यदि वह अगले चुनाव तक अपनी सरकार को सुरक्षित रखना चाहते हैं, और अगला कार्यकाल भी चाहते हैं, तो उन्हें प्रशासक की शांत छवि को तड़क-भड़क वाली राजनेता की छवि से अलग रखना होगा।
देश की कई सरकारें देश की अर्थनीति का मोड़ घुमा देने वाले बजट के लिए जानी जाती हैं, जो समय के साथ उनकी स्थायी पहचान बन गया। पीवी नरसिंह राव ने अपनी सरकार में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया, हालांकि वह चंद्रशेखर के आर्थिक सलाहकार थे। इस तरह नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने 1991 के उस युगांतरकारी बजट की पटकथा लिखी, जिसने भारत में उदारीकरण की शुरुआत की। एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर पी चिदंबरम ने अपना पहला बजट पेश किया, जिसे निर्विवाद रूप से 'ड्रीम बजट' कहा जाता है, जिसका प्रभाव ऐसा था कि वाजपेयी सरकार में यशवंत सिन्हा जब वित्त मंत्री बने, तो उन्होंने भी शुरुआती कुछ वर्षों में उसी का अनुकरण किया।
सिंडिकेट से मुकाबले के दौरान इंदिरा गांधी ने राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे आर्थिक उपायों का सहारा लिया था। ये सभी उदाहरण एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करते हैं-हमारे देश में सरकारें अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में साहसिक कदम उठाती हैं। एक सर्वमान्य धारणा थी कि यदि मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक सुधार लाना है और निर्णायक ढंग से काम करना है, तो उसे कार्यकाल की शुरुआत में ही कुछ ठोस करना होगा। अगर बड़े आर्थिक सुधारों की पहल प्रारंभ में नहीं की गई, तो बाद में ऐसा करने की संभावना बहुत कम है।
मैंने पहले भी कहा था कि बजट सत्र मोदी के कार्यकाल के निर्णायक दौर की शुरुआत होगा। ऐसा सिर्फ बजट के कारण नहीं है, बल्कि इस सत्र में विकास और सुधार से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों पर भी राजनीतिक घमासान देखने को मिलेगा। यह बजट सत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि मोदी के प्रधानमंत्री काल में यह पहला मौका है, जब संसद का यह सत्र उन्हें लगे चुनावी और व्यक्तिगत झटके के बाद शुरू हुआ है। यह झटका सिर्फ दिल्ली की हार के कारण नहीं है, बल्कि पिछले कुछ हफ्तों में संघ परिवार के भीतर भी मोदी का नियंत्रण कमजोर हुआ है, क्योंकि संयम बरतने की उनकी अपील के बावजूद संघ के शीर्ष नेताओं ने लगातार भड़काऊ बयान दिए हैं। �
गौर करने लायक है कि भारतीय राजनीति में विगत दो दशक या उससे अधिक की अवधि में पहली बार किसी सरकार के पहले पूर्ण बजट में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा।
वर्ष 1991 में मनमोहन सिंह ने जब बजट पेश किया था, तब आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक वर्ग के बीच भी बहुत कम जागरूकता थी। लेकिन अब राजनीति काफी जटिल बन गई है और चूंकि आम लोग भी आर्थिक मुद्दों की गहन पड़ताल करते हैं, ऐसे में सरकार के पास चुनौतीपूर्ण सवालों से बचने का बहुत कम मौका होता है। इसे सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी स्वीकार किया है। आर्थिक सर्वे, और बाद में मीडिया से बातचीत में भी उन्होंने बताया कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से वैश्विक स्तर पर बड़े आर्थिक सुधार बड़े संकट के दौरान या उसके बाद ही शुरू हुए हैं। हालांकि उनका यह भी कहना था कि चीन जैसे अधिनायकवादी तंत्र के विपरीत, जहां ऐसे सुधार बाध्यकारी हैं, लोकतंत्र में ऐसे सुधार ज्यादातर अपवादस्वरूप ही होते हैं। मसलन, 1991 में भारत भुगतान संतुलन के मोर्चे पर बड़े संकट से गुजर रहा था, इसीलिए नरसिंह राव सरकार ने उदार आर्थिक नीतियों की शुरुआत की। फिर पहले की तुलना में भारत में नियामक प्राधिकरणों की संख्या आज बहुत अधिक है, इसलिए भी शायद बड़ा कदम उठाने की बहुत जरूरत नहीं।
ऐसे में, कोई भी सरकार बजट में बड़ा कदम उठाने के बजाय छोटे-छोटे उपायों के जरिये अर्थव्यवस्था को गति देने का काम करना ज्यादा पसंद करती है; जैसे क्रिकेट में एक-एक रन लेकर स्कोरबोर्ड को गतिमान बनाए रखा जाता है। जाहिर है, यह बजट में चौके-छक्के मारने का समय नहीं है। ये ही छोटे-छोटे उपाय बड़े आर्थिक सुधारों का काम करते हैं। मोदी ने इसे माना है और राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान जोर देकर कहा भी कि शुरू से ही उनकी सरकार ने छोटे-छोटे कदम उठाने पर जोर दिया है। कई मायनों में यह वही तरीका है, जिसे मोदी ने गुजरात में अपनाया था। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने सबसे पहले जो कदम उठाया, वह था ऊर्जा क्षेत्र में सुधार और मरणासन्न नौकरशाही में जान फूंकना।
बिना धूम-धड़ाके वाला यह बजट यह संकेत भी है कि मोदी शांत प्रशासक की अपनी पुरानी शैली में लौट रहे हैं। मोदी की सफलता उनके व्यक्तित्व के इन दोनों पहलुओं को नियंत्रित रखने की क्षमता पर निर्भर करेगी। यदि वह अगले चुनाव तक अपनी सरकार को सुरक्षित रखना चाहते हैं, और अगला कार्यकाल भी चाहते हैं, तो उन्हें प्रशासक की शांत छवि को तड़क-भड़क वाली राजनेता की छवि से अलग रखना होगा।
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