Thursday, 19 March 2015

गांधी विचार के हत्यारों के खिलाफ @प्रीतीश नंदी


दो अक्टूबर 1983 को मोहनदास करमचंद गांधी की विरासत पर वस्तुनिष्ठ पुनरावलोकन के साथ इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के संपादक के रूप में मेरा पत्रकारीय कॅरिअर शुरू हुआ। आपातकाल और उथल-पुथल वाले सत्तर के दशक की पृष्ठभूमि में कवर स्टोरी लिखी थी लंदन स्थित पाकिस्तानी लेखक और मार्क्स तथा सशस्त्र क्रांति की कसमें खाने वाले तारिक अली ने। वे उन युवा गर्म दिमागों में से थे, जिन्होंने 1968 के वसंत में पेरिस में छात्र विद्रोह का नेतृत्व किया और जो जल्द ही यूरोप के कई हिस्सों में फैल गया। कवर स्टोरी को जबर्दस्त प्रतिसाद मिला (और इसने मैगज़ीन में जान फूंक दी, जो तब तक बंद पड़ी थी), इसलिए नहीं कि तारिक ने गांधी की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया बल्कि इसलिए कि उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि क्या स्वतंत्र भारत को अब उनके विचारों के साथ जीने की आवश्यकता है या उसे अपने भविष्य की नए सिरे से कल्पना करना चाहिए। उन्होंने प्रासंगिकता पर सवाल उठाया था।
यह तीन दशक पहले की बात है। मजे की बात है कि काल्पनिक शत्रुओं से लड़ने की ओर झुकाव रखने के लिए ख्यात जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने पिछले हफ्ते अपने फेसबुक ब्लॉग में यही प्रश्न उठाया। किंतु जज महोदय के कहे में तारिक की भावनात्मक निष्ठा और बौद्धिक प्रखरता का अभाव था। इसकी बजाय वे गांधी पर मूर्खतापूर्ण, उतावला प्रहार कर बैठे। दुर्भाग्य से यह कुछ राजनीतिक हलकों में महात्मा को एक और ऐसे कांग्रेसी के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशों से मिलता है, जो स्वतंत्रता हासिल करने का सारा श्रेय ले गए, जबकि असली संघर्ष तो दूसरों ने किया और इतिहास ने उन असली योद्धाओं की सुविधाजनक रूप से उपेक्षा कर दी।
जस्टिस काटजू के कई हीरो हैं। वे ज्यादातर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सूर्या सेन और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी हैं, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़े और उन्होंने अपने प्राण अर्पित कर दिए। काटजू दलीलें देते हैं कि गांधीजी असल में ब्रिटिश एजेंट थे, जिन्होंने सत्याग्रह का बेतुका विचार (यह उनका कहना है, मेरा नहीं) अपना लिया ताकि स्वतंत्रता संघर्ष को उसके असली मार्ग से भटकाया जा सके। परिणाम? देश का रक्तरंजित विभाजन और एक स्वतंत्र राष्ट्र की बजाय दो लड़ते-झगड़ते राष्ट्र।
यह दलील सतही तौर पर सही लगती है, जैसी कि काटजू की ज्यादातर दलीलें इन दिनों नजर आती हैं। इसके बाद भी मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं होती यदि इन दलीलों का उद्‌देश्य गांधी के विचारों पर ताजा बहस खड़ी करने का होता। दलीलें यह देखने के लिए दीं होती कि क्या अब बिल्कुल अलग किस्म के वातावरण में गांधी के विचार अब भी प्रासंगिक हैं। इसकी बजाय लगता यही है कि जस्टिस काटजू उन लोगों की भीड़ में शामिल हो गए, जो हमारे लोकजीवन में गांधी के महत्व को जल्दी से मिटा देना चाहते हैं। ब्लॉग बहुत हल्का, मूर्खतापूर्ण और बुरी दलीलों से युक्त है। क्योंकि आप और मैं गांधी के बारे में कुछ भी सोचें, लेकिन उन्हें ऐसा ब्रिटिश एजेंट बताना, जिसका इरादा स्वतंत्रता हासिल करना नहीं बल्कि भारत को विभाजित करना था, बहुत ही मूर्खतापूर्ण लगता है- जस्टिस काटजू के मानदंडों से भी।
सारे स्वतंत्रता संघर्षों की तरह हमारा संघर्ष भी बहुत जटिल था। कई संघर्ष जारी थे और सब एकसाथ। प्रत्येक का अपना इतिहास था, अपनी प्रासंगिकता थी। यह गांधी ही थे, जो उन्हें एकजुट कर एक ऐसे समय ब्रिटिश शासकों के खिलाफ विजयी रणनीति में बदलने में कामयाब हुए, जब अंग्रेजों के सामने थोड़े ही विकल्प थे। यह सही है कि विभाजन बहुत बुरा सौदा था। हम सब यह जानते हैं। दंगों से बहुत रक्तपात हुआ और वह बहुत ही घिनौना दौर था। उन जख्मों के निशान अब भी मौजूद हैं। परंतु गांधीजी ने बहुत ही कुशलता से स्वतंत्रता की ओर हमारे मार्च का नेतृत्व किया। इससे इनकार कोई मूर्ख और कुंद दिमाग का व्यक्ति ही कर सकता है, क्योंकि यह ऐतिहासिक तथ्य है।
कई अद्‌भुत लोग थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाई थी। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं, लेकिन यदि कोई एक व्यक्ति, एक चेहरा है, जो वाकई स्वतंत्रता संग्राम की पहचान है तो वे गांधी ही थे। उनके हत्यारे भी यह बात जानते थे। यही वजह थी कि हमले के लिए उन्होंने गांधी को चुना। उन्हें उनमें हिंदुओं को नीचा देखने के लिए मजबूर करने वाला व्यक्ति दिखाई दिया। मजे की बात है कि जस्टिस काटजू गांधी को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते हैं, जिन्होंने राम-राज्य, गोरक्षा, ब्रह्मचर्य और वर्णाश्रम धर्म जैसे विचार लाकर स्वतंत्रता संग्राम को जान-बूझकर नुकसान पहुंचाया। वे तर्क देते हैं कि इससे मुस्लिमों में अलगाव पैदा हो गया।
आज जब गोवा सरकार सुविधाजनक रूप से गांधी जयंती को अपने राष्ट्रीय अवकाशों की सूची में शामिल करना भूल जाती है, नाथूराम गोडसे के मंदिर देश के विभिन्न हिस्सों में उग आए हैं और द हिंदू की तो रिपोर्ट है कि हिंदू महासभा ने विभिन्न पूजास्थलों में रखने के लिए गांधी के हत्यारे की 500 प्रतिमाएं बुलवाई हैं तो गांधी पर जस्टिस काटजू के प्रहार मौजूदा व्यवस्था (और उसके क्षुद्र सहयोगियों) के साथ बड़ी सफाई से फिट होते हैं। फिर चाहे उनकी दलीलें बिल्कुल विपरीत क्यों न नजर आती हों। दोनों सांप्रदायिक सौहार्द्र को चोट पहुंचाते हैं, जो भारतीय समाज के हृदय स्थल में है, चाहे अब यह हमारी राजनीति के हृदय स्थल में शायद नहीं रहा है।

जहां तक जस्टिस काटजू का सवाल है, मैं उनसे सिफारिश करूंगा कि वे वही लिखें, जिसमें उनकी महारत है : राजनीति मेंखूबसूरत महिलाओं का महत्व और उर्दू शायरी। स्वाभाविक रूप से वे दोनों विषयों के विद्वान हैं। दोनों विषय उनके दिल के करीब हैं। गांधी पर राजनीतिक विचार को लेकर मौजूदा प्रदूषण से शायद वे अपने को अलग रखना चाहें, जो हाल में खोजे गए राष्ट्रवाद के दिखावे में किया जा रहा है। राजनीतिक विचार के इस प्रदूषण में जानकारी का उतना ही अभाव है, जितना वह घातक है। नहीं, मैं कोई कांग्रेस का गुर्गा नहीं हूं और न गांधी का बहुत बड़ा प्रशंसक। मैं तो सिर्फ स्वतंत्र भारत के नागरिक के रूप में यह देखना चाहता हूं कि गांधी की प्रतिष्ठा अचानक सत्ताधीश बन गए लोगों के मौजूदा समूह के रहते भी बनी रहे, जो राजनीति में आपके और मेरे प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। गांधी की उपलब्धियों को मलीन करना तथ्यों को झुठलाना होगा और केवल मूर्ख और फासीवादी ही ऐसा करेंगे

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