इस साल - दिसंबर में - कांग्रेस को जन्मे 130 साल होंगे। उसको हम मुबारकबाद दें, यह लाजिमी होगा, शाइस्ता भी। कई बवंडरों से गुजरी है वह पार्टी, आज भी तकलीफ में है। लेकिन मैं यह मानने को तैयार नहीं कि कांग्रेस के दिन बीत चुके हैं, कि वह अपने आखिरी दौर में है। ऐसा मानना बिलकुल गलत होगा। कांग्रेस राजनीतिक दल है, और सियासी पार्टियों की तरह उसमें भी कमजोरियां हैं, मजबूरियां हैं। उसमें भी और पार्टियों जैसे बदमाश लोग हैं, भ्रष्ट लोग भी, लेकिन फिर वह कुछ और भी है।
वह हिंदुस्तान की औलाद है। उसके ख्वाबों से बनी है, उसके अरमानों से, उसकी आबरू से। वह हिंदुस्तान के टुकड़ों से नहीं बनी है, उसके उत्तर से या दक्षिण से, पूरब से या पश्चिम से नहीं। क्योंकि कई पार्टियां हैं ऐसी, जिनका अस्तित्व देश के किसी कोने में ही बसा है। कांग्रेस किसी एक कोने या कटरे की उपज नहीं, किसी एक कौम या मजहब की नहीं, किसी प्रांत या जुबान की नहीं।
आप पूछ सकते हैं कि क्या भाजपा भी ऐसी नहीं है? क्या वह भी सारे देश की नहीं? साम्यवादी पूछ सकते हैं, हम कौन-से कोने के हैं? हम मजदूरों के हैं, किसानों के हैं, हम समूचे हिंदुस्तान के हैं।
यह बात गलत नहीं। भाजपा देशभर में फैली है और सीपीआई-सीपीएम की इकाइयां भी हर प्रांत में मिलेंगी। फिर भी कबूल करना होगा भाजपा और वामदलों को कि वे राष्ट्रव्यापी होते हुए भी किन्हीं समुदायों और वर्गों पर एकाग्र पार्टियां हैं। कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है, जो हर तबके से खुद को जोड़े रखी है और आज हर तबके ने उसको चुनावी हार का स्वाद चखाया है। वह व्यापक है और उसकी बदहाली भी आज व्यापक है।
ऐसा होते हुए भी मैं पूरे ऐतबार से कह सकता हूं कि कांग्रेस के लिए बुरे दिन आ सकते हैं, बहुत बुरे दिन भी, लेकिन कोई यह न सोचे कि उसका जनाजा उठ रहा है। कांग्रेस फिर अपने मर्ज से बाहर आएगी। यह न तो भविष्यवाणी है, न आशीर्वाद। यह एक साफ-सुथरा राजनीतिक अनुमान है, हिसाब है, अंदाज है।
कुछ जुमलों में, आज मैं इतिहास का एक अहम पन्ना खोलता हूं।
आज से 130 साल पहले, 1885 में, बंबई में जब कांग्रेस का जन्म हुआ, तब वह शहरी रइसों और जमींदारों की पार्टी थी। एओ ह्यूम और विलियम वेडरबर्न जैसे समझदार और दूर देखने वाले अंग्रेजों ने उसको समर्थन दिया, यह कहते हुए कि 'ऐ हिंदुस्तानियो, अपनी किस्मत खुद सम्हालो।" हर अंग्रेज सितमगर नहीं था। उनमें कुछ ऐसे भी थे, जो हिंदुस्तान के हमदर्द थे। लेकिन शुरू-शुरू में हिंदुओं ने ही बीड़ा उठाया तो मुस्लिम कौम को झट शक हुआ कि कहीं यह कांग्रेस नाम की नई पार्टी सिर्फ हिंदुओं की पार्टी तो नहीं? और वह भी ब्राह्मणों की?
निशाना उनका कांग्रेस के पहले-पहले अध्यक्ष उमेश चंद्र बनर्जी पर था। कांग्रेस के निर्माताओं ने इस आलोचना को गंभीरता से लिया और फौरन कुछ ऐसे कदम उठाए, जो कि हमेशा के लिए कांग्रेस की पहचान बन गए। अल्पसंख्यकों को कांग्रेस ने तब ही, 1885-86 में ही, अपने दिल से लगाया।
ऋषितुल्य पारसी बुजुर्ग दादाभाई नौरोजी कांग्रेस के अगले अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए और बदरुद्दीन तैयबजी साहिब तीसरी कांग्रेस के अध्यक्ष।
ऐसा सिलसिला बरसों तक चलता रहा। 'बरसों" यानी 90 बरसों तक।
कांग्रेस का इतिहास दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। 1885 से 1975 तक नब्बे सालों का पहला हिस्सा। और 1975 से आज 2015 तक के चालीस सालों का दूसरा हिस्सा।
पहले नब्बे सालों में कांग्रेस ने क्या, कुछ नहीं कर दिखाया? आजादी की लड़त में कांग्रेस सबसे आगे तो रही ही, लेकिन कौमी एकता की भी वह सबसे बुलंद आवाज बनी। और समाज-सुधार की भी।
गांधी के आने के बाद वह गरीब-नवाज भी बनी।
आजादी मिली तो कांग्रेस ने बड़प्पन दिखलाया। बाबासाहेब आंबेडकर, जो कि कांग्रेस के नहीं थे, उनको देश का प्रथम कानून मंत्री बनाया। काश उनको कांग्रेस ने हमारा प्रथम उपराष्ट्रपति (नायब सदर) बनाया होता। राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू और उपराष्ट्रपति बाबासाहेब की जोड़ी गजब की रहती, हालांकि तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने उस कुर्सी की शान अपने ढंग से बनाई और बढ़ाई।
नेहरू के नेतृत्व के अंतिम दिनों में कांग्रेस में कुछ ढील आई जरूर, लेकिन फिर भी वह पार्टी अव्वल बनी रही। विदेश नीति में पंचशील और घर में पंचवर्षीय योजनाओं ने देश के लिए कई हितकारी काम किए। ऐसी बात नहीं कि नेहरू से गलतियां नहीं हुईं। हुई गलतियां, काफी बड़ी गलतियां, लेकिन उन्हें कुबूल करने को, उनको मंजूर करने को नेहरू तैयार रहते। उनमें ओछापन नहीं था।
लेकिन 1975 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जो राष्ट्रीय आपातकाल स्थिति आई, उसने कांग्रेस का रद्दोबदल कर दिया। भरोसा गया, भय आया। विश्वास गया, षड्यंत्र का विष आया। चापलूसी चरम सीमा पर पहुंची। नेहरू को प्रशंसा पसंद नहीं थी, ऐसी बात नहीं है। थी पसंद, आखिर इंसान जो थे। लेकिन ठकुर-सुहाती को उन्होंने कांग्रेस की अकथित संस्कृति नहीं बनने दिया। इंदिरा गांधी की देन है वह संस्कृति। किसी को हिम्मत नहीं रही कि कांग्रेस अध्यक्ष की ईमानदारी से आलोचना करनी हो तो करी जाए। सब थर-थर कांपते उनके सामने। नेहरू जैसे विश्व-विख्यात नेता के सामने जिनको खुले दिल से बोलने की आजादी थी, वे भी उनके सामने चुप!
पिछले चालीस सालों वाली कांग्रेस और उसके पहले के नब्बे सालों वाली कांग्रेस में जमीन-आसमान का फर्क है। सोनिया गांधी ने बहादुरी और एकाग्रता से इस पार्टी को सम्हाला है। कोई नहीं आज जो उन्हें कायदे से सच्ची तस्वीर दिखाए। सब अपने-अपने स्वार्थ में उनसे बात करते हैं। मांगें, अगर कुछ मांगना हो अपने लिए, जो कि वाजिब हो, लाजिमी हो, ठीक मात्रा में हो। लेकिन सिर्फ स्वार्थ की बात! यह एक नियम-सा बन गया है आज कांग्रेस का।
आज जब शिष्टता कहती है कि कांग्रेस के नेतृत्व में परिवर्तन आना चाहिए, तब उनको स्वयं वह कदम उठाना चाहिए। कांग्रेस की बागडोर को उन्हें किसी 'वारिस" के हाथ में नहीं, कांग्रेस ही के हाथों में सौंपनी चाहिए।
किस कांग्रेस के हाथों में?
पिछले चालीस सालों वाली डरी हुई, गांधी परिवार के सामने बंधुआ-सी बनी हुई कांग्रेस के हाथों में नहीं, बल्कि उन नब्बे सालों वाली कांग्रेस के हाथों, जिसको पुनर्जीवित करना चाहिए। उसमें नेहरू का बोलबाला जरूर था, लेकिन जिसका ईमान रखवाला था। ईमान! कहां है वह ईमान आज कांग्रेस में? यह सवाल, सिर्फ यह सवाल, अगर कांग्रेस की अध्यक्ष कांग्रेस की खुली सभा में पूछें तो मैं मानता हूं उन्हीं के तत्वावधान में, उन्हीं के हाथों वह पुरानी कांग्रेस वापस आ जावेगी। यह कांग्रेस ही की नहीं, देश की भी बड़ी सेवा होगी|
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