Tuesday, 24 March 2015

लोहिया की विलक्षण विरासत

आज किसानों के दीर्घकालिक हित और भारी उद्योगों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे के विकास के बीच एक जबर्दस्त द्वंद्व छिड़ा हुआ है। इस समय एक ही बिल को सत्तापक्ष किसानों के लिए लाभकारी और विपक्ष किसानों के लिए विनाशकारी बताने में जुटा हुआ है। ऐसे में डॉ. राममनोहर लोहिया बेहद याद आ रहे हैं जिन्होंने गांधीवादी नीतियों, अर्थ और श्रम के परस्पर संबंधों, किसानों एवं मजदूरों के मिले-जुले हितों तथा भारतीय समाज और विश्व भर में विषमता के सभी कारणों को ध्वस्त करने के लिए आजीवन संघर्ष किया। 23 मार्च को उनकी जयंती पर एक बार फिर पूरे देश ने उनके आदशरें को याद किया। संसद से सड़क तक लोहिया ने न जाने कितनी बहसें चलाई। वह लगातार कोशिश करते रहे कि लोकतंत्र और समाजवाद सिर्फ किताबों, नारों और कानूनों तक सीमित न रहे, बल्कि स्वाधीन नागरिकों के आचरण में भी दिखे। स्वाधीनता एक आचरण भी है, संयम भी, मर्यादा भी और दूसरे की स्वाधीनता की रक्षा भी। इस बात को अपने व्यवहार और विचार से हर स्तर पर चरितार्थ करने वाले वह एक विलक्षण संस्कृति-चिंतक राजनेता और जमीनी कार्यकर्ता, दोनों थे।

डॉ लोहिया मानते रहे कि किसानों की जमीन की कीमत पर कोई भी विकास स्वीकार नहीं है। विकराल मशीनों और भारी उद्योग-धंधों के लिए असिंचित और खेती के लिए अनुपयोगी जमीन का ही इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने कहा था कि जिस जमीन से एक किसान की कई पीढि़यों का भरण-पोषण होता रहा है उससे उसे बेदखल करके हम न सिर्फ खाद्यान्नों की उपलब्धता को कम करते हैं, बल्कि उसके स्वावलंबन, स्वाभिमान और स्वाधीनता पर संकट पैदा करके एक गंभीर सांस्कृतिक क्षति की ओर अग्रसर होते हैं। आज पक्ष-विपक्ष के हो-हल्ले और फौरी विचार-विमर्श, आरोप-प्रत्यारोप के बीच डॉ. लोहिया की तरह का सुविचारित गंभीर स्वर कहीं सुनाई नहीं दे रहा है। बहस को कानूनी शब्दों और लाभ-लोभ के गणित के परे स्वाधीनता, उत्पादकता, जमीनी हकीकत और लगातार गहरे हो रहे सांस्कृतिक संकट की तरफ कोई भी नहीं ले जाना चाहता है। सरकार कह रही है कि पिछली सरकार ने जो बिल पास किया था, वह किसान-विरोधी था, जबकि यह सारा देश जानता है कि उस बिल को पारित कराने के लिए तत्कालीन विपक्ष ने जो अब सत्ता पक्ष है, लगभग एक सौ संशोधन करवाने के बाद उसे किसानों के हित में बनवाने का श्रेय खुद लिया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद अपने ही किए कराए का ऐसा तमाशा बनाया जा रहा है जिसका उदाहरण खोजना मुश्किल है। इन परिस्थितियों में जब कोई साध्वी, कोई पूर्व न्यायाधीश महात्मा गांधी जैसी शख्सियत को 'अंग्रेजों का एजेंट' कहकर सिर्फ एक बेतुकी सनसनी फैलाकर चर्चा में बने रहना चाहता है तो समूची बहस की दिशा बदलने का खतरा खड़ा हो जाता है कि हम किस-किस बात पर जनता को, राजनीति को, मीडिया को केंद्रित करने की कोशिश करें।

स्वाधीन भारत में जो दो मुद्दे-लोकतंत्र और समानता सबसे अहम थे वे आज पूरे परिदृश्य से गायब हैं। विकास के हल्लाबोल एजेंडे ने समानता की अवधारणा को विमर्श के बाहर कर दिया है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने सिर्फ धन और धरती की समानता की बात नहीं की थी, बल्कि जिस सप्त क्रांति का आह्वान किया था उसमें पहली थी नर-नारी की समानता, दूसरी चमड़ी के रंग के आधार पर राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता का विरोध, तीसरी संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा की खिलाफत और पिछड़ों को विशेष अवसर, चौथी परदेशी गुलामी की खिलाफत और स्वतंत्रता, पांचवीं निजी पूंजी की विषमता का विरोध और आर्थिक समानता तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाना, छठा निजी जीवन में अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप का विरोध और लोकतांत्रिक पद्धति, सातवां अस्त्र-शस्त्र का विरोध तथा सत्याग्रह। ये गंभीर विचार से निकले ऐसे सूत्र हैं जो पूरी दुनिया को बदलकर मनुष्य की दिमागी गुलामी को तोड़ सकते हैं। आज हम जिस भंवर में फंसते जा रहे हैं उसमें इन महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

डॉ. लोहिया ने कहा था कि यह सातों क्रांतियां एक साथ संसार में चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करनी चाहिए। उनकी सोच थी कि दुनिया में जहां कहीं भी दुख और गरीबी, पराधीनता और पीड़ा हो वह हमारी सभ्यताओं के लिए शर्म का विषय होना चाहिए। नई दुनिया के निर्माण का सपना देखते हुए उन्होंने अपने सांस्कृतिक धरोहरों के महत्व को पहचाना था, नदियों की सफाई, हिमालय बचाओ, तिब्बत की मुक्ति, गोवा मुक्ति संग्राम, भाषा-नीति, रामायण मेला, भारत विभाजन की त्रासदी, अर्थशास्त्र मा‌र्क्स के आगे, इतिहास और नियति आदि पर वह एक साथ सोच और बोल सकते थे।

उनका मानना था कि लोकतंत्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ओंकार शरद ने ठीक ही लिखा है कि लोहिया गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के अखंड समर्थक थे, लेकिन गांधीवाद को वह अधूरा दर्शन मानते थे। वह समाजवादी थे, लेकिन मा‌र्क्स को एकांगी मानते थे, वह राष्ट्रवादी थे लेकिन विश्व सरकार का सपना देखते थे, वह आधुनिकतम आधुनिक थे, लेकिन आधुनिक सभ्यता को बदलने का प्रयत्‍‌न करते रहते थे, वह विद्रोही तथा क्रांतिकारी थे, लेकिन शांति और अहिंसा के अनूठे उपासक थे। डॉ. लोहिया किसी बड़े पद पर नहीं रहे लेकिन उनका कद इतना बड़ा था कि वह देश के बुद्धिजीवियों के दिमाग को अनवरत सोचने और रचने की खुराक देते रहे। मरते हुए डॉ. लोहिया ने कहा-और लोगों की संपत्तियां उनके वारिस संभालते हैं, जो मेरे विचारों को संभालकर आगे बढ़ाएंगे वे मेरे वारिस होंगे। डॉ. लोहिया ने कोई घर नहीं बनाया, आश्रम भी नहीं, कुटी भी नहीं सारा देश उनका घर था, उनके पार्टी के दफ्तर ही उनके आश्रम थे और देश के सारे गरीबों की झोपड़ी उनकी कुटी थी। उन्होंने अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाया और मनाने वाले को ताकीद करते रहे कि यह दिन मेरे जन्म के कारण महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि क्रांतिकारियों की फांसी के कारण शहादत दिवस के रूप में महत्वपूर्ण है। उनका वारिस होना कितना जरूरी है पर कितना कठिन भी-यह सोचकर उदास होना लाजिमी है।
[लेखक प्रो. चितरंजन मिश्र, हिंदी विवि में प्रतिकुलपति हैं]

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