जम्मू-कश्मीर में नई सरकार बनने के बाद से तकरीबन रोज ही कोई न कोई घटना ऐसी घट रही है, जो राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में जगह पा रही है। कठुआ और सांबा सेक्टरों में हुए आतंकी हमलों के बाद अब मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने साफ शब्दों में पाकिस्तान को आगाह कर दिया है कि वह जम्मू-कश्मीर में सीमापार आतंकवाद को बढ़ावा देने से बाज आए। अलगाववादी मसरत आलम को रिहा किए जाने के बाद से ही मुफ्ती 'आतंकवाद" पर 'नर्म रुख" अख्तियार किए जाने को लेकर आलोचना के शिकार बने हुए थे और स्थिति यह बन गई थी कि भाजपा-पीडीपी गठबंधन की जुम्मा-जुम्मा चार दिन पुरानी सरकार के गिरने का खतरा मंडराने लगा था।
मसरत आलम का नाम इस दौरान लगातार सुर्खियों में बना रहा। मसरत को रिहा किए जाने तक देश को उसके बारे में लगभग कुछ नहीं पता था और आज भी उसको लेकर मीडिया में पुख्ता सूचनाएं बाहर नहीं आ पाई हैं। टीवी चैनलों पर जिस तरह की बहसें चल रही थीं, उससे ऐसा लग रहा था मानो वह अजमल कसाब जैसा कोई फिदायीन आतंकवादी हो। जबकि हकीकत यह है कि मसरत आलम एक लंबे समय से जम्मू-कश्मीर की स्थानीय राजनीति में सक्रिय रहा है और उसे बुजुर्ग अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता रहा है।
यह सच है कि मसरत ने पहले अमरनाथ यात्रा विवाद और फिर वर्ष 2010 में कश्मीर में निर्मित हुई तनावपूर्ण परिस्थितियों के दौरान भारत-विरोधी और सरकार-विरोधी आंदोलनों का नेतृत्व किया था। यह तथ्य भी लगातार दोहराया जाता रहा है कि मसरत की अगुआई में वर्ष 2010 में हुए आंदोलन में पुलिस फायरिंग में 120 कश्मीरियों की मौत हो गई थी। लेकिन इसके बावजूद अगर मुफ्ती सरकार ने मसरत को रिहा करने का फैसला लिया तो उसका तात्कालिक कारण आतंकवादियों के प्रति उनके द्वारा नर्म रुख अख्तियार करना नहीं, बल्कि यह था कि कानूनी आधार पर मसरत को जेल में बंद रखना सरकार के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण हो गया था। मसरत श्रीनगर के एक खाते-पीते घर में जन्मा है और उसने मिशनरी स्कूल में तालीम पाई है। निश्चित ही, उसकी राजनीतिक विचारधारा कट्टरपंथी और भारत-विरोधी है। वह मुस्लिम लीग का सह-संस्थापक भी है। 90 के दशक में वह कुख्यात सशस्त्र संगठन हिजबुल्ला का भी सदस्य रह चुका है। लेकिन इससे पहले कि उसे बंदूक उठाने का मौका मिल पाता, उसे गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की सजा के बाद उसे छोड़ दिया गया।
वर्ष 1993 में रिहाई के बाद उसने चरमपंथ के बजाय अलगाववादी राजनीति की राह पर चलने का फैसला किया। दस साल की सक्रिय राजनीति के बाद उसने कश्मीर में अपनी स्थिति मजबूत बना ली। वर्ष 2002 में चरमपंथियों द्वारा अब्दुल गनी लोन की हत्या कर देने के बाद जब विधानसभा चुनावों में लोन के बेटे और पीपुल्स कांफ्रेंस के नेता सज्जाद लोन ने कथित रूप से फर्जी प्रत्याशियों को मैदान में उतारा तो मसरत ने इसकी पुरजोर मुखालफत की। इसी के साथ गिलानी के साथ उसकी नजदीकियां बढ़ीं।
लिहाजा, जहां यह साफ है कि मसरत एक कट्टरपंथी भारत-विरोधी अलगाववादी है, वहीं यह भी साफ कर लेना चाहिए कि वह कसाब की तरह फिदायीन आतंकवादी नहीं है। उसने अपना सियासी कद राजनीतिक संगठन-कौशल और प्रभावी भाषण-कला के माध्यम से बढ़ाया है। उमर अब्दुल्ला सरकार की आंखों की वह किरकिरी बन गया था। यही कारण था कि 2010 के प्रदर्शनों के दौरान जब कश्मीर में कामकाज महीनों तक लगभग ठप हो गया था, तो अब्दुल्ला सरकार ने उस पर 10 लाख रुपए के ईनाम की घोषणा की थी। मीडिया में मसरत को अमन-चैन के दुश्मन की तरह चित्रित किया जाता है, लेकिन अजीब बात है कि इस नकारात्मक प्रचार से उसे ही फायदा हुआ है और रिहाई के बाद से घाटी में उसका कद कहीं बढ़ गया है। वह तो मोदी और मुफ्ती दोनों ने ही अपने दिमाग को ठंडा रखा, वरना मसरत की रिहाई के बाद नई-नवेली सरकार के गिरने तक की नौबत आ गई थी।
लेकिन अब जब मसरत रिहा हो चुका है और खुलेआम घूम रहा है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि अलगाववादी खेमे में क्या चल रहा है। पहला सवाल तो यही है कि क्या मसरत फिर से कश्मीर को आंदोलित करने की कोशिश करेगा? यदि वह ऐसा करता है तो कौन उसका साथ देगा और उसके अहम मुद्दे क्या होंगे? और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या वह हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े के प्रमुख के रूप में गिलानी की जगह लेगा? गिलानी की ही तरह मसरत भी कश्मीर समस्या के निपटारे के लिए एक ठोस रवैया अपनाए जाने की वकालत करता है और हुर्रियत के उदारवादी धड़े को वह 'विश्वासघाती" बताने से भी नहीं चूकता। एक कारण यह भी है कि गिलानी के नेतृत्व वाले तहरीके-हुर्रियत में आज ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जो गिलानी की जगह ले सके। मोहम्मद अशरफ सहरी जरूर है, लेकिन उसे एक 'फायरब्रांड" नेता नहीं माना जाता! अलबत्ता अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि वर्ष 2010 में गिलानी द्वारा शांतिपूर्ण आंदोलन की अपील किए जाने के बाद मसरत द्वारा उसकी आलोचना करने के बाद से ही गिलानी मसरत से नाराज बना हुआ है।
हवाओं के रुख को भांपते हुए मसरत ने फिर से गिलानी से मधुर संबंध बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि महत्वाकांक्षी मसरत गिलानी के करीब आकर उसका राजनीतिक उत्तराधिकारी बनना चाहता है। जो भी हो, आने वाले चंद महीने अलगाववादियों के लिए कश्मीर की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए बेहद जरूरी हैं और हो सकता है, अलगाववादियों की यह जरूरत ही मसरत को एक बड़ा सियासी मुकाम दिलवा दे।
(लेखक श्रीनगर और जम्मू से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'राइजिंग कश्मीर" के संपादक हैं।
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