Tuesday, 31 March 2015

शशि कपूर को सलाम @शशि शेखर

शशि कपूर को ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार देने की घोषणा उस समय हुई, जब वह अपने प्रशंसकों की स्मृतियों की पिछली तहों में समाने लगे थे। इस पुरस्कार की विडंबना यही है कि यह अक्सर कलाकारों को उस उम्र में हासिल होता है,  जब उनका नाता रुपहले परदे से सिर्फ नाम मात्र का रह जाता है। ‘इंसाफ’ की तरह ‘इनाम’ भी अगर देर से हासिल हों, तो वे अपनी अहमियत खो बैठते हैं। शशि कपूर का जीवन ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। खुद अपने घर में उनके दो बड़े भाई ऐसे थे, जिन्होंने फिल्म जगत में खास पहचान बना रखी थी। पृथ्वीराज कपूर तब जिंदा थे और शशि के लिए पिता और भाइयों की छाया से बाहर निकलना आसान नहीं था। उस जमाने में लोग अपनी खास अदा विकसित करते थे और उसके सहारे उनकी जिंदगी कट जाती थी। जब उनकी पहली फिल्म धर्म पुत्र रिलीज हुई, तब रुपहले परदे पर दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद की तिकड़ी राज कर रही थी। अंदाज के जरिये दिलीप ‘ट्रेजडी किंग’ और राज कपूर ‘ग्रेट शो मैन’ बनने का रास्ता हमवार कर चुके थे। देवानंद की एक ‘खिलंदड़ी इमेज’ थी। शम्मी कपूर ने इस तिकड़ी के बीच से अपना रास्ता बनाने के लिए अलग शैली बनाई थी।

ऐसे में क्या करें, शशि कपूर ने यकीनन यह सोचा होगा। उनकी दीक्षा ‘पृथ्वी थिएटर’ में हुई थी। उन्होंने अभिनय की सहज शैली को ही चुनने और उसके सहारे आगे बढ़ने का फैसला किया। अगर आपने धर्म पुत्र देखी हो, तो उस ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म में भी आपको उनकी आंखें बोलती नजर आएंगी। शशि की तरह यश चोपड़ा की अपने बैनर-तले बनी वह पहली ही फिल्म थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा सकी, अलबत्ता उसे अनेक पुरस्कार मिले। उस समय कोई सोच नहीं सकता था कि हिंदी सिनेमा के सबसे कारगर निर्देशक और अनूठे अभिनेता का इसके जरिए जन्म हो चुका है। यश चोपड़ा से इसी दौरान परवान चढ़ी उनकी दोस्ती भी ताजिंदगी अटूट रही। उनके निजी जीवन के बारे में बाद में बात करेंगे, पहले उनके कला पक्ष पर चर्चा करते हैं। कन्यादान फिल्म का एक हिट गाना है- लिखे जो खत तुझे..।  इसमें पहली नजर में आशा पारेख ज्यादा प्रभावित करती नजर आएंगी। इसके विपरीत शशि का चेहरा थोड़ा कम बोलता दिखता है, पर मामला उल्टा है। आशा अभिनय कर रही थीं, जबकि वह उस गाने को जी रहे थे।

दीवार फिल्म में उनके एक डायलॉग- मेरे पास मां है -का जिक्र बार-बार होता है। उसी फिल्म में ए के हंगल के सामने उन्होंने जो अभिनय किया था, वह यादगार है। पश्चाताप में जलता हुआ पुलिस इंस्पेक्टर पहले से ही पेशेवर मांग और निजी रिश्तों के द्वंद्व में उलझा हुआ है। युद्ध क्षेत्र में खड़े अर्जुन की तरह उसे अपने संशय का कोई किनारा नहीं मिल रहा। वह एक स्कूल मास्टर के बेटे को गोली मार देता है, जो अपने भूखे मां-बाप के लिए डबलरोटी चुरा रहा था। शिक्षक की भूमिका निभा रहे हंगल कहते हैं, ‘जुर्म तो जुर्म है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा।’ शशि कपूर कहते हैं, ‘ऐसी शिक्षा सिर्फ एक शिक्षक के यहां मिल सकती थी’ और इसके साथ ही लगता है कि जैसे उनके मन पर पड़ा बोझ हट रहा है। आप देख सकते हैं, ग्लानि से झूला शरीर आत्मा के फैलाव के साथ ही निर्णय पर पहुंचने की प्रक्रिया में तन जाता है। ग्लानि, पश्चाताप, कशमकश और निर्णय- इतने सारे भावों को उन्होंने कुछ ही पलों में दर्शा दिया।

अमिताभ के साथ उनकी एक और फिल्म कभी-कभी का जिक्र यहां जरूरी है। एक दृश्य में,  अमिताभ उनके घर आते हैं। शशि कपूर जान चुके हैं कि कॉलेज के दिनों में उनकी पत्नी और इस व्यक्ति के बीच प्रेम संबंध रहा है। इसके बावजूद वह पूरी गरिमा और शालीनता के साथ अपनी बात की शुरुआत में कहते हैं, माफ कीजिएगा विजय साहब..। एक पल को भी ऐसा नहीं लगता कि वह सत्य को स्वीकारने में कोई संकोच कर रहे हैं। वे हालात से पिटे नहीं, उन्हें पीटते नजर आ रहे हैं। जवाब में अमिताभ ‘एंग्री यंगमैन’ के दायरे में सिमटे-सिकुड़े हैं। यह दृश्य भी अभिनय के कर्म और किरदार में समा जाने के फर्क को साफ करता है। अगर ऐसे उदाहरण गिनाने लगूं, तो सैकड़ों पन्ने भर जाएंगे, पर सच यह है कि शशि कपूर को अपनी वास्तविक अभिनय शैली के लिए उस समय वह व्यावसायिक प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। 1960 के दशक में वह कई शिफ्टों में काम करने वाले अकेले अभिनेता हुआ करते थे। 1970 के दशक में उन्हें सहायक भूमिकाओं में आना पड़ा, पर वे भी कितनी जोरदार थीं, इसके कुछ उदाहरण मैंने अभी आपके सामने पेश किए हैं।

अब आते हैं,  उनकी निजी जिंदगी पर। यश चोपड़ा से दोस्ती का कुछ देर पहले जिक्र हुआ था। वह कितने भरोसेमंद दोस्त हैं, इसका नमूना देखिए। सिलसिला की कास्टिंग के दौरान यश ने स्मिता पाटिल और परवीन बॉबी का चयन किया था। शूटिंग शुरू होने ही वाली थी कि श्रीनगर में अमिताभ और यश के बीच फैसलाकुन बातचीत हुई। दोनों का मानना था कि इस रोल के लिए जया बच्चन और रेखा सबसे मौजूं हैं। संयोग से दोनों मान गईं। अब समस्या यह थी कि परवीन बॉबी को कैसे मना किया जाए? इसके लिए यश चोपड़ा ने शशि कपूर को चुना और उन्होंने इस कठिन दायित्व का पूरी जिम्मेदारी से निर्वाह किया। फिल्म बन गई और परवीन बॉबी से यश के संबंध भी बचे रहे।

अपनी निजी जिंदगी में वह अपनी पत्नी जेनिफर के प्रति भी बेहद समर्पित रहे। एक बार उन्होंने कहीं कहा कि विवाह के वक्त हम दोनों ने तय किया कि मैं और जेनिफर कभी एक-दूसरे की ओर पीठ करके नहीं सोएंगे। यही कारण है कि उनके बीच कोई मनमुटाव एक घंटे से ज्यादा नहीं चला। वे आजीवन प्रेमी-प्रेमिका ही बने रहे और सर्वाधिक ग्लैमरस हीरोइनों के साथ काम करने के बावजूद उनका ‘एक पत्नीव्रत’ कायम रहा। जेनिफर की मौत के बाद शशि कपूर टूट गए। वह सदैव संयम और अनुशासन का जीवन जीते रहे। उस जमाने के हीरो अपने शरीर को दुरुस्त रखने के लिए आज के नायकों जैसा जोर नहीं देते थे। खुद राज और शम्मी थुलथुल हो चले थे। शशि कपूर ने यहां भी अलग रहगुजर चुनी। वह नियमित तौर पर कम खाते और अपनी उम्र से हमेशा कम लगते।

जेनिफर के जाने के बाद कपूर खानदान के अन्य लोगों की तरह लगता है, वह भी दिमाग से ज्यादा अपने पेट की सुनने लगे। बढ़ते वजन के साथ बीमारियों ने उन्हें घेर लिया। जेनिफर के इंतकाल के बाद वह ऐसे जी रहे हैं, जैसे जिंदगी उनसे दूर हो गई हो। सुख-दुख हर इंसान के जीवन में आते हैं, परंतु उन्हें धीरता के साथ ग्रहण कर लेने की क्षमता कम लोगों में होती है। शशि कपूर ऐसे ही चुनिंदा लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आपको हमारा सलाम कपूर साहब।

विदाई हो तो माइकल क्लार्क जैसी @राजीव कटारा

शायद लोककथाएं यहीं से बननी शुरू होती हैं। अपने आखिरी मैच में कमाल की कप्तानी। एक बहती हुई बेहतरीन पारी। दुनिया की सबसे बड़ी ट्रॉफी अपने देश के नाम। अपने ही घर में खचाखच भरे ऐतिहासिक मैदान पर, तालियों के बीच साथियों के कंधे पर ‘विक्ट्री मार्च’ और अलविदा। क्या लमहा है यह! माइकल क्लार्क वनडे से विदा हो गए। इससे बेहतर विदाई की कल्पना और क्या हो सकती है? महान क्रिकेटरों की तरह उन्होंने भी शिखर पर रहते हुए अलविदा कहना बेहतर समझा। ताकि दुनिया कहे, ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।’ किसी भी महान खिलाड़ी को उसी वक्त विदाई लेनी चाहिए, जब लोगों को कसक हो। खेल को उनकी कमी खले। बेशक महान खिलाड़ी हैं क्लार्क! और ठीक वैसा ही बर्ताव उन्होंने किया है। इस बार का विश्व कप जब शुरू हुआ था, तब शायद ही किसी ने सोचा हो कि क्लार्क वनडे को अलविदा कह देंगे। यह ठीक है कि वह अपने शरीर की दिक्कतों से जूझ रहे थे। कमर दर्द और जांघों की मांसपेशियों के खिंचाव ने उन्हें परेशान कर दिया था। कमर की तो हाल ही में सजर्री हुई थी।उसकी वजह से वह भारत के साथ पूरी टेस्ट सीरीज नहीं खेल सके थे। लेकिन उन्होंने वापसी कर ली थी। और ठीकठाक फॉर्म में नजर भी आ रहे थे। फाइनल में तो उन्होंने बेहतरीन पारी खेली ही।

यों खबरें आ रही थीं कि क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उन्हें बांग्लादेश के मैच से पहले फिट होने का अल्टीमेटम दे दिया गया था। या फिर यह कि कोच डैरन लीमेन, नए कप्तान स्मिथ और चयन समिति के प्रमुख रोडनी मार्श के साथ उनके रिश्ते बिगड़ने लगे हैं। हो सकता है कि क्लार्क के इस फैसले में यह भी एक वजह हो। लेकिन शरीर भी एक सच्चाई है। वनडे खेलना कई मायनों में टेस्ट क्रिकेट से ज्यादा शरीर को तोड़ता है। यों उनकी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन शरीर की दिक्कतें दिखने लगी हैं। सो, उनका यह फैसला समझ में आता है। भारत से सेमीफाइनल जीतते ही उन्हें लगा कि अब अलविदा कहने का सही समय है। और आनन फानन में उन्होंने यह घोषणा कर दी। 12 साल पहले क्लार्क का वनडे करियर इंग्लैंड के खिलाफ एडिलेड में शुरू हुआ था। उस रात बेहद कम स्कोर के मैच में उन्होंने आउट हुए बिना 39 रन बनाए थे। लेफ्ट आर्म स्पिन करते हुए एक विकेट भी ले लिया था। उसी मैच से समझ में आ गया था कि एक महान खिलाड़ी ने क्रिकेट की दुनिया में दस्तक दे दी है। लेकिन वह कतई ऑस्ट्रेलियाई नहीं दिखलाई पड़े थे।

आम तौर पर ऑस्ट्रेलियाई पावर बैटिंग के लिए जाने जाते हैं। क्लार्क को देखकर वह ‘ऑस्ट्रेलियन फील’ नहीं आती। वह ‘टिपिकल ऑस्ट्रेलियाई’ हैं ही नहीं। ऑस्ट्रेलियाई तो अपनी ‘किलर इंस्टिंक्ट’ को चेहरे पर लिए खेलते हैं। गाली-गलौज, बदतमीजी, अक्खड़पन उनकी पूरी ‘बॉडी लैंग्वेज’ से टपकता है। ऐसे में, माइकल क्लार्क मुस्कराते हुए किसी और ग्रह के नजर आते हैं। ऑस्ट्रेलियाई टीम को देखकर अक्सर सर्जन याद आते हैं। महसूस होता है कि आप सजर्नों से भरपूर किसी टीम को देख रहे हैं। उनके लिए ‘क्लीनिकल अप्रोच’ की बात की जाती है। लेकिन क्लार्क को देखकर हमेशा कोई कलाकार याद आता है। मानो बल्ला उनके लिए कोई तलवार या चाकू न हो। कोई कूची हो। जो हरे मैदान के कैनवस पर चल रही है। अलग-अलग स्ट्रोक लगाती हुई। रनों की बौछार हो रही है या रंगों की कभी-कभी दुविधा पैदा करती हुई।

यह संयोग नहीं है कि पहली बार उन्हें बैटिंग करते देखकर मार्क वॉ की याद आई थी। मार्क एकदम अलग तरह के बैट्समैन थे। अपने जुड़वां भाई स्टीव से बिल्कुल अलग। स्टीव की पूरी शख्सियत में ऑस्ट्रेलियाई दिखता था। एक अड़ियल शख्सियत, चाहे बैटिंग हो या बॉलिंग। मार्क तो अलग ही दुनिया के बैट्समैन नजर आते थे। कुछ-कुछ एशियाई टच आर्टिस्ट की तरह। क्लार्क उसी परंपरा के बैट्समैन हैं। लेकिन क्लार्क के बाद उस परंपरा में कोई नजर नहीं आ रहा है। क्लार्क की क्रिकेटीय परवरिश में एक हिन्दुस्तानी मूल के शख्स की भूमिका रही है। उनके शुरुआती कोच नील डीकोस्टा के माता पिता की जन्मभूमि चेन्नई रही है। नील ने ही माइकल के पिता को मनाया था कि वह पढ़ाई छोड़कर क्रिकेट पर ध्यान दें। उनके माता-पिता ने नील का कहना माना। बाकी सब तो इतिहास है। अगर क्लार्क की बैटिंग में कुछ हिन्दुस्तानीपन नजर आता है,  तो कोई अजीब बात नहीं है। नील का असर कहीं तो दिखाई पड़ना था न। शायद इसीलिए उनकी बैटिंग में कभी विश्वनाथ, कभी अजहर, तो कभी लक्ष्मण की परछाईं नजर आ जाती है। उनके स्क्वेयर कट, कवर या स्ट्रेट ड्राइव और फ्लिक में कलाकारी ज्यादा झलकती है। मानो पावर से उसका कोई लेना-देना नहीं है।

एक चकल्लस यह भी है कि ऑस्ट्रेलियाई आका वनडे में उस किस्म के क्रिकेट का कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं। क्रिकेट बहुत तेजी से पावर गेम में बदलने लगा है। जहां कलाकारों को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। ट्वंटी-20 से तो उन्हें धकेल ही दिया गया है। यह संयोग नहीं कि उस फटाफट क्रिकेट में क्लार्क जैसा बैट्समैन भी अपने को खोया हुआ-सा पा रहा है। उन्होंने पहले ही अपने को उससे अलग कर लिया है। आज नहीं, तो कल उन्हें वनडे क्रिकेट में भी अजनबीपन का एहसास होना ही था। उस क्रिकेट को पावर गेम में बदलते देखना उन्हें रास नहीं आ रहा। यही वजह है कि उन्होंने आईसीसी से क्रिकेट में बदलाव की अपील की है, ताकि वह महज बल्ला मेले में तब्दील न हो जाए। एक ऐसा क्रिकेट, जिसमें कोई बॉलर होने की तमन्ना ही न करे। वनडे की एक बेहतरीन टीम स्टीव स्मिथ को देकर वह विदा हो रहे हैं। बीच में ऑस्ट्रेलियाई टीम को काफी मशक्कत करनी पड़ी है। उसको धीरे-धीरे फिर से बनाया है क्लार्क ने।

रिकी पॉन्टिंग से उन्हें जो टीम मिली थी, उससे बेहतर टीम देकर वह जा रहे हैं। एक चैंपियन टीम स्मिथ को विरासत में मिल रही है। अब 23 नंबर की पीली जर्सी मैदान पर दिख तो सकती है, लेकिन उस जर्सी की आत्मा क्लार्क अब उसमें नहीं होंगे। शेन वॉर्न ने रिटायर होते हुए अपनी लकी नंबर की जर्सी क्लार्क को दी थी। शेन अपनी तरह के कलाकार रहे। माइकल अपनी तरह के कलाकार हैं। शेन ने उसे पहनकर क्रिकेट को एक अलग आयाम दिया था। अब माइकल भी क्रिकेट को एक अलग ऊंचाई देकर विदा हो रहे हैं। वह टेस्ट खेलते रहेंगे। हम उन्हें वहां देख सकते हैं। अभी तो यही राहत की बात है। उनकी मुस्कराहट, सिल्की स्ट्रोक अब रंगीन कपड़ों में नहीं दिखलाई पड़ेंगे। सफेद कपड़ों में वह खेलते रहेंगे। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो उन्होंने क्रिकेट से वानप्रस्थ ले लिया हो। संन्यास भी बहुत दूर नहीं लगता। लेकिन हमारी चाहत है कि उस  संन्यास के हम जल्द गवाह न बनें। 

Friday, 27 March 2015

हाशिमपुरा के अन्याय में सभी दोषी @विभूति नारायण राय

हाशिमपुरा का नरसंहार स्वतंत्रता बाद की सबसे बड़ी कस्टोडियन किलिंग (हिरासत में मौत) की घटना है। इसके पहले जहां तक मुझे याद है, कभी इतनी बड़ी संख्या में पुलिस ने अपनी हिरासत में लेकर लोगों को नहीं मारा था। इसके बावजूद एक भी अपराधी को दंडित नहीं किया जा सका। अदालत के फैसले से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। मैंने पहले ही दिन से यही अपेक्षा की थी। दरअसल भारतीय राज्य का कोई भी स्टेक होल्डर नहीं चाहता था कि दोषियों को सजा मिले। राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, मीडिया-सभी ने 22 मई, 1987 से ही इस मामले की गंभीरता को कम करने की कोशिश की थी। भारतीय न्याय प्राणाली की चिंता का आलम यह है कि इतने जघन्य मामले का फैसला करने में अदालतों को लगभग अट्ठाइस साल लग गए।

22 मई, 1987 को रात लगभग साढ़े दस बजे मुझे हाशिमपुरा नरसंहार की घटना की जानकारी हुई। शुरू में तो मुझे इस सूचना पर यकीन नहीं हुआ, पर जब कलक्टर और दूसरे अधिकारियों के साथ मैं घटनास्थल पर पहुंचा, तब जाकर मुझे यह एहसास हुआ कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य के सबसे शर्मनाक हादसे का साक्षी बनने जा रहा हूं। मैं उस समय गाजियाबाद का पुलिस कप्तान था और पीएसी ने मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से उठाकर कई दर्जन मुसलमानों को मेरे इलाके में लाकर मार दिया था।

22-23 मई, 1987 की आधी रात दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे पर उगे सरकंडों के बीच टॉर्च की रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने से पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े- मेरी स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है। मैंने पीएसी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराई और करीब 28 वर्षों तक उन सारे प्रयासों का साक्षी रहा हूं, जो भारतीय राज्य के विभिन्न अंग दोषियों को बचाने के लिए करते रहे हैं। इन पर मैं विस्तार से अपनी किताब में लिख रहा हूं, पर यहां संक्षेप में कुछ का जिक्र करूंगा।

हाशिमपुरा संबंधी मुकदमे गाजियाबाद के लिंक रोड और मुरादनगर थानों में दर्ज हुए थे। मगर कुछ ही घंटों में उसकी तफ्तीशें राज्य के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के आदेश से सीआईडी को सौंप दी गईं। सीआईडी ने पहले दिन से ही दोषी पुलिसवालों को बचाने के प्रयास शुरू कर दिए। अपनी किताब लिखने के दौरान मैंने सीआईडी की केस डायरियां पढ़ीं, तो ऐसा लगा कि मैं बचाव पक्ष के दस्तावेज पढ़ रहा हूं। कुल उन्‍नीस अभियुक्तों में सबसे वरिष्ठ ओहदेदार एक सब-इंस्पेक्टर था। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि बिना वरिष्ठ अधिकारियों की शह और अभयदान के मजबूत आश्वासन के एक जूनियर अधिकारी बयालीस लोगों के कत्ल का फैसला कर सकता है। सीआईडी ने बेमन से छोटे ओहदेदारों के खिलाफ चार्जशीट लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, जबकि बड़े अफसरों को उसने पूरी तरह छोड़ दिया। सीआईडी ने फौज की भूमिका की गंभीर पड़ताल नहीं की। अपनी किताब के लिए सामग्री एकत्र करते हुए मेरे हाथ ऐसे दस्तावेज लगे हैं, जो दंगों के दौरान मेरठ में तैनात फौजी कॉलम के बारे में गहरे शक पैदा करते हैं। मजेदार बात यह है कि ये तमाम तथ्य सीआईडी के पास भी थे। सवाल यह है कि फिर उन्होंने इसे क्यों नजरंदाज किया। क्या यह सिर्फ लापरवाही थी या फिर अपराधियों को बचाने का सुनियोजित प्रयास था? मैं थोड़े-से प्रयास से उस महिला तक पहुंच गया, जो उस पूरी घटना की सूत्रधार थी। हैरानी की बात यह है कि फिर भला सीआईडी उस तक क्यों नहीं पहुंच सकी? निश्चित रूप से सीआईडी के अधिकारी एक लेखक के मुकाबले ज्यादा साधन संपन्न थे और उनके पास कानूनी अख्तियारात भी थे। दरअसल उनकी दिलचस्पी ही नहीं थी कि इस हत्याकांड के अभियुक्तों की सही शिनाख्त हो और उन्हें अपने जुर्म की सजा मिले।

मामला सिर्फ पुलिस-प्रशासन और जांच एजेंसी का ही नहीं है। हकीकत तो यह है कि राजनेताओं ने भी इस मामले में आपराधिक चुप्पी अख्तियार की। जिस समय यह कांड हुआ, लखनऊ और दिल्ली, दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थीं, और उसके बाद दोनों जगहों पर सरकारें बदलती रहीं। मैं नहीं समझता कि किसी ने भी इस मामले को चुनौती के रूप में लिया। खास तौर से उत्तर प्रदेश की सरकारों ने तो गंभीर लापरवाहियों से हत्यारों को दोषमुक्त होने में मदद की। वर्षों तक दोषियों को निलंबित नहीं किया गया, आरोपितों के खिलाफ अभियोजन में देरी की गई। गाजियाबाद न्यायालय में अभियुक्त पेश नहीं होते थे, इसके बावजूद राज्य के कान पर जूं तक नहीं रेंगती थी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से यह मुकदमा दिल्ली की अदालत में आया भी, तो काफी समय तक योग्य अभियोजक नहीं नियुक्त किया गया। इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य को ही यह चिंता नहीं थी कि इतने जघन्य हत्याकांड में दोषियों को सजा मिले।

हाशिमपुरा हत्याकांड में आए अदालत के ताजा फैसले के बाद भारतीय राज्य की भूमिका क्या होनी चाहिए? मेरा मानना है कि यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी है। यदि आजादी के बाद के इस सबसे बड़े हिरासती हत्याकांड में वह हत्यारों को सजा नहीं दिला पाया, तो उसका चेहरा पूरी दुनिया में स्याह हो जाएगा। उसे अविलंब हरकत में आना चाहिए। एक ऐसी हरकत, जिससे हाशिमपुरा हत्याकांड की एक बार फिर से निष्पक्ष तफ्तीश हो सके, और समयबद्ध न्यायिक कार्रवाई के जरिये हत्यारों को सजा दिलाई जा सके। करीब अट्ठाइस साल बाद होने वाली यह हरकत तेज और फैसलाकुन होनी चाहिए।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति, रिटायर्ड आईपीएस अफसर और हिंदी के साहित्यकार

भय और करिश्मे का अनूठा संगम @सेट मेडन्स

सिंगापुर के संस्थापक और पहले प्रधानमंत्री ली कुआन यू का, जिन्होंने इस द्वीपीय देश को एशिया का सबसे समृद्ध और अपेक्षाकृत निम्नतम भ्रष्ट राष्ट्र बनाया, 91 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। ली 1959 (जब सिंगापुर ने ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्व-शासन का अधिकार हासिल किया था) से लेकर 1990 (जब वह अपदस्थ हुए) तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री थे। लेकिन अपने जीवन के अंत तक वह सिंगापुर के, जिसे वह तीसरी दुनिया के देशों में पहली दुनिया का नखलिस्तान कहते थे, प्रमुख व्यक्तित्व और असली ताकत बने रहे। उनका देश उन्हें प्रभावी, कठिन सच्चाइयों का सामना करने वाला, स्वच्छ आचरण वाला, आविष्कारी, दूरदर्शी और व्यावहारिक व्यक्ति मानता रहा। वर्ष 2007 में न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में सिंगापुर की विचारधारा के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था, 'हम विचारधारा मुक्त राष्ट्र हैं। किसी भी विचारधारा को अपनाने से पहले हम सोचते हैं कि क्या यह कारगर होगी? यदि वह कारगर हो सकती है, तो उसे आजमाते हैं। अगर वह अच्छी होती है, तो उसे जारी रखते हैं। लेकिन जब वह विचारधारा कारगर नहीं होती, तो उसे छोड़कर दूसरी को आजमाते हैं।'

कभी-कभी स्वतंत्रता को कुचलने के लिए उनके नेतृत्व की आलोचना होती थी, पर उनका फॉर्मूला सफल रहा। इसकी बदौलत सिंगापुर एक अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक और वित्तीय केंद्र बन गया। पर 2011 के चुनाव में कुआन युग का अंत हो गया और मतदाताओं ने पीपुल्स ऐक्शन पार्टी (पीएपी-पाप) के खिलाफ जनादेश दिया। कुआन ने विशेष रूप से सृजित मंत्रियों के मार्गदर्शक पद से इस्तीफा दे दिया और नेपथ्य में चले गए, क्योंकि राष्ट्र ने ज्यादा सक्रिय और कम निरंकुश सरकार की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी।

वर्ष 1965 में मलयेशिया से अलग होने (जिसे ली अपनी पीड़ा का क्षण कहते थे) के बाद सिंगापुर हमेशा प्राकृतिक संसाधनों की कमी, प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय माहौल और चीनी, मलय और भारतीयों की मिश्रित जातीय संस्कृति पर काबू पाने के अंतहीन संघर्ष से जूझता रहा है। वर्ष 2007 के एक इंटरव्यू में ली ने कहा था, 'सिंगापुर को समझने के लिए वहां से शुरुआत करनी पड़ेगी, जब उसका अस्तित्व नहीं माना जाता था, और कहा जाता था कि इसका अस्तित्व नहीं हो सकता। इसे वहां से शुरू करना होगा, जब हमारे पास राष्ट्र के लिए प्राथमिक कारक नहीं थे, मसलन, एक सजातीय आबादी, साझी भाषा, साझी संस्कृति और साझी नियति। इसलिए इसका इतिहास काफी लंबा है। मैंने तो बस अपने हिस्से का छोटा-सा काम किया है।'

उनके 'सिंगापुर मॉडल' में, जिसे विनम्र अधिनायकवाद बताकर आलोचना भी की जाती है, केंद्रीयकृत शक्ति, स्वच्छ सरकार और आर्थिक उदारवाद के साथ राजनीतिक विरोधियों के दमन और जनसभाओं व स्वतंत्र अभिव्यक्ति की सख्त सीमाएं (जिसने सजग और आत्म-नियंत्रण का माहौल तैयार किया) भी शामिल हैं। चीन समेत एशिया के विभिन्न नेताओं ने इस मॉडल का अध्ययन किया और इसकी प्रशंसा की है। यही नहीं, अनगिनत शैक्षणिक अध्ययनों का यह विषय भी है। प्रसिद्ध टिप्पणीकार चेरियन जॉर्ज ली कुआन के नेतृत्व को 'भय और करिश्मे का अनूठा संगम' बताते हैं। जैसे ही ली का प्रभाव खत्म हुआ, यह सवाल उभरा कि यह मॉडल एक नई और संभवतः अधिक उदार पीढ़ी के हाथों में जाकर कितना और कितनी तेजी से बदलेगा। कुछ लोगों ने यहां तक पूछा कि क्या 56 लाख की आबादी वाला सिंगापुर अशांत भविष्य में बचा रह सकता है।

ली एशियाई मूल्यों के उस्ताद थे। एशियाई मूल्य ऐसा विचार है, जिसमें व्यक्तिगत अधिकारों के ऊपर सामाजिक अच्छाई को तरजीह दी जाती है और बदले में नागरिक पितृसुलभ शासन के लिए अपनी कुछ स्वायत्तता सौंप देते हैं। सामान्य तौर पर राजनीतिक मामलों में कम रुचि लेने वाले सिंगापुर के लोग कभी-कभार आरामदायक जीवन-शैली (जिसे वे फाइव सी कहते हैं- कैश, कोंडो (आवास), कार, क्रेडिट कार्ड और कंट्री क्लब) में ज्यादातर मग्न रहने के लिए खुद की आलोचना करते हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में राजनीतिक वेबसाइट और ब्लॉगों ने कुआन और उनकी व्यवस्था के आलोचकों को नई आवाज दी। सिंगापुर को कम जानने वाले लोगों के बीच भी क़ुआन अपने राष्ट्रीय आत्म-सुधार अभियान के लिए प्रसिद्ध थे, जो लोगों से हंसने, अच्छी अंग्रेजी बोलने और अपना शौचालय साफ करने की अपील करता है और सार्वजनिक स्थलों पर थूकने, च्यूंगम या बॉलकनी से कूड़ा फेंकने से मना करता है। अपने संस्मरण के दूसरे खंड (फ्रॉम थर्ड वर्ल्ड टू फर्स्टः द सिंगापुर स्टोरी 1965-2000) में कुआन कहते हैं, 'वे हम पर हंसते थे, लेकिन मुझे पूरा यकीन था कि अंत में हंसने वाले हम ही होंगे। अगर हम एक स्थूल, असभ्य, अशिष्ट समाज रहे होते, तो हम ये प्रयास नहीं कर पाते।'

ली ने राजनीतिक नियंत्रण के लिए एक विशिष्ट सिंगापुरी रणनीति बनाई, जिसके तहत उनकी आलोचना करने वालों के खिलाफ मानहानि के मामले दायर किए जाते थे। इस वजह से कई बार उनके विरोधी दिवालिया तक हो गए। विदेशी मीडिया के आलोचकों से उनके झगड़े तक हुए। कई विदेशी प्रकाशनों को उनसे न केवल माफी मांगनी पड़ी, बल्कि मुकदमे के कारण उन्हें अच्छा खासा धन भी शुल्क के तौर पर देना पड़ा। हालांकि खुद कुआन कहते थे कि इन मुकदमों के पीछे राजनीतिक कारण नहीं थे। उनका कहना था कि गलत आरोपों से खुद को बेदाग साबित करने के लिए ऐसे मुकदमे जरूरी थे। वह खुद को ऐसा राजनीतिक संघर्षकर्ता कहलाने में गर्व करते थे, जिससे लोग प्यार करने से ज्यादा डरें। 1994 में उन्होंने कहा था, अगर आप सोचते हैं कि मुझसे ज्यादा जोर से आप प्रहार कर सकते हैं, तो कोशिश कीजिए। इसके अलावा चीनी समाज में शासन करने का और कोई तरीका नहीं है।

न्यायिक देरी का शिकार हाशिमपुरा @सुधांशु रंजन

हाशिमपुरा मामले में प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के 16 अभियुक्त जवानों की रिहाई हमारी पूरी न्याय व्यवस्था को हिला देने के लिए काफी होनी चाहिए। पहचान के अभाव में तीस हजारी अदालत ने इन सभी आरोपियों को रिहा करने का आदेश दिया है। यह मामला एक बार फिर प्रमाणित करता है कि विलंब किस प्रकार न्याय के रथ को पटरी से उतार देता है। यह कोई पहली ऐसी घटना नहीं है। मगर विडंबना यह है कि कितना भी बड़ा अन्याय क्यों न हो जाए, संबंधित अधिकारियों में कोई हलचल तक नहीं होती। 

इस मामले में 19 पुलिस वालों पर हत्या, साक्ष्य मिटाने और आपराधिक षड्यंत्र रचने के आरोप थे। लेकिन मामले के लंबा खिंचने के जो-जो दुष्परिणाम होते हैं, वे सब यहां देखने को मिले हैं। मसलन, साक्ष्य समाप्त हो जाते हैं, गवाहों की मौत हो जाती है या फिर उन्हें ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है और कई बार तो अभियुक्तों की प्राकृतिक मौत हो जाती है। हाशिमपुरा मामले में भी तीन अभियुक्तों की मौत निर्णय आने के पहले हो चुकी थी। तीन जांच अधिकारी भी दुनिया से विदा हो चुके हैं। जाहिर है, मामले को पेचीदा बनाने के लिए ही उसे लटकाया जाता है, जिसमें पुलिस और वकीलों की सक्रिय भूमिका होती है। समय बीतता जाता है और अनुसंधान अधिकारी व डॉक्टर आदि सरकारी पक्षों के स्थानांतरण हो जाते हैं। ऐसे में, उन्हें अदालत में उपस्थित करना एक मुश्किल काम हो जाता है।

इस मामले के घटनाक्रम पर गौर कीजिए। एक स्थानीय डॉक्टर प्रभात सिंह की हत्या के तीन दिन बाद 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा में 342 मुस्लिमों को गिरफ्तार करके उनमें से करीब 50 को ट्रक में लादकर गाजियाबाद में गंग नहर के पास लाया गया और उन्हें गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया। इनमें से 42 की मौत हो गई, लेकिन छह बच गए। इन्हीं में से एक जुल्फिकार ने दिल्ली आकर प्रेस को इसकी जानकारी दी। राज्य सरकार ने इस घटना का कोई संज्ञान नहीं लिया और यह मानने से भी इनकार कर दिया कि ऐसी बर्बर हत्याएं हुई हैं। इस कारण से मृतकों के परिजनों को मृत्यु प्रमाण-पत्र तक नहीं दिए जा रहे थे। पीयूडीआर ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करके अनुसंधान व मुआवजे दिए जाने की प्रार्थना की थी। उस समय ग्रीष्मावकाश था। छुट्टी के उन दिनों में न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र जज थे, जो याचिकाकर्ता को इलाहाबाद उच्च न्यायालय जाने की सलाह दे रहे थे। परंतु बाद में याचिकाकर्ता की दलील को स्वीकार करते हुए उन्होंने थोड़ी राहत दी, जिससे परिजनों को मृत्यु प्रमाण-पत्र दिए गए।

मीडिया में हंगामे तथा जन-दबाव के कारण राज्य सरकार ने सीबी-सीआईडी से इसकी जांच करवाई, जिसने 1994 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सार्वजानिक करने का निर्देश देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, साल 1996 में गाजियाबाद की अदालत में 19 लोगों के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल किए गए, किंतु किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। अदालत ने 23 गैर-जमानती वारंट जारी किए, परंतु अदालत को बताया गया कि ये सभी अभियुक्त फरार हैं। बाद में सूचना का अधिकार कानून के तहत परिजनों ने उन अभियुक्तों के बारे में सूचना मांगी, तो पता लगा कि वे सभी सरकारी सेवा में बने हुए हैं। इसके बावजूद सरकार का अदालत के समक्ष यह कहना कि वे फरार हैं, अभियुक्तों व पुलिस के बीच की दुरभि-संधि की पुष्टि करता है। न्यायपालिका भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यदि प्रशासन अभियुक्तों को पकड़ने में हीला-हवाली करे, तो अदालत को वरिष्ठ अधिकारियों को निर्देश देने का अधिकार है। इसका अनुपालन न होने की स्थिति में निचली अदालत उच्च न्यायालय को उस अधिकारी के विरुद्ध अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के लिए लिख सकती है।
सितंबर 2002 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर मामले को गाजियाबाद से दिल्ली स्थानांतरित किया गया। परंतुु जैसा कि अक्सर होता है, एक पक्ष मामले को लटकाने के लिए स्थगन पर स्थगन लेता रहा। विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति भी समय पर नहीं की गई। यानी सरकार की ओर से भी अभियुक्तों को बचाने के भरपूर प्रयास किए गए। यदि 28 वर्षों के बाद ‘संशय का लाभ’ देकर अभियुक्तों को रिहा कर दिया जाता है, तो यह हमारे अभियोजन, अन्वेषण के साथ-साथ न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा करता है।

भारत की न्याय प्रणाली का सबसे बड़ा रोग है विलंब। तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या तीन जनवरी 1975 को हुई और लगभग 40 वर्षों के बाद ट्रायल कोर्ट का फैसला बीते अक्तूबर में आया। अभी उच्च व उच्चतम न्यायालय में अपील व सुनवाई बाकी है। असम का मचल लालुंग तो 54 वर्षों तक जेल में बिना किसी ट्रायल के रहा। इस बात का कोई रिकॉर्ड भी नहीं था कि उसने कोई अपराध किया था। एक अखबार में छोटी-सी रिपोर्ट छपने के बाद उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका के जरिये उसका मामला उठाया गया। फिर उसे एक रुपया के निजी मुचलके पर जेल से रिहा किया गया।

सात अप्रैल, 2010 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक दिलचस्प फैसला दिया कि सीरियल किलर ‘रिपर चाको’ के साथ कोई सदाशयता न दिखाई जाए। उसे तीन लगातार आजीवन कारावास की सजा दी गई। चाको ने केरल के कन्नूर सेंट्रल जेल से पांच वर्ष पूर्व याचिका दायर की थी। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय को यह पता नहीं था कि चाको ने जेल के अंदर 24 नवंबर, 2005 को ही फांसी लगा खुदकुशी कर ली थी। 

विश्व में सबसे लंबे वक्त तक चलने वाले मुकदमे का रिकॉर्ड भारत के नाम ही है, जो गिनीज बुक में दर्ज है। पुणे में 28 अप्रैल, 1966 को बाला साहब पटलोजी थोराट को उस मामले में निर्णय मिला, जो उनके पूर्वजों ने 761 साल पहले 1205 में दायर किया था। मुद्दा था, सार्वजनिक समारोहों में अध्यक्षता करने का।

बहरहाल, हाशिमपुरा का निर्णय विलंब की समस्या पर गंभीरता से गौर करने का अवसर है। ब्रिटेन में ‘रॉन्गफुल कन्विक्शन कमिशन’ गलत सजा दिए जाने के मामले में रिहाई तथा गलत रिहाई के मामले में पुनर्विचार की अनुशंसा करता है। अदालत इसका संज्ञान लेती है। इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी इसका संज्ञान स्वयं लेकर उचित अनुशंसा करनी चाहिए। रामदेव चौहान के मामले में उसने अनुशंसा की थी कि उसका मृत्युदंड आजीवन कारावास में बदल दिया जाना चाहिए और राज्यपाल ने उस अनुशंसा को मानते हुए ऐसा किया था।

Thursday, 26 March 2015

क्या भारतीय अंक संपदा नष्ट होने दें? @तरुण विजय

आप या आपके बच्चों में से कितने ऐसे होंगे जो अपनी भाषा के अंक न केवल पहचान सकते हैं, बल्कि लिख भी सकते हैं? एक ऐसी पीढ़ी उभर उठी है, जो शायद इस बात में भी गर्व महसूस करती है कि वह हिंदी के अंक पहचानती भी नहीं.
 
भारत की अंकगणितीय विरासत और संपदा के खत्म होते जाने पर कोई चिंता नहीं हो रही है. भारत वह देश है जिसने दुनिया को अंक दिये, शून्य दिया, दशमलव प्रणाली दी. यहां के वैज्ञानिकों ने दो हजार वर्ष पूर्व पृथ्वी की परिधि मापी, लाखों प्रकाश वर्ष दूर ग्रहों की स्थिति का आकलन किया, उनकी ज्यामितीय एवं खगोलीय गणना की तथा उनको नाम दिये. किंतु दास मानसिकता से ग्रस्त भारतीय मैकाले पुत्रों को भारत की विरासत की महानता और ज्ञान संपदा सहन नहीं होती. वे हर विकास, वैज्ञानिक प्रगति तथा अन्वेषण का श्रेय केवल फिरंगी अंगरेजों को देकर संतुष्ट होते हैं.
 
पिछले दिनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के पूर्व अध्यक्ष एवं महान वैज्ञानिक जी माधवन नायर ने जब कहा कि वेदों में चंद्रमा पर जल की उपस्थिति की चर्चा है तथा आर्यभट्ट जैसे वैज्ञानिकों को आइजैक न्यूटन से भी पहले गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का पता था, तो खलबली मच गयी. भास्कराचार्य ने ग्रहों की स्थिति और उनकी गति का गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन किया था. तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे भौतिकी, रसायन, खगोलशास्त्र, अंकगणित आदि पर लाखों हस्तलिखित पुस्तकें थीं. बख्तावर खिलजी और मोहम्मद-बिन-कासिम जैसे क्रूर विदेशी आक्रमणकारियों ने ऐसे सभी गं्रथालय जला दिये और आचार्यो को मार डाला. इस कारण ज्ञान परंपरा का सातत्य टूट गया.
 
ये तमाम गणनाएं और अन्वेषण जिन भारतीय अंकों के आधार पर हुए, वे आज अमेजन की भाषाओं तथा अंदमान की जनजातियों की भांति लुप्त होने के कगार पर हैं. सामान्यत: बाजार, मीडिया, सरकारी दफ्तरों, राजनेताओं के काम-काज तथा विद्यालयों में केवल अंगरेजी के अंकों का इस्तेमाल होता है. अंतरराष्ट्रीय अंकों के नाम पर हमने अपने अंक खोना स्वीकार कर लिया है.
 
विडंबना यह है कि जिस भारत ने अंक प्रणाली विश्व को दिया, वह अपने अंक छोड़ कर पश्चिम से वापस औपनिवेशिक दासता के कारण हम तक पहुंचे अंकों को अपना बैठा है. साधारणतया हम या हमारे बच्चे किसी मोबाइल नंबर को हिंदी के अंकों में अथवा बंगला, तमिल और तेलुगू बच्चे अपनी मातृभाषा के अंकों में बोलने में या तो असमर्थ होते हैं अथवा बहुत कठिनाई महसूस करते हैं. दुर्भाग्य से हिंदी के समाचार पत्रों ने भी अंगरेजी के अंकों का ही उपयोग शुरू कर दिया है.
 
हमारी नयी पीढ़ी को तो यह भी नहीं बताया जाता है कि शून्य और अंक अरब समाज ने भारत से प्राप्त किये हैं और आज भी वहां अंकों को ‘हिंदसे’ अर्थात् भारत से आये हुए कहा जाता है. भारत का शून्य अरब में सीफर हो गया और वहां से लैटिन में जेफिरम और अंगरेजी में जीरो हुआ. लैटिन और पश्चिमी विश्व अंकों को हिंदू अरेबिक या इंडो अरेबिक न्यूमरल ही कहता है.
 
फ्रांस के विश्वविख्यात गणितज्ञ पीयरे सीमोन लाप्लास ने लिखा था- ‘वह देश भारत ही है, जिसने हमें दस प्रतीकों के माध्यम से सभी संख्याएं प्रकट करने की मौलिक पद्धति दी. इनमें से प्रतीक न केवल अपनी स्थिति के अनुसार मूल्य प्राप्त करता है, बल्कि उसका निरपेक्ष मूल्य भी होता है और इसने हर प्रकार की गणनाओं को अद्भुत सरलता प्रदान कर दी. इस उपलब्धि की विराटता और महानता का हम तब बेहतर अंदाजा लगा सकेंगे कि हमारे प्राचीन युग के महानतम शिखर बौद्धिक पुरुषों आर्कीमीडीज और अपोलोनियस इन अन्वेषणों से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हुए गुजर गये.’
 
भारत के अंगरेजी स्कूलों में पढ़े बच्चे न केवल आधुनिक व्यापार, वाणिज्य और ज्ञान के पश्चिमी द्वारों पर दस्तक देने में समर्थ हो जाते हैं, बल्कि वे बेहतर वेतन तथा पदों के भी पात्र माने जाते हैं. पर इसके साथ ही वे भारत और भारतीयता से भी दूर कर दिये जाते हैं. 
 
उन्हें यह कभी बताया ही नहीं जाता कि उनके पूर्वजों ने अंगरेजी विश्वविद्यालयों या पश्चिम में पढ़ाई किये बिना विश्व को अचंभित करनेवाले आविष्कार किये तथा पृथ्वी पर कहीं ऐसा सौंदर्य न मिले, वैसे मंदिर, मूर्तिशिल्प, कलाकृतियां, नगरशिल्प के वैज्ञानिक आधार और 226 फीट ऊंचे मंदिर के शिखर पर 80 टन की एक चट्टान गोपुरम के सौंदर्य के लिए आज से दो हजार साल पहले इस प्रकार पहुंचा कर स्थापित किया कि वह तंजौर का मंदिर आज भी जस-का-तस दुनिया के बड़े-बड़े इंजीनियरों को हैरत में डाल रहा है. ताजमहल जिन कारीगरों और भारतीय शिल्पकारों ने बनाया, वे इटली या फ्रांस में नहीं पढ़े थे. वे किन अंकों का इस्तेमाल करते थे? वे किन पैमानों से मिलीमीटर से भी सूक्ष्म आकलन कर ऐसे भवन बनाते थे, जो दो-दो हजार साल अपने सौंदर्य से सबको मुग्ध करते रहे? 
 
उनके पास अंगरेजी के अंक नहीं थे. वे मीटर, फीट, इंच, सेंटीमीटर, मिलीमीटर में माप नहीं करते थे. वे मिनट या सेकेंड में समय गणना नहीं करते थे. वे किलो या लीटर में वस्तुओं या द्रव पदार्थो को नहीं तौलते थे. वे किलोमीटर या फरलांग में दूरियों की पैमाइश नहीं करते थे. तो फिर वे किन अंकों का इस्तेमाल करते थे? वे अंक हमारे लिए मंदिर में रखे देवता की तरह पवित्र और परंपरा के वाहक हैं. जैसे मंदिर में आरती की लौ हो या देवता के माथे पर चंदन का शुभ तिलक, जैसे बाल रवि की रश्मियों से दीप्तिमान हिमालय सुनहरी आभा से दमक रहा हो, जैसे भीड़ में खोये बालक को अचानक मां का आंचल दिख जाये, ऐसे इन अंकों को देख कर मन में भाव जगता है. अगर नहीं जगता तो आप अभागे हैं, क्योंकि अपनी मां की ममता और वात्सल्य से दूर रहने के इतने आदी हो गये हैं कि उसकी कमी महसूस ही नहीं कर पाते.
 
इन्हीं भारतीय अंकों के कारण केवल हिंदू गणितज्ञों ने लाख, करोड़, अरब, खरब, शंख, नील, पदम तक गणना संभव कर डाली. वरना लैटिन में एक ही अक्षर को बार-बार दोहरा कर या आगे-पीछे करके दो-दो पंक्तियों की लंबाई में संख्या लिखी जाती थी. यह केवल वैदिक गणित एवं भारतीय अंकों के कारण संभव हुआ. 
 
क्या यह संभव है कि हम कम-से-कम अपने विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं, समाचार पत्रों एवं अपने व्यक्तिगत व्यवहार में हिंदी के अंकों का प्रयोग पुन: प्रारंभ करें तथा इस प्रकार अपने अंकों की महान विरासत और संपदा को नष्ट होने से बचा लें? अंक केवल प्रणाली और मूल्य ही नहीं, बल्कि इतिहास  के भी वाहक होते हैं.
 

    भगत सिंह-लोहिया के सांचे में ढलने का वक्त @पुष्पेश पंत



     भगत सिंह की तुलना में लोहिया अपेक्षाकृत भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के महारथी आज भी नाममात्र को उनका स्मरण कर चुनावी रणक्षेत्र में पदार्पण करते हैं! लेकिन, भगत सिंह की तरह उन्हें भी श्रद्धा सुमन चढ़ा कर इतिश्री हो जाती है.

    23 मार्च का दिन भारतवासियों के लिए यादगार होना चाहिए, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि आज की पीढ़ी को यह बताने की जरूरत महसूस होने लगी है कि इस तिथि की खासियत क्या है? यह दिन है भगतसिंह की शहादत का और इसी दिन संयोगवश जन्म हुआ था डॉ राममनोहर लोहिया का. स्कूल का मुंह देख चुका शायद ही कोई किशोर होगा, जिसके लिए ये नाम अजनबी होंगे.

    देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेते वक्त अपने प्राण न्यौछावर करनेवालों में शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह का चेहरा एक पीढ़ी पहले तक तकरीबन हर घर की दीवार की शोभा बढ़ाता था. कुछ बरस पहले बनी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने जाने कितनी भूली-बिसरी यादें ताजा करा दी थीं! यह हमारा दुर्भाग्य है कि नेहरू वंश के आधिपत्य वाले कुनबापरस्त जनतंत्र में स्वाधीनता संग्राम का इतिहास लेखन बुरी तरह असंतुलित और पक्षधरता से प्रदूषित रहा है. भगत सिंह और उनके साथियों को कभी ‘आतंकवादी’ तो कभी ‘क्रांतिकारी’ का लेबल चस्पां कर पेश किया जाता रहा है, तो कभी इस छवि पर रोमानी मुलम्मा चढ़ाया जाता है. अधेड़ नेहरू को युवा हृदय सम्राट के सिंहासन पर बैठाने की उतावली में भगत सिंह और उनके साथियों की विधिवत अवहेलना सरकारपरस्त इतिहासकारों द्वारा की जाती रही है. भगत सिंह की बौद्धिक-वैचारिक विरासत वाला अध्याय हमारे नौजवानों के लिए अनजाना है. भगत सिंह ने मार्क्‍सवाद और इससे इतर समाजवाद का गहरा अध्ययन किया था, यूरोपीय इतिहास के उतार-चढ़ाव की अच्छी जानकारी भगत सिंह को थी. यह सुझाना तर्कसंगत है कि यदि भगत सिंह जीवित रहते, तो गांधी के सत्याग्रह के बारे में वह भी अनुशासित तरीके से मनन-चिंतन करते और इसे अपने समन्वयात्मक तरीके से भारत के हालात के अनुसार इस्तेमाल करने की कोशिश करते.
     
    यह बात कम लोगों को याद रही है कि फांसी के तख्ते पर चढ़ने के पहले भगत सिंह ने 114 दिन का अनशन इसलिए किया था कि जेल में हिंदुस्तानी एवं गैरहिंदुस्तानी राजनीतिक बंदियों के बीच भेदभाव नहीं किया जाये. भगत सिंह की समाजवादी-अहिंसक-समन्वयात्मक नेतृत्व क्षमता की उपेक्षा को साजिश ही कहा जाना चाहिए. यदि यह मक्कारी नहीं होती, तो आज भी किसी दो टकिया के क्रिकेट खिलाड़ी की जगह उन्हीं का चेहरा देशी नौजवानों का हरदिल अजीज होता!
     
    डॉक्टर लोहिया का जन्म भगत सिंह के जन्म के तीन साल बाद हुआ था. उन्हें भी उसी पीढ़ी का माना जाना चाहिए. कभी वह नेहरू की आंखों के तारे और कांग्रेस पार्टी में उदीयमान नेता समङो जाते थे. पर कांग्रेस में नेहरू की ताजपोशी की सियासत ने उन्हें कांग्रेस के दूसरे समाजवादी विचारकों-कार्यकर्ताओं की तरह बाहर निकलने को मजबूर कर दिया. डॉ राममनोहर लोहिया को निरंतर यह दुष्प्रचार कर खारिज करने की कोशिश कांग्रेसियों ने की है कि उनका वैमनस्य नेहरू से व्यक्तिगत द्वेष के कारण था. हीनता की ग्रंथि से पीड़ित वह हर अवसर पर नेहरू को घेरने-कटघरे में खड़ा करने में जुटे रहते थे. हमारी समझ में आज इस मूर्खतापूर्ण आरोप का प्रतिकार करने की कोई जरूरत नहीं बची है.
     
    अपने जीवनकाल में ही लोहिया और उनके साथी नेहरू की अंगरेजियत और अंगरेजपरस्ती के खतरे से देश को आगाह कर चुके थे. नागरिक के बुनियादी अधिकारों का हनन आजादी के तत्काल बाद नेहरू के कमोबेश निरंकुश शासनकाल में आरंभ हो चुका था. सिविल नाफरमानी का आह्वान बारंबार लोहिया ने किया. इस बात को रेखांकित करने की जरूरत है कि लोहिया भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उस खांटी विचारधारा और व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो नेहरू वाले औपनिवेशिक मानसिकताग्रस्त ध्रुव का विपरीत है. सामंती आभिजात्य से मुक्त और वास्तव में समता पोषक. गांव और शहर का रिश्ता हो, या औरत मर्द का; सवर्ण तथाकथित ऊंची जाति का द्वंद्व निचले-पिछड़े तबके से हो या बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के नाम पर सांप्रदायिकता के जहर का संक्रमण, लोहिया का चिंतन और कर्म नेहरू की सोच, कथनी और करनी के पाखंड तथा दोहरे मानदंडों का पर्दाफाश करनेवाला था.

    अरसे से इस बात का ढोल पीटा जाता है कि नेहरू अकेले ऐसे हिंदुस्तानी थे, जिसे बाहर की दुनिया की खबर रहती थी. उनका विश्वदर्शन इतिहास के अनोखे ज्ञान से आलोकित था, दूरदर्शी था और इसलिए आंख मूंद कर शिरोधार्य करने लायक था, क्योंकि वह सर्वज्ञ थे. विज्ञान की पढ़ाई के दौरान नेहरू की उपलब्धियां साधारण ही कही जा सकती हैं और इतिहास का उनका ज्ञान मौलिक शोध पर आधारित नहीं था. ‘आत्मकथा’ हो या ‘भारत की खोज’ या फिर ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ सभी जगह यह बात साफ झलकती है. आजकल नेहरू के सपनों और सोच के भारत की चर्चा होती है. इसे ही भारत की असलियत और पारंपरिक पहचान-विरासत का प्रयाय माननेवाले मुखर विचारकों की कमी नहीं. इस सूची में रामचंद्र गुहा, सुनील खिलनानी, फरीद जकरिया, मणिशंकर अय्यर के साथ शशि थरूर को शामिल किया जाता है. सब-के-सब खुद नेहरू की ही तरह अंगरेजियत और अंगरेजी के मारे या उसी के पाले-पोसे हैं.
     
    अब एक नजर फेरिये लोहिया की तरफ जिनका हठ भारत की मौलिक प्रतिभा को भारतीत भाषाओं से सींचने का था. जो खुद को बेहिचक कुजात गांधीवादी कहते थे और मार्क्‍सवाद को गोरों का अश्वेतों के खिलाफ आखिरी हथियार बतलाते थे. पाकिस्तान के सिलसिले में महासंघ की बात करते थे और भारत की असली प्रतिद्वंद्विता-स्पर्धा चीन के साथ मानते थे. लोहिया की राजनीति हमेशा प्रतिपक्ष की राजनीति रही और वह वंचित को ही वाणी देने के काम को अहमियत देते थे. धर्मनिरपेक्षता की मरीचिका से मुक्त होकर वह बेहिचक अपने साङो के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्तराधिकार पर गर्व करते थे. यही अद्भुत मौलिक समतापोषक सोच विदेश नीति और सीमांतवासी जनजातियों के संदर्भ में भी लोहिया के लेखन तथा भाषणों में मिलता है.
     

    भगत सिंह की तुलना में शायद लोहिया अपेक्षाकृत भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के महारथी आज भी नाममात्र को उनका स्मरण कर चुनावी रणक्षेत्र में पदार्पण करते हैं! कड़वा सच यह है कि भगत सिंह की तरह उन्हें भी श्रद्धा सुमन चढ़ा कर इतिश्री हो जाती है. अब इस दिन की महत्ता को समझते हुए हमें इनके विचार व कर्म के सांचे में खुद को ढालने का संकल्प करने का वक्त आ गया है

    50 साल से थी अदावत, अब मिल रहे हैं दिल @ज़ुबैर अहमद

    ओबामा, राउल कास्त्रो
    क्यूबा के 'पहले उप राष्ट्रपति' मिगुएल डायज़ कनेल सोमवार को भारत के दो दिनों के दौरे पर आए लेकिन इस खबर को सुर्ख़ियों में जगह नहीं मिल सकी जबकि क्यूबा भारत के घनिष्ठ दोस्तों में से एक है.
    लगभग चार महीने पहले यानी 17 दिसंबर 2014 का दिन क्यूबा और अमरीका के लिए एक ऐतिहासिक दिन था. लेकिन यहां भारत में वह खबर भी चर्चा में अधिक नहीं रही.
    तीन साल पहले, 60 साल में पहली बार, क्यूबा में कई निजी या कहें ग़ैर सरकारी चाय की दुकानें और कैफ़े आदि खुलीं लेकिन इस खबर को भी अधिक अहमियत नहीं मिली. अब तक क्यूबा में हर व्यवसाय और हर दुकान सरकार की मिल्कियत होती थी.

    क्रांति के बाद मिली सत्ता

    क्यूबा
    क्यूबा उन गिने-चुने देशों में है जिसने पचास साल से अधिक समय गुज़ारने के बावजूद अमरीका के आगे सिर नहीं झुकाया.
    फिदेल कास्त्रो ने जब 1959 में क्रांति लाकर सत्ता संभाली तो अमरीका ने क्यूबा की वामपंथी सियासत और समाजवादी क्रांति के कारण इससे अपने राजनयिक संबंध तोड़ डाले. कास्त्रो ने सोवियत यूनियन से घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़े.
    कास्त्रो ने 1962 में सोवियत यूनियन को अपने देश में परमाणु मिसाइल लगाने की इजाज़त दी जिससे अमरीका और सोवियत यूनियन के बीच परमाणु मिसाइल जंग का खतरा पैदा हो गया.जब खतरा टला तो क्यूबा सोवियत यूनियन के और भी क़रीब चला गया.
    फ़िदेल कास्त्रो, क्यूबा
    फिदेल कास्त्रो की वामपंथी सरकार ने सभी निजी उद्योग, बैंकों और व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया, यानि सब कुछ सरकार की मिल्कियत बन गया.
    अमरीका ने फिदेल कास्त्रो और उनकी सरकार पर मानवाधिकारों के उल्लंघन, अपने सियासी प्रतिद्वंद्वियों को जेलों में बंद करने का इल्ज़ाम लगाया. अमरीका ने क्यूबा के खिलाफ हर तरह के प्रतिबंध लगा दिए जो आज तक जारी हैं.

    शीत युद्ध और सोवियत विघटन

    सोवियत यूनियन के 1991 में बिखरने, कोल्ड वॉर का अंत होने और हाल के वर्षों में इस्लामिक चरमपंथियों के उभरने के बाद इस बदलती दुनिया में कोई स्थायी दुश्मन नहीं. दुनिया में अमरीका की प्राथमिकता बदली है.
    यूएसएसआर कांग्रेस
    क्यूबा बदल रहा है अमरीका भी अपनी नीति में परिवर्तन ला रहा है. अमरीका और क्यूबा के बीच 50 साल से टूटे रिश्ते अब जुड़ने जा रहे हैं.
    17 दिसंबर, 2014 के दिन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने क्यूबा से संबंध जोड़ने का एलान किया.
    ये घटना इतनी ऐतिहासिक थी कि इसे क्यूबा और अमेरिका की आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी और राष्ट्रपति ओबामा के उस भाषण को भी.

    अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा
    ओबामा ने कहा, "आज अमरीका क्यूबा के लोगों के साथ सम्बन्ध बदल रहा है. पचास साल से अधिक समय में हमारी नीति में इस अहम परिवर्तन के अंतर्गत हम अपने बेअसर पुराने नज़रिए को बदलते हुए क्यूबा के साथ संबंधों को सामान्य करने की शुरुआत कर रहे हैं."

    जनता की इज़्ज़त के क़ाबिल

    उधर व्हाइट हाउस से ओबामा ने संबंध सुधारने के एलान किया तो दूसरी तरफ क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो ने राजधानी हवाना से.
    फिदेल कास्त्रो, राउल कास्त्रो, क्यूबा
    फिदेल कास्त्रो और क्यूबा के वर्तमान राष्ट्रपति राउल कास्त्रो.
    राउल ने कहा, "राष्ट्रपति ओबामा का ये फैसला हमारी जनता की इज़्ज़त और सम्मान के क़ाबिल है. हम क्यूबा और अमरीका के बीच संबंधों को सुधारने में वैटिकन और ख़ास तौर से पोप फ्रांसिस की मदद की सराहना करते हैं और उनका शुक्रिया अदा करते हैं."
    कास्त्रो के भाषण में पोप फ्रांसिस की कोशिशों का ज़िक्र है. जी हां, इस ऐतिहासिक लम्हे की कामयाबी के लिए अमरीका ने पोप फ्रांसिस की मदद ली थी जिनका कैथोलिक धर्म को माने वाले क्यूबा के निवासियों में गहरा असर है.
    इस ऐतिहासिक दिन तक का सफर तय करने में दोनों देशों को 18 महीने लग गए. कई दौर की ख़ुफ़िया मुलाक़ातों का ये नतीजा था.
    फ़िदेल कास्त्रो, क्यूबा
    क्यूबा वालों के लिए ये सब अचानक हुआ. वहां इस एलान के बाद जश्न का माहौल था.
    राजधानी हवाना में मौजूद बीबीसी संवाददाता विल ग्रांट कहते हैं ये इतिहासिक एलान क्यूबा वालों के लिए उम्मीद से भी बढ़ कर बात थी.
    ग्रांट के अनुसार, "यहां उत्साह का माहौल है. उन्हें लगता है कि इससे रोजगार के अवसर पैदा होंगे आमदनी बढ़ेगी और देश में खुशहाली आएगी. आम तौर से क्यूबा के लोगों में इसे लेकर उत्साह है "

    कूटनीतिक लचक

    लेकिन अमरीकी कूटनीति में अचानक लचक कैसे आई? इस परिवर्तन के कारण क्या थे?
    ओबामा, राउल कास्त्रो
    बीबीसी मुंडो के विशेषज्ञ आर्तुरो वालस कहते हैं, "मेरी समझ में इसके कई कारण हैं ख़ास कारण ये है कि अमरीका ने ये महसूस किया कि उसकी नीति काम नहीं कर रही है. क्यूबा पर पचास साल से लगे अमरीकी प्रतिबन्ध से क्यूबा में लोकतंत्र बहाल करने का अमरीका का उद्देश्य काम नहीं कर रहा था."
    "इसके अलावा अब दुनिया काफी बदल चुकी है. अमरीका की विदेशी नीतियों का केंद्र अब क्यूबा या लातिनी अमरीका नहीं रहा."
    क़ुदरत का ये नियम है कि हर कुछ समय बाद पुरानी व्यवस्था बदलती है नया दौर का आरम्भ होता है. लेकिन 17 दिसंबर की अमरीका और क्यूबा के बीच संबंधों में सुधार की घोषणा एक गंभीर बदलाव है. तब से आगे कितनी प्रगति हुई है?
    क्यूबा
    हवाना में बीबीसी संवाददाता विल ग्रांट कहते हैं, "अगर आप दशकों की गहरी दुश्मनी को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं तो इस में समय लगता है. मेरे विचार में अमरीकियों की ख्वाहिश थी कि इसमें तेज़ी से प्रगति हो."
    "राष्ट्रपति ओबामा चाहते हैं कि पनामा में अप्रैल में होने वाले लातिन अमरीकी शिखर सम्मलेन से पहले दोनों देश एक दूसरे की राजधानी में दूतावास खोलें लेकिन अब अप्रैल तक ये मुश्किल नज़र आता है."

    बदलाव की संभावना

    क्यूबा अमरीका
    अमरीका ने कुछ कदम उठाए हैं जैसे कि अब अमरीकी नागरिक सीमित रूप से क्यूबा जा सकते हैं. क्यूबा ने निजी व्यसाय को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है.
    भले ही दूतावास न खुलने और क्यूबा पर अमरीकी प्रतिबन्ध के न उठने के कारण दोनों देशों में आशा की किरणें थोड़ी मद्धम हुई है लेकिन क्यूबा में आर्थिक सुधार के आसार साफ़ नज़र आते हैं.
    संभव है कि आने वाले दिनों में आर्थिक दबाव में आकर क्यूबा में बदलाव आए और एक दिन वहां चुनाव हों, लोकतंत्र बहाल हो जाए. यही तो उद्देश्य है अमरीका का.

    Wednesday, 25 March 2015

    'बुरी लड़की' मैं कैसे बनी? @स्तुति कोठारी

    स्तुति कोठारी
    'अ बैड गर्ल' या 'एक बुरी लड़की' का ज़िक्र कॉलेज के दिनों में असाइनमेंट के एक टॉपिक के तौर पर हमारे सामने आया था.
    कोर्स का नाम था 'विज़ुअल कल्चर और वर्नाकुलर'.
    आम तौर पर की जाने वाली तमाम अनाप शनाप बातों को, ग़ैरक़ानूनी कही जा सकने वाली आदतों और कुछ और चीज़ों के दरमियां हमने 'एक बुरी लड़की' का टॉपिक एक एजुकेशनल पोस्टर के लिए लिया.
    क्योंकि यह पहली बार था, इसके बारे में कभी सुना नहीं गया था और हास परिहास के साथ काम करने के लिए हमें एक मौका मिला था.

    पढ़े विस्तार से

    एक बुरी लड़की का पोस्टर
    इसलिए एक डिज़ाइनर के तौर पर हमारे लिए यह चुनौतीपूर्ण भी था. हमें इस बात का ज़रा सा भी अंदाज़ा नहीं था कि यह शुरुआत इस तरह से एक ज़बर्दस्त चलन का रूप ले लेगी.
    तो सवाल उठा कि आखिर 'एक बुरी लड़की' कौन होती है? हम कुछ विचारों के साथ आए और उनमें से कई तो हमारे लिए अजीबोग़रीब थे.
    लेकिन ये वो बातें थीं जो हमारे अनुभवों का हिस्सा थीं, जिनके बारे में लोग सुनते थे या समाज में जिन्हें देखा जाता था.
    उनमें से 16 पर विचार करने के बाद हमने से इसे कम करके 12 कर दिया. कुछ विचार ऐसे भी थे- 'कंडोम खरीदना' या बस 'घर के बाहर देर तक रहना.'

    'बुरी लड़की'

    एक बुरी लड़की का पोस्टर
    'ज्यादा खाने वाली' या 'बहुत कम खाने वाली' वाली लड़की का ज़िक्र हमारे समाज में कुछ इस तरह से किया जाता है मानो हर कोई लड़की को संतुलित होने की नसीहत दे रहा हो.
    यानी लोग मानते हैं कि बेहद दुबली पतली होना या मोटी होना 'बुरी लड़की' के लक्षण हैं.
    एक डिजाइनर के तौर पर हमारा काम कुछ ऐसा बनाना था जो किसी एजुकेशनल पोस्टर की तरह लगे.
    जब हमारे पोस्टर को ज़बरदस्त प्रचार मिला, हमने देखा कि उसे कई तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं. आप चाहें उनसे नफरत करें या फिर मोहब्बत.
    यह इस बात पर निर्भर करता था कि कोई इसे किस तरह से देखता है.

    लोकप्रियता

    स्तुति कोठारी का गर्ल गैंग
    कुछ लोगों को यह एक सच्चाई लगी या फिर एक बार फिर से सरकार की ओर से कुछ नया और विवादास्पद लगा.
    हम बहुत खुश थे लेकिन ठीक इसके साथ इस पोस्टर को मिल रही प्रतिक्रियाओं और लोगों की नाराज़गी पर हमें हंसी भी आ रही थी.
    मेरे लिए 'एक बुरी लड़की' का विचार अस्तित्व नहीं रखता था. जिस लम्हे हमने कोई बात रखी, हमने उसे एक परिभाषा भी दी और उसकी हद भी तय की.
    इसे मिली ज़बरदस्त लोकप्रियता के पीछे शायद ये वजह रही होगी क्योंकि लोग खुद को इससे जोड़ पा रहे थे.

    समाज में 'खराब'

    लड़की
    सच तो ये है कि हम जिस समाज में रह रहे हैं, उसके ज्यादातर तौर तरीके लिंग के आधार पर तय किए जाते हैं और इसे लेकर लोगों की मान्यताएं हैं.
    ऐसा क्यों होता है कि जब कोई औरत किसी मर्द की तरह ही कोई काम करती है तो उसे अलग तरीके से देखा जाता है? वह गोवा क्यों नहीं जा सकती?
    और उसके लिए किसी मर्द को घूरना गलत क्यों है जबकि मर्द औरतों को देखकर हमेशा लार टपकाते रहते हैं? क्या सिर्फ यही बात कि उसके पास स्तन हैं और सिर्फ इसी से वह समाज में 'खराब' हो जाती है?
    यह पोस्टर समाज में चली आ रही परिपाटी पर एक तरह की प्रतिक्रिया के तौर पर सामने आया. इसे एक्टिविज़्म के तौर पर भी देखा गया. ये उससे बहुत अलग था जो हमने शुरू में सोचा था.
    (स्तुति कोठारी सृष्टि स्कूल ऑफ़ आर्ट डिजाइन एंड टेक्नॉलॉजी, बेंगलुरु से जुड़ी हुई हैं.)

    वापस ली जा रही है दान दी गई ज़मीन @मनीष शांडिल्य

    भूदान आंदोलन के दौरान विनोबा भावे
    भूदान आंदोलन के दौरान 1950 और 1960 के दशक में लगभग साढ़े छह लाख एकड़ ज़मीन बिहार में दान दी गई थी.
    स्वतंत्रता सेनानी और वरिष्ठ गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे की अगुवाई में 1951 में यह आंदोलन शुरु हुआ था.
    इस आंदोलन से मिली ज़मीन के बड़े हिस्से पर कानूनी रुप से बिहार में साढ़े तीन लाख से अधिक परिवारों को बसाया भी गया.
    लेकिन अब दान दाता या उनके परिवारों के ज़मीन वापस बेचे जाने, उन पर हक़ जताने या फिर लाभान्वित परिवारों के दान में मिली ज़मीन बेचने के कई मामले सामने आते रहते हैं.

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    बिहार, भूदान आंदोलन, ज़मीन, विवाद
    लगभग दो दशक पहले 1996 में भारत की आज़ादी का दिन अररिया के बिंदेश्वर मेहतर के लिए बहुत खास तोहफ़ा लेकर आया था.
    उस दिन बिंदेश्वर और उन जैसे 86 दलित परिवारों के बीच भूदान के तहत मिली ज़मीन बांटी गई थी. हर परिवार को क़रीब 1740 वर्गफ़ुट ज़मीन के काग़ज और 700 रुपये मिले थे.
    उस दिन को याद करते हुए लगभग 50 साल के बिंदेश्वर का चेहरा आज भी चमक उठाता है.
    वे कहते हैं, "गरीबी के कारण हम ज़मीन नहीं ख़रीद सकते थे. ज़मीन मिलने से हमें रहने के लिए जगह मिल गई."

    मकान भी मिला

    बिहार, भूदान आंदोलन, ज़मीन, विवाद
    बिंदेश्वर का परिवार उन 24 परिवारों में शामिल था जिन्हें एक साल बाद सरकार ने छोटा पक्का मकान भी बना कर दिया.
    अपने घर के पास स्थित कॉलेज में अस्थाई सफ़ाई कर्मचारी के रुप में काम करने वाले बिंदेश्वर का मकान तो आज भी सही-सलामत है लेकिन कुछ मकान तोड़े जा चुके हैं.
    और एक बार फिर से बिंदेश्वर और अररिया के जयप्रकाश नगर इलाके में बसे दूसरे अन्य परिवारों पर भूमिहीन होने का खतरा मंडरा रहा है.

    दान की ज़मीन बेची

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    दरअसल इन परिवारों को 1981 में भूदान की गई पांच एकड़ ज़मीन पर बसाया गया था.
    लेकिन 2012 में दानदाता ने पांच में से साढ़े तीन एकड़ ज़मीन वापस पाने के लिए भूमि सुधार उप समाहर्ता यानी डीसीएलआर कोर्ट में मुकदमा दायर किया और जीत भी गए.
    और फिर जिन्हें ये ज़मीन दानदाता ने बेची वे अब समय-समय पर जयप्रकाश नगर में बसे परिवारों को हटाने की कोशिशें करते रहते हैं. ज़मीन के 'नए मालिकों' ने कई घरों को गिरा दिया है.
    फ़िलहाल एक स्थानीय संगठन की पहल पर प्रभावित परिवारों के आवेदन के बाद यहां धारा 144 लगी हुई है.

    मामले और भी हैं

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    बिहार में भूदान की ज़मीनों से संबंधित अररिया जैसे या इससे मिलते-जुलते मामले कई ज़िलों में चल रहे हैं.
    ऐसे लगभग दो हजार मामले हाईकोर्ट और बिहार भूमि न्यायाधिकरण से लेकरज़िला न्यायालयों में आज भी लंबित हैं.
    भागलपुर के तिलका मांझी इलाके में दान पर यह कहते हुए आपत्ति दर्ज की गई है कि दानकर्ता ने अपनी पत्नी के हिस्से की भी ज़मीन दान में दे दी थी.
    पटना ज़िले के विक्रम में बन रहे एक शराब फैक्ट्री के कारण भूदान वाली ज़मीन की कीमत अब आसमान छू रही है और मामला अब अदालत में है.
    साथ ही कुछ ऐसे मामले भी सामने आते हैं जिसमें वे किसान ही ज़मीन बेच चुके हैं जिन्हें कभी भूदान की ज़मीन मिली थी. हालांकि कानूनन ऐसा संभव नहीं है.

    दावा

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    ऐसे हालात पैदा ही क्यूं हुए? इसके जवाब में बिहार भूदान यज्ञ समिति के अध्यक्ष कुमार शुभमूर्ति कहते हैं, "पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे और जो ज़मीन दान की गई उसे सबने स्वीकार किया. लेकिन आज बदले हालात में ऐसे परिवारों की नई पीढ़ी दान को अदालतों में चुनौती दे रही है."
    ज़्यादातर माामलों में यह कहते हुए चुनौती दी जाती है कि दान-दाता ने अपने भाई या पत्नी के हिस्से की ज़मीन दान दी थी. वहीं कुछ तो यह दावा भी करते हैं कि उनके माता-पिता की मानसिक हालत ठीक नहीं थी इस कारण उन्होंने भूदान किया.
    वहीं लाभान्वित परिवारों के ज़मीन बेचे जाने के मामले में शुभमूर्ति का मानना है कि भूदान किसान ऐसा करने के लिए दोषी तो हैं लेकिन वे ज़्यादातर मामलों में मजबूरी में ही ऐसा करते हैं.

    कारण और योगदान

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    शुभमूर्ति बिहार में ज़मीन संबंधी आंकड़ों का बहुत ही ज्यादा अव्यवस्थित होना इसका सबसे बड़ा कारण मानते हैं.
    वहीं जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी के मुताबिक ऐसे मामले आज ज़्यादा इस कारण सामने आ रहे हैं क्योंकि सरकार ज़मीन विवादों को निपटाने को लेकर सक्रिय नहीं है.
    लेकिन साथ ही प्रियदर्शी यह भी मानते हैं कि बिहार में भूमि पुनर्वितरण में भूदान आंदोलन ने बड़ी भूमिका निभाई है.
    वे बताते हैं, "ज़मीन लोगों के बीच बंटे और वे इस पर खेती करने लगे. इसमें भूदान यज्ञ समिति का बहुत बड़ा योगदान है."

    आगे की राह

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    भूदान यज्ञ समिति के पास अब भी डेढ़ लाख एकड़ से अधिक ज़मीन बांटने के लिए है. लेकिन समिति के सामने चुनौती दोहरी है.
    पहली यह कि जिन्हें वह ज़मीन बांट चुकी है उनको ज़मीन से बेदखल होने से कैसे बचाया जाए. दूसरी, जो ज़मीन उपलब्ध है उसको सही लोगों के बीच कैसे बांटा जाए.
    शुभमूर्ति के अनुसार अगर भूदान ज़मीन से संबंधित कानून को सही तरीके से ज़मीन पर उतारा जाए तो सभी समस्याएं दूर हो जाएंगी.
    मगर इस रास्ते के बाधाओं के बारे में वे कहते हैं, "कानून को ज़मीन पर उतारने के लिए जितने साधन और कार्यबल चाहिए, उसकी भारी कमी है."