Wednesday, 9 December 2015

निजी विधेयकों का रास्ता बंद क्यों? @प्रमोद जोशी

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इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
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निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
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भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.
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ट्रांसजेंडर वाले मामले में सरकार ने कहा कि इस मुद्दे पर एक व्यापक विधेयक लाया जाएगा, इसलिए द्रमुक सांसद शिवा विधेयक वापस ले लें.
शिवा इसके लिए तैयार नहीं हुए. वर्ष 1970 के बाद यह पहला मौका था जब निजी विधेयक किसी सदन में पारित हुआ.
देखना होगा कि लोकसभा में ये विधेयक कब आएगा और क्या इसके पहले सरकार इससे जुड़ा कोई विधेयक पेश करेगी.
अलबत्ता इस विधेयक ने निजी विधेयकों की व्यवस्था पर विमर्श का मौका दिया है.
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संसद के दोनों सदनों में प्रत्येक शुक्रवार को दोपहर बाद का समय निजी विधेयक पेश करने का होता है. बावजूद इसके अब तक केवल 14 निजी विधेयक ही पूरी तरह क़ानून की शक्ल ले पाए हैं.
किसी सदन से पास होने वाला यह 15 वां विधेयक है. लोकसभा में पास होने के बाद ही ये क़ानून बनेगा.
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संसदीय संदर्भों से जुड़ी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार 13 वीं लोकसभा के दौरान 343 निजी विधेयक पेश किए गए, इनमें से सिर्फ़ 17 पर विचार हुआ. 14वीं लोकसभा में 328 बिल पेश हुए और विचार हुआ सिर्फ़14 पर.
इसी तरह 15वीं लोकसभा में 372 बिल पेश हुए और केवल 11 पर ही विचार हुआ जबकि 16वीं लोकसभा के पहले साल में 258 निजी विधेयक पेश किए गए. यह संख्या औसत से ज़्यादा है.
मोटा अनुमान है कि पिछले 40 साल में तकरीबन 3000 निजी विधेयक पेश किए गए. इनमें से तीन या चार फ़ीसदी पर ही विचार हो पाया, पास केवल एक हुआ.
वर्ष 1970 में संसद से पास हुआ सुप्रीम कोर्ट (आपराधिक अपीलीय क्षेत्राधिकार विस्तार) अधिनियम 1968 अंतिम निजी विधेयक था, जो क़ानून बना. इसे आनंद नारायण मुल्ला ने पेश किया था.
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इन 14 क़ानूनों में फिरोज़ गांधी का प्रसिद्ध संसदीय कार्यवाही संरक्षण विधेयक-1956 भी है. इस क़ानून के कारण भारतीय पत्रकारों को संसदीय कार्यवाही कवर करने का विशेषाधिकार और संरक्षण हासिल हुआ. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने के अधिकार की दिशा में यह एक बड़ा कदम था.
निजी विधेयकों के लिहाज से वर्ष 1956 एक महत्वपूर्ण वर्ष है. वर्ष 1954 से 1970 के बीच संसद ने जिन 14 निजी विधेयकों को स्वीकार किया, उनमें से 6 विधेयक वर्ष 1956 में पास हुए. वर्ष 1956 के निजी विधेयकों पर ध्यान दें तो उनमें एक नव-स्वतंत्र देश के सामाजिक बदलाव की ललक दिखाई पड़ती है.
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एससी सामंत के भारतीय पंजीकरण (संशोधन) विधेयक-1956 के क़ानून बनने के बाद संपत्ति के पंजीकरण में जातियों और उप जातियों के उल्लेख की व्यवस्था ख़त्म हो गई. यह आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी स्थापना थी.
उसी साल पास हुआ राजमाता कमलेन्दुमति शाह का महिला एवं बाल संस्थाएं (लाइसेंसिंग) विधेयक-1954 और डॉक्टर सीता परमानंद का हिंदू विवाह संशोधन विधेयक-1956 सामाजिक व्यवस्था को आधुनिक रोशनी में परिभाषित करता था.
यह नई रोशनी दीवान चमन लाल के भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक-1963 में भी दिखाई पड़ती है, जो वर्ष 1969 में पास हुआ था.
इस क़ानून के तहत कलाकृतियों को अश्लीलता से जुड़े सामान्य क़ानूनों से संरक्षण हासिल हुआ था.
जवाहर लाल नेहरू
देश में क़ानून बनने वाला पहला निजी विधेयक मुस्लिम वक्फ़ विधेयक-1952 था, जो वर्ष 1954 में पास हुआ.
इसे सैयद मुहम्मद अहमद काज़मी ने वर्ष 1952 में पेश किया था. इसका उद्देश्य मुस्लिम वक्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और मुतवल्लियों की देखरेख को परिभाषित करना था.
ज़्यादातर निजी विधेयक उन विषयों से जुड़े हैं, जिनपर सरकार की निगाह नहीं जाती या व्यावहारिक कारणों से जिनपर क़ानून नहीं बन पाते. मसलन वर्ष 2008 में महेन्द्र मोहन का संसद के न्यूनतम कार्य-दिवस तय करने वाला विधेयक.
इसके तहत संविधान के अनुच्छेद 85 और 174 में संशोधन करके संसद में न्यूनतम 120 और राज्य विधानसभाओं में 60 कार्य-दिवस तय करने की व्यवस्था थी.
संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि यह सुझाव अव्यावहारिक है. बाद में सांसद ने अपना विधेयक वापस ले लिया.
राजेन्द्र प्रसादImage copyrightTARA SINHA
इसी तरह वर्ष 1969 में आचार्य जेबी कृपलानी का राष्ट्रीय सम्मानों को समाप्त करने वाला विधेयक था.
आचार्य कृपलानी का कहना था कि पद्म पुरस्कार जैसे राष्ट्रीय सम्मान अपने उद्देश्य को पूरा नहीं करते. अंततः यह विधेयक सदन में पराजित हो गया.
वर्ष 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान कहा गया था कि अगर सरकार क़ानून नहीं बनाती तो निजी विधेयक के रूप में इसे पेश किया जा सकता है.
निजी विधेयकों को लेकर कुछ सक्रिय सांसद देश का ध्यान महत्वपूर्ण सवालों की तरफ़ खींचते हैं. लेकिन शायद इन विषयों पर बहस का समय कम मिलता है

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