Wednesday, 23 December 2015

क्यों आज की धारणाओं के उलट मराठा शासक हमेशा हिंदू हितों के रक्षक नहीं रहे @शोएब दानियाल

1741 में मराठों का बंगाल पर हमला इस प्रचलित मिथक पर सवाल खड़े करता है कि उनकी सेना राष्ट्रवादी सेना थी और हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए युद्ध कर रही थी
सड़कों के नामों में कई कहानियां छिपी होती हैं. कलकत्ता, जिसका एक लंबा इतिहास रहा है, के बारे में यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है. उत्तरी कलकत्ता के बागबाजार की एक ऐसी ही सड़क है ‘मरहाटा डिच लेन’
इस नाम के साथ इस्तेमाल ‘डिच’ यानी खाई या खंदक वास्तव में 1750 के दशक में उत्तरी कलकत्ता में बनाई गई थी. तो इसका मकसद क्या था? यह लंबी और गहरी खाई मराठी घुड़सवार सैनिकों को रोकने के लिए बनाई गई थी जो तब लूटमार करने के उद्देश्य से यहां धावा बोल रहे थे.
दक्षिण भारत की सैन्य विरासत में ‘मारो और भागो’ की छापामार रणनीति एक अहम रही है. मराठों ने लाचार बंगालवासियों के खिलाफ इसी रणनीति को अपनाया था
1741 में नागपुर के शासक राघोजी भोसले के घुड़सवार सैनिकों ने भास्कर पंडित की कमान में पश्चिमी बंगाल में घुसपैठ शुरू की थी. बंगाली मराठों को ‘बर्गी’ कहते थे. बर्गी मराठी शब्द बर्गीर (मूल शब्द फारसी से आया है) का बिगड़ा रूप है जिसका अर्थ है ‘घुड़सवारों की टुकड़ी’.
दक्षिण में अहमदनगर सल्तनत के प्रधानमंत्री मलिक अंबर (1549-1626) ने छापामार लड़ाई की रणनीति को प्रचलित किया था. इसे ही बाद में बर्गीर-गिरी कहा जाने लगा. दक्षिण भारत की सैन्य विरासत में ‘मारो और भागो’ की यह रणनीति एक अहम हिस्सा बन गई. शिवाजी इसमें पारंगत थे. मराठों ने लाचार बंगालवासियों के खिलाफ इसी रणनीति को अपनाया था.
बर्गीर-गिरी का शिकार आम बंगाली थे
1750 के दशक के दौरान बंगाल में नवाब अलीवर्दी खान का शासन था. तब मराठों की इस सैन्य रणनीति ने नवाब की सेना को बुरी तरह उलझा दिया था. हालांकि इससे पहले कुछ एक मौकों पर आमने-सामने की लड़ाई में उसने मराठों को हराया था लेकिन ज्यादातर समय वे नवाब की सुस्त घुड़सवार सेना को चकमा देकर आबादी वाले क्षेत्रों से लूटमार करने में लग जाते थे.
मराठा सैनिकों की लूट का यह सिलसिला दस साल तक चला. उनकी इस मुहिम ने सीमाक्षेत्र के बंगालवासियों को कंगाल कर दिया और यहां बड़े स्तर पर गरीबी फैल गई. तत्कालीन डच स्रोतों के मुताबिक इन सालों में बर्गियों ने चार लाख लोगों को मौत के घाट उतारा था. इतिहासकार पीजे मार्शल लिखते हैं कि पश्चिमी बंगाल के कई बड़े व्यापारी हमेशा के लिए तबाह हो गए थे.
मराठा सैनिकों की लूट का यह सिलसिला दस साल तक चला. उनकी इस मुहिम ने सीमाक्षेत्र के बंगालवासियों को कंगाल कर दिया और यहां बड़े स्तर पर गरीबी फैल गई
तत्कालीन बंगाल के एक कवि गंगाराम ने ‘महाराष्ट्र पुराण’ नाम की कविता में मराठों द्वारा की गई लूटपाट और उससे हुई तबाही का विस्तार से वर्णन किया है. इसमें वे एक स्थान पर लिखते हैं :
इसबार कोई नहीं बच पाया,
न ब्राह्मण, न वैष्णव, न संन्यासी और न ही गृहस्थ,
सबको एक जैसा फल भुगतना पड़ा, लोगों के साथ-साथ गायें भी मार दी गईं.
कलकत्ता के ‘डिचर’
बर्गियों ने सीमांत क्षेत्रों को तो लूटा ही साथ ही उन्होंने अपनी मारक क्षमता दिखाने के लिए बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद पर भी एक बार धावा बोला था. यहां उन्होंने उस समय भारत के सबसे अमीर लोगों में गिने जाने वाले मारवाड़ी महाजन जगत सेठ का घर लूट लिया था.
हालांकि इतना सब करने के बाद भी मराठों ने कभी कलकत्ता पर हमला नहीं किया. माना जाता है कि इसके लिए अंग्रेजों ने उन्हें कुछ पैसा दिया था. जो चौड़ी खाई शहर के एक तरफ खोदी गई थी उसका एक मकसद संयोग से पूरा हो गया था. बाद के समय में इसकी एक और देन रही. खाई या डिच के दक्षिण की ओर ‘खास’ कलकत्ता में रहने वालों को इसकी वजह से एक उपनाम मिल गया – ‘डिचर’. खाई धीरे-धीरे पाट दी गई और अब इसके ऊपर ‘बाहर सड़क’ बना दी गई है.
मराठों ने एक दशक तक बंगालियों पर हमले किए थे. ये तभी रुके जब इनसे परेशान होकर नवाब ने हार मान ली और राघोजी भोसले को उड़ीसा का राज्य दे दिया.
इतिहास की लोकप्रिय बहसों में यह मराठा आक्रमण एक अलग तस्वीर दिखाता है
मराठी सेना को अक्सर राष्ट्रवादी ताकत बताने का चलन रहा है जो भारत या हिंदू राष्ट्रवाद की स्थापना के लिए लड़ रही थी. हालांकि इसमें कुछ भी अजीब नहीं है क्योंकि आधुनिक राष्ट्र अपने को गढ़ने के लिए अतीत की कुछ घटनाओं से ही मिथक निकालते हैं और उन्हें विस्तार देते हैं. जैसे ज्यादातर पाकिस्तानी मानते हैं कि कुतबुद्दीन ऐबक के समय इस्लामी राष्ट्रवाद का अस्तित्व था तो वहीं भारतीयों को लगता है कि मराठा हिंदू राष्ट्रवाद के लिए काम कर रहे थे. उस मकसद के लिए जिसे विनायक सावरकर ने ‘हिंदू पद पादशाही’ नाम दिया था.
यह भी दिलचस्प है कि हिंदू पद पादशाही शब्दांश पूरी तरह से फारसी भाषा से बना है. यह दिखाता है कि साझे सांस्कृतिक सूत्र कैसे बनते हैं. लेकिन इतिहास का जब अपने हिसाब से सरलीकरण किया जाता है तो कुछ बातें छोड़नी पड़ती हैं. तब यह बात नहीं की जा सकती कि कैसे मराठे हिंदु बहुसंख्या वाले बंगाल में लूटमार कर रहे थे और वहां का मुस्लिम नवाब उनसे संघर्ष कर रहा था.

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