वर्ष 2012 में हमने महात्मा गांधी (1947 के बाद) के बाद महानतम भारतीय की पहचान के लिए टीवी शो किया था। गांधीजी से कुछ दूरी पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर विजेता रहे थे, जबकि जवाहरलाल नेहरू ने टॉप टेन में जगह बनाई थी। नेहरू और डॉ. आंबेडकर, इस देश के दो महान सपूत, जन्म में सिर्फ दो वर्ष का अंतर। आज नेहरू की 125वीं जयंती का समापन हो रहा है, जबकि आंबेडकर की 125वीं जयंती अागामी अप्रैल में भव्य समारोह में मनेगी। कांग्रेस ने दिल्ली के बस स्टैंड्स को नेहरू के पोस्टरों से पाट दिया है, राजीव गांधी फाउंडेशन ने नेहरूवादी मू्ल्यों पर सेमीनार आयोजित किया, लेकिन इसके अलावा नेहरू जयंती के मौके पर ज्यादा कुछ नहीं है। इसके विपरीत हर राजनीतिक दल डॉ. आंबडेकर की जयंती पर बड़े आयोजन की योजना बना रहा है। उनके जन्म स्थान महू में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होंगे। भाजपा से बसपा, कांग्रेस से रिपब्लिकन गुट तक हर राजनीतिक दल उन्हें अपना बनाने का प्रयास करेगा।
जब नेहरू जीवित थे तो उनकी छवि सारे समकालीनों से ऊपर रही खासतौर पर 1950 में सरदार पटेल के गुजरने के बाद। डॉ. आंबेडकर ने संविधान का मसौदा तैयार करने का नेतृत्व किया, वे उत्कृष्ट न्यायविद, सुधारक और बुद्धिजीवी थे, लेकिन उस पीढ़ी के कई अन्य नेताओं की तरह वे भी नेहरू के करिश्मे के कारण पृष्ठभूमि में रहे। पहले प्रधानमंत्री को उनके जीवनकाल में लाखों लोग पूजते थे : चाचा नेहरू मूल भारतीय हीरो थे। और इसके बावजूद पिछले दशक में भूमिकाएं उलट गईं: अब डॉ. आंबेडकर को पूजा जा रहा है, जबकि नेहरू की आलोचना हो रही है। आंबेडकर और नेहरू के निधन के बाद उनके क्रमश: उदय और पतन की क्या व्याख्या हो सकती है? स्वाभाविक कारण तो यह होगा कि डॉ. आंबेडकर के विपरीत नेहरू, भारतीय राजनीति की उदीयमान शक्ति, संघ परिवार के लिए वैचारिक चुनौती की तरह देखे जाते हैं। नेहरू के मन में भगवा परिवार के लिए स्वभावगत नफरत थी। उन्हें यकीन था कि यह ‘हिंदू पाकिस्तान’ निर्मित कर देगा। इसे वे ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ के रूप में देखते थे और इसके लिए कड़े रुख का मतलब यही था कि उन्हें उन लोगों की नाराजगी झेलनी ही थी, जो नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर उनका तुष्टीकरण मानते हैं। फिर चाहे विभाजन हो, जम्मू-कश्मीर संबंधी अनुच्छेद 370 हो या ‘बांध आधुनिक भारत के मंदिर’ होने का उनका विश्वास, संघ और इसके समर्थकों को यकीन हो गया कि नेहरू उस अंग्रेजीदा कुलीन वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका उससे संबंध नहीं है, जिसे वे देश की धार्मिक-सांस्कृतिक प्रकृति मानते हैं।
अब सत्ता में आने के बाद भाजपा नेहरू की विरासत को गौण बनाना चाहती है। केवल उन वर्षों का बदला लेने के लिए जब नेहरूवाद राजनीतिक विमर्श पर हावी था। नरेंद्र मोदी के उदय ने यह प्रक्रिया और तेज कर दी: प्रधानमंत्री ने विशाल प्रतिमा बनाकर और ‘एकता दौड़’ के जरिये पटेल को देवता का दर्जा देना तय किया, नेताजी की फाइलों को जाहिर करने का आदेश दिया और लाल बहादुर शास्त्री की स्तुति करने लगे। किंतु उन्होंने जान-बूझकर या अन्यथा नेहरू के योगदान की अनदेखी करने का निर्णय लिया। यहां तक कि अक्टूबर में भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में भी मोदी ने भारत-अफ्रीका सद्भाव में नेहरू के योगदान का जिक्र तक नहीं किया। गुटनिरपेक्षता की नेहरूवादी विरासत को पूरी श्रद्धा का काम मेहमान अफ्रीकी राष्ट्राध्यक्षों पर छोड़ दिया गया। भाजपा समर्थकों को उम्मीद है कि नेताजी संबंधी फाइलें जाहिर किए जाने से नेहरू तथा उनके समर्थक और शर्मिंदा होेंगे खासतौर पर तब जब फाइलें यह पुष्टि करें कि नेहरू ने नेताजी के परिवार की जासूसी का समर्थन किया था। नेहरू की छवि के पतन के दूसरा कारण कांग्रेस द्वारा उनकी विरासत पर एकाधिकार के प्रयास से है। चाहे स्टेडियमों, सरकारी योजनाओं को नेहरू का नाम देने की रस्म हो, कांग्रेस ने अपने लंबे शासन काल में नेहरू को राष्ट्रीय नेता के रूप में पेश करने की बजाय ऐसे ऑयकन के रूप में पेश किया, जिनका संबंध विशेष परिवार और पार्टी से है। समाजशास्त्री आंद्रे बिटाइल ने टिप्पणी की थी (जैसा इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन्हें उद्धृत किया), ‘मरणोपरांत नेहरू का वर्णन बाइबल की उक्ति के एकदम उलट होता जा रहा है। बाइबल के अनुसार पिता के पाप सात पीढ़ियों को भुगतने पड़ते हैं। नेहरू को उनकी बेटी, पोतों, बेटी की बहू और पड़पोते के पाप भुगतने पड़ रहे हैं।’
बिटाइल ने बिल्कुल ठीक कहा है : आज की पीढ़ी नेहरू को लगभग पूरी तरह उनके उत्तराधिकारियों के प्रिज़्म से देख रही है। विडंबना है कि इस बात के शायद ही कोई सबूत हैं कि नेहरू वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते थे। इंदिरा गांधी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की अचानक हुई मौत के कारण संयोगवश प्रधानमंत्री बनीं। अौर इसके बाद भी, जिन लोगों को सत्तारूढ़ कांग्रेस घराने से घृणा है वे हर नाकामी के लिए नेहरू को निशाना बनाते हैं। फिर चाहे भारत-चीन युद्ध हो या केंद्रीकृत नियोजन की खामियां। सहिष्णुता और नागरिकता पर आधारित लोकतांत्रिक भावना को संस्थागत रूप से स्थापित करने में नेहरू की भूमिका के लिए उनके मन में कोई आदर नहीं है। इसके विपरीत डॉ. आंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी को राजनीति में लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। किंतु उनकी विरासत जिंदा है और फल-फूल रही है, हालांकि उन्हें प्रतिमा तक सीमित कर दिया गया है।
वोट बैंक राजनीति के उदय का नतीजा यह रहा कि सामाजिक न्याय और समानता का विचार लाखों दलितों व पिछड़ी जातियों को एकजुट करने का शक्तिशाली हथियार बन गया। डॉ. आंबेडकर ने चाहे हिंदू ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी, लेकिन उच्चवर्ग के प्रभुत्व वाले आरएसएस को भी डॉ. आंबेडकर के विज़न को, चाहे उदासीनता से ही सही, स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा (आरक्षण पर सर संघचालक मोहन भागवत का हाल का बयान देख लीजिए)। बसपा जैसे दलों ने डॉ. आंबेडकर को देवता जैसी छवि दे दी है। उनकी जरा-सी आलोचना भी हिंसक प्रतिक्रिया का कारण बन सकती है। कोई पार्टी डॉ. आंबेडकर के विचारों को चुनौती नहीं दे सकती, इस डर से कि वे वोटों का विशाल आधार न खो बैठें। ऐसा कोई नेहरूवादी वोट बैंक नहीं है, जो उन लोगों को चुनौती दे, जो उनकी आलोचना करते हैं, खासतौर से दक्षिणपंथियों के प्रभुत्व वाले सोशल मीडिया के रहते। किंतु आंबेडकरवादी वोट बैंक है, जो शायद उनके हीरो को चुनौती देने सोशल मीडिया साइट को कही बंदकरा दे। दोनों भारतीय गणराज्य के विचार में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले महान नेता हैं। दुख की बात होगी यदि उनकी विरासत राजनीतिक पक्षपात की शिकार बनी रहे।
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