एक गज़ल है, ‘चुपके-चुपके रात-दिन अांसू बहाना याद है..।’ गज़लों में थोड़ी भी रुचि रखने वालों ने इसे जरूर सुना होगा। इसके शायर हैं हरसत मोहानी। 1875 में पैदा हुए और 1951 तक जीवित रहे। ये पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1921 में कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा था। गांधीजी तब यह प्रस्ताव नहीं चाहते थे, लेकिन रामप्रसाद बिस्मिल जैसे युवा स्वतंत्रता सेनानियों व क्रांतिकारियों ने इसे पारित करवा लिया। मोहानी संविधान सभा के भी सदस्य थे। पिछले दिनों हमने संविधान दिवस मनाया तो इनकी याद आई। ये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। इनके बारे में बड़े रोचक किस्से उर्दू के लेखक व नाटककार एसएम मेहंदी ने सुनाए।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान 1922-23 में मोहानी कानपुर में रहते थे। राष्ट्रीय आंदोलन बड़े जोरों पर था। कांग्रेस के सारे बड़े नेता जेलों में बंद कर दिए गए। युवा अांदोलनकारियों के सामने संकट था कि अब वे किससे सलाह-मशविरा करें? लिहाजा ये मोहानी के घर पहुंचे। गर्मी के दिन थे। दरवाजा खटखटाने पर मोहानी सामने आए। कमर से ऊपर बदन खुला था और हाथ में खजूर का पंखा। छात्रों ने आने का उद्देश्य बताया तो मोहानी ने कहा, ‘देखो मेरे घर में लकड़ी खत्म हो गई है और मैं लकड़ी लाने के लिए टाल जा रहा हूं। साथ चलों तो रास्तेे में बात हो जाएगी।’ छात्र उनके साथ हो लिए। वे वहां गए, लकड़ियां तुलवाई और गट्ठा कंधे पर रख लिया और वापसी शुरू हुई। जाने-माने नेता थे। रास्ते में लोग दुआ-सलाम कर रहे थे। बातें कर रहे थे। वे सबको जवाब भी देते। छात्रों से बात करते घर आ गए। छात्रों का मार्गदर्शन हो गया और सहयोग का भरोसा भी मिल गया।
एक बार लखनऊ में कोई अधिवेशन था और छात्र चाहते थे कि मोहानी उनकी ओर से वहां जाए। उन्होंने कहा, ‘मैं चला तो जाऊं, लेकिन वहां जाने के लिए मेरे पास पैसे नहींं है। छह आने वहां जाने के और इतने ही लौटने के। स्टेशन से सम्मेलन स्थल पर जाने के लिए दो आने का तांगा करना पड़ेगा। दो आने वापसी के। इस तरह सोलह आने का खर्च है।’ लड़कों ने चंदा करके सोलह आने इकट्ठा करके उन्हें दिए। लखनऊ अधिवेशन में शामिल होकर जब वे लौटे तो उन्होंने लड़कों को बुलाकर कहा, ‘भई, ये दो आने बचे हैं, इसे तुम वापस ले लो। लड़कों ने पूछा कि ये दो आने कैसे बच गए।’ उन्होंने कहा कि सम्मेलन के बाद मोतीलाल नेहरू ने अपनी कार से उन्हें स्टेशन छोड़ दिया था। इस तरह तांगे के दो आने बच गए। मोहानी हर साल हज करने जाते थे। एक बार लड़कों ने उनसे पूछा कि मौलाना आप हर साल हज करने क्यों जाते हैं? उन्होंने कहा, ‘जहाज पर मुझे अंतरराष्ट्रीय श्रोता मिल जाते हैं। उनसे बातचीत करके स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार हो जाता है।’ फिर कुछ शरारती अंदाज में बोले कि यदि कोई हसीना दिख गई तो सालभर गज़ल लिखने का इंतजाम हो जाता है!’ ऐसा सीधा-सच्चा उनका व्यक्तित्व था। आज हमारे नेतृत्व का ध्यान इस बात पर है कि वह कैसा दिख रहा है। मोहानी का व्यक्तित्व हमें प्रेरणा देता है कि पहनावा नहीं बल्कि आपकी जो भूमिका है, समझदारी है, ज्ञान है वह बड़ी चीज है।
रचनात्मकता अपने आप में बड़ी बात है। इसमें उम्मीद है, प्रेरणा तो खैर है ही, सबकुछ है। मुझसे पूछा जाता है कि मैंने उपन्यास, कहानी, नाटक लिखे, संस्मरण, यात्रा विवरण लिखें, यात्राएं कीं। पेंटिंग की। डाॅक्यूमेंट्री फिल्में बनाई। आप इतने काम करते हो, यह क्या मामला है? मैंने कहा कि कुछ बेचैन आत्माएं होती हैं और उन्हें रास्ते की तलाश रहती है। वे कई प्रयोग कर रास्ता तलाशते रहते हैं। मैं इसी तरह की आत्मा हूं कि पता नहीं कहां क्या मिल जाएं। यह अपने समाज से संवाद की कोशिश है। लोग मुझसे कहते हैं कि आप ऐसी कड़वी बातें क्यों कह देते कि लोग भला-बुरा कहते हैं। गालियां देते हैं। मैंने कहा कि गाली देने वाले हमारे ही लोग हैं, दूसरे नहीं हैं। हम लोग जो लेखक हैं या कला से जिनका संबंध हैं, हमें उस तरह से किसी को खुश करने की जरूरत नहीं होती है। हमें पद नहीं चाहिए। पैसा नहीं चाहिए। हम यदि कड़वी बात नहीं करेंगे तो क्या ये पॉलिटिशन करेंगे। वे यह काम नहीं कर सकते। रचनात्मकता कैसे बदलाव लाती है इसका उदाहरण मेरा नाटक ‘जिस लाहौर नहीं देख्या।’ बात है 1985-86 की। पाकिस्तान के निर्देशक खालिद अहमद इसे वहां मंचित करना चाहते, लेकिन कराची के पुलिस कमिश्नर ने अनुमति नहीं दी। उन्होंने आपत्ति जताई कि इसमें आपने मौलवी की हत्या दिखाई है और दरअसल यह इस्लाम की हत्या है। फिर आपने हिंदू बूढ़िया के कैरेक्टर को इतना पॉजिटिव दिखाया है। इतनी अच्छी, इतनी लोकप्रिय। लाहौर के सारे लोग उसे माई कहते हैं। सम्मान देते हैं। तीसरी बात, लेखक पाकिस्तानी नहीं है, वह भारतीय है। खालिद अहमद ने कराची स्थित जर्मन दूतावास के गोथे सेंटर पर नाटक का मंचन किया, क्योंकि दूतावास में उस देश का कानून चलता है। फिर पाक अखबारों में इतनी अच्छी समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। एक अखबार ने तो लिखा कि यह नाटक धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित है, जिसकी पाकिस्तान को सख्त जरूरत है।
सिडनी में शो हुआ तो बाद में नाटक की डायरेक्टर ने मुझे दर्शकों की प्रतिक्रियाओं के ई-मेल भेजे। एक व्यक्ति ने लिखा था कि उसकी पत्नी का आई-डक्ट ऑपरेशन होने वाला था। आंख में जब पानी नहीं आता, आंखें सूख जाती है, तब यह छोटा-सा ऑपरेशन होता है। किंतु आपका नाटक देखकर मेरी पत्नी बहुत रोई। अगले दिन ऑपरेशन के लिए गए तो डॉक्टर ने कहा कि अब इन्हें ऑपरेशन की जरूरत नहीं है। अांख की नसें ऑपरेशन से खोलनी थीं, वह अपने आप खुल गईं। कला का असर मन की ही नहीं, शरीर की गाठें भी खोल देता है।
पहला शो नई दिल्ली में हबीब तनवीर ने किया था तो सिख समुदाय के बहुत से लोगों ने उसे देखा। बाद में वे आए और मुझसे व हबीब साहब से बोले कि आप लोगों को पता नहीं है कि आपने क्या कर दिया। आप दोनों न तो विभाजन के भुक्तभोगी हैं और न पंजाब से हैं। फिर भी आपने जो काम किया उसने हमें बहुत विचलित कर दिया। नाटक का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। कन्नड में इसके बहुत शो होते हैं। मैंने कन्नडभाषियों से पूछा कि अाप लोगों का तो यह यथार्थ नहीं है। आप लोगों को यह नाटक क्यों पसंद आता है। कहने लगे देखिए, नाटक का जो मानवीय पक्ष है, वह हमें आकर्षित करता है। मानवीय संबंध जिस प्रकार नाटक में बनते हैं उससे सिद्ध होता है कि भाषा, धर्म, भौगोलिक क्षेत्र उन सबसे ऊपर है मानवीय संबंध। मानवता सबसे ऊपर है। भाषा, धर्म और संस्कृति बाद में आती है।
असगर वजाहत
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, नाटककार, लेखक, डाॅक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता और चित्रका
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