Friday, 4 December 2015

सवाल भारत की संकल्पना का है @उर्मिलेश

इस दावे में रत्ती भर दम नहीं कि ‘भारतीय समाज में हमेशा सहिष्णुता रही है, हमारा समाज कभी असहिष्णु नहीं हुआ. हम सहिष्णु थे, हैं और आगे भी रहेंगे. असहिष्णुता की बात करके देश की छवि खराब की जा रही है.’ देश के गृहमंत्री ने एक दिसंबर को लोकसभा में अपनी ही बात काटते हुए तीन अपवाद गिनाये, जब भारतीय समाज में, उनके मुताबिक असहिष्णुता दिखी. 
 
उन्होंने ये तीन घटनाएं गिनायीं- देश-विभाजन के दौर की सांप्रदायिक घटनाएं, श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाया गया आपातकाल और 1984 के सिख-विरोधी दंगे.’ इतिहास का कोई अदना छात्र भी सैकड़ों उदाहरण देकर साबित कर सकता है कि हमारे समाज में असहिष्णुता पहले भी थी, आज भी है और हमने अपनी लोकतांत्रिकता का विस्तार करते हुए जाति-संप्रदाय आधारित विद्वेष और तेजी से बढ़ती असमानता को खत्म नहीं किया, तो यह आगे भी बरकरार रहेगी. क्या नालंदा सहित अनेक गौरवशाली शिक्षण संस्थान नष्ट नहीं किये गये? क्या उनका विध्वंस अनायास हुआ? लोकायत दर्शन की विभिन्न धाराओं और बौद्धों के साथ क्या हुआ?
 
हम कैसे भूल सकते हैं कि एकलव्य सिर्फ एक मिथक नहीं, वह इस महादेश के असंख्य दलित-उत्पीड़ितों-आदिवासियों के दमन और उनकी संततियों को शिक्षा की रोशनी से दूर रखने की कुलीन-जघन्यता और असहिष्णुता का डरावना स्मारक भी है! प्राचीन काल, मध्यकाल और आजादी से पहले की बात छोड़िये, संविधान लागू होने यानी 26 जनवरी, 1950 के बाद भी असहिष्णुता, दमन और जातीय-सांप्रदायिक उत्पीड़न के रोजाना असंख्य उदाहरण दर्ज होते हैं.
 
सत्तारूढ़ दल की यह बात एक हद तक सही हो सकती है कि असहिष्णुता को हाल के अठारह महीनों से कैसे जोड़ा जा रहा है! हमारे समाज में यह पहले से है. लेकिन, पहले और आज में एक अंतर जरूर है. हाल के दिनों में जो हो रहा है, उसके पीछे एक खास ढंग का नियोजन दिखता है. 
 
कुछ समय पहले, तमिल के मशहूर उपन्यासकार पेरूमल मुरुगन को ‘अपने लेखक’ की मौत का ऐलान करना पड़ा. वहां सक्रिय कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों ने उनके नये उपन्यास ‘मधोरूमगन’ के छपने के साथ ही हंगामा मचा दिया. उन्हें मार डालने की धमकी मिलने लगी. अंततः मुरुगन ने कहा, अब वह कभी नहीं लिखेंगे. उनका लेखक मर चुका है और वह ईश्वर नहीं कि फिर से अवतरित होगा.’ इसके पहले भी वेंगी डोनियर की किताब हो या एमएफ हुसैन की पेंटिंग, सृजनात्मकता को सांप्रदायिक हमले का लगातार शिकार बनाया गया. 
 
सरकार चाहे जिसकी रही हो, पर ये हमले खास तरह की शक्तियों की तरफ से ही किये जाते रहे. यह महज संयोग नहीं कि आज भारत अभिव्यक्ति की आजादी के वैश्विक रिकाॅर्ड में 140वें नंबर पर आ टिका है. बात सिर्फ लेखकों-विचारकों तक सीमित नहीं. आम नागरिकों का हाल अलग नहीं है. तमाम लोकतांत्रिक और न्यायिक संस्थाओं की सक्रियता के बावजूद दलितों-उत्पीड़ितों के हालात आज भी चिंताजनक हैं. 
 
क्या यह सब किसी सहिष्णु, शालीन और प्रौढ़ लोकतांत्रिक समाज की निशानियां हैं? हमें यह ईमानदारी से मंजूर करना चाहिए कि राष्ट्र के रूप में हम एक नये लोकतंत्र हैं, जहां सामंती संरचनाएं और सोच अब भी बरकरार हैं. सामंती सोच-संरचना को तोड़ कर जिस तरह का सुसंगत पूंजीवादी विकास होना चाहिए था, वह अपने यहां नहीं हो सका. यूरोप के देशों को अपेक्षाकृत सुसंगत लोकतंत्र बनने में कितने सौ साल लगे! हमने लोकतंत्र को महज 65 साल पहले ही तो अपनाया. नये तंत्र के रूप में अब भी हमारे सामने असंख्य चुनौतियां हैं.
 
पर एक सभ्य और प्रौढ़ राष्ट्र बनने के प्रयोग में हम जुटे हुए हैं. इस स्वीकारोक्ति में क्या बुराई है?  पर हम ईमानदार स्वीकारोक्ति से लगातार भाग रहे हैं. इसके पीछे खास एजेंडा जो है! सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता को तोड़ कर देश को एक खास दिशा की तरफ ढकेलने की कोशिश है. धार्मिकता-जातीयता की आड़ लेकर बरपायी गयी बर्बरता को छुपाने के लिए लगातार झूठ का सहारा लिया जा रहा है. सहिष्णुता की ‘महान विरासत’ में फिर तीन ही अपवाद क्यों? 1946-54 के बीच तेलंगाना में क्या हुआ? कई दशकों से कश्मीर में क्या हो रहा है? 
 
मणिपुर या नागालैंड में क्या होता आया है? अमृतसर, कंधमाल, भागलपुर, बोकारो, हजारीबाग, मेरठ, मलियाना, मुजफ्फरनगर और सबसे बढ़ कर 2002 में गोधरा से अहमदाबाद तक गुजरात ने क्या देखा? इससे पहले ‘अयोध्या के राम’ के नाम पर हिंदी पट्टी के बड़े हलके में क्या होता रहा? आजादी के बाद हमने वारंगल से बस्तर, भिवंडी से बंबई (अब मुंबई) और दल्ली-राजहरा से दादरी तक, क्या-क्या नहीं देखा? 
 
‘सहिष्णुता का मौजूदा दौर’ सबसे खतरनाक इसलिए है कि आज सत्ता संचालन करनेवाली शक्तियां समाज में पहले से व्याप्त असहिष्णुता को हवा देती नजर आ रही हैं. इस राजनीतिक असहिष्णुता का वैचारिक आधार है- भारत की संकल्पना (आइडिया आॅफ इंडिया) की वैचारिकता का विरोध. 
 
‘भारत की संकल्पना’ में सत्ता की इन शक्तियों का कभी विश्वास नहीं रहा. 1925 में गठित आरएसएस ने 1939 में पहली बार छपी एक किताब, ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के जरिये भारत की अपनी संकल्पना को परिभाषित किया. तब से उस किताब के विचार ही संघ और उससे जुड़े संगठनों की भारत-दृष्टि को संचालित करते रहे हैं. 
 
डॉ आंबेडकर ने देश के समक्ष पहला लोकतांत्रिक संविधान पेश करते हुए राजनीतिक समानता की तरह सामाजिक-आर्थिक समानता को राष्ट्रनिर्माण का मूल मंत्र माना. उन्होंने धर्म या जाति-आधारित राष्ट्र के विचार को सिरे से खारिज किया. लेकिन, संघ ने ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को अपनी भारत संबंधी संकल्पना का मूलमंत्र माना. 
 
उसने उस संकल्पना में कभी विश्वास नहीं किया, जिसका विकास क्रमशः आजादी की लड़ाई और हमारे संविधान के निर्माण के दौरान हुआ. लेकिन, भाजपा को संघ की इस सोच से आज अलग होने की जरूरत है, क्योंकि भारतीय मतदाताओं ने पिछले लोकसभा चुनाव में उसे ‘राज’ चलाने का बहुमत दिया.
 
उसे अच्छा राजकाज चलाने का जनादेश मिला है, न कि भारत की मूल संकल्पना को बदलने का. वस्तुतः आज राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर जिस तरह की असहिष्णुता के दर्शन हो रहे हैं, वह भारत की मूल संकल्पना के साथ छेड़छाड़ की कोशिश का परिणाम है.

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