Tuesday, 1 December 2015

वरना हम नायक ढूंढ़ते रह जाएंगे @अरुण कुमार त्रिपाठी

वैश्वीकरण और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद व इस्लामी आतंकवाद के इस तेजाबी दौर में हमारे नायकों की कड़ी धुलाई चल रही है। धुलाई इतनी कठिन है कि या तो हमारे नायक इस अक्वारेजिया में विलीन हो जाएंगे या फिर जीर्ण-शीर्ण होकर किसी कोने में रखने लायक बचेंगे। ताजा विवाद 18वीं सदी के मैसूर के शासक टीपू सुल्तान को लेकर है। एक तरफ कर्नाटक सरकार टीपू को देशभक्ति, भारतीयता और धर्मनिरपेक्षता का आदर्श बताते हुए उनकी जयंती मनाने पर डटी है तो दूसरी तरफ भाजपा और विहिप उन्हें हिंदुओं का हत्यारा साबित करते हुए इसे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण बता रही है। इस बीच रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकारों ने कहा है कि हमें लोकतंत्र में राजाओं-रानियों की जयंती मनानी ही नहीं चाहिए।
टीपू सुल्तान अच्छा था या बुरा इस बारे में परस्पर विरोधी ऐतिहासिक तथ्य हैं और अगर हम इतिहास को तार्किक और निरपेक्ष दृष्टि से नहीं देखेंगे तो किसी एक तरफ फिसलने का खतरा रहेगा। नब्बे के दशक में संजय खान के धारावाहिक ‘टीपू सुल्तान की तलवार (स्वॉर्ड ऑफ टीपू सुल्तान)’ को लेकर विवाद हुआ था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और आपत्ति उठाने वाले मुकदमा हार गए। आरोप यही था कि टीपू ने मालाबार पर हमला किया और हजारों हिंदुओं को मारा, मंदिरों को अपवित्र किया और धर्म परिवर्तन किया। टीपू के बचाव में एक ऐसा व्यक्ति निकला जिसकी आज कल्पना नहीं की जा सकती। वे थे भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष केआर मलकानी। मलकानी भाजपा के विचारक व उसके संस्थापकों में एक थे। वे ऑर्गनाइजर के संपादक भी रह चुके थे।

मलकानी ने टीपू के पक्ष में जो तर्क दिए वे उनकी किताब ‘इंडिया फर्स्ट’ के अध्याय ‘ग्रेटनेस ऑफ टीपू सुल्तान’ में संकलित हैं। इंडिया फर्स्ट वही अवधारणा है, जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार जिक्र करते हैं। उनका कहना था कि टीपू के मालाबार पर आक्रमण को कुछ लोग हिंदू विरोधी बताते हैं, जिसका सर्वाधिक फायदा अंग्रेजों ने उठाया और उन्होंने इस बारे में टीपू के बेटों की गवाही भी पेश की। पर वह हिंदुओं पर नहीं अंग्रेजों के व्यावसायिक भागीदारों पर हमला था। मलकानी का कहना था कि हिंदू विरोधी कहानी की वजह यह भी थी कि अंग्रेजों ने टीपू के बेटों को अपनी मुट्‌ठी में करने के लिए उनका भत्ता 600 प्रतिशत बढ़ा दिया था। मालाबार पर हुए जुल्म की जिम्मेदारी जरूर टीपू पर जाती है, लेकिन वैसा करने वाले पिंडारी और ठग थे, जिन्हें वह रोक नहीं सका।
टीपू की तारीफ में मलकानी अंग्रेजों के विरुद्ध उसकी बहादुरी का जिक्र करते हुए मंगलूर संधि पर बनाए गए एक कार्टून का वर्णन करते हैं। उस कार्टून में अंग्रेज टीपू के आगे घुटने टेक कर खड़े हुए हैं। टीपू गवर्नर की नाक पकड़कर खड़ा हुआ है, जो हाथी की सूंड जैसी लंबी हो गई है और उसमें से सोने-चांदी की वर्षा हो रही है। पर इस कार्टून का आनंद वही ले सकता है, जो भारत में अंग्रेजी शासन का विरोधी है और उसे गुलामी मानता है। जो अंग्रेजों को भारत को सभ्य बनाने के लिए भेजा गया देवदूत मानता हो वह भला कैसे टीपू की बहादुरी की सराहना कर सकता है। मलकानी में वह समझ थी तभी वे भारतीय आजादी के एक नायक की हिफाजत करते हुए कहते हैं कि मालाबार टीपू पर उसी तरह धब्बा है, जिस तरह महान शासक अशोक पर कलिंग में एक लाख लोगों को मारने का, बंदा बैरागी पर 30 हजार मुस्लिमों को मारने का है।
हम इतिहास के इन दागदार प्रसंगों को आजाद भारत के शासकों के समय हुई घटनाओं तक खींच सकते हैं और कह सकते हैं इंदिरा गांधी पर इमरजेंसी लगाने, ऑपरेशन ब्लू स्टार करने, राजीव गांधी पर सिख विरोधी दंगा होने देने, भाजपा, आडवाणी और संघ परिवार पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बाबरी मस्जिद गिराने, नरेंद्र मोदी पर गुजरात का 2002 का दंगा होने देने और दूसरे तमाम क्षेत्रीय नायकों पर भ्रष्टाचार करने और वैचारिक समझौता करने के धब्बे भी उसी तरह हैं। सवाल तो स्वाधीनता संग्राम के उन महानायकों पर भी है, जिन्हें भारत ही नहीं भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश के साझे पुरखों के तौर पर माना जाना चाहिए। अगर देश में सभी लोग महात्मा गांधी को नायक मानते होते तो न तो नाथूराम गोडसे उनकी हत्या करता और न ही गोडसे की फांसी के दिन पूरे देश में कार्यक्रम होते और उनके नाम से वेबसाइट जारी होती।

भगत सिंह और गांधी के साझा नायकत्व पर कभी-कभी भारत-पाकिस्तान दोनों मुल्कों से आवाज उठती है और कभी-कभी 1857 के शहीदों के लिए भी, लेकिन अभी तक तो ऐसा आयोजन नहीं हुआ जिसमें दोनों देश मंच साझा कर सकें। नायकत्व तो उन मिथकीय चरित्रों का भी विवादित है जिन पर कम से कम एक महजब के मानने वाले एकमत बताए जाते हैं। राम के विरोध में सीता निष्कासन तथा शंबूक वध और विष्णु के विरोध में राजा बलि, हिरण्यकश्यप आदि तमाम असुर राजाओं से छल करने का आख्यान चलाने वाला दलित विमर्श जारी है।

धर्म और जाति में बुरी तरह बंटे और बंटते जा रहे भारतीय समाज के इतने विवादों और विखंडनों की स्थिति में न तो ऐतिहासिक नायकत्व निरापद है न ही पौराणिक। विशेषकर जब कोई नायक मुस्लिम है तो उसे स्थापित करना तो और भी जोखिम का काम होता जा रहा है। एक तो उसकी सहिष्णुता की कठिन से कठिन परीक्षा ली जाएगी और फिर उसके बलिदान में भी अगर मजहबी तत्व है तो उसे खारिज करने में देर नहीं की जाएगी। इस दौरान जिसकी भी प्रतिमा स्थापित करने की कोशिश होगी उसे ही भंजित करने वाला कोई न कोई खड़ा हो जाएगा। सारा नायकत्व किसी न किसी वैचारिक आग्रह और दुराग्रह पर गढ़ा जा रहा है और खंडित किया जा रहा है। वैचारिक दुराग्रह किसी के प्राण न्योछावर करने को भी मिथ्या बता सकता है और किसी के सामान्य वक्तव्य को भी शहीदी साबित कर सकता है।
हम जितने अविश्वास और विखंडन की स्थिति में जी रहे हैं उसमें हमारी सारी रचनात्मकता पर ग्रहण लगने वाला है। हम न तो साहस के साथ इतिहास लिख पाएंगे और न ही उपन्यास, कविता और नाटक। हम चित्रकला और मूर्तिकला का विकास भी नहीं कर पाएंगे। हमारे लिए ऐतिहासिक धारावाहिक और फिल्में बनाना भी दुरूह हो जाएगा। इससे बचने का एक उपाय है और वह यह कि या तो हम मिथक और इतिहास के समस्त नायकों को भूल जाएं और सिर्फ सिनेमा के नायकों को याद रखें। पर क्या ऐसा संभव है? शायद नहीं। शायद तब हम जी नहीं पाएंगे। हमें यह मानना होगा कि एक विविधतापूर्ण और लंबे इतिहास वाले समाज में तमाम नायक रहेंगे और वे सभी सब को स्वीकार्य नहीं होंगे। हमें एक-दूसरे के नायकों को स्वीकार करना होगा। यही सहिष्णुता है। वरना हम ढूंढ़ते रह जाएंगे और हमारे समाज में नायक ही नहीं रहेंगे। सब महज खलनायक होंगे

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