Wednesday, 23 December 2015

उदारीकरण के हीरो या बाबरी के विलेन @रेहान फ़ज़ल

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा रावImage copyrightAP
राजीव गांधी की हत्या के बाद जब शोक व्यक्त करने आए सभी विदेशी मेहमान चले गए तो सोनिया गाँधी ने इंदिरा गाँधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर को 10, जनपथ तलब किया.
उन्होंने हक्सर से पूछा कि आपकी नज़र में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए कौन सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है.
हक्सर ने तत्कालीन उप राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम लिया. नटवर सिंह और अरुणा आसफ़ अली को ज़िम्मेदारी दी गई कि वो शंकरदयाल शर्मा का मन टटोलें.
शर्मा ने इन दोनों की बात सुनी और कहा कि वो सोनिया की इस पेशकश से अभिभूत और सम्मानित महसूस कर रहे हैं, लेकिन "भारत के प्रधानमंत्री का पद एक पूर्णकालिक ज़िम्मेदारी है. मेरी उम्र और स्वास्थ्य, मुझे देश के इस सबसे बढ़े पद के प्रति न्याय नहीं करने देगा."
इन दोनों ने वापस जाकर शंकरदयाल शर्मा का संदेश सोनिया गांधी तक पहुंचाया.
एक बार फिर सोनिया ने हक्सर को तलब किया. इस बार हक्सर ने नरसिम्हा राव का नाम लिया. आगे की कहानी इतिहास है.
वरिष्ठ पत्रकार कल्याणी शंकर, बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionवरिष्ठ पत्रकार कल्याणी शंकर, बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
नरसिम्हा राव भारतीय राजनीति के ऊबड़-खाबड़ धरातल से ठोकरें खाते सर्वोच्च पद पर पहुंचे थे. किसी पद को पाने के लिए उन्होंने किसी राजनीतिक पैराशूट का सहारा नहीं लिया था. जब वो प्रधानमंत्री बने तो उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं था.
उनसे पहले के प्रधानमंत्री आर्थिक सुधारों की बात तो करते थे, लेकिन उनमें न तो इसे लागू करने की हिम्मत थी और न चाह. राव का कांग्रेस और देश के लिए सबसे बड़ा योगदान था डॉक्टर मनमोहन सिंह की खोज.
जिस समय उन्होंने मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया, उस समय उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन वह देश के प्रधानमंत्री बनेंगे.
शिवराज पाटिल, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह.Image copyrightPIB.NIC.IN
Image captionलोकसभा के पूर्व स्पीकर शिवराज पाटिल और मनमोहन सिंह के साथ नरसिम्हा राव.
मशहूर पत्रकार और नरसिम्हा राव को नज़दीक से जानने वाली कल्याणी शंकर कहती हैं, "ये ग़लत धारणा है कि आर्थिक सुधारों के जनक मनमोहन सिंह हैं. नरसिम्हा राव मनमोहन सिंह को लाए थे. उन्होंने खुद पीछे रहकर सोच-समझकर उन्हें आगे किया. पार्टी में उस समय उनका बहुत विरोध हुआ."
"1996 में चुनाव हारने के बाद बहुत लोगों ने कहा कि आर्थिक सुधारों के कारण हम हारे. जब वो प्रधानमंत्री बने तो भारत की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में थी. यशवंत सिन्हा आपको बताएंगे कि भारत के पास दो हफ़्ते चलाने लायक भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं था. उसके लिए उन्हें बाहर से पैसा लाना ही लाना था. उसके लिए वह एक विश्वसनीय चेहरा ढ़ूंढ रहे थे."
"उनकी पहली पसंद मशहूर अर्थशास्त्री आईजी पटेल थे, लेकिन उन्होंने दिल्ली आने से मना कर दिया. फिर उन्होंने मनमोहन सिंह को बुलाया, क्योंकि विश्व बैंक से पैसा लाने और उससे बातचीत के लिए वही सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे."

मनमोहन को राव का समर्थन

नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंहImage copyrightPIB
Image captionमॉरिशस के प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ और मनमोहन सिंह के साथ नरसिम्हा राव .
ये वही मनमोहन सिंह थे जिनके नेतृत्व वाले योजना आयोग को राजीव गांधी ने एक बार ’बंच ऑफ़ जोकर्स’ कहा था और वो इससे इतने आहत हुए थे कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था.
एक ज़माने में विश्वनाथ प्रताप सिंह के मीडिया सलाहकार रहे प्रेम शंकर झा बताते हैं, "राव अपने मंत्रियों से काम करवाते थे और पीछे से उनका सपोर्ट करते थे. उस समय भी कांग्रेस के अंदर एक जिंजर ग्रुप था जो नेहरूवियन सोशलिज़्म का नाम लेकर उन पर ग़द्दारी का आरोप लगाते थे."
वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा बीबीसी हिंदी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionवरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा बीबीसी हिंदी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
"मनमोहन सिंह कहते थे कि मंत्रिमंडल में हर कोई उनके ख़िलाफ़ था, लेकिन उनके पास हमेशा एक शख़्स का समर्थन होता था.. वे थे प्रधानमंत्री राव. जब उनको यूरो मनी ने 1994 में सर्वश्रेष्ठ वित्तमंत्री का पुरस्कार दिया तो उन्होंने पुरस्कार समारोह में कहा- इसका श्रेय नरसिम्हा राव को दिया जाना चाहिए."
लेकिन नरसिम्हा राव के बढ़ते राजनीतिक ग्राफ़ को बड़ा धक्का तब लगा जब 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया और वह कुछ नहीं कर पाए.
कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "मुझे जानकारी है कि राव की बाबरी मस्जिद विध्वंस में भूमिका थी. जब कारसेवक मस्जिद को गिरा रहे थे, तब वह अपने पर पर पूजा में बैठे थे. वह वहां से तभी उठे जब मस्जिद का आख़िरी पत्थर हटा दिया गया."
अर्जुन सिंहImage copyrightPHOTODIVISION.GOV.IN
Image captionकांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह.
"लगभग उसी समय उनके मंत्रिमंडल के सदस्य अर्जुन सिंह ने पंजाब के मुक्तसर शहर से उन्हें फ़ोन किया. उन्हें बताया कि नरसिम्हा राव कोई फ़ोन नहीं ले रहे हैं. शाम छह बजे राव ने अपने निवासस्थान पर मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई."

बाबरी मस्जिद

बाबरी मस्जिदImage copyright
अर्जुन सिंह अपनी आत्मकथा 'ए ग्रेन ऑफ़ सैंड इन द आर ग्लास ऑफ़ टाइम' में लिखते हैं, "पूरी बैठक के दौरान नरसिम्हा राव इतने हैरान थे कि उनके मुँह से एक शब्द तक नहीं निकला. सबकी निगाहें जाफ़र शरीफ़ की तरफ मुड़ गईं मानो उनसे कह रही हों कि आप ही कुछ कहिए. जाफ़र शरीफ़ ने कहा इस घटना की देश, सरकार और कांग्रेस को भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
"माखनलाल फ़ोतेदार ने उसी समय रोना शुरू कर दिया लेकिन राव बुत की तरह चुप बैठे रहे."
दि इनसाइडरImage copyrightPENGUIN
राजनीतिक विश्लेषक राम बहादुर राय कहते हैं, "जब 1991 में लगने लगा कि बाबरी मस्जिद पर ख़तरा मंडरा रहा है, तब भी उन्होंने इसे कम करने की कोई कोशिश नहीं की. राव के प्रेस सलाहकार रहे पीवीआरके प्रसाद ने किताब लिखी है जिसमें वो बताते हैं कि कैसे राव ने मस्जिद गिरने दी. वो वहां पर मंदिर बनाने के लिए उत्सुक थे, इसलिए उन्होंने रामालय ट्रस्ट बनवाया."
"मस्जिद गिराए जाने के बाद तीन बड़े पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, प्रभाष जोशी और आरके मिश्र नरसिम्हा राव से मिलने गए. मैं भी उनके साथ था. ये लोग जानना चाहते थे कि 6 दिसंबर को आपने ऐसा क्यों होने दिया. मुझे याद है कि सबको सुनने के बाद नरसिम्हा राव ने कहा- क्या आप लोग समझते हैं कि मुझे राजनीति नहीं आती?"
राय कहते हैं, "मैं इसका अर्थ यह निकालता हूँ कि अपनी राजनीति के तहत और ये सोचकर कि अगर बाबरी मस्जिद ढहा दी जाएगी तो भारतीय जनता पार्टी की मंदिर की राजनीति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी, उन्होंने इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया."

राजनीतिक ग़लती

पीवी नरसिम्हा रावImage copyrightAP
"मेरा मानना है कि राव किसी ग़लतफ़हमी में नहीं, भारतीय जनता पार्टी से साठगांठ के कारण नहीं बल्कि इस विचार से कि उनसे वह ये मुद्दा छीन सकते हैं, उन्होंने एक एक कदम इस तरह से उठाया कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो जाए."
लेकिन राव की नज़दीकी कल्याणी शंकर का मानना है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में नरसिम्हा राव की भूमिका को ज़्यादा से ज़्यादा एक 'राजनीतिक मिसकैलकुलेशन' कहा जा सकता है.
वे कहती हैं, "आडवाणी और वाजपेयी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कुछ होगा नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र को रिसीवरशिप लेने से मना कर दिया. ये राज्य का अधिकार है कि वो वहां पर सुरक्षा बलों को भेजे या नहीं. कल्याण सिंह ने वहां सुरक्षा बल भेजने ही नहीं दिया."
नरसिम्हा राव पर अपनी सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत देने के आरोप भी लगे. लेकिन उनकी सबसे ज़्यादा किरकिरी तब हुई जब शेयर दलाल हर्षद मेहता ने उन्हें एक सूटकेस में एक करोड़ रुपए देने की बात जगज़ाहिर की.

सूटकेस का राज़

हर्षद मेहताImage copyrightVT Freeze Frame
Image captionवरिष्ठ वकील राम जेठमलानी के साथ हर्षद मोहता.
लेकिन प्रेमशंकर झा इस मामले में नरसिम्हा राव को क्लीन चिट देते हैं, "केस यह था कि जब हर्षद मेहता ने राव को नोटों से भरा सूटकेस दिया तो उन्होंने उसे खोलकर देखा. राम जेठमलानी ने डिटेल्स दिए थे कि इस समय हम प्रधानमंत्री निवास के अंदर गए थे. जब मुझे टाइमिंग मिल गई, तो मैंने जांच की. पता लगा कि उसी दिन उसी समय आगा शाही के नेतृत्व में पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल नरसिम्हा राव के सामने बैठा था."
"मेहता के आने और आगा शाही से मीटिंग के बीच जो समय बचा था, उस दौरान ये सूटकेस राव तक नहीं पहुंचाया जा सकता था. मैं चूंकि पीएमओ में काम कर चुका हूँ इसलिए मुझे पता है कि इस तरह की प्रक्रिया में कितना समय लगता है. एक-एक सेकंड का हिसाब करने पर पता चला कि हर्षद 11 बजकर 10 मिनट से पहले किसी भी हालत में प्रधानमंत्री से नहीं मिल सकते थे और ठीक 11 बजे आगा शाही साहब प्रधानमंत्री से मिलने पहुंच गए थे."
राव पर ये भी आरोप लगे कि वो साधु संतों और तांत्रिकों के प्रभाव में थे, वो उनसे मनमर्ज़ी काम करवा सकते थे.

चंद्रास्वामी का असर

नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर, आडवाणीImage copyrightPHOTO DIVISON
Image captionनरसिम्हा राव चंद्रशेखर, लालकृष्ण आडवाणी और एचडी देवगौड़ा के साथ.
राम बहादुर राय कहते हैं, "वो तांत्रिक चंद्रास्वामी के बहुत अधिक प्रभाव में थे. ये भी कहा जाता है कि वो जो चाहते थे उनसे करवा लेते थे. उन्होंने चंद्रास्वामी के कहने पर रामलखन यादव को मंत्री बनाया था. मुझे याद है कि जब रामलखन यादव को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई तो चंद्रा स्वामी मुंबई में थे. वहां उन्होंने बाक़ायदा ऐलान किया- मैं दिल्ली जा रहा हूँ रामलखन यादव को मंत्री बनवाने."
हालांकि नरसिम्हा राव को कांग्रेस और देश का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी सोनिया गांधी ने ही दी थी, लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही दोनों के बीच ग़लतफ़हमियां पैदा हो गईं.
सोनिया गांधी पर किताब लिखने वाले राशिद क़िदवई कहते हैं, "राव राजनीतिक व्यक्ति थे. वो भी सोनिया गांधी का इस्तेमाल करना चाहते थे. जब भी मंत्रिमंडल में फेरबदल करना चाहते थे, वो उनसे सलाह मशविरा करते थे. दोनों एक दूसरे का आदर भी करते थे."
सोनिया गाँधीImage copyrightAP
"जब राजीव गांधी फ़ाउंडेशन की बैठक की बात आई तो राव समझ गए कि सोनिया को बैठक के लिए 7 रेसकोर्स रोड आने में दिक़्क़त है. वहां से उनकी बहुत सी यादें जुड़ी हुई थीं. उन्होंने खुद पेशकश की थी वो इस बैठक के लिए सोनिया के निवास स्थान 10 जनपथ आएंगे."
"ये उनका बड़प्पन था लेकिन बीच के लोग जैसे अर्जुन सिंह, माखनलाल फ़ोतेदार और विंसेंट जॉर्ज उनके बीच ग़लतफ़हमियां पैदा करने की कोशिश करते थे. नरसिम्हा राव भी दूध के धुले नहीं थे. वो किसी की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहते थे. सोनिया गांधी को उस समय राजनीति की इतनी समझ नहीं थी. इसलिए धीरे धीरे उनके बीच दूरियां बढ़ती चली गईं."
कुछ भी हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरसिम्हा राव ऊंचे दर्जे के बुद्धिजीवी थे. उन्हें 17 भाषाएं आती थीं और नई चीज़ों को सीखने का उनमें गज़ब का जज़्बा था.

विद्वान

नरसिम्हा रावImage copyrightAP
कल्याणी शंकर कहती हैं कि ऊंचे स्तर की स्पेनिश सीखने के लिए उन्होंने स्पेन में रहने का फ़ैसला किया था. 1985-86 में राजीव गांधी का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता था कि वो कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं... 20वीं सदी की बात कर रहे हैं.
नरसिम्हा राव ने 70 साल की उम्र में कंप्यूटर सीखा. वो हमेशा कंप्यूटर पर काम करते थे और जैसे ही कोई नया कंप्यूटर आता था, वो उसे ख़रीद लेते थे. संगीत के भी वो बहुत शौकीन थे. ख़ुद भी गाते थे. वो अक्सर हैदराबाद से कलाकारों को बुलाकर अपने घर पर कॉन्सर्ट किया करते थे.
लेकिन उनके जीवन की सांध्यबेला में स्वयं उनकी पार्टी ने उनसे किनारा कर लिया. वो बहुत एकाकी और अपमानित होकर इस दुनिया से विदा हुए.
नरसिम्हा रावImage copyrightPIB
न सिर्फ़ उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं होने दिया गया, उनके पार्थिव शरीर को भी कांग्रेस मुख्यालय 24, अकबर रोड के अंदर नहीं आने दिया गया. उन पर डाक टिकट जारी करने की मांग नहीं हुई. न ही किसी ने उन्हें भारत रत्न देने की मांग की.
वर्षगांठ और बरसी पर भी उनकी चर्चा करना ज़रूरी नहीं समझा गया. शायद कुछ समय बाद इतिहास उनका सही मूल्यांकन कर पाए.

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