महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में जवाहरलाल नेहरू को ही क्यों चुना? वह सरदार पटेल को चुन सकते थे, जो उनके गृह-राज्य के थे। वह अंबेडकर का भी चयन कर सकते थे, जो दलितों को लेकर गांधी की तरह ही राय रखते थे। उनके वारिस मौलाना आजाद भी हो सकते थे, ताकि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा हो सके।
मगर उन्होंने नेहरू के रूप में एक ऐसे शख्स को चुना, जिनकी राजनीतिक सोच और भारत को लेकर नजरिया उनके विपरीत था। आखिर बापूजी ने नेहरू को ही क्यों चुना? लोग चाहें, तो इसका जवाब नेहरू के भाषणों, या उनकी नीतियों, या गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनकी नेतृत्व क्षमता या फिर गांधी में उनकी अटूट श्रद्धा में ढूंढ़ सकते हैं। मगर मैं इसका जवाब नेहरू के पत्रों में तलाशने की कोशिश करूंगा, जो खास तौर पर उन्होंने मुख्यमंत्रियों को लिखे।
नेहरू ने 16.5 वर्षों में करीब 378 पत्र लिखे। इसे राष्ट्र-निर्माण का साझा सपना बनाने की कवायद के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें न सिर्फ बड़े-बड़े मुद्दों पर चर्चा की गई, बल्कि राजनीति की छोटी-छोटी बातों को भी जगह दी गई। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोनॉमिकल ऐंड संस्कृत रिसर्च के निदेशक राम स्वरूप शर्मा को 16 जुलाई, 1959 को लिखे पत्र में प्रधानमंत्री नेहरू ने लिखा- प्रिय श्री शर्मा। 13 जुलाई को आपका एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ। धन्यवाद। आपने उस पत्र में ज्योतिष में मेरा विश्वास न होने का जिक्र किया है। यह सच है। हर तरह के वैज्ञानिक शोध, जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर कसे जाते हों, स्वागत के योग्य हैं। मेरा मानना है कि हमारे पूर्वजों ने खगोलीय गणना में काफी बेहतर काम किया है। आप इन्हें विज्ञान की कसौटी पर कसने के जो भी प्रयास कर रहे हैं, वे स्वागतयोग्य हैं। मगर इस किताब को मुझे समर्पित करना उचित नहीं होगा।
ज्योतिष और वैज्ञानिक सोच पर हमारी बहस के संदर्भ में नेहरू के इस पत्र में चार सबक निहित हैं। पहला, ज्योतिष भविष्यवाणी के दावों में उनका कोई विश्वास नहीं था, इसलिए ज्योतिष की किताब को उन्हें समर्पित करना उनकी वैज्ञानिक सोच के खिलाफ गया। दूसरा, प्राचीन भारत के ज्योतिष और खगोल विज्ञान में अंतर संबंधी उनकी सोच, और पूर्वजों की उनकी सराहना। तीसरी बात थी, ज्योतिष में अपने अविश्वास के बावजूद ज्ञान के सभी आयामों में वैज्ञानिक शोध को लेकर उनका सकारात्मक रुझान। और चौथा, लोगों की ज्योतिष में गहरी आस्था होने के बाद भी बतौर प्रधानमंत्री ज्योतिष के खिलाफ राय रखना। ऐसा करना उनके लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता था, मगर वह खुद को देश का पहला शिक्षक मानते थे, जिनके लिए आधुनिकता और विज्ञान को सार्वजनिक संस्कृति में शामिल करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। हमें खुद से पूछना चाहिए कि उस वैज्ञानिक सोच की दिशा में आज क्या हो रहा है? तर्कवादी क्यों मारे जा रहे हैं?
वैज्ञानिक सोच के प्रति नेहरू जितने संजीदा थे, उतने ही संवेदनशील वह गरिमा और आत्मसम्मान जैसे मुद्दों को लेकर भी थे। 12 जून, 1960 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने लिखा- मैं आपको झाड़ू के विषय में बताना चाहता हूं, जिसका इस्तेमाल हमारे सफाईकर्मी तो करते ही हैं, हम अपने घरों में भी उसका प्रयोग करते हैं। सामान्य भारतीय झाड़ू हम झुककर या फिर बैठकर ही लगा सकते हैं... एक लंबे बेंत के सहारे बंधा झाड़ू या ब्रश, जिसे खड़े रहकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, काम की दक्षता के हिसाब से भी ज्यादा प्रभावशाली है और इसे इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम थकाऊ भी है। पूरी दुनिया में बेंत लगे झाड़ू अथवा ब्रश का इस्तेमाल होता है। तब क्यों हम एक अक्षम और मनोवैज्ञानिक तौर पर गलत व्यवहार का प्रयोग कर रहे हैं? नीचे झुककर झाड़ू देना शारीरिक रूप से अधिक थका देने वाला काम है और मेरा मानना है कि यह एक तरह की मानसिक गुलामी की सोच भी पैदा करता है। यह पत्र बताता है कि नेहरू का ध्यान न सिर्फ सफाई कर्मचारियों के श्रम की ओर था, बल्कि दासता संबंधी सोच की ओर भी था। आधुनिक उपकरणों के बिना सीवर साफ करने वालों की दुर्दशा आज भी जारी है, क्योंकि हमारी नगरपालिकाएं नेहरू की उस संवेदनशीलता से कोसों दूर चली गई हैं।
तीसरा पत्र खाद्यान्न संकट पर उनकी चिंता दर्शाता है। इस समस्या से निपटने के लिए उनका एक केंद्रीय प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव था। वह संघीय इकाइयों के बीच इस तरह का सहयोग बढ़ाना चाहते थे, ताकि अतिरिक्त खाद्यान्न केंद्र उन राज्यों को भेज सके, जहां अनाज की कमी हो। इतना ही नहीं, आधुनिक उपकरणों की सहायता से खाद्यान्नों की स्थिति पर निगरानी और व्यापक सार्वजनिक शिक्षा के भी वह हिमायती थे। तीन फरवरी, 1949 को लिखे पत्र में उन्होंने बताया है कि यह काम कैसे हो सकता है- अगर पर्याप्त मात्रा में धान नहीं है, तो गेहूं का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अगर धान और गेहूं, दोनों की उपलब्धता कम है, तो कुछ और प्रयास करने चाहिए... लोगों को उन खाद्यान्नों की तरफ उन्मुख किया जाना चाहिए, जिनकी उपलब्धता है। तब उन्होंने पांच तरीके बताए थे, जिन्हें अपनाकर खाने की आदतें बदली जा सकती थीं। आज भी संयुक्त राष्ट्र का खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) अपनी रिपोर्ट में भारत को निचले पायदान पर रखता है और बताता है कि लाखों भारतीय भूखे सोने को मजबूर हैं।
चौथा संदर्भ प्रशासन में राजनीतिक दखलंदाजी से जुड़ा है। एक अक्तूबर, 1950 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने अगाह किया था- मुझे अक्सर यह सुनने को मिलता है कि जब कोई अधिकारी किसी रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करता है, तो लोग तुरंत आरोपी गुनहगार को बचाने की गुहार लगाने पहुंच जाते हैं। कई बार मंत्री भी उसे बचाने की बात कहते हैं.. अधिकारियों के काम में इस तरह की दखलंदाजी होगी, तो फिर वे काम कैसे कर सकते हैं? विडंबना यह है कि राजनीतिक हस्तक्षेप आज की एक सच्चाई है, जिसके कारण हमारी प्रशासनिक व्यवस्था खस्ता हालत में है।
कहने को ये चार छोटी कहानियां हैं, मगर यह उस शख्स के चिंतन को सामने लाती हैं, जो उन छोटी-छोटी चुनौतियों के बारे में भी सोचता था, जिनसे भारत जूझ रहा था। भाजपा उनके नाम को कमतर करने की कोशिश कर सकती है, मगर वह उनकी विरासत को कम नहीं कर पाएगी। कांग्रेस को भी वे चिट्ठियां फिर से पढ़नी पड़ेंगी, जो खुद उसके शैक्षिक उत्थान के लिए जरूरी है। बुद्धिजीवियों को नेहरूवादी नजरिये पर एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए। अंधविश्वास, अपमान, भूख और राजनीतिक हस्तक्षेप को समेटते इन चार पत्रों के संदेश को समझने की जरूरत है। यही वह अकेली सोच है, जो स्थिर व प्रगतिशील भारत की राह प्रशस्त कर सकती है।
मगर उन्होंने नेहरू के रूप में एक ऐसे शख्स को चुना, जिनकी राजनीतिक सोच और भारत को लेकर नजरिया उनके विपरीत था। आखिर बापूजी ने नेहरू को ही क्यों चुना? लोग चाहें, तो इसका जवाब नेहरू के भाषणों, या उनकी नीतियों, या गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनकी नेतृत्व क्षमता या फिर गांधी में उनकी अटूट श्रद्धा में ढूंढ़ सकते हैं। मगर मैं इसका जवाब नेहरू के पत्रों में तलाशने की कोशिश करूंगा, जो खास तौर पर उन्होंने मुख्यमंत्रियों को लिखे।
नेहरू ने 16.5 वर्षों में करीब 378 पत्र लिखे। इसे राष्ट्र-निर्माण का साझा सपना बनाने की कवायद के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें न सिर्फ बड़े-बड़े मुद्दों पर चर्चा की गई, बल्कि राजनीति की छोटी-छोटी बातों को भी जगह दी गई। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोनॉमिकल ऐंड संस्कृत रिसर्च के निदेशक राम स्वरूप शर्मा को 16 जुलाई, 1959 को लिखे पत्र में प्रधानमंत्री नेहरू ने लिखा- प्रिय श्री शर्मा। 13 जुलाई को आपका एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ। धन्यवाद। आपने उस पत्र में ज्योतिष में मेरा विश्वास न होने का जिक्र किया है। यह सच है। हर तरह के वैज्ञानिक शोध, जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर कसे जाते हों, स्वागत के योग्य हैं। मेरा मानना है कि हमारे पूर्वजों ने खगोलीय गणना में काफी बेहतर काम किया है। आप इन्हें विज्ञान की कसौटी पर कसने के जो भी प्रयास कर रहे हैं, वे स्वागतयोग्य हैं। मगर इस किताब को मुझे समर्पित करना उचित नहीं होगा।
ज्योतिष और वैज्ञानिक सोच पर हमारी बहस के संदर्भ में नेहरू के इस पत्र में चार सबक निहित हैं। पहला, ज्योतिष भविष्यवाणी के दावों में उनका कोई विश्वास नहीं था, इसलिए ज्योतिष की किताब को उन्हें समर्पित करना उनकी वैज्ञानिक सोच के खिलाफ गया। दूसरा, प्राचीन भारत के ज्योतिष और खगोल विज्ञान में अंतर संबंधी उनकी सोच, और पूर्वजों की उनकी सराहना। तीसरी बात थी, ज्योतिष में अपने अविश्वास के बावजूद ज्ञान के सभी आयामों में वैज्ञानिक शोध को लेकर उनका सकारात्मक रुझान। और चौथा, लोगों की ज्योतिष में गहरी आस्था होने के बाद भी बतौर प्रधानमंत्री ज्योतिष के खिलाफ राय रखना। ऐसा करना उनके लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता था, मगर वह खुद को देश का पहला शिक्षक मानते थे, जिनके लिए आधुनिकता और विज्ञान को सार्वजनिक संस्कृति में शामिल करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। हमें खुद से पूछना चाहिए कि उस वैज्ञानिक सोच की दिशा में आज क्या हो रहा है? तर्कवादी क्यों मारे जा रहे हैं?
वैज्ञानिक सोच के प्रति नेहरू जितने संजीदा थे, उतने ही संवेदनशील वह गरिमा और आत्मसम्मान जैसे मुद्दों को लेकर भी थे। 12 जून, 1960 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने लिखा- मैं आपको झाड़ू के विषय में बताना चाहता हूं, जिसका इस्तेमाल हमारे सफाईकर्मी तो करते ही हैं, हम अपने घरों में भी उसका प्रयोग करते हैं। सामान्य भारतीय झाड़ू हम झुककर या फिर बैठकर ही लगा सकते हैं... एक लंबे बेंत के सहारे बंधा झाड़ू या ब्रश, जिसे खड़े रहकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, काम की दक्षता के हिसाब से भी ज्यादा प्रभावशाली है और इसे इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम थकाऊ भी है। पूरी दुनिया में बेंत लगे झाड़ू अथवा ब्रश का इस्तेमाल होता है। तब क्यों हम एक अक्षम और मनोवैज्ञानिक तौर पर गलत व्यवहार का प्रयोग कर रहे हैं? नीचे झुककर झाड़ू देना शारीरिक रूप से अधिक थका देने वाला काम है और मेरा मानना है कि यह एक तरह की मानसिक गुलामी की सोच भी पैदा करता है। यह पत्र बताता है कि नेहरू का ध्यान न सिर्फ सफाई कर्मचारियों के श्रम की ओर था, बल्कि दासता संबंधी सोच की ओर भी था। आधुनिक उपकरणों के बिना सीवर साफ करने वालों की दुर्दशा आज भी जारी है, क्योंकि हमारी नगरपालिकाएं नेहरू की उस संवेदनशीलता से कोसों दूर चली गई हैं।
तीसरा पत्र खाद्यान्न संकट पर उनकी चिंता दर्शाता है। इस समस्या से निपटने के लिए उनका एक केंद्रीय प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव था। वह संघीय इकाइयों के बीच इस तरह का सहयोग बढ़ाना चाहते थे, ताकि अतिरिक्त खाद्यान्न केंद्र उन राज्यों को भेज सके, जहां अनाज की कमी हो। इतना ही नहीं, आधुनिक उपकरणों की सहायता से खाद्यान्नों की स्थिति पर निगरानी और व्यापक सार्वजनिक शिक्षा के भी वह हिमायती थे। तीन फरवरी, 1949 को लिखे पत्र में उन्होंने बताया है कि यह काम कैसे हो सकता है- अगर पर्याप्त मात्रा में धान नहीं है, तो गेहूं का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अगर धान और गेहूं, दोनों की उपलब्धता कम है, तो कुछ और प्रयास करने चाहिए... लोगों को उन खाद्यान्नों की तरफ उन्मुख किया जाना चाहिए, जिनकी उपलब्धता है। तब उन्होंने पांच तरीके बताए थे, जिन्हें अपनाकर खाने की आदतें बदली जा सकती थीं। आज भी संयुक्त राष्ट्र का खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) अपनी रिपोर्ट में भारत को निचले पायदान पर रखता है और बताता है कि लाखों भारतीय भूखे सोने को मजबूर हैं।
चौथा संदर्भ प्रशासन में राजनीतिक दखलंदाजी से जुड़ा है। एक अक्तूबर, 1950 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने अगाह किया था- मुझे अक्सर यह सुनने को मिलता है कि जब कोई अधिकारी किसी रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करता है, तो लोग तुरंत आरोपी गुनहगार को बचाने की गुहार लगाने पहुंच जाते हैं। कई बार मंत्री भी उसे बचाने की बात कहते हैं.. अधिकारियों के काम में इस तरह की दखलंदाजी होगी, तो फिर वे काम कैसे कर सकते हैं? विडंबना यह है कि राजनीतिक हस्तक्षेप आज की एक सच्चाई है, जिसके कारण हमारी प्रशासनिक व्यवस्था खस्ता हालत में है।
कहने को ये चार छोटी कहानियां हैं, मगर यह उस शख्स के चिंतन को सामने लाती हैं, जो उन छोटी-छोटी चुनौतियों के बारे में भी सोचता था, जिनसे भारत जूझ रहा था। भाजपा उनके नाम को कमतर करने की कोशिश कर सकती है, मगर वह उनकी विरासत को कम नहीं कर पाएगी। कांग्रेस को भी वे चिट्ठियां फिर से पढ़नी पड़ेंगी, जो खुद उसके शैक्षिक उत्थान के लिए जरूरी है। बुद्धिजीवियों को नेहरूवादी नजरिये पर एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए। अंधविश्वास, अपमान, भूख और राजनीतिक हस्तक्षेप को समेटते इन चार पत्रों के संदेश को समझने की जरूरत है। यही वह अकेली सोच है, जो स्थिर व प्रगतिशील भारत की राह प्रशस्त कर सकती है।
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