Tuesday, 1 December 2015

जॉर्ज के बरी होने की चर्चा तक नहीं @यशवंत सिन्हा

बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि 13 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडीस को कारगिल ताबूत घोटाले में पूरी तरह निर्दोष करार दिया। किंतु सबको याद होगा कि फर्नांडीज पर ताबूत मामले में कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाए थे। उन्हें कफन चोर की संज्ञा भी दी गई थी और कांग्रेस ने संसद में उनका बहिष्कार भी किया था। यूपीए की सरकार आने के बाद जून 2006 में सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की और उसने भी फर्नांडीस को निर्दोष करार दिया था। दिसंबर 2013 में सीबीआई कोर्ट ने दूसरे आरोपियों को भी बरी कर दिया। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जिसमें 13 अक्टूबर को फैसला सुनाया गया और फर्नांडीस को पूरी तरह निर्दोष करार दिया गया। उसी प्रकार भारतीय नौ सेना के लिए इज़रायल के साथ हुए बराक मिसाइल सौदे के बारे में भी फर्नांडीस तथा अन्य के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए थे। यह मामला तहलका के माध्यम से 2001 में सामने आया था। इसमें भी सीबीआई की जांच हुई और किसी को दोषी नहीं पाया गया। कोर्ट ने सीबीआई की बात मानते हुए दिसंबर 2013 में मामला बंद कर दिया।

फर्नांडीस कांग्रेस पार्टी के प्रबल विरोधी थे। आपातकाल में उनकी भूमिका बागी की थी। लोकसभा में वे पहली बार कांग्रेस के दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराकर आए थे। संसद में भी वे कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध आक्रामक भूमिका में रहते थे। कांग्रेस पार्टी और उनके संबंंधों में भयंकर तथा व्यक्तिगत कटुता थी। इस स्थिति में फर्नांडीस, पर कांग्रेस का भीषण आक्रमण आसानी से समझ में आता है। अत: फर्नांडीस के चरित्र, उनकी ईमानदारी पर मौका मिलते ही आक्रमण करना कांग्रेस पार्टी की आदत-सी बन गई थी। ताबूत तथा अन्य रक्षा सौदों के मामले में फर्नांडीस पर आरोप लगाना आसान था, क्योंकि मीडिया में कुछ लोगों ने इसे मुद्‌दा बनाया था। मीडिया में कुछ लोगों का यह भ्रम है कि वही नेताओं को बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। कलयुग के इस दौर में यह सही है कि उपलब्धियों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण उनका प्रचार हो गया है। बनाने-बिगाड़ने के इस खेल में तथ्यों का कोई महत्व नहीं रह गया है। काम कम और प्रचार ज्यादा कई नेताओं की शैली बन चुकी है। उसी प्रकार बिना तथ्यों के किसी नेता के ऊपर आरोप लगाना तथा उसकी छवि बिगाड़ देना भी अब खेल हो गया है। छवि बनाने में वर्षों लगते हैं, बिगाड़ने में कुछ क्षण।
सार्वजनिक जीवन में आरोप लगते ही उनको सही मान लिया जाता है, फिर वह अारोप तथ्यों से परे क्यों न हों। बरी होने की खबर, जैसाकि हमने फर्नांडीज के मामले में देखा, या तो छपती नहीं है या छोटी खबर बनकर रह जाती है। अत: फर्नांडीस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए गए, संसद में कांग्रेस ने कई वर्षों तक उनका बहिष्कार भी किया। यह सब सुर्खियों में रहा, लेकिन फर्नांडीस को क्लीनचिट मिली, सीबीआई जांच के वर्षों बाद सारे आरोप बेबुनियाद पाए गए यह खबर हैडलाइन नहीं बन पाई।

पूर्व संचार सचिव श्यामल घोष का मामला तो इससे भी ज्यादा गंभीर है। फर्नांडीज तो सार्वजनिक जीवन में थे, संसद में थे, अपनी सफाई दे सकते थे, लेकिन एक नौकरशाह के लिए यह सब कहां संभव है? ईमानदार नौकरशाह तो केवल पिसता है। श्यामल घोष के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 2जी घोटाले को देश की जनता भूली नहीं होगी। संसद का पूरा सत्र बर्बाद करने के बाद यूपीए सरकार ने अंतत: विपक्ष की उस मांग को स्वीकार कर लिया कि इसकी जांच के लिए एक संसदीय समिति बनानी चाहिए। 2जी घोटाले के दाग से बचने के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस ने कई चालें चलीं। पहले तो उन्होंने कहा कि इसमें कोई घाटा हुआ ही नहीं था। दूसरा, उन्होंने कहा कि वे जिस नीति पर चल रहे थे, वह वाजपेयी सरकार की ही नीतियां थीं। तीसरा, उन्होंने कहा कि इससे भी बड़ा घोटाला वाजपेयी सरकार के समय हुआ था। चौथा, संसद की लोक लेखा समिति के द्वारा इस मामले की जो जांच की जा रही थी, उसको उन्होंने हंगामे की भेंट चढ़ा दिया। संसद के सदनों में तो हंगामा देखा था, लेकिन संसद की समिति में हंगामा मैंने पहली बार देखा। पांचवां, जब संसदीय समिति का बनना तय हो गया तो भाजपा तथा वाजपेयी सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए कांग्रेस ने जोर दिया कि जांच 1998 से शुरू की जाए, जिसमें वाजपेयी सरकार का संपूर्ण कार्यकाल शामिल था। घोटाला यूपीए सरकार में हुआ था और जांच वाजपेयी सरकार के कार्य-कलापों की होने लगी। संयुक्त संसदीय समिति में जो राजनीति हुई तथा सत्तारूढ़ दल द्वारा लोकतांत्रिक परंपराओं की जिस तरह धज्जियां उड़ाई गईं वह जगजाहिर है। मैंने एक अलग रिपोर्ट तैयार की, जो भाजपा के छह सदस्यों ने अध्यक्ष को सौंपी और वह अभिलेखों का हिस्सा बनी।

वाजपेयी सरकार को यूपीए सरकार की श्रेणी में लाने के लिए तत्कालीन दूरसंचार मंत्री और उनकी सरकार ने बहुत गंदा खेल खेला। उन्होंने सेवानिवृत्त न्यायाधीश को जांच के लिए नियुक्त किया, जिसने ईमानदारी ताक पर रखते हुए अनाप-शनाप रिपोर्ट दी। उस रिपोर्ट के आधार पर एक मामले में सीबीआई ने जांच शुरू की। यह मामला जनवरी 2002 का था, जब प्रमोद महाजन दूरसंचार मंत्री थे और श्यामल घोष मंत्रालय के सचिव। महाजन का निधन हो चुका था, इसलिए वे अभियुक्त नहीं बनाए जा सकते थे, लेकिन घोष और तीन दूरसंचार कंपनियों को इसमें आरोपी बनाया गया। आरोप था कि घोष ने कंपनियों की मिलीभगत से कम कीमत पर स्पैक्ट्रम बांट दिया, जिससे सरकारी खजाने को 846 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। सीबीआई अदालत ने 15 अक्टूबर 2015 के फैसले में सीबीआई पर गंभीर आरोप लगाते हुए आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि सीबीआई द्वारा पेश किए गए तथ्य मनगढ़ंत और मिथ्या थे। पूरा मामला पूर्वग्रह से ग्रसित होकर लाया गया था। सीबीआई ने न्यायालय को दिग्भ्रमित करने का प्रयास भी किया। कोर्ट ने सीबीआई निदेशक को आदेश दिया कि वे इसकी जांच करें और सीबीआई के दोषी पदाधिकारियों के विरुद्ध आवश्यक कानूनी कार्रवाई करें। श्यामल घोष को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि अपने लंबे कार्यकाल में उन्होंने लगातार पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ काम किया है। उनका चरित्र पूरी तरह से स्वच्छ है। सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने किसी निजी कंपनी की नौकरी भी नहीं की। ऐसे पदाधिकारी को सेवानिवृत्त होने के दस साल बाद झूठे मुकदमे में फंसाकर बदनाम करना, मानसिक यातना देना, समाज में उनकी प्रतिष्ठा गिराना इत्यादि गंभीर अपराध हैं और ऐसे अपराधियों को माफ करना भारी भूल होगी। मेरा मोदी सरकार से आग्रह है कि वह शीघ्रतिशीघ्र दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध आवश्यक कानूनी कार्रवाई करे।

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