Friday, 11 December 2015

कितना बदल गया इंसान.. मोहन लाल शर्मा

कवि प्रदीपImage copyrightMitul Pradeep
1957 में पाकिस्तान में एक फ़िल्म आई थी जिसका नाम था ‘बेदारी’. इसके गीत के बोल थे
-आओ बच्चे सैर कराएँ तुमको पाकिस्तान की, जिसकी ख़ातिर हमने दी क़ुर्बानी लाखों जान की...
-यूँ दी हमें आज़ादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ क़ायदे आज़म तेरा एहसान है एहसान...
लेकिन इन गीतों के रचनाकार कवि प्रदीप नहीं थे.
कवि प्रदीप ने जिन गीतों को रचा था वो थी भारत में 1954 में बनी 'जागृति' फ़िल्म के गीत-
-आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की...
-दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...
दरअसल 'बेदारी' हूबहू भारत की देशभक्ति फ़िल्म जागृति को उठाकर उर्दू में बनाई गई फ़िल्म थी.
कवि प्रदीपImage copyrightMitul Pradeep
कवि प्रदीप की लेखनी से निकले इन गीत के बोलों में मामूली फेरबदल किया था. गांधी को जिन्ना और हिंदुस्तान को पाकिस्तान से बदल दिया गया था.
इन गीतों से ही प्रदीप की लेखनी की ताक़त का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
लेकिन ये तो बहुत बाद की बात है, आज़ादी से पहले भी प्रदीप अपनी लेखनी से अंग्रेज़ी हुक़ूमत को चुनौती दे रहे थे.
दुनिया आज जिन्हें कवि प्रदीप के नाम से जानती है, 6 फरवरी 1915 को मध्य प्रदेश उज्जैन के वड़नगर में पैदा हुए थे, लेकिन उनका नाम प्रदीप नहीं बल्कि रामचंद्र द्विवेदी था.
बचपन से ही उन्होंने लेखनी उठा ली और कवि सम्मेलनों में जाने लगे.
प्रदीप पहले शिक्षक बनना चाहते थे लेकिन 1939 आते-आते उन्होंने तय किया कि वे शिक्षक नहीं बनेंगे.
बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में प्रदीप ने बताया था, “किसी का लड़का बीमार पड़ा तो उसकी जगह मुझे एक कवि सम्मेलन में कविता पाठ के लिए बंबई आना पड़ा. वहाँ पर एक व्यक्ति ऐसा था जो कि बांबे टॉकीज़ में नौकरी करता था. उसने मुझे सुना और उसने ये बात हिमांशु राय को बताई. उसके बाद हिमांशु राय ने मुझे मिलने बुलाया. वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे अपने यहाँ 200 रुपये प्रतिमाह की नौकरी दे दी."
तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ कवि प्रदीप.Image copyrightMitul Pradeep
Image captionतत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ कवि प्रदीप.
ये हिमांशु राय ही थे जिन्होंने उनसे कहा कि ये रेलगाड़ी जैसा लंबा नाम ठीक नहीं है, तभी से उन्होंने अपना नाम प्रदीप रख लिया.
एक और रोचक बात. उन दिनों अभिनेता प्रदीप कुमार भी प्रसिद्ध हो रहे थे तो, अक्सर ग़लती से डाकिया कवि प्रदीप की चिठ्ठी उनके पते पर डाल देता था. तो चिट्ठियां सही जगह पहुंचें इसलिए उन्होने अपने नाम के आगे कवि शब्द जोड़ लिया.
प्रदीप की पहली फ़िल्म बनी 'कंगन' जिसके गीत उन्होंने लिखे थे. हीरो थे अशोक कुमार. फ़िल्म सुपरहिट. इसके बाद आई बंधन, इसमें उन्होंने 12 गीत लिखे, दो ख़ुद गाए भी.
लेकिन इसके एक गीत की ख़ास बात यह थी कि इंदिरा प्रियदर्शनी की गांधी की वानर सेना इसी गीत को गाकर बच्चों में देशभक्ति की भावना जगाने का काम कर रही थी.
गीत के बोल थे- चल चल रे नौजवान, रुकना तेरा काम नहीं..
1942 के अगस्त महीने में भारत में अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी.
तो 1943 में एक फ़िल्म आई 'क़िस्मत' जिसमें प्रदीप की क़लम से निकले एक गीत ने आज़ादी के सुर छेड़ दिए-
‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो... दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदोस्तान हमारा है’.
ये गीत अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान लगातार लोगों में ऊर्जा भरता रहा.
कवि प्रदीपImage copyrightMitul Pradeep
आज़ादी के बाद 1954 में उन्होंने फ़िल्म 'जागृति' में शब्दों के ज़रिए महात्मा गांधी और भारत की झांकी दुनिया को दिखा दी.
प्रदीप की लेखनी लगातार चल रही थी और उससे लगातार देशभक्ति गीत निकलते जा रहे थे.
1962 का भारत चीन युद्ध हो चुका था और इसमें हारने के बाद देश में निराशा का माहौल था. भारत-चीन युद्ध के दौरान शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रदीप ने अपने जीवन की एक और कालजयी रचना की-
ऐ मेरे वतन के लोगों.. ज़रा आंख में भर लो पानी ..
पहली बार इस गीत को 26 जनवरी 1963 में दिल्ली में लता मंगेशकर ने गाया था सामने बैठे थे प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु..
जब गीत खत्म हुआ तो जितने भी लोग वहाँ पर मौजूद थे उनकी आंखें नम थी और इनमें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे.
भाजपा नेता सुषमा स्वराज और पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायनन के साथ कवि प्रदीपImage copyrightMitul Pradeep
Image captionभाजपा नेता सुषमा स्वराज और पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायनन के साथ कवि प्रदीप.
गीत लिखे जाने का कहानी प्रदीप खुद बताते हैं, “उन दिनों दो तीन गाने देशभक्ति के लिखे जा चुके थे. मेरे पास भी और उनके लिए पुरुष आवाज़ों यानी मो. रफ़ी और मुकेश के नाम भी तय हो चुके थे. ऐसे में लता मंगेशकर से इस गीत को गवाने की बात हुई, लेकिन यह एक पुरुष प्रधान गीत था, इसलिए इसमें कुछ लाइनें जोड़ दीं, क्योंकि इसे 26 जनवरी को दिल्ली में गाया जाना था.”
प्रदीप ख़ुद इस गीत को लेकर इतने भावुक थे कि उन्होंने इसकी रॉयल्टी को सैनिकों की विधवाओं के कल्याण के लिए देने का फ़ैसला किया.
प्रदीप की छोटी बेटी मितुल प्रदीप बताती हैं कि जब प्रदीप जी को पता चला कि इस गाने की रॉयल्टी विधवाओं को नहीं मिल रही है, तो वे बहुत दुखी हुए थे.
हालांकि मितुल प्रदीप को गीत की रॉयल्टी सैनिकों की विधवाओं तक पहुंचाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा और इसमें उनकी जीत भी हुई.
कवि प्रदीप ने जीवन के हर रंग, हर रस को शब्दों में उतारा, उनकी लेखनी से निकला हर गीत जीवन दर्शन समझा जाता था लेकिन उनके देशभक्ति के तरानों की बात ही कुछ अलग थी.
गायिका लता मंगेशकर के साथ कवि प्रदीप.Image copyrightMitul Pradeep
Image captionगायिका लता मंगेशकर के साथ कवि प्रदीप.
आज़ाद भारत के इतिहास में 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन सबसे ज़्यादा जिनके लिखे गीत गूंजते हैं वो प्रदीप ही है.
फ़िल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए कवि प्रदीप को 1998 में दादा साहब फ़ाल्के सम्मान भी दिया गया.
वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार जयप्रकाश चौकसे कहते हैं कि कवि प्रदीप की खासियत थी उनकी सरलता और भावनाएं.
चौकसे कहते हैं, "शैलेंद्र, मजरुह सुल्तानपुरी ने कविता कैसे रची जाए, इसका अध्ययन किया था, लेकिन प्रदीप को पश्चिमी साहित्य की कोई जानकारी नहीं थी. वो देशी ठाठ के नुक्कड़ कवि थे. उनकी अनगढ़ता में ही उनका सौंदर्य छिपा है."
चौकसे कहते हैं कि उन्होंने कई बार मध्य प्रदेश सरकार से अनुरोध किया है कि वड़नगर को प्रदीप नगर घोषित किया जाए.
अपने परिवार के साथ प्रदीप.Image copyrightMitul Pradeep
Image captionअपने परिवार के साथ प्रदीप.
यूं तो प्रदीप के ज़्यादातर गीत कालजयी हैं, लेकिन बेटी मितुल प्रदीप की नज़रों में जो गीत आज भी उन्हें झकझोर देता है वो है- कितना बदल गया इंसान...
11 दिसंबर 1998 को कवि प्रदीप ने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन उनके ये शब्द हमें आज भी सोचने को मजबूर करते हैं

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