Monday, 28 December 2015

'ख़ूबसूरत बंदा देख, नूरजहां को गुदगुदी होती थी' @रेहान फ़ज़ल

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ये वो ज़माना था जब लाहौर के गवर्नमेंट और लॉ कालेज के नौजवान या तो शीज़ान ओरिएंटल जाया करते थे या कॉन्टिनेंटल. यहाँ वो खिड़कियों के पास बैठकर गुज़रती हुई लड़कियों को निहारा करते थे.
बाहर मुख्य सड़क पर पर फ़रीदा ख़ानम अपनी लंबी कार पर नूरजहाँ के साथ बहुत तेज़ी से निकला करती थीं. दोनों जिगरी दोस्त थीं. अक्सर इनकी कार जब इन लड़कों के सामने से गुज़रती थी तो धीमी हो जाया करती थीं ताकि ये दोनों मशहूर गायिकाएं उन नौजवान लड़कों पर कनखियों से नज़र डाल सकें.
जब 1998 में नूरजहाँ को दिल का दौरा पड़ा, तो उनके एक मुरीद और नामी पाकिस्तानी पत्रकार खालिद हसन ने लिखा था- "दिल का दौरा तो उन्हें पड़ना ही था. पता नहीं कितने दावेदार थे उसके! और पता नहीं कितनी बार वह धड़का था उन लोगों के लिए जिन पर मुस्कराने की इनायत की थी उन्होंने."
अली अदनान पाकिस्तान के जाने माने पत्रकार हैं और इस समय अमरीका में रहते हैं. उन्होंने नूरजहाँ पर ख़ासा शोध किया है. जब वो पहली बार उनसे मिले तो वो काफ़ी ख़राब मूड में थीं.
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अली याद करते हैं, "नूरजहाँ उस दिन नज़ीर अली के लिए गाना रिकॉर्ड कर रही थीं और उनके गुस्से का निशाना थे मशहूर बांसुरीवादक ख़ादिम हुसैन. राग दरबारी की बंदिश में नूरजहाँ कोमल धैवत को और बारीक चाह रही थीं लेकिन ख़ादिम हुसैन से बात बन नही पा रही थी. उनके मुंह से ख़ादिम हुसैन के लिए अपशब्दों का जो सैलाब निकला था उसे सुन कर सब हक्का बक्का रह गए थे."
अली अदनान के मुताबिक नूरजहाँ की ये अदा हुआ करती थी कि वो कोई भी फ़होश या बेहूदा बात कह कर मुस्करा देती थीं कि ये मैंने क्या कहा दिया और सामने बैठा शख़्स ये सोचने पर मजबूर हो जाता था कि नूरजहाँ के मुंह से इस तरह की बात कैसे निकल सकती है. अली कहते हैं, "मैंने उनके मुंह से ऐसे ऐसे अपशब्द सुने हैं कि हीरा मंडी के बाउंसर या पुलिस के थानेदार का चेहरा भी उन्हें सुनकर शर्म से लाल हो जाए."
गाना रिकॉर्ड करते समय नूरजहाँ उसमें अपना दिल, आत्मा और दिमाग़ सब कुछ झोंक देती थीं. अली बताते है कि उन्होंने अक्सर स्टूडियो में नूरजहाँ को उनके पीछे बैठकर रिकॉर्डिंग कराते सुना है.
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अली ने बताया, "वो जो ब्लाउज़ पहनती थीं उसका गला भी बहुत लो होता था और कमर से भी उसका बहुत सा हिस्सा पीछे बैठे शख़्स को नज़र आता था. वो करीब डेढ़ बजे के आसपास रिकॉर्डिंग शुरू करती थीं लेकिन घंटे भर के अंदर उनकी पीठ पर पसीने की बूंदें दिखनी शुरू हो जाती थीं. रिकॉर्डिंग ख़त्म होतो होते वो पूरी तरह से पसीने से सराबोर होती थीं. यहाँ तक कि वो जब माइक से हटतीं थीं तो उनके नीचे का फ़र्श भी पसीने से गीला हो चुका होता था. कहने का मतलब, वो बहुत मुश्किल से गातीं थी और उनको गाने में बहुत जान मारनी पड़ती थी."
भारत और पाकिस्तान की संगीत परंपराओं पर ख़ासा काम करने वाले प्राण नेविल भारत के राजनयिक भी रह चुके हैं. उनकी नूरजहाँ से पहली मुलाक़ात 1978 में हुई थी जब वो अमरीका में सिएटल में एक कंसर्ट करने आई थीं.
Image captionबीबीसी हिंदी स्टूडियो में प्राण नेविल के साथ रेहान फ़ज़ल.
प्राण नेविल याद करते हैं, "उन दिनों मैं सिएटल में भारत का काउंसल जनरल हुआ करता था. चूँकि वहाँ पाकिस्तान का कोई दूतावास नहीं था इसलिए आयोजक मुझे मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाना चाहते थे. उन्होंने नूरजहाँ से इसकी इजाज़त माँगी. नूरजहाँ ने कहा कि ये शख़्स हिंदुस्तानी हो या पाकिस्तानी मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मेरी शर्त ये है कि वो देखने में अच्छा होना चाहिए. सामने बदशक्ल व्यक्ति को बैठे देख मेरा मूड ऑफ़ हो जाएगा."
नेविल ने आगे बताया, "आयोजकों ने उन्हें समझाया कि वो साहब देखने में बुरे नहीं है, सबसे बड़ी बात ये है कि वो लाहौर के हैं और आपके बहुत बड़े फ़ैन हैं. तब जा कर नूरजहाँ मानी. जब मैंने उनसे फ़रमाइश की कि लगा है मिस्र का बाज़ार गाइए तो उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई और उन्होंने वो गाना गाया."
नूरजहाँ ने महान बनने के लिए बहुत मेहनत की थी और अपनी शर्तों पर ज़िंदगी को जिया था. उनकी ज़िंदगी में अच्छे मोड़ भी आए और बुरे भी! उन्होंने शादियाँ की, तलाक दिए, प्रेम संबंध बनाए, नाम कमाया और अपनी ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में बेइंतहा तकलीफ़ भी झेली. एक बार पाकिस्तान की एक नामी शख़्सियत राजा तजम्मुल हुसैन ने उनसे हिम्मत कर पूछा कि आपके कितने आशिक रहे हैं अब तक?
उन्होंने जवाब दिया, "सब आधे सच."
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Image captionअली अदनान ने नूरजहाँ पर काफी शोध अध्ययन किया है.
"तो आधे सच ही बता दीजिए"- तजम्मुल ने जोर दिया. नूरजहाँ कुछ ज्यादा ही दरियादिल मूड में थीं. उन्होंने गिनाना शुरू किया. कुछ मिनटों बाद उन्होंने तजम्मुल से पूछा, "कितने हुए अब तक?"
तजम्मुल ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया- अब तक सोलह! नूरजहाँ ने पंजाबी में क्लासिक टिप्पणी की- "हाय अल्लाह! ना-ना करदियाँ वी 16 हो गए ने!"
नूरजहाँ का सबसे मशहूर इश्क था पाकिस्तान के टेस्ट क्रिकेटर नज़र मोहम्मद से और इसी वजह से नज़र मोहम्मद का टेस्ट कैरियर वक्त से पहले ही ख़त्म हो गया.
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Image captionजनरल याहिया ख़ान के साथ भी नूरजहाँ का नाम जोड़ा गया.
अली अदनान कहते हैं, "नूरजहाँ को पुरुष बहुत पसंद थे. उनके ही अलफ़ाज़ इस्तेमाल करता हूँ, पंजाबी में कहती थीं- जदों मैं सोहना बंदा देखती हां, ते मैन्नू गुदगुदी हुंदी है. एक बार उनको और नज़र मोहम्मद को उनके पति ने एक कमरे में रंगे हाथ पकड़ लिया. नज़र ने पहली मंज़िल की खिड़की से नीचे छलांग लगा दी, जिसकी वजह से उनका हाथ टूट गया. उन्होंने एक पहलवान से अपना हाथ बैठवाया लेकिन वो ग़लत जुड़ गया और उनको वक्त से पहले ही टेस्ट क्रिकेट से रिटायर हो जाना पड़ा."
1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय उनका नाम पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याहिया ख़ाँ से भी जोड़ा गया. नूरजहाँ ने खुद कभी इसकी पुष्टि नहीं की. लेकिन ये सर्वविदित है कि जनरल याहिया को सुंदर औरतों का साथ बहुत पसंद था और मैडम नूरजहाँ से बेहतर साथ और किसका हो सकता था.
पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार ख़ालिद हसन ने एक बार इसका ज़िक्र करते हुए लिखा था कि एक बार जनरल याहिया ने अपनी शामों के साथी और मातहत जनरल हमीद से कहा था, "हैम, अगर में नूरी को चीफ़ ऑफ़ द स्टाफ़ बना दूँ, तो वो तुम लोगों से कहीं बेहतर काम करेगी." नूरजहाँ याहिया को सरकार कह कर पुकारा करती थीं और उनके लड़के अली की शादी में उन्होंने गाने भी गाए थे.
नूरजहाँ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का बेहद सम्मान करती थीं. एक बार एक समारोह में मलिका पुखराज ने कहा कि फ़ैज़ मेरे भाई की तरह हैं. जब नूरजहाँ की बारी आई तो वो बोलीं कि मैं फ़ैज़ को भाई नहीं महबूब समझती हूँ. एक बार फ़ैज़ से एक मुशाएरे में उनकी मशहूर नज़्म मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग सुनाने के लिए कहा गया तो वो बोले 'भाई वो नज़्म तो अब नूरजहाँ की हो गई है... वही उसकी मालिक है. अब उस पर मेरा कोई हक़ नहीं रहा.'
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Image captionफ़ैज़ अहमद फ़ैज अपनी पत्नी के साथ.
अपने करियर के शिखर पर भी पहुंचने के बावजूद भी नूरजहाँ की मानवीय मूल्यों में आस्था कम नहीं हुई थी.
नूरजहाँ पर किताब लिखने वाले एजाज़ गुल बताते हैं, "मशहूर संगीतकार निसार बज़्मी ने मुझे बताया था कि नूरजहाँ अक्सर अपने घर पर गानों का रिहर्सल किया करती थी. एक बार वे उनसे मिलने गए तो उन्होंने चाय मंगवाई. जब वो निसार को चाय दे रही थीं तो उसकी कुछ बूंदें प्याली से छलक कर उनके जूतों पर गिर गई. वो फ़ौरन झुकीं और अपनी साड़ी के पल्लू से उन्होंने गिरी हुई चाय की बूंदों को साफ़ किया. निसार ने उन्हें बहुत रोका लेकिन उन्होंने कहा, आप जैसे लोगों की वजह से ही मैं इस मुक़ाम तक पहुंची हूँ."
एक बार किसी ने उनसे पूछने की जुर्रत की कि आप कब से गा रही हैं? नूरजहाँ का जवाब था, "मैं शायद पैदा होते समय भी गा ही रही थी."
सन 2000 में जब उनकी मौत हुई, तो उनकी एक बुजुर्ग चाची ने कहा था, "जब नूर पैदा हुई थी तो उनके रोने की आवाज़ सुनकर उनकी बुआ ने उनके पिता से कहा था- यह लड़की तो रोती भी सुर में है."
नूरजहाँ के बारे में एक और कहानी भी मशहूर है. तीस के दशक में एक बार लाहौर में एक स्थानीय पीर के भक्तों ने उनके सम्मान में भक्ति संगीत की एक ख़ास शाम का आयोजन किया. एक लड़की ने वहाँ पर कुछ नात सुनाए. पीर ने उस लड़की से कहा, "बेटी कुछ पंजाबी में भी हमको सुनाओ." उस लड़की ने तुरंत पंजाबी में तान ली, जिसका आशय कुछ इस तरह का था...इस पाँच नदियों की धरती की पतंग आसमान तक पहुँचे!
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जब वह लड़की यह गीत गा रही थी, तो पीर अवचेतन की अवस्था में चले गए. थोड़ी देर बाद वह उठे और लड़की के सिर पर हाथ रख कर कहा, "लड़की तेरी पतंग भी एक दिन आसमान को छुएगी." ये लड़की नूरजहाँ थीं. नूरजहाँ को दावतों के बाद या कहें लोगों की फरमाइश पर गाना सख़्त नापसंद था. एक बार दिल्ली के विकास पब्लिशिंग हाउस के प्रमुख नरेंद्र कुमार उनसे मिलने लाहौर गए. उनके साथ उनका किशोर बेटा भी था.
यकायक नरेंद्र ने मैडम से कहा, "मैं अपने बेटे के लिए आपसे कुछ माँगना चाह रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि वह इस क्षण को ताज़िंदगी याद रखे. सालों बाद वह लोगों से कह सके कि एक सुबह वह एक कमरे में नूरजहाँ के साथ बैठा था और नूरजहाँ ने उसके लिए एक गाना गाया था."
वहाँ उपस्थित लोगों की सांसें रुक गईं क्योंकि उन्हें पता था कि नूरजहाँ ऐसा कभी कभार ही करती हैं. नूरजहाँ ने पहले नरेंद्र को देखा, फिर उनके पुत्र को और फिर अपने उस्ताद गुलाम मोहम्मद उर्फ गम्मे खाँ को. "जरा बाजा तो मँगवाना." उन्होंने उस्ताद से कहा. एक लड़का बगल के कमरे से बाजा उठा लाया. बाजा यानी हारमोनियम.
उस्ताद गम्मे खान ने तान ली...फिर दूसरी और फिर तीसरी...फिर उनकी तरफ देखा. मैडम ने कहा, "अपर वाला सा लाओ" वह चाहती थीं कि वह एक सप्तक और ऊँचा लगाएं. उन्होंने नरेंद्र से पूछा क्या गाऊँ? नरेंद्र को कुछ नहीं सूझा. किसी ने कहा "बदनाम मोहब्बत कौन करे गाइए." नूरजहाँ के चेहरे पर जैसे नूर आ गया.
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उन्होंने मुखड़ा गाया और फिर बीच में रुक कर नरेंद्र से कहा, "नरेंद्र साहब, आपको पता है इस देश में ढंग का हारमोनियम नहीं मिलता. सिर्फ कलकत्ता में अच्छा हारमोनियम मिलता है. यह सभी लोग भारत जाते हैं, बाजे लाते हैं और मुझे उनके बारे में बताते हैं लेकिन मेरे लिए कोई हारमोनियम नहीं लाता."
नरेंद्र ने कहा मैं भेजूँगा आपके लिए. नरेंद्र यह वादा शायद कभी पूरा नहीं कर पाए.

Sunday, 27 December 2015

जैन हवाला कांड से कैसे 'बेदाग़' छूटे आडवाणी? @रामबहादुर राय एवं राजेश जोशी

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अपने वित्त मंत्री अरुण जेटली का बचाव करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले हफ़्ते (मंगलवार, 22 दिसंबर) उस जैन हवाला कांड को याद किया जिसके कारण दो दशक पहले भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान की चूलें हिल गई थीं.
क्रिकेट में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे जेटली के साथ मज़बूती के साथ खड़े होते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें लालकृष्ण आडवाणी की तरह ही “पवित्र” बताया और कहा कि जैसे आडवाणी जैन हवाला कांड के आरोपों से बेदाग़ निकल आए थे, उसी तरह डीडीसीए में भ्रष्टाचार के आरोपों से जेटली भी बेदाग़ निकल आएँगे.
नरेंद्र मोदी ने ये बयान कुछ इस तरह दिया जैसे आडवाणी अकेले राजनेता थे जो जैन हवाला कांड की अग्निपरीक्षा से खरे निकल कर आए हों. सच ये है कि इस कांड में उलझे काँग्रेस के विद्याचरण शुक्ल को भी दिल्ली हाईकोर्ट ने आडवाणी की तरह ही बाइज़्ज़त बरी किया था.
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उनके बाद अर्जुन सिंह, शरद यादव, मदनलाल खुराना, नारायण दत्त तिवाड़ी सहित एक के बाद एक सभी नेता बरी कर दिए गए.
पर क्या था जैन हवाला कांड और कैसे आडवाणी इससे “बेदाग़” छूटे?
क्या सीबीआई की जाँच में अंतिम तौर पर साबित हो गया था कि जिन नेताओं और अफ़सरों के नाम जैन डायरियों में दर्ज थे उन्होंने एसके जैन से पैसा नहीं लिया था?
क्या सीबीआई इस सवाल का जवाब तलाश पाई कि एसके जैन नाम के उद्योगपति और उनके भाइयों को आख़िर ऐसी डायरियाँ बनाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी जिनमें एक ख़ास रक़म के सामने ख़ास नाम दर्ज था और कुल 64 करोड़ का भुगतान उन लोगों को किया गया?
क्या सीबीआई ने सभी 115 अभियुक्तों की अलग अलग जाँच करके ये पता करने की कोशिश की कि उनके बैंक खातों में से डायरी में दर्ज तारीख़ के आसपास कितनी रक़म आई या गई?
क्या अभियुक्तों के धन-जायदाद की बारीक जाँच करके पता किया गया कि उसमें कोई बढ़ोत्तरी तो नहीं हुई है?
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क्या जाँच एजेंसियों ने ये पता करने की कोशिश की कि कश्मीरी चरमपंथियों को मिलने वाला पैसा जिस स्रोत से आया, उसी स्रोत से आई दूसरी रक़म किस किस को मिली और कहाँ इस्तेमाल हुई?
हवाला कांड उजागर होने के 22 बरस बाद भी ये सभी सवाल आज भी अनुत्तरित हैं.
सच तो ये है कि सीबीआई हवाला कांड की जाँच करने को तैयार ही नहीं थी. उसने पहले जैन डायरियों को दबाने की कोशिश की. लेकिन जनसत्ता अख़बार में छपने के बाद जब मामला सामने आया तो एजेंसी ने डायरियों को पहले सबूत के तौर पर पेश ही नहीं किया.
सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बाद उसने जाँच शुरू भी की तो अनचाहे मन से.
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सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को घोड़े की तरह खींच कर पानी के पास तो ले आया लेकिन पानी पीने पर उसे फिर भी मजबूर नहीं कर सका क्योंकि इस कांड में वामपंथी पार्टियों को छोड़कर लगभग सभी पार्टियों के नेताओं के शामिल होने का आरोप लगा था.
आज से 22 बरस पहले जनसत्ता अख़बार में हमने सबसे पहले जैन हवाला कांड की ख़बर को विस्तार से उजागर किया था.
ख़बर एक लाइन में ये थी कि सीबीआई दो साल से उद्योगपति एसके जैन की ऐसी विस्फोटक डायरियों को दबाए बैठी है जिसमें कई वरिष्ठ सांसदों, मंत्रियों और बड़े अफ़सरों को कथित तौर पर कुल 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दिए जाने का ब्यौरा दर्ज है.
जिस तरह आज भी कई सनसनीख़ेज़ ख़बरों का उदगम डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी बनते हैं (मसलन नेशनल हेरल्ड केस), वैसे ही 22 साल पहले 29 जून, 1993 को दिल्ली की एक तपती दोपहर को उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को अपने निशाने पर ले लिया.
एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके उन्होंने ये बयान जारी किया, “मैं ये साबित कर दूँगा कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपए दिए. जैन उस जाल से जुड़ा था जो विदेशी धन को यहाँ ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रुपए में बदल कर कश्मीर के अलगाववादी संगठऩ जेकेएलएफ़ की मदद करता था.”
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ये जैन हवाला कांड की शुरुआत थी. तब टेलीविज़न कैमरे आज की तरह दिल्ली के चप्पे चप्पे पर नज़र नहीं आते थे. और अख़बारों ने डॉक्टर स्वामी के इस बयान को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी.
सिर्फ़ 30 जून के जनसत्ता अख़बार में दो पैराग्राफ़ की ख़बर सुब्रह्मण्यम स्वामी के हवाले से छपी. उसे पढ़कर हमने डॉक्टर स्वामी को फ़ोन किया. उन्होंने मुलाक़ात का समय तो दिया लेकिन जैन डायरियों के बारे में कोई जानकारी देने से इंकार कर दिया, सिर्फ़ इतना कहा कि साउथ एक्सटेंशन में रहने वाले एसके जैन (हवाला कांड के सुरेंद्र कुमार जैन नहीं) और सीबीआई के डीआइजी ओपी शर्मा के पास जानकारी हो सकती है.
ओपी शर्मा के ज़िम्मे हवाला कांड के दो अभियुक्तों – अशफ़ाक़ हुसैन लोन और शहाबुद्दीन ग़ौरी – की जाँच की ज़िम्मेदारी थी. दिल्ली पुलिस ने जाल बिछाकर 25 मार्च, 1991 को एक अशफ़ाक़ हुसैन लोन नाम के एक कश्मीरी युवक को पकड़ा और उसके पास से पचास हज़ार रुपए नक़द, साढ़े पंद्रह लाख रुपए के ड्राफ़्ट और कश्मीरी अलगाववादी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन के कमांडरों के नाम तीन चिट्ठियाँ बरामद करने का दावा किया.
पुलिस ने कहा कि ये सब चीज़ें लोन को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक रिसर्च स्कॉलर शहाबुद्दीन ग़ौरी ने दी थीं. लोन के बाद अप्रैल 1991 को ग़ौरी को भी आतंकवाद विरोधी क़ानून के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया.
अधिकारियों ने दावा किया कि इन दोनों से पूछताछ के बाद सुरेंद्र कुमार जैन नाम के बड़े व्यापारी की भूमिका सामने आई और जब उनके घर पर छापा मारा गया तो वहाँ से 58 लाख रुपए नक़द, दो लाख रुपए के बराबर डॉलर, 15 लाख के इंदिरा विकास पत्र, दो डायरियाँ और एक नोटबुक बरामद हुई.
इन्हीं को बाद में जैन हवाला डायरियों के नाम से जाना गया.
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Image captionलाल कृष्ण आडवाणी के साथ साथ हवाला केस में विद्याचरण शुक्ल भी बेदाग़ निकले.
अधिकारियों ने दावा किया कि इन छापों से हवाला कारोबार का एक बड़ा तानाबाना सामने आया और पता चला कि जिस स्रोत से विदेशों से लाई गई रक़म कश्मीरी चरमपंथियों को पहुँचाई जा रही थी, उसी स्रोत से लाया गया धन लालकृष्ण आडवाणी, विद्याचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, नारायणदत्त तिवाड़ी सहित दर्जनों महत्वपूर्ण नेताओं और बड़े अफ़सरशाहों तक भी पहुँचाया जा रहा था.
उधर शहाबुद्दीन ग़ौरी की गिरफ़्तारी के दो महीने बाद ही सीबीआई के डीआईजी ओपी शर्मा से इस जाँच की ज़िम्मेदारी ड्रामाई तौर छीन ली गई. फिर उनके घर पर छापा मारकर सीबीआई के अधिकारियों ने उन्हें एसके जैन के एक आदमी से रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ने का दावा किया. उन्हें सस्पेंड कर दिया गया.
ज़ाहिर है ओपी शर्मा नाराज़ थे और इस नाराज़ अफ़सर को ये पता था कि सुरेंद्र कुमार जैन के घर से बरामद हुई विस्फोटक डायरियों में किस किस राजनीतिक हस्ती का नाम दर्ज है. विस्फोटक तैयार था, बस उसमें पलीता लगने भर की देर थी.
तब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे और कमल मोरारका कार्मिक मंत्री. जैन डायरियाँ मिलने के बाद हवाला और कश्मीरी अलगाववादियों और नेताओं-अफ़सरों की जाँच करने की बजाए सीबीआई ने पूरे मामले को रफ़ा दफ़ा करने की कोशिश की और छापे में बरामद डायरियाँ और दूसरी चीज़ें सीबीआई के मालख़ाने में जमा करवा दी गईं.
पूरे दो साल बाद इस मामले में तब फिर जान आई जब डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि हवाला कारोबारी ने लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपए दिए.
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इस सूत्र को पकड़ कर ओपी शर्मा से संपर्क किया गया और 17 अगस्त, 1993 को जनसत्ता में डायरियों के हवाले से ख़बर दी गई. इस बात पर अख़बार में पहले असमंजस की स्थिति थी कि डायरियों में दर्ज नेताओं के नाम छापे जाएँ या न छापे जाएँ.
लेकिन फिर ये महसूस किया गया कि नेताओं और अफ़सरों के नाम के बिना ख़बर बेअसर हो जाएगी. जनसत्ता में एक हफ़्ते की उहापोह के बाद आख़िरकार 24 अगस्त, 1993 को पहले पन्ने पर इस ख़बर को छापा गया.
कुछ ही दिन बाद वकील राम जेठमलानी ने अपने घर पर एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की लेकिन उनका ज़ोर लालकृष्ण आडवाणी की बजाए अर्जुन सिंह का नाम सामने लाने पर था. इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सीबीआई डीआईजी ओपी शर्मा भी मौजूद थे और वहीं ऐलान किया गया कि हवाला कांड के मामले में अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाएगा.
अक्तूबर 1993 में जब सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी गई तो मामले को दबाए रखने के लिए सीबीआई को कोर्ट ने कड़ी फटकार सुनाई और उद्योगपति एसके जैन की गिरफ़्तारी के आदेश दिए गए. इसके बाद मार्च 1994 को जैन को गिरफ़्तार किया गया उन्होंने सीबीआई को 29 पेज का बयान दिया जिसमें उन्होंने बताया कि किन किन लोगों को उन्होंने पैसा दिया और किन परिस्थितियों में भुगतान किया गया.
इस बयान को सीबीआई ने अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया.
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इसी बयान में जैन ने सीबीआई को इतालवी व्यापारी ऑतोवियो क्वात्रोक्की से अपनी मुलाक़ात की बात भी बताई थी. उन्होने कहा कि वो 1982 में क्वॉत्रोक्की से मिले थे और उनके ज़रिए ऊर्जा सेक्टर के 4,000 करोड़ रुपए के ठेके हासिल करना चाहते थे.
उन्होंने ये भी कहा कि वो रिलायंस के धीरूभाई अंबानी की तरह धनी संपन्न होना चाहते थे.
इन डायरियों में 115 नाम थे जिनमें से 92 नामों की पहचान कर ली गई थी. इनमें से 55 नेता, 23 अफ़सर और कम से कम तीन पत्रकार थे. डायरियों के मुताबिक़ फ़रवरी 1988 से मार्च 1991 तक कुल 64 करोड़ रुपए का भुगतान अलग-अलग लोगों को किया गया था.
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इन सबूतों के आधार पर सीबीआई ने 16 जनवरी 1996 को सबसे पहले दो नेताओं के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की – भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण आडवाणी और काँग्रेस के विद्याचरण शुक्ल. बाद में 25 और नेताओं के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई.
आडवाणी पर 60 लाख रुपए लेने और शुक्ला पर 39 लाख रुपए लेने का इल्ज़ाम लगाया गया था.
चार्जशीट दाख़िल होते ही 16 जनवरी, 1996 को लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा से इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी और कहा कि इस मामले से साफ़ बरी होने तक वो चुनाव नहीं लड़ेंगे.
इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को घोड़े की तरह खींचकर पानी के पास तो ले आई लेकिन पानी पीने पर मजबूर फिर भी नहीं कर पाई.
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तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने कई बार सीबीआई के अफ़सरों को लताड़ पिलाई और यहाँ तक कि सरकार के दबाव से मुक्त करने के लिए सीबीआई अफ़सरों को सीधे कोर्ट के निर्देश में काम करने का हुक्म दिया.
हिचकोले खाती जाँच अनमने ढंग से चलती रही मगर आख़िरकार 8 अप्रैल 1997 को हाईकोर्ट के न्यायाधीश मोहम्मद शमीम ने अपना फ़ैसला सुनाया. लालकृष्ण आडवाणी और काँग्रेस के विद्याचरण शुक्ल को साफ़ बरी कर दिया.
पर क्या जाँच एजेंसी और अदालत इस नतीजे पर पहुँची थी कि दोनों नेताओं ने सुरेंद्र कुमार जैन से पैसा नहीं लिया था?
क़तई नहीं. ये साबित करने या न करने की नौबत बाद में आती, पर कोर्ट ने डायरियों को बुक ऑफ़ अकाउंट यानी पक्के खाते मानने से इनकार कर दिया. यानी ये डायरियाँ सबूत के तौर पर स्वीकार ही नहीं की गईं.
भारतीय साक्ष्य क़ानून के मुताबिक़ बिज़नेस के काम के लिए लगातार अपडेट किया जाने वाले पक्के खातों को सबूत के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है. पर जस्टिस शमीम का कहना था, “काग़ज़ों के ऐसे पुलिंदे को, जिसमें एक मिनट में काग़ज़ निकाले या जोड़े जा सकते हों, पक्का खाता नहीं कहा जा सकता.”
हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सीबीआई ने अपनी तरह से खानापूरी की और सुप्रीम कोर्ट में अपील की. मगर उसका नतीजा कुछ नहीं निकला.
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सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की अपील को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि जाँच ऐजेंसी ऐसे कोई स्वतंत्र सबूत पेश नहीं कर पाई जिससे ये सिद्ध होता हो कि जैन बंधुओं की ओर से दी गई रक़म उन लोगों ने दरअसल स्वीकार की जिनके नाम डायरियों में दर्ज हैं.
इस फ़ैसले के बाद बाक़ी सभी नेता भी एक के बाद एक करके बरी हो गए और 'पवित्र' साबित हुए.
लालकृष्ण आडवाणी भी इन्हीं 'बेदाग़' और 'पवित्र' लोगों में शामिल थे

Wednesday, 23 December 2015

उदारीकरण के हीरो या बाबरी के विलेन @रेहान फ़ज़ल

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा रावImage copyrightAP
राजीव गांधी की हत्या के बाद जब शोक व्यक्त करने आए सभी विदेशी मेहमान चले गए तो सोनिया गाँधी ने इंदिरा गाँधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर को 10, जनपथ तलब किया.
उन्होंने हक्सर से पूछा कि आपकी नज़र में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए कौन सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है.
हक्सर ने तत्कालीन उप राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम लिया. नटवर सिंह और अरुणा आसफ़ अली को ज़िम्मेदारी दी गई कि वो शंकरदयाल शर्मा का मन टटोलें.
शर्मा ने इन दोनों की बात सुनी और कहा कि वो सोनिया की इस पेशकश से अभिभूत और सम्मानित महसूस कर रहे हैं, लेकिन "भारत के प्रधानमंत्री का पद एक पूर्णकालिक ज़िम्मेदारी है. मेरी उम्र और स्वास्थ्य, मुझे देश के इस सबसे बढ़े पद के प्रति न्याय नहीं करने देगा."
इन दोनों ने वापस जाकर शंकरदयाल शर्मा का संदेश सोनिया गांधी तक पहुंचाया.
एक बार फिर सोनिया ने हक्सर को तलब किया. इस बार हक्सर ने नरसिम्हा राव का नाम लिया. आगे की कहानी इतिहास है.
वरिष्ठ पत्रकार कल्याणी शंकर, बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionवरिष्ठ पत्रकार कल्याणी शंकर, बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
नरसिम्हा राव भारतीय राजनीति के ऊबड़-खाबड़ धरातल से ठोकरें खाते सर्वोच्च पद पर पहुंचे थे. किसी पद को पाने के लिए उन्होंने किसी राजनीतिक पैराशूट का सहारा नहीं लिया था. जब वो प्रधानमंत्री बने तो उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं था.
उनसे पहले के प्रधानमंत्री आर्थिक सुधारों की बात तो करते थे, लेकिन उनमें न तो इसे लागू करने की हिम्मत थी और न चाह. राव का कांग्रेस और देश के लिए सबसे बड़ा योगदान था डॉक्टर मनमोहन सिंह की खोज.
जिस समय उन्होंने मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया, उस समय उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन वह देश के प्रधानमंत्री बनेंगे.
शिवराज पाटिल, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह.Image copyrightPIB.NIC.IN
Image captionलोकसभा के पूर्व स्पीकर शिवराज पाटिल और मनमोहन सिंह के साथ नरसिम्हा राव.
मशहूर पत्रकार और नरसिम्हा राव को नज़दीक से जानने वाली कल्याणी शंकर कहती हैं, "ये ग़लत धारणा है कि आर्थिक सुधारों के जनक मनमोहन सिंह हैं. नरसिम्हा राव मनमोहन सिंह को लाए थे. उन्होंने खुद पीछे रहकर सोच-समझकर उन्हें आगे किया. पार्टी में उस समय उनका बहुत विरोध हुआ."
"1996 में चुनाव हारने के बाद बहुत लोगों ने कहा कि आर्थिक सुधारों के कारण हम हारे. जब वो प्रधानमंत्री बने तो भारत की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में थी. यशवंत सिन्हा आपको बताएंगे कि भारत के पास दो हफ़्ते चलाने लायक भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं था. उसके लिए उन्हें बाहर से पैसा लाना ही लाना था. उसके लिए वह एक विश्वसनीय चेहरा ढ़ूंढ रहे थे."
"उनकी पहली पसंद मशहूर अर्थशास्त्री आईजी पटेल थे, लेकिन उन्होंने दिल्ली आने से मना कर दिया. फिर उन्होंने मनमोहन सिंह को बुलाया, क्योंकि विश्व बैंक से पैसा लाने और उससे बातचीत के लिए वही सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे."

मनमोहन को राव का समर्थन

नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंहImage copyrightPIB
Image captionमॉरिशस के प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ और मनमोहन सिंह के साथ नरसिम्हा राव .
ये वही मनमोहन सिंह थे जिनके नेतृत्व वाले योजना आयोग को राजीव गांधी ने एक बार ’बंच ऑफ़ जोकर्स’ कहा था और वो इससे इतने आहत हुए थे कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था.
एक ज़माने में विश्वनाथ प्रताप सिंह के मीडिया सलाहकार रहे प्रेम शंकर झा बताते हैं, "राव अपने मंत्रियों से काम करवाते थे और पीछे से उनका सपोर्ट करते थे. उस समय भी कांग्रेस के अंदर एक जिंजर ग्रुप था जो नेहरूवियन सोशलिज़्म का नाम लेकर उन पर ग़द्दारी का आरोप लगाते थे."
वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा बीबीसी हिंदी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionवरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा बीबीसी हिंदी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
"मनमोहन सिंह कहते थे कि मंत्रिमंडल में हर कोई उनके ख़िलाफ़ था, लेकिन उनके पास हमेशा एक शख़्स का समर्थन होता था.. वे थे प्रधानमंत्री राव. जब उनको यूरो मनी ने 1994 में सर्वश्रेष्ठ वित्तमंत्री का पुरस्कार दिया तो उन्होंने पुरस्कार समारोह में कहा- इसका श्रेय नरसिम्हा राव को दिया जाना चाहिए."
लेकिन नरसिम्हा राव के बढ़ते राजनीतिक ग्राफ़ को बड़ा धक्का तब लगा जब 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया और वह कुछ नहीं कर पाए.
कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "मुझे जानकारी है कि राव की बाबरी मस्जिद विध्वंस में भूमिका थी. जब कारसेवक मस्जिद को गिरा रहे थे, तब वह अपने पर पर पूजा में बैठे थे. वह वहां से तभी उठे जब मस्जिद का आख़िरी पत्थर हटा दिया गया."
अर्जुन सिंहImage copyrightPHOTODIVISION.GOV.IN
Image captionकांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह.
"लगभग उसी समय उनके मंत्रिमंडल के सदस्य अर्जुन सिंह ने पंजाब के मुक्तसर शहर से उन्हें फ़ोन किया. उन्हें बताया कि नरसिम्हा राव कोई फ़ोन नहीं ले रहे हैं. शाम छह बजे राव ने अपने निवासस्थान पर मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई."

बाबरी मस्जिद

बाबरी मस्जिदImage copyright
अर्जुन सिंह अपनी आत्मकथा 'ए ग्रेन ऑफ़ सैंड इन द आर ग्लास ऑफ़ टाइम' में लिखते हैं, "पूरी बैठक के दौरान नरसिम्हा राव इतने हैरान थे कि उनके मुँह से एक शब्द तक नहीं निकला. सबकी निगाहें जाफ़र शरीफ़ की तरफ मुड़ गईं मानो उनसे कह रही हों कि आप ही कुछ कहिए. जाफ़र शरीफ़ ने कहा इस घटना की देश, सरकार और कांग्रेस को भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
"माखनलाल फ़ोतेदार ने उसी समय रोना शुरू कर दिया लेकिन राव बुत की तरह चुप बैठे रहे."
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राजनीतिक विश्लेषक राम बहादुर राय कहते हैं, "जब 1991 में लगने लगा कि बाबरी मस्जिद पर ख़तरा मंडरा रहा है, तब भी उन्होंने इसे कम करने की कोई कोशिश नहीं की. राव के प्रेस सलाहकार रहे पीवीआरके प्रसाद ने किताब लिखी है जिसमें वो बताते हैं कि कैसे राव ने मस्जिद गिरने दी. वो वहां पर मंदिर बनाने के लिए उत्सुक थे, इसलिए उन्होंने रामालय ट्रस्ट बनवाया."
"मस्जिद गिराए जाने के बाद तीन बड़े पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, प्रभाष जोशी और आरके मिश्र नरसिम्हा राव से मिलने गए. मैं भी उनके साथ था. ये लोग जानना चाहते थे कि 6 दिसंबर को आपने ऐसा क्यों होने दिया. मुझे याद है कि सबको सुनने के बाद नरसिम्हा राव ने कहा- क्या आप लोग समझते हैं कि मुझे राजनीति नहीं आती?"
राय कहते हैं, "मैं इसका अर्थ यह निकालता हूँ कि अपनी राजनीति के तहत और ये सोचकर कि अगर बाबरी मस्जिद ढहा दी जाएगी तो भारतीय जनता पार्टी की मंदिर की राजनीति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी, उन्होंने इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया."

राजनीतिक ग़लती

पीवी नरसिम्हा रावImage copyrightAP
"मेरा मानना है कि राव किसी ग़लतफ़हमी में नहीं, भारतीय जनता पार्टी से साठगांठ के कारण नहीं बल्कि इस विचार से कि उनसे वह ये मुद्दा छीन सकते हैं, उन्होंने एक एक कदम इस तरह से उठाया कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो जाए."
लेकिन राव की नज़दीकी कल्याणी शंकर का मानना है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में नरसिम्हा राव की भूमिका को ज़्यादा से ज़्यादा एक 'राजनीतिक मिसकैलकुलेशन' कहा जा सकता है.
वे कहती हैं, "आडवाणी और वाजपेयी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कुछ होगा नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र को रिसीवरशिप लेने से मना कर दिया. ये राज्य का अधिकार है कि वो वहां पर सुरक्षा बलों को भेजे या नहीं. कल्याण सिंह ने वहां सुरक्षा बल भेजने ही नहीं दिया."
नरसिम्हा राव पर अपनी सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत देने के आरोप भी लगे. लेकिन उनकी सबसे ज़्यादा किरकिरी तब हुई जब शेयर दलाल हर्षद मेहता ने उन्हें एक सूटकेस में एक करोड़ रुपए देने की बात जगज़ाहिर की.

सूटकेस का राज़

हर्षद मेहताImage copyrightVT Freeze Frame
Image captionवरिष्ठ वकील राम जेठमलानी के साथ हर्षद मोहता.
लेकिन प्रेमशंकर झा इस मामले में नरसिम्हा राव को क्लीन चिट देते हैं, "केस यह था कि जब हर्षद मेहता ने राव को नोटों से भरा सूटकेस दिया तो उन्होंने उसे खोलकर देखा. राम जेठमलानी ने डिटेल्स दिए थे कि इस समय हम प्रधानमंत्री निवास के अंदर गए थे. जब मुझे टाइमिंग मिल गई, तो मैंने जांच की. पता लगा कि उसी दिन उसी समय आगा शाही के नेतृत्व में पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल नरसिम्हा राव के सामने बैठा था."
"मेहता के आने और आगा शाही से मीटिंग के बीच जो समय बचा था, उस दौरान ये सूटकेस राव तक नहीं पहुंचाया जा सकता था. मैं चूंकि पीएमओ में काम कर चुका हूँ इसलिए मुझे पता है कि इस तरह की प्रक्रिया में कितना समय लगता है. एक-एक सेकंड का हिसाब करने पर पता चला कि हर्षद 11 बजकर 10 मिनट से पहले किसी भी हालत में प्रधानमंत्री से नहीं मिल सकते थे और ठीक 11 बजे आगा शाही साहब प्रधानमंत्री से मिलने पहुंच गए थे."
राव पर ये भी आरोप लगे कि वो साधु संतों और तांत्रिकों के प्रभाव में थे, वो उनसे मनमर्ज़ी काम करवा सकते थे.

चंद्रास्वामी का असर

नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर, आडवाणीImage copyrightPHOTO DIVISON
Image captionनरसिम्हा राव चंद्रशेखर, लालकृष्ण आडवाणी और एचडी देवगौड़ा के साथ.
राम बहादुर राय कहते हैं, "वो तांत्रिक चंद्रास्वामी के बहुत अधिक प्रभाव में थे. ये भी कहा जाता है कि वो जो चाहते थे उनसे करवा लेते थे. उन्होंने चंद्रास्वामी के कहने पर रामलखन यादव को मंत्री बनाया था. मुझे याद है कि जब रामलखन यादव को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई तो चंद्रा स्वामी मुंबई में थे. वहां उन्होंने बाक़ायदा ऐलान किया- मैं दिल्ली जा रहा हूँ रामलखन यादव को मंत्री बनवाने."
हालांकि नरसिम्हा राव को कांग्रेस और देश का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी सोनिया गांधी ने ही दी थी, लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही दोनों के बीच ग़लतफ़हमियां पैदा हो गईं.
सोनिया गांधी पर किताब लिखने वाले राशिद क़िदवई कहते हैं, "राव राजनीतिक व्यक्ति थे. वो भी सोनिया गांधी का इस्तेमाल करना चाहते थे. जब भी मंत्रिमंडल में फेरबदल करना चाहते थे, वो उनसे सलाह मशविरा करते थे. दोनों एक दूसरे का आदर भी करते थे."
सोनिया गाँधीImage copyrightAP
"जब राजीव गांधी फ़ाउंडेशन की बैठक की बात आई तो राव समझ गए कि सोनिया को बैठक के लिए 7 रेसकोर्स रोड आने में दिक़्क़त है. वहां से उनकी बहुत सी यादें जुड़ी हुई थीं. उन्होंने खुद पेशकश की थी वो इस बैठक के लिए सोनिया के निवास स्थान 10 जनपथ आएंगे."
"ये उनका बड़प्पन था लेकिन बीच के लोग जैसे अर्जुन सिंह, माखनलाल फ़ोतेदार और विंसेंट जॉर्ज उनके बीच ग़लतफ़हमियां पैदा करने की कोशिश करते थे. नरसिम्हा राव भी दूध के धुले नहीं थे. वो किसी की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहते थे. सोनिया गांधी को उस समय राजनीति की इतनी समझ नहीं थी. इसलिए धीरे धीरे उनके बीच दूरियां बढ़ती चली गईं."
कुछ भी हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरसिम्हा राव ऊंचे दर्जे के बुद्धिजीवी थे. उन्हें 17 भाषाएं आती थीं और नई चीज़ों को सीखने का उनमें गज़ब का जज़्बा था.

विद्वान

नरसिम्हा रावImage copyrightAP
कल्याणी शंकर कहती हैं कि ऊंचे स्तर की स्पेनिश सीखने के लिए उन्होंने स्पेन में रहने का फ़ैसला किया था. 1985-86 में राजीव गांधी का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता था कि वो कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं... 20वीं सदी की बात कर रहे हैं.
नरसिम्हा राव ने 70 साल की उम्र में कंप्यूटर सीखा. वो हमेशा कंप्यूटर पर काम करते थे और जैसे ही कोई नया कंप्यूटर आता था, वो उसे ख़रीद लेते थे. संगीत के भी वो बहुत शौकीन थे. ख़ुद भी गाते थे. वो अक्सर हैदराबाद से कलाकारों को बुलाकर अपने घर पर कॉन्सर्ट किया करते थे.
लेकिन उनके जीवन की सांध्यबेला में स्वयं उनकी पार्टी ने उनसे किनारा कर लिया. वो बहुत एकाकी और अपमानित होकर इस दुनिया से विदा हुए.
नरसिम्हा रावImage copyrightPIB
न सिर्फ़ उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं होने दिया गया, उनके पार्थिव शरीर को भी कांग्रेस मुख्यालय 24, अकबर रोड के अंदर नहीं आने दिया गया. उन पर डाक टिकट जारी करने की मांग नहीं हुई. न ही किसी ने उन्हें भारत रत्न देने की मांग की.
वर्षगांठ और बरसी पर भी उनकी चर्चा करना ज़रूरी नहीं समझा गया. शायद कुछ समय बाद इतिहास उनका सही मूल्यांकन कर पाए.