कश्मीर पर कबायलियों के हमले के बाद गांधीजी ने पाकिस्तान को कड़े सवालों के साथ घेरा था. दूसरी तरफ हिंदू विरोधी प्रचार करने वाले मुस्लिम नेतृत्व पर भी उन्होंने तीखा हमला किया था.
1940 का दशक आते-आते भारत में हिंदू-मुस्लिम टकराव की समस्या विकराल हो चुकी थी. इसी दशक के आखिर में कश्मीर समस्या भी उभरी. इन दोनों मुद्दों पर केंद्रित गांधी जी की दो टिप्पणियां.
कश्मीर समस्या
आज हर तरफ लड़ाई की चर्चा है. दो देशों के बीच युद्ध की आशंका से हर कोई भयभीत है. अगर ऐसा होता है तो भारत और पाकिस्तान, दोनों के लिए यह बड़ी त्रासदी होगी. भारत ने यूएन को लिखा है क्योंकि जब भी कहीं टकराव का डर होता है तो यूएन से ही कहा जाता है कि वह समझौता करवाए और लड़ाई फैलने से रोके.
इसीलिए भारत ने यूएन को लिखा. बात कितनी भी छोटी क्यों न लग रही हो, यह दो देशों के बीच लड़ाई का कारण बन सकती है. यह एक लंबा पत्र है जिसे केबल के जरिये भेजा गया है. पाकिस्तान के नेता जफरुल्ला खान और लियाकत अली खान ने इसके बाद लंबे बयान जारी किए हैं. मैं कहना चाहूंगा कि उनके तर्क मेरे गले नहीं उतरते.
अगर कश्मीर की सीमाओं के बाहर से हमले हो रहे हैं तो सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि ये पाकिस्तान की मदद से हो रहे होंगे. पाकिस्तान इससे इनकार कर सकता है, लेकिन इनकार से मुद्दा हल नहीं होता.
आप पूछ सकते हैं कि क्या मैं केंद्रीय कैबिनेट द्वारा मामले को यूएन में ले जाने के निर्णय को स्वीकार करता हूं. मैं कह सकता हूं कि मैं इसे स्वीकार करता हूं और नहीं भी. मैं इसे स्वीकार करता हूं क्योंकि आखिरकार उनके पास और क्या रास्ता बचा था? वे मानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह सही है. अगर कश्मीर की सीमाओं के बाहर से हमले हो रहे हैं तो सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि ये पाकिस्तान की मदद से हो रहे होंगे. पाकिस्तान इससे इनकार कर सकता है, लेकिन इनकार से मुद्दा हल नहीं होता. कश्मीर ने विलय कुछ शर्तों के साथ स्वीकार किया है. अगर पाकिस्तान कश्मीर को परेशान करता है और कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला भारत से मदद मांगते हैं तो वह मदद भेजने के लिए बाध्य है. इसलिए यह मदद कश्मीर को भेजी गई.
इसके साथ ही पाकिस्तान से कहा जा रहा है कि वह कश्मीर से बाहर निकले और द्विपक्षीय बातचीत के जरिये भारत के साथ एक समझौते पर पहुंचे. अगर इस तरीके से कोई समझौता नहीं होता तो लड़ाई तय है. लड़ाई की इसी संभावना को टालने के लिए केंद्रीय सरकार ने यह कदम उठाया है. ऐसा करके उसने सही किया है या गलत, यह सिर्फ ईश्वर ही जानता है.
पाकिस्तान का जो भी नजरिया रहा हो, अगर मेरी चलती तो मैंने पाकिस्तान के प्रतिनिधियों को भारत आने के लिए आमंत्रित किया होता. हम मिलते, मसले पर चर्चा करते और किसी नतीजे पर पहुंचते. वे कहते रहते हैं कि वे एक मैत्रीपूर्ण समाधान चाहते हैं, लेकिन ऐसे समाधान के लिए स्थितियां बनें, इस दिशा में वे कुछ नहीं करते.
पाकिस्तान का जो भी नजरिया रहा हो, अगर मेरी चलती तो मैंने पाकिस्तान के प्रतिनिधियों को भारत आने के लिए आमंत्रित किया होता. हम मिलते, मसले पर चर्चा करते और किसी नतीजे पर पहुंचते.
इसलिए मैं पाकिस्तान के जिम्मेदारा नेताओं से विनम्रतापूर्वक यही कहना चाहूंगा कि भले ही अब हम दो अलग देश हों–जो मैं कभी नहीं चाहता था- लेकिन हमें कम से कम यह कोशिश तो करनी ही होगी कि हम एक ऐसे समझौते पर पहुंचे ताकि हम शांतिपूर्ण पड़ोसी बनकर रह सकें.
एकबारगी मान लेते हैं कि सारे भारतीय बुरे हैं. लेकिन पाकिस्तान तो एक नया देश है और उससे भी बड़ी बात यह है कि यह बना ही धर्म के नाम पर है. इसलिए कम से कम उसे खुद को पाक साफ रखना चाहिए. इसलिए मैं यह सुझाव देता हूं कि अब यह उनका कर्तव्य है कि जहां तक हो सके, भारत के साथ एक मैत्रीपूर्ण सहमति बनाएं और उसके साथ सामंजस्य बनाकर चलें. गलतियां दोनों तरफ से हुई हैं. मुझे इसमें कोई शक नहीं है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम उन गलतियों के साथ चलते रहें. क्योंकि इससे आखिर में हम सिर्फ खुद को ही बर्बाद करेंगे और इस पूरे महाद्वीप की कमान किसी तीसरी शक्ति के हाथ में चली जाएगी. यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा. मैं यह सोचकर ही कांप जाता हूं.
इसलिए दोनों देशों को साथ आना चाहिए और ईश्वर को साक्षी मानकर एक हल खोजना चाहिए. यह मामला अब यूएन के सामने है. इसे अब वहां से वापस नहीं लिया जा सकता. लेकिन अगर भारत औऱ पाकिस्तान किसी समझौते पर पहुंच जाते हैं तो यूएन में बैठी बड़ी शक्तियों को उसका समर्थन करना ही होगा. वे इस समझौते पर ऐतराज नहीं करेंगे. आइए, ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें या तो एक दूसरे के साथ मैत्रीभाव के साथ रहना सिखा दे या फिर अगर हमें लडना ही है तो यह लड़ाई आखिर तक होने दे. यह मूर्खता हो सकती है लेकिन देर-सवेर यह हमारी शुद्धि कर देगी.
(चार जनवरी 1948 की प्रार्थना सभा में दिए गए भाषण का अंश)
धर्म इंसान को ईश्वर से जोड़ता है और इंसान को इंसान से भी. लेकिन क्या इस्लाम मुसलमान को सिर्फ मुसलमान से जोड़ता है और उसके हिंदू से जुड़ने का विरोध करता है?
हिंदू-मुस्लिम उलझन
बंटवारे के प्रस्ताव ने हिंदू-मुस्लिम समस्या का स्वरूप बदल दिया है. मैं इस प्रस्ताव को झूठ कह चुका हूं. लेकिन इसके साथ ही मैंने यह भी कहा है कि अगर आठ करोड़ मुसलमान बंटवारा चाहते हैं तो धऱती की कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती. भले ही उसके विरोध का तरीका हिंसात्मक हो या अहिंसात्मक.
यह तो हुआ इस मुद्दे का राजनीतिक पहलू. लेकिन धार्मिक और नैतिक पहलुओं का क्या जो इससे बड़े हैं? बंटवारे के लिए जो मांग हो रही है उसकी बुनियाद में यह विश्वास है कि इस्लाम कुछ खास लोगों का भाईचारा है और यह हिंदू विरोधी है. इस बारे में नहीं कहा गया है कि क्या यह दूसरे धर्मों के खिलाफ भी है. मैंने बंटवारे की मांग से जुड़ी अखबारों की जो कतरनें देखी हैं उनमें हिंदुओं को अछूत करार देते हुए कहा जा रहा है कि हिंदुओं या हिंदू धर्म में कोई अच्छाई नहीं है. यह भी कि हिंदुओं के राज में रहना पाप है. वे हिंदू-मुस्लिम संयुक्त शासन के बारे में नहीं सोचना चाहते. ये कतरनें बताती हैं कि हिंदू और मुसलमान पहले से ही एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अब उन्हें आखिरी वार के लिए तैयारियां करनी हैं.
एक वक्त था जब हिंदू सोचते थे कि मुसलमान उनके स्वाभाविक शत्रु हैं. लेकिन हिंदू धर्म की एक विशेषता रही है कि यह आखिर में अपने शत्रुओं को स्वीकार कर लेता है और उन्हें मित्र बना लेता है. यह प्रक्रिया जारी थी कि मुस्लिम लीग ने अपने खेल के तहत लोगों को सिखाना शुरू कर दिया कि इन दोनों संस्कृतियों का मेल नहीं हो सकता.
एक वक्त था जब हिंदू सोचते थे कि मुसलमान उनके स्वाभाविक शत्रु हैं. लेकिन हिंदू धर्म की एक विशेषता रही है कि यह आखिर में अपने शत्रुओं को स्वीकार कर लेता है
इस संबंध में मैंने अभी-अभी श्री अतुलानंद चक्रवर्ती की एक पुस्तिका पढ़ी है. यह बताती है कि इस्लाम के हिंदू धर्म से संपर्क के साथ ही दोनों धर्मों के सबसे बुद्धिमान लोग एक दूसरे की अच्छी बातों को सामने लाने और फर्क की जगह समानताओं पर जोर देने की कोशिश करते रहे हैं. लेखक ने भारत में इस्लाम के इतिहास को सकारात्मक रूप में दर्शाया है. अगर उसने सच और सिर्फ सच लिखा है तो यह एक आंख खोलने वाली किताब है जिसे पढ़कर हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को बराबर फायदा होगा. इस किताब की तर्कपूर्ण प्रस्तावना सर शफत अहमद खान ने लिखी है. अगर इसमें दिए गए साक्ष्य भारत में इस्लाम के विकास को सही तरीके से बताते हैं तो बंटवारे के पक्ष में किया जा रहा प्रचार इस्लाम विरोधी है.
धर्म इंसान को ईश्वर से जोड़ता है और इंसान को इंसान से भी. लेकिन क्या इस्लाम मुसलमान को सिर्फ मुसलमान से जोड़ता है और उसके हिंदू से जुड़ने का विरोध करता है? क्या पैगंबर का संदेश यह है कि मुसलमानों में आपस में शांति हो और वे हिंदुओं या गैर मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई करें? क्या आठ करोड़ मुसलमानों को यह संदेश देना ठीक है जिसे मैं सिर्फ जहर ही कह सकता हूं? जो लोग मुसलमानों के दिमाग में यह जहर भर रहे हैं वे इस्लाम का सबसे बड़ा नुकसान कर रहे हैं. मुझे पता है कि यह इस्लाम नहीं है. मैं एक दिन नहीं बल्कि 20 साल से मुसलमानों के साथ और उनके बीच निकटता और निर्बाध रूप से रहा हूं. एक भी मुसलमान ने मुझे यह नहीं सिखाया कि इस्लाम हिंदू विरोधी धर्म है.
(29-4-1940 को हरिजन में छपा लेख
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