देर-सबेर भारत को अतीत के असहज कर देने वाले सवालों का सामना करना ही पड़ेगा, फिर चाहे वह 1962 में चीन से मिली शर्मनाक पराजय से जुड़े हों या फिर हमारे राष्ट्रनायकों की संदिग्ध मृत्यु से संबंधित हों। हमें यह भी मूल्यांकन करना पड़ेगा कि क्या 15 अगस्त 1947 को वास्तव में हमने आजादी पाई थी या केवल हमारे शासकों की चमड़ी का रंग बदला था। क्योंकि न केवल हमने अंग्रेजों की शासन और शिक्षा प्रणाली की अनेक चीजें जस की तस स्वीकार कर ली थीं, उनकी कुछ प्रवृत्तियां भी हमारे भीतर चली आई थीं।
इन्हीं प्रवृत्तियों के चलते आजादी मिलने के बाद भी कई सालों तक देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों पर सरकार नजर रखती रही, जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की भी सालों तक निगरानी और जासूसी की जाती रही। नेताजी ब्रिटिश हुकूमत की खुफिया नाकेबंदी को धता बताकर यूरोप जा पहुंचे थे और वहां उन्होंने ऐसे मुल्कों के साथ हाथ मिलाया था, जो ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बहुत सदाशय नहीं थे! लेकिन देश को आजादी मिलने के बाद नेताजी के परिवार पर नजर रखने की क्या तुक थी? क्या नेहरू सरकार को नेताजी से असुरक्षा का बोध होता था?
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा हाल ही में ऐसी कुछ खुफिया फाइलों को सार्वजनिक किया गया है। नेताजी से संबंधित संपूर्ण फाइलों को यह कहकर सार्वजनिक नहीं किया जाता रहा है कि इससे कुछ देशों से हमारे संबंध खराब हो सकते हैं। ठीक यही तर्क पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की फाइलों के संबंध में भी दिया जाता रहा है। वर्ष 1966 में ताशकंद समझौते में शामिल होने गए शास्त्रीजी की ताशकंद में ही मृत्यु हो गई थी। उनकी मृत्यु का कारण हृदयाघात बताया गया था, जबकि शास्त्रीजी के परिजनों का कहना है कि उनकी मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी और देश को इस बारे में पूरा सच जानने का अधिकार है।
वास्तव में भारतीय राजनीति में लालबहादुर शास्त्री के योगदान को हमेशा ही कम आंका जाता रहा है। इसका एक कारण प्रधानमंत्री के रूप में उनका कुछ ही समय काम कर पाना था। अपने पूर्ववर्ती पं. जवाहरलाल नेहरू के सत्रह वर्षों के सुदीर्घ कार्यकाल की तुलना में वे प्रधानमंत्री के रूप में पूरे दो साल भी काम नहीं कर पाए थे। उन्हीं के प्रेरणादायी नेतृत्व में हमने जंग के मैदान में पाकिस्तान को नाकों चने चबवाए थे। उनकी मृत्यु भी दक्षिण एशिया में शांति बहाली के प्रयासों के दौरान हुई थी। प्रधानमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण करने के बाद से ही शास्त्रीजी ने प्रयास किए थे कि पं. नेहरू की प्रतिबंधात्मक आर्थिक-औद्योगिक नीतियों को बदलने की कोशिश की जाए। उन्होंने एलके झा की अगुआई में एक आर्थिक सुधार आयोग भी गठित किया था। उनके इस निर्णय से न केवल भारत बल्कि हमारे तत्कालीन निकटतम सहयोगी सोवियत रूस में भी हलचलें पैदा हो गई थीं।
प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्रीजी के कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से 1965 की जंग जीतने में चला गया था। सोवियत नेताओं ने तब मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी, जबकि पाकिस्तान उस वक्त अमेरिका का निकटतम सहयोगी माना जाता था। सोवियत संघ के दबाव के चलते ही शास्त्रीजी को फील्ड मार्शल अयूब खां के साथ शांति समझौता करने पर विवश होना पड़ा था। भारत को हाजीपीर दर्रे सहित पाकिस्तान से जीते गए अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों को लौटाना पड़ा था, जबकि बदले में उसे पाकिस्तान से ज्यादा कुछ हासिल नहीं हो पाया था।
बहुत संभव है कि पाकिस्तान से किए गए समझौते और उसकी शर्तों ने शास्त्रीजी को भीतर ही भीतर ठेस पहुंचाई हो। बताया जाता है कि शास्त्रीजी की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, लेकिन उनकी आकस्मिक मृत्यु के वास्तविक कारणों पर हमेशा से ही शक की सुई मंडराती रही है। वर्ष 2012 में शास्त्रीजी की मृत्यु के वास्तविक कारणों के संबंध में लगाई गई एक आरटीआई याचिका पर अपनाए गए रुख से भी यही संकेत मिला कि दाल में कुछ जरूर काला था। सुरक्षा कारणों और गोपनीयता का हवाला देकर इस संबंध में जानकारी देने से इनकार कर दिया गया। इससे इस आशय के संदेहों को बढ़ावा ही मिला कि शायद शास्त्रीजी की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी।
शास्त्रीजी के पुत्र अनिल शास्त्री वर्षों तक कांग्रेस प्रवक्ता रहे। अब उन्होंने नेताजी की तर्ज पर शास्त्रीजी की मृत्यु से जुड़ी फाइलों को भी सार्वजनिक करने की मांग की है। उनका कहना है भारत आज एक परिपक्व और सशक्त राष्ट्र है और लगभग पचास साल पहले घटी एक घटना से संबंधित अंतरराष्ट्रीय दबावों को झेलने की सामर्थ्य रखता है। आज महात्मा गांधी के साथ ही लालबहादुर शास्त्री की भी जयंती है और इस अवसर पर यह उचित और स्वाभाविक ही होगा कि उनके पुत्र द्वारा किए गए अनुरोध के आलोक में उनकी मृत्यु को लेकर निर्मित संदेह की स्थितियों को साफ किया जाए।
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