देश के तमाम बड़े राज्यों में जब गो हत्या पर प्रतिबंध लगा, तो उस वक्त वहां कांग्रेस की सरकारें थीं. मसलन असम और पश्चिम बंगाल में 1950 में, तत्कालीन बंबई प्रांत में 1954 में, तो उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में 1955 में गो हत्या प्रतिबंध संबंधी कानून बनाये गये, उस वक्त वहां कांग्रेस की सरकारें थीं. इसी तरह तमिलनाडु में 1958 में, मध्यप्रदेश में 1959 में, ओडीशा में 1960 में तो कर्नाटक में 1964 में संबंधित कानूनों को लागू किया गया. उस वक्त भी उन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं.
सिर्फ राजस्थान और दिल्ली जैसे कुछ राज्यों में बीजेपी की तरफ से गो हत्या प्रतिबंध को लेकर कड़े कानून बनाने की नौबत कई दशक बाद आई, जब पार्टी का राजनीतिक आधार बढ़ा. मसलन राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत के मुख्यमंत्री रहते हुए 1995 में इसे लेकर कानून बना, तो दिल्ली में 1994 में मदनलाल खुराना के मुख्यमंत्री रहते हुए कानून बना.
गो संवर्धन या गो हत्या पर प्रतिबंध के मामले में आजादी के बाद जिस तरह से राज्यों में तेजी से कानून बने, उसके मुकाबले केंद्रीय कानून इसलिए नहीं बनाये गये, क्योंकि संविधान के अंदर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों का जो वितरण है, उसमें गौ संवर्धन या फिर गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कानून बनाने की जिम्मेदारी मूल तौर पर राज्यों की है. हालांकि संविधान के निर्माता गो रक्षा को लेकर कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्व, जिसकी व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 48 में है, उसमें गो हत्या पर प्रतिबंध की बात की गई है.
सवाल ये उठता है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद गो हत्या पर प्रतिबंध के बारे में क्या सोचते थे. ये जानना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि देश के ज्यादातर बड़े राज्यों में उनके प्रधानमंत्री रहते हुए ही गो हत्या पर प्रतिबंध संबंधी कानून बनाये गये थे.
वर्ष 1947 से लेकर अपनी मौत यानी 1964 तक देश की कमान बतौर प्रधानमंत्री संभालने वाले नेहरू निजी तौर पर गो हत्या प्रतिबंध संबंधी कानूनों के खिलाफ थे. इसका अंदाजा खुद नेहरू के भाषणों और पत्रों से लग जाता है. नेहरू को लेकर सबसे मशहूर और प्रमाणिक पुस्तक ही नहीं, बल्कि आधिकारिक तौर पर उनकी जीवनी लिखने वाले सर्वेपल्ली गोपाल अपनी पुस्तक ‘जवाहरलाल नेहरू-एक जीवनी’ (पृष्ठ 220, भारतीय ज्ञानपीठ) में बताते हैं कि नेहरू की इच्छा नहीं थी कि गो-हत्या पर प्रतिबंध का उल्लेख राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में हो. दरअसल नेहरू गो हत्या पर प्रतिबंध को हिंदू पुनरुत्थानवाद का प्रतीक मानते थे.
नेहरू की इस मुद्दे पर सोच क्या थी, इसका एक अंदाजा 2 अप्रैल, 1955 को लोकसभा में दिये गये उनके भाषण से भी लग जाता है. नेहरू ने कहा था – “मैं प्रारंभ में ही साफ कर देना चाहूंगा कि मैं गो-वध बंदी विधेयक के सर्वथा विरुद्ध हूं और इस सदन से कहना चाहता हूं कि इस विधेयक को बिल्कुल रद्द कर दें. --- राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक (हिन्दू महासभा के अध्यक्ष, संसद सदस्य निर्मलचंद्र चटर्जी द्वारा प्रस्तुत विधेयक) पर न तो विचार करें, न कोई कार्यवाही.”
जैसा गोपाल ने इशारा किया है, नेहरू के लिए गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने का मामला कुछ वैसा ही था, जैसा देश में राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी को लागू करना या फिर आजादी के बाद सोमनाथ के मंदिर का निर्माण. इन सभी मुद्दों को नेहरू हिंदू पुनरुत्थान का प्रतीक मानते थे, जिससे जुड़ना उन्हें मंजूर नहीं था.
सवाल ये उठता है कि इस मामले में इतने कड़े विचार रखने के बावजूद नेहरू कांग्रेस की राज्य सरकारों की तरफ से ही बनाये गये गो हत्या प्रतिबंध वाले कानूनों को रोक क्यों नहीं पाए. ये मसला वैसा ही था, जैसा देश के राष्ट्रपति के तौर पर राजेंद्र प्रसाद का चुनाव, सोमनाथ मंदिर का नये सिरे से निर्माण या फिर हिंदी को राजभाषा के तौर पर संवैधानिक स्वीकृति दिलाने की कोशिश. देश को आजादी मिलने के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पर नेहरू का ऐसा प्रभुत्व नहीं था कि वो अपनी मनमानी कर सकते थे. यही वजह थी कि उनकी इच्छा के विरुद्ध जहां राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने, वही सोमनाथ मंदिर का नये सिरे से निर्माण भी हुआ.
यही बात राज्यों में बने गो हत्या प्रतिबंध संबंधी कानूनों पर लागू होती है. जिस वक्त ये कानून बने, उस समय उत्तर प्रदेश में जहां गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे, तो पश्चिम बंगाल में विधानचंद्र राय और बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा. तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई हुआ करते थे, तो मध्यप्रदेश में कैलाशनाथ काटजू, कर्नाटक में एस निजलिंगप्पा, ओडीशा में हरेकृष्ण मेहताब और तमिलनाडु में के कामराज. ये सभी कांग्रेसी नेता ऐसे थे, जो नेहरू की इच्छा के खिलाफ जाकर काम करने का साहस कर सकते थे, उनके मुंह पर जवाब दे सकते थे. विधानचंद्र राय की वरिष्ठता और ताकत तो इस कदर थी कि वो नेहरू को जवाहर के तौर पर संबोधित करते थे. यही वजह थी कि नेहरू के न चाहते हुए भी देश के तमाम बड़े राज्यों में गो हत्या पर प्रतिबंध जैसे कानून बने. उसके बाद इंदिरा गांधी के दौर में जब स्थानीय क्षत्रप कमजोर पड़े, तब जाकर प्रधानमंत्री के आगे हाथ बांधकर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के लाइन लगाने का सिलसिला शुरु हुआ. अगर नेहरू को भी ऐसी परिस्थिति हासिल हुई होती, तो शायद देश के ज्यादातर राज्यों में गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कानून नहीं बने होते, वो भी कांग्रेस की सरकारों के रहते.
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