अकसर यही होता है, पितृपक्ष चढ़ने वाला होता है या चढ़ चुका होता है कि दो अक्टूबर की तारीख आ जाती है। वैसे कोई बाधा नहीं, जो आप गांधी जयंती व पितृपक्ष के बीच रिश्ते की गांठ बांधें। यह भी कहा जा सकता है कि महज संयोग है गांधी जयंती का पितृपक्ष का पड़ोसी होना। तो भी क्या संयोग स्वयं में ही अपनी ध्वनि से किसी रिश्ते का संकेत नहीं करता?
गांधी को देश 'राष्ट्रपिता" कहता आया है। यह भी एक संयोग ही है वरना इंटरनेटी चपलता और बुद्धि-चातुर्य से भरे आज के होनहारों में से एक ने तीन साल पहले पूछ ही दिया था सरकार बहादुर से सूचना के अधिकार कानून का औजार थामकर कि बताओ, महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता" की उपाधि कब और किस आदेश के तहत दी गई थी? सरकार इस प्रश्न पर निरुत्तर हो गई थी। पहले उसने गृह मंत्रालय से पूछा। गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय संग्रहालय से जानना चाहा कि क्या सचमुच किसी ऐसे आदेश की कोई प्रति है, जिसमें गांधी को राष्ट्रपिता कहा गया हो? जवाब राष्ट्रीय संग्रहालय के पास भी नहीं था, सो उसने सवाल पूछने वाली लखनऊ की उस छोटी-सी बच्ची ऐश्वर्या को जवाब लिखा कि खुद ही आकर इस संग्रहालय को खंगालो और खोजो कि गांधी को राष्ट्रपिता करार देने वाला क्या कोई प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध है भी या नहीं।
तीन साल पहले ऐश्वर्या के सवाल के जवाब में सरकार के निरुत्तर रह जाने की यह कथा जयंती पर गांधी के स्मरण में अपने दो संकेतार्थों के कारण बड़ी महत्वपूर्ण है। एक तो यह कि गांधी राष्ट्रपिता हैं, लेकिन उनके राष्ट्रपिता होने पर सरकारी फैसले का कोई ठप्पा नहीं है। सो, तनिक छूट भी है। आप चाहें तो गांधी को अपना पुरखा मानें, उन्हें राष्ट्रपिता के रुप में इस पितृपक्ष में याद करें और चाहें तो ना मानें, उन्हें चतुर नेता मानें, जिसने संन्यासी के बोल बोलकर एक राजनीतिक कार्य के लिए सोद्देश्य लोगों की भीड़ जुटाई या फिर एक संन्यासी समझें, जिससे संन्यास के धर्म का ठीक-ठीक निर्वाह ना हो सका क्योंकि उसने सारी उम्र राजनीति में बिताई और अंत में अपनी राजनीति के व्यर्थ हो जाने की भावना से पीड़ित हुआ। दूसरी वजह पहली वजह की जुड़वां है। अगर गांधी को आप किन्हीं वजहों से पुरखा मानते हैं तो फिर आपको संतति-भाव से महसूस करना होगा कि आपके भीतर उस राष्ट्रपिता की कोई भाव-राशि मौजूद है और यह भाव-राशि आपसे अपना दाय मांगेगी। मार्के का सवाल तो यही है कि गांधी को पुरखा मानने के बाद आप उन्हें तर्पण में क्या देंगे?
गांधी अपने मूर्तिरूप में सहज उपलब्ध हैं। मूर्तिरूप में उन्हें देखें तो सारा देश ही गांधीमय जान पड़ेगा। डाक-टिकट पर गांधी, रिजर्व बैंक के गवर्नर की हैसियत से पहले दस-बीस, सौ-पचास और अब हजार-पांच सौ रुपये अदा करने के वचन देते गांधी, नगर के चौक पर गांधी, स्कूल की किताबों से लेकर अदालत की दीवारों तक पर गांधी! इस मूर्तिबद्ध गांधी को तृप्त करना आसान है। स्कूली किताबों में अगर गांधी मौजूद हैं तो उन्हें परीक्षोपयोगी प्रश्न के रूप में याद करना आसान ही कहलाएगा ना।
2 अक्टूबर को सरकारी तौर पर जयंती का रूप देना, गांधी-स्मारक पर फूलमाला चढ़ाना और गांधी-संग्रहालयों में बैठकर भजन-कीर्तन में शामिल होना, चरखा चलाना और सूत कातना मूर्तिबद्ध गांधी को तृप्त करने के लिए काफी है। मुश्किल तब होती है जब आप गांधी को अपना पुरखा मानते हैं और पुरखों की तरह अपनी मनोभूमि में उनकी भाव-मूर्ति खड़ा करने की कोशिश करते हैं। यह मूर्ति आपको खुद ही बनानी पड़ती है, आपको अपना गांधी खोजना पड़ता है। भाव-राशि फिसलने वाली चीज है, वह बुद्धि की तरह ठोस नहीं होती। वह अपने को शब्दों में नहीं सिहरावनों में व्यक्त करती है और सिहरावन शब्दों की तरह विवेचन की मांग नहीं करते। वे बस होते हैं, उन्हें सहना पड़ता है, उनकी आहट को टोहना और उनके अवश आ जाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि तब कोई स्मारक, कोई किताब, कोई संग्रहालय और गांधी का विश्वस्त सहयोगी रहा कोई भी युगपुरुष संज्ञाधारी आपका रहबर नहीं होता।
शायद, पुरखे के रूप में गांधी की एकमात्र पहचान यही है कि वे स्वयं भी भीड़ के बीच निपट अकेले थे। संयोग नहीं कि अपनी पदयात्राओं में वे बाकियों से कई कदम आगे निकल जाते थे और जीवन भर इस एक बात से परेशान रहे कि जिन मानकों को सामने रखकर वे अपना जीवन जी रहे हैं, वही मानक बाकियों के लिए इतने भारी क्यों पड़ रहे हैं कि ऐन आश्रम में नियम टूटते नजर आते हैं और चलती राजनीति के बीच साथी यह कहकर नाराज हो जाते हैं कि आंदोलन वापस क्यों लिया?
पीछे मुड़कर देखने पर लगता है, भारत की उनकी खोज एक अकेले की खोज थी, स्वराज का उनका राग भी एक अकेले का राग था, जिसे सुना बहुतों ने मगर गाया किसी ने नहीं। इसका एक प्रमाण है तॉल्स्तॉय की लिखी प्रसिद्ध चिट्ठी 'ए लेटर टु ए हिंदू।" इस पत्र की भूमिका गांधी ने उसी वक्त लिखी, जब 'हिंद-स्वराज" लिखा गया था। चिट्ठी की भूमिका में एक जगह आता है : 'जब तॉल्स्तॉय जैसा व्यक्ति, जो पश्चिमी जगत के सर्वाधिक सुलझे हुए चिंतकों और महानतम लेखकों में से एक है और जिसने खुद एक फौजी के रूप में जान लिया है कि हिंसा क्या है और क्या कर सकती है, आधुनिक विज्ञान का अंधानुकरण करने वाले जापान की निंदा कर रहा है तो अंग्रेजी शासन से छुटकारा पाने के लिए अधीर हुए जा रहे हम लोगों के लिए ठहरकर सोचने का वक्त है। क्या हम एक बुराई की जगह दूसरी ज्यादा बड़ी बुराई (यानी आधुनिक विज्ञान और भौतिक प्रगति का विचार) की राह हमवार नहीं करने जा रहे? विश्व के महानतम धर्मों की क्रीड़ास्थली भारत यदि आधुनिक सभ्यता की राह पर चलते हुए अपनी पवित्र धरती पर बंदूकों के कारखाने खड़े करता है, घृणास्पद औद्योगीकरण की वही राह अपनाता है, जिसने योरोप के लोगों को गुलामी की दशा में डाल दिया है और मानवता की साझी पूंजी बन सकने लायक उनके गुणों का गला घोंट रखा है तो फिर भारत चाहे और कुछ जो भी बन जाए, भारतीय होने के अर्थ में एक राष्ट्र नहीं बन सकता।"
भारत राष्ट्र तो बना लेकिन क्या राष्ट्ररूप में यह बनना भारतीय अर्थों में हुआ? गांधी का अपनी संतति से पितृपक्ष में यही सवाल है।
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