प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को अपने 'मन की बात" कार्यक्रम में जैसे ही घोषणा की कि 1 जनवरी 2016 से लागू होने वाले नए नियमों के तहत केंद्र सरकार की ग्रुप डी, सी और बी की अराजपत्रित नौकरियों के लिए युवाओं को इंटरव्यू नहीं देना होगा, जदयू ने तुरंत इस घोषणा को बिहार में हो रहे विधानसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में आचार संहिता का उल्लंघन बता दिया। इससे पहले भी ऐसी स्थिति निर्मित हुई थी, जब प्रधानमंत्री के 'मन की बात" कार्यक्रम को लेकर इस आशय की बातें कही गई थीं।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री 'मन की बात" करते हैं तो वे किस भूमिका में होते हैं और किसे संबोधित कर रहे होते हैं? जब किसी कार्यक्रम का राष्ट्रव्यापी प्रसारण हो रहा हो तो क्या वह राष्ट्र के नाम संदेश होता है या क्षेत्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्यों के मुताबिक उसकी व्याख्या की जानी चाहिए? एक प्रांत में हो रहा चुनाव या वहां पर लगी आचार संहिता क्या सरकार के मुखिया के राष्ट्र के नाम संदेश में बाधक होनी चाहिए? आखिर लाल किले की प्राचीर से दिया जाने वाला संबोधन भी तो राष्ट्र के नाम संदेश ही होता है। लेकिन वहां से बोलने वाला व्यक्ति किसी पार्टी का प्रतिनिधि नहीं होता, वह देश में सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा नागरिक होता है।
देश की स्मृति में आज भी प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा 14 अगस्त की मध्यरात्रि को दिया गया रेडियो संदेश जीवंत है, जिसमें पं. नेहरू ने कहा था कि दुनिया अभी सो रही है, लेकिन भारत जाग रहा है और वह अपनी नियति स्वयं रचेगा। इसी तरह 1962 की लड़ाई हो, भारत-पाक संघर्ष हों, स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के संदेश हों, इन अवसरों पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले संदेशों को नागरिक ध्यान से सुनते और उनसे प्रेरित होते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेढ़ वर्ष पूर्व अपने लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान 'चाय पर चर्चा" नामक जन-संवाद कार्यक्रम के माध्यम से अपने मतदाताओं से सीधा संपर्क स्थापित किया था। चुनाव जीतने के बाद इसे उन्होंने 'मन की बात" का रूप दे दिया। अपने इस कार्यक्रम के माध्यम से वे सामाजिक विषयों पर देश की जनता से मासिक संवाद करते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और प्रजातंत्र में असहमति का भी महत्व होता है। यही कारण होगा कि बिहार चुनाव को देखते हुए विपक्षी दलों द्वारा चुनाव आयोग से निरंतर यह मांग की जा रही है कि 'मन की बात" कार्यक्रम पर रोक लगा दी जाए। जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, आयोग ने इससे इनकार कर दिया है।
'मन की बात" कार्यक्रम कोई राजनीतिक प्रचार का मंच नहीं है। उसमें प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे मनुष्यता के विभिन्न् पक्षों को छुएंगे। वे समाज की दशा-दिशा बताने और उन्हें बदलने वाली बातों पर चर्चा करेंगे। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वालों की हत्याओं पर वे बोलेंगे, भूमि अधिनियम पर किसानों की शंकाओं का जवाब देंगे। लोकतंत्र में संवाद सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होता है। जिस भी शासक ने संवाद खत्म किया, वह लोकप्रियता के शीर्ष पायदान पर तो क्या, ज्यादा समय तक सत्ता में भी नहीं रह पाया। देश में राष्ट्रीय पर्वों पर राष्ट्र के नाम संदेश देने की एक नीरस परिपाटी बनी हुई थी, जिसमें 'मन की बात" एक ताजा हवा के झोंके की तरह आता है, लेकिन इस अपेक्षा के साथ कि उस कार्यक्रम में सरकार के मुखिया गंभीर और चुनौतीपूर्ण विषयों पर तार्किक ढंग से अपनी बात रखेंगे।
प्रधानमंत्री जब 'मन की बात" करते हैं, तब वे एनडीए या भाजपा के नेता नहीं होते। विपक्षी अगर उनके लिए अच्छे बोल नहीं बोलते, तब भी उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वे एक राजपुरुष की तरह बोलेंगे। सच और सटीक बोलेंगे, क्योंकि गलतियां जनता के जेहन में बस जाती हैं। 'मन की बात" का मूल विचार बहुत अच्छा है। एक समय ऐसा आ सकता है, जब 'मन की बात" देश की आवाज बन जाए। वीआईपी संस्कृति, भ्रष्टाचार, अस्पतालों में मरीजों की भर्ती, स्कूलों की बदहाली, ऐसे सैकड़ों विषय हैं, जिन पर प्रधानमंत्री अपनी बात देशवासियों से साझा कर सकते हैं।
वैसे भी किसी राष्ट्र-प्रमुख द्वारा रेडियो के माध्यम से देशवासियों को संबोधित करने की परिपाटी कोई नई नहीं है। अमेरिका और ब्रिटेन में इस तरह के संबोधन परंपरागत रूप से होते रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने 30 भाषणों की एक सीरीज दी थी। ये भाषण 1933 से 1944 के दौरान दिए गए थे। यह पहली बार था जब अमेरिकी कार्यपालिका के सर्वोच्च अधिकारी ने इस तरह से पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग पर देश की जनता से संवाद स्थापित किया था। वैश्विक मंदी से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक से जुड़ी घटनाएं रूजवेल्ट के भाषणों के केंद्र में रहती थीं। रेडियो के माध्यम से वे देश में फैल रही अनेक अफवाहों का खंडन तो करते ही थे, अपनी नीतियों को भी अवाम तक पहुंचा पाते थे। रूजवेल्ट के इन भाषणों की एक राष्ट्रपति के रूप में उनकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उनकी 'फायर साइड चैट" (एक तरह की चौपाल-चर्चा) ने भी उन्हें अवाम में खूब इज्जत दिलाई थी।
इसी तरह विंस्टन चर्चिल के रेडियो संदेश भी बहुत चर्चित थे। नाजियों ने भी रेडियो की ताकत को बखूबी समझा था और हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स के हाथों में जर्मनी के सूचना-प्रचार के तमाम सूत्र रहा करते थे। वैसे भी वह रेडियो का दौर था और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति अभी भविष्य के गर्भ में थी। रेडियो आम जनता का साधन माना जाता रहा है। वह महंगा यंत्र नहीं है, हालांकि भारत में वर्षों तक यह व्यवस्था रही कि रेडियो का इस्तेमाल करने से पहले एक लाइसेंस पड़ेगा। ब्रिटेन में तो रेडियो लाइसेंस की फीस से ही बीबीसी जैसी निष्पक्ष और सरकारी दबाव से मुक्त संस्था चलती है।
भारत में आकाशवाणी, विविध भारती प्रसार भारती के अधीन हैं और सरकारी दबावों से मुक्त नहीं हो पाई हैं। चूंकि रेडियो ध्वनि आधारित माध्यम है, इसलिए उसके काम करने के तरीके टीवी से अलग होते हैं। बीबीसी के दिल्ली स्थित सबसे बड़े नाम मार्क टुली ने कहा था कि डेढ़ सौ शब्द लिखने के बाद उन्हें रपट समाप्त करनी पड़ती है, क्योंकि रेडियो पर लंबी रपटें पसंद नहीं की जातीं।
भारत में जनता से संवाद के लिए आज भी मंचीय भाषण ही सबसे उपयुक्त माने जाते हैं, लेकिन क्या ये संवाद हैं? वह तो एकतरफा कथन होता है। जनता से संवाद दोतरफा या इंटरेक्टिव कैसे हो? संवाद चर्चित और सामयिक विषयों पर हों या ऐतिहासिक विवेचनाओं पर? क्या भावनात्मक संवाद हो या धार्मिक आस्था कानून से भी ऊपर है, इस तरह के तर्कों पर आधारित हो? ये वे विषय हैं, जिन पर राष्ट्रीय सहमति निर्मित हो तो बेहतर। संवैधानिक पद क्या राजनीतिक दलों की निष्ठा से ऊपर होते हैं? क्या इस तरह के संवाद में कार्यपालिका का निर्णय भी है? ऐसे अनेक सवालों के बीच अपार संभावनाओं वाला 'मन की बात" राष्ट्र के जनमानस से जुड़ा हुआ है।
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