Saturday, 24 October 2015

अब रामराज्य नहीं, चीन हमारा सपना @प्रीतीश नंदी

मैं अपनी बात एक फिल्म के नाम से शुरू करता हूं, जिसे अब तक की बेहतरीन फिल्मों में शामिल किया जाता है। ऋत्विक घटक की जुटकी, तार्को, गोप्पो। तर्क दें, बहस करें, अपनी बात कहें। मैं जिस दौर में बड़ा हुआ, उसकी खासियत यही भावना थी। स्कूल में वाद-विवाद प्रतियोगिताएं बहुत लोकप्रिय होती थीं। हमें एक-दूसरे के खिलाफ तर्क रखना और दलीलें देना सिखाया जाता था। अगर हम अच्छा प्रदर्शन करते तो हमें दूसरे स्कूलों में वहां वाद-विवाद की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से मुकाबला करने भेजा जाता था। जब हम कॉलेज में पहुंचे तो वाद-विवाद की लोकप्रियता कई गुना बढ़ चुकी थी। अब मुद्‌दे भी बहुत जटिल और ज्यादा उत्तेजक हो गए थे। ध्यान रहे कि यह साठ का दशक था। दुनिया कई अद्‌भुत तरीकों से बदल रही थी और हम सबको लगता था कि हम उस बदलाव के हिस्से हैं और इस बदलाव में हमारी भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

तब राजनीति चुनाव जीतने का मामला भर नहीं था। इसका अर्थ था आपके विचार ऐसे हैं, जिनका लोग आदर करते हैं। और उन दिनों लोगों की राय आमतौर पर प्रतिरोधी होती थी। भारत को चीन द्वारा धोखा देने की बात हो या वियतनाम के खिलाफ अमेरिका का युद्ध हो या यूरोप में विद्यार्थियों की बगावत हो, जहां (पहली बार) हमने युवा शक्ति के सामने कुछ बहुत ही ताकतवर सरकारों को डगमगाते देखा। हवा में बदलाव को महसूस किया जा सकता था और हम मुद्‌दों की चीर-फाड़ और बहस करना बहुत पसंद करते थे। हर किसी के पास भिन्न दृष्टिकोण होता, फिर चाहे उस विषय पर हम सबमें सहमति होती। और हमारे बीच जो भी बहस होती उसमें नए विचार सामने आते। उन दिनों मुद्‌दों को लेकर कोई लड़ने या हाथापाई करने पर उतर नहीं पड़ता था। हम एक-दूसरे के खिलाफ जितने भी हथियारों का इस्तेमाल करते, उनमें सबसे तीखा होता था विट यानी हाजिरजवाबी और हमारा जुनून ही यकीन दिलाने का सबसे अच्छा माध्यम।

राजनीतिक भाषण भी विचारों के उसी स्रोत से निकलते। उन दिनों सभाओं में उतनी भीड़ शायद ही कभी होती थी, जितनी आज होती है, क्योंकि किसी को भी खरीदे हुए श्रोताओं को ट्रकों में भर-भरकर लाने की जरूरत नहीं महसूस होती थी। उम्मीदों से भरे हम युवा वे भाषण सुनने जाते, क्योंकि वे उस नए भारत से संबंधित होते, जिसका हम सपना देख रहे थे। आजादी तो जैसे हवा में बहता हुआ कोई गीत था। और उस दौर के सारे युवाओं की तरह हम उस स्वतंत्रता से संतुष्ट नहीं थे, जिसके लिए हमारे पूर्वज लड़े और जीते। हम इसके आगे बहुत कुछ पाने के लिए बेचैन थे। हमारे सपने भी अधिक सामाजिक न्याय, अधिक समानता से संबंधित थे। एक नए राष्ट्र का निर्माण हो रहा था और हम सबको लगता कि इसमें हमारी भी भूमिका है। इस नए राष्ट्र में जाति व समुदाय समान अवसरों के लिए रास्ता खुला करेंगे।

वे ऐसे दशक थे, जहां दुनिया विचारों पर झगड़ रही थी, जब युवा छात्र शक्तिशाली सरकारों को भी अपने अन्यायी युद्धों पर फिर गौर करने के लिए मजबूर कर सकते थे। जब कवि, रॉक स्टार और दार्शनिक नेताओं को जमीनी राजनीति के प्रलोभनों से दूर रहकर जवाबदारी के अधिक बोध, अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित कर पाते थे। एलन जिन्सबर्ग ने ‘हाउल!’ कविता लिखी थी, जो अमेरिकी युवा का गीत बन गया, जिसमें उन्होंने अमेरिका से कहा था कि वह अपना एटम बम लेकर भाड़ में जाए और किसी ने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि उनका यह कृत्य किसी मायने में देशभक्ति से जरा भी कम है। जॉन लेनन और योको ओनो अपना म्यूजिक कॅरिअर छोड़कर युद्ध विरोधी कार्यकर्ता बन गए। किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई। वे रातोरात और भी बड़े सितारे बन गए।

वामपंथियों को नव-वामपंथी चुनौती दे रहे थे। दक्षिणपंथी खुद को इतनी अति पर पा रहे थे कि खुद उन्हें सही नहीं लगता था। पूरी राजनीति के केंद्र में असहमति और बहस होती थी। युवा छात्र हर राष्ट्र की आवाज हुआ करते थे। कोई भी उन्हें बेअदब या अप्रासंगिक नहीं कहता जैसा आज हम प्राय: कहते हैं। और कोई भी यह नहीं मानता था कि सरकार या इसकी एजेंसियां ही सारी बुद्धिमत्ता की तिजोरी हंै (यही कारण है कि जब लोग यह दलील देते हैं कि एफटीआईआई में सी-ग्रेड स्टार को चेयरमैन के रूप में इनकार करके छात्र मूर्खता कर रहे हैं। उनकी दलील इस मूर्खतापूर्ण विश्वास से निकली कि किसी भी संस्थान में सरकार ही एकमात्र दावेदार है, क्योंकि वही सारे बिल चुकाती है।)

आज असली बहस प्राय: उन लोगों द्वारा पटरी से उतार दी जाती है, जो अपने विरोधियों की देशभक्ति पर सवाल उठाने लगते हैं। किसी बहस व दलील को खत्म करने के लिए आक्रोश भड़काया जाता है, क्योंकि उसका बचाव या विरोध करने लायक बौद्धिक चतुराई तो किसी में है नहीं। इसलिए विचारक अब बहिष्कृत प्रजाति है। तर्कवादी आसान निशाना है। और जो लोग दूसरा दृष्टिकोण अपनाने की दलील देते हैं उन्हें चिल्लाकर चुप कर दिया जाता है, क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल के पास खुद का बचाव कर सकने लायक बौद्धिक क्षमता नहीं है। इसलिए विद्वान भी अब अछूत हो गए हैं। एक समय समाज के गौरव समझे जाने वाले थॉट लीडर चुपचाप आत्म-निर्वासन में चले गए। यही हाल कवि, शास्त्रीय गायक, दार्शनिक और लेखक का हुआ। वे अपने अवॉर्ड लौटाएं तो उनका स्वागत है। भविष्य में अवॉर्ड तो केवल उन्हें दिए जाएंगे, जो हां में हां मिलाएंगे। अब हमारे सामने सिर्फ सामाजिक दर्जे से वंचित अचानक धनी बने लोगों का समूह और ऐसा राष्ट्र है, जो किसी भी कीमत पर आगे बढ़ना चाहता है। अब न तो रामराज्य और न यूटोपिया (आदर्श राज्य) हमारा सपना है। अब चीन हमारा सपना है।

मेरी युवावस्था के हीरो में से एक पिछले दिनों गुजर गए। वे हिंदू धर्म के विशेषज्ञ थे, संस्कृत व वैदिक विद्वान, गांधीवादी, सुधारक और तार्किक चिंतन के धुरंधर। उन्होंने मराठी में पहले एनसाइक्लोपीडिया और धर्मकोश की रचना का नेतृत्व किया, जिसमें उन्होंने वैदिक ऋचाओं का संग्रह किया। किंतु इस सबसे ऊपर लक्ष्मणशास्त्री जोशी व्यावहारिक व्यक्ति थे, जिन्हें तर्क और बहस सबसे अधिक प्रिय थे। उन्होंने साठ के दशक की भावना को वर्तमान की खोई सांस्कृतिक पहचान की तड़प से जोड़ा। वे हमारे अंतिम तर्कतीर्थ थे। और फिर भी वे जुटकी, तार्को और गोप्पो के लिए हमेशा लालायित रहते थे।

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