Monday, 28 September 2015

सूनी कलाइयों के जश्न @शशि शेखर

उस दिन टेलीविजन के छोटे परदे पर वीर अब्दुल हमीद की बेवा को देखा। काल से उपजे हालात ने उनकी देह को जर्जर कर दिया और पोपले चेहरे में अब मन में उमड़ते भावों को व्यक्त करने की कुव्वत नहीं बची है। वह सादी साड़ी में लिपटी मंच पर खड़ी थीं। अगर उन्हें तन्हा छोड़ दिया जाए, तो क्या कोई अनुमान लगा सकता है कि वह उस रणबांकुरे की धर्मपत्नी हैं, जिसने अपने मुल्क के लिए जान कुर्बान कर दी? 
'वीर अब्दुल हमीद' हमारी पीढ़ी के हीरो रहे हैं।

हमीद और उन जैसे जांनिसारोंके परिवारों पर फिर कभी चर्चा। आइए, 1965 की जंग की वर्षगांठ पर सायास उपजाए गए सरकारी हर्षोल्लास के बीच जांचने-परखने का प्रयास करें कि इस युद्ध ने हमें क्या दिया? वे कौन से मुद्दे हैं, जो आज तक समर शास्त्रियों की चिंता का विषय हैं? 

गजब थी वह लड़ाई! पाकिस्तान में तब जुल्फिकार अली भुट्टो चमचमाती सियासी शख्सियत हुआ करते थे। उन दिनों वहां फील्ड मार्शल अयूब खां की हुकूमत थी और भुट्टो साहब नए पाकिस्तान को रचने के नाम पर उनकी सैनिक ग्रंथियों को हवा दे रहे थे। इस दौरान वह अपने फौजी आका को यह समझाने में कामयाब रहे कि आम कश्मीरी भारत की सरपरस्ती से निकलकर पाकिस्तान के छाते के नीचे आने को बेताब बैठे हैं। अगर हम अपनी सेना वहां भेज दें, तो लोग उसके खैर मकदम के लिए टूट पड़ेंगे। अयूब साहब मुगालते में आ गए। उन्होंने पहले सादे कपड़ों में सैनिक भेजे, फिर बाकायदा हमला बोल दिया। 

कश्मीर से लगी सीमा पर पाकिस्तानी पूरी ताकत से चढ़ आए। उन दिनों हिन्दुस्तान 1962 में चीन से मिली पराजय से आत्मग्लानि में डूबा हुआ देश था। जवाहरलाल नेहरू को गुजरे कुछ ही महीने बीते थे। वह भारतीय इतिहास के सबसे ग्लैमरस नेताओं में एक थे। उनके मुकाबले लाल बहादुर शास्त्री की शख्सियत बेहद साधारण नजर आती थी। ऐसे में, पाकिस्तान का हमला! देश चिंता से घिर गया। 

उधर, नई दिल्ली के सत्ता सदन में हलचल मची हुई थी। हमारी काफी फौज चीन की सीमा पर थी। उसे हटाया नहीं जा सकता था। पाकिस्तानी हमला अप्रत्याशित और बेहद तेज था। क्या चीन के बाद अब पाकिस्तान से हारने की बारी थी? ऐसे में, ठिगने कद के शास्त्री ने हिमालय जैसी दृढ़ता दिखाई। उन्होंने फौज को अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघने और वायुसेना के उपयोग की इजाजत दे दी। वायुसेना के प्रयोग का फैसला चीन युद्ध के दौरान नेहरू तक नहीं कर सके थे। अगर वह ऐसा कर पाते, तो शायद 1962 की जंग के नतीजे कुछ और होते। 

एक तरफ दिल्ली में ऐसे साहसिक फैसले हो रहे थे, दूसरी तरफ पाकिस्तान की राजधानी रावलपिंडी (तब इस्लामाबाद नहीं बना था) में भुट्टो और अयूब अपनी पीठ ठोक रहे थे। जब लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की अगुवाई में भारतीय सेना ने लाहौर की ओर कूच किया, तो पाकिस्तानी असावधान थे। हमारी फौज इच्छोगिल नहर पार कर लाहौर के दरवाजे तक पहुंच गई। इस युद्ध में भारतीय जवानों ने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया। 

मैं तब कक्षा एक में पढ़ने वाला बच्चा था। 50 साल बीतने के बावजूद मुझे आज भी मिर्जापुर स्टेशन पर सैनिकों की कलाइयों पर राखी बांधती, उन्हें खाना-पानी, जेवर अथवा नकदी सौंपती महिलाएं याद हैं। उनके आंसू याद हैं। पुरुषों के भर्राए हुए गले से निकलते हुए नारे याद हैं। उस दौरान हम जैसे बच्चे भी अपने गले फाड़कर चिल्लाते और खराशें पैदा कर लिया करते। दिन हो या रात, सैनिकों से भरी ट्रेन के रुकने भर की देरी होती कि पूरा शहर अपनी उमड़ती भावनाओं के साथ वहां हाजिर हो उठता। 

वे फौजें कभी नहीं हारतीं, जिनके पीछे उनकी मातृभूमि का हर बच्चा, बूढ़ा और जवान खड़ा होता है। यह शास्त्री के साहसिक फैसलों और एक करामाती नारे- 'जय जवान, जय किसान' का कमाल था। तय है। इस युद्ध में हम हारे नहीं, पर क्या वह जीत मुकम्मल थी? 

1965 की जंग ने दोनों देशों को बहुत नुकसान पहुंचाया। हालांकि, सरहद के दोनों ओर नेताओं ने अपने अवाम को यही बताया कि हम जीते हैं। इसीलिए सितंबर के महीने में भारत और पाक में तमाम संगठन अपनी तरह से जीत का जश्न मनाते हैं। अब पांच दशक बीतने के बाद यह तय हो गया है कि भारत के पास खुशी मनाने की ज्यादा वजहें हैं। यह सच है कि तीन हजार से ज्यादा जवानों ने रक्त बहाकर सितंबर 1965 के शुरुआती 22 दिनों में जो मिसाल पेश की, उससे पूरा देश चीन से मिली पराजय के सदमे से निकलने में कामयाब हो सका। इस अचानक उपजे आत्म-विश्वास ने 1971 में पाकिस्तान के विभाजन की भूमिका भी लिख दी। 

यह बात अलग है कि इस विभाजन से भी पाकिस्तान ने कुछ नहीं सीखा। उसकी कश्मीर कुंठा आज भी कायम है। याद करें। 1999 में कारगिल में वही कहानी दोहराई गई। पाकिस्तानी फौजी हमारे देश में सादे लिबास में घुस आए। अटल बिहारी वाजपेयी के सियासी नेतृत्व में भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा तो पार नहीं की, पर वायु और थल सेना के सूझबूझ भरे प्रयोग ने पाकिस्तान को एक बार फिर शर्मसार किया। 1965 की लड़ाई के बाद अयूब का पतन हुआ। 1971 के बाद जनरल याहिया खां को जलालत उठानी पड़ी। इस बार जनरल परवेज मुशर्रफ की छवि दागदार हुई। पाकिस्तान का सत्ता सदन इसके बावजूद चुप नहीं बैठा। आज भी छाया युद्ध के जरिए वे हमारी विकास यात्रा में रोड़े अटकाना चाहते हैं। 

यह एक दरिद्र पड़ोसी की ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का जगजाहिर नमूना है। 
इसीलिए उस दिन श्रीमती हमीद को देखने के बाद मेरे मन में सवाल उभरा कि जीत का यह जश्न तब मुकम्मल होगा, जब हम साल-दर-साल अपने जवानों की शहादतों को रोक सकेंगे। ऐसा इसलिए जरूरी है, ताकि फिर किसी महिला को आरोपित वैधव्य का सामना न करना पड़े। क्या हम ऐसा कर पा रहे हैं? यकीनन, बहुत कुछ किया जाना शेष है। हमारी परंपरा में सूनी मांग और कलाइयों से जश्न नहीं मनाए जाते। 

जंग के हालात अभी तक खत्म नहीं हुए हैं। पिछले डेढ़ दशक में हमने अपने पड़ोसियों के रुख में खतरनाक बदलाव देखे हैं। इस दौरान बीजिंग और इस्लामाबाद बेहद करीब आए हैं। बलूचिस्तान का ग्वादर बंदरगाह चीन के हवाले कर पाकिस्तान ने उसकी नौसेना के लिए अपने समुद्री दरवाजे खोल दिए हैं। उधर पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेना की मौजूदगी चौंकाती है। कुछ महीनों से खबरें उड़ रही हैं कि 'पीपुल्स आर्मी' ने वहां अपने स्थायी अड्डे बनाने शुरू कर दिए हैं। अगर यह सच है, तो इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता। चीन हमें हर ओर से घेर रहा है। इस्लामाबाद और बीजिंग की मित्रता दो ऐसे दुश्मनों की दोस्ती है, जो हमारे लिए हर हाल में घातक है। 

नेपोलियन बोनापार्ट ने कभी कहा था— 'आपको एक ही दुश्मन से बार-बार नहीं लड़ना चाहिए, वरना आप अपने तमाम युद्ध कौशल उसे सिखा देंगे।' क्या पाकिस्तान के मामले में ऐसा नहीं हो रहा? हम उसके छल-बल से वाकिफ हैं, लेकिन क्या उससे हर मोर्चे पर निपटने के लिए तैयार भी हैं? 
इस यक्ष प्रश्न का जवाब देने की जिम्मेदारी दिल्ली के सत्ता सदन की थी, है और रहेगी।

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