नई दिल्ली के दिल में मुख्य मार्ग के तौर पर औरंगजेब रोड का नया नामकरण करते समय संभवत: यही सोचा गया था हाल के वर्षों में लोगों के सर्वाधिक प्रिय, सम्मानित और डॉ. कलाम के नाम पर इस सड़क का नाम नाम रखे जाने से सर्वत्र इसकी प्रशंसा होगी, लेकिन दु:खद है कि ऐसा नहीं हुआ। राजनीतिक वर्ग के कुछ धड़ों, जिसमें संविधान के मूलभूत मूल्यों की दुहाई देने वाले भी शामिल हैं, ने इस फैसले पर क्षोभ जाहिर किया है और इस तरह वे देश के इतिहास में सबसे बड़े आततायियों में से एक की रक्षा में उतर आए।
औरंगजेब रोड का नाम बदलने का विरोध करने वाले तर्क देते हैं कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए और यह तिहास को विकृत करने का प्रयास है। यह तर्क दो आधारों पर दिखावटी है। पहला, जब दिल्ली में बीते पचास साल के दौरान दर्जनों सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदले गए, तब इस तरह का कोई तर्क नहीं दिया गया। दूसरा, एक सड़क का नाम बदलने भर से इतिहास किस तरह मिटाया जा सकता है।
आजादी के वक्त से ही भारत के लोग देशभर में सड़कों के नाम बदलते रहे हैं। वस्तुत: इस तरह के परिवर्तन फैशन माने जाते रहे हैं, नतीजतन नई दिल्ली की कई गलियों-सड़कों के नाम बदले गए हैं और अधिकांशत: वे एक राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के प्रतीक पुरुषों के नाम पर रखे गए हैं। इसके कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं।
किंग्सवे अब राजपथ है और क्वींसवे जनपथ है। यॉर्क रोड का नाम मोतीलाल नेहरू मार्ग हो गया है। दिल्ली के केंद्र में कनॉट सर्कस ड्यूक ऑफ कनॉट के राजकुमार सर आर्थर के नाम पर था। इसका नाम अब इंदिरा चौक हो गया है और इसके अंदरूनी हिस्से कनॉट प्लेस का नाम राजीव चौक है। यह बात दूसरी है कि दिल्लीवालों ने इस बदलाव को ठुकरा दिया। कोई आने-जाने वाला या ऑटो वाला कभी भी कनॉट सर्कस को इंदिरा चौक नहीं कहता।
मोतीलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के अलावा कांग्रेस के कई और नेताओं ने दिल्ली की सड़कों से ब्रिटिश शासन के प्रतीक पुरुषों को बाहर कर दिया है। मसलन, विक्टोरिया रोड राजेंद्र प्रसाद मार्ग हो गया और किंग एडवर्ड रोड का नाम बदलकर मौलाना आजाद मार्ग कर दिया गया। कर्जन रोड अब कस्तूरबा गांधी मार्ग है, हार्डिंग एवेन्यू अब तिलक मार्ग है। ओल्ड मिल रोड का नाम रफी अहमद किदवई के नाम पर रफी मार्ग कर दिया गया है।
जब दो दशक पहले ड्यूट ऑफ कनॉट के नेक राजकुमार को बाहर का रास्ता दिखाया गया था, तब औरंगजेब के लिए छाती पीटने वालों की आंखों में आंसू नहीं आए थे। यह ड्यूट ऑफ कनॉट के प्रिंस ही थे जिन्होंने 1921 में केंद्रीय विधानसभा का उद्घाटन किया था, जो आज की लोकसभा है। दो सदन वाली संसद में निचले सदन विधानसभा का गठन भारत सरकार 1919 कानून के तहत किया गया था। भारत में सर्वोच्च विधायी संस्था का उद्घाटन करने वाले व्यक्ति का नाम हटा देना क्या उचित है?
घृणास्पद होने की हद तक दोहराया जाने वाला एक और तर्क कि यह इतिहास को मिटाने वाला प्रयास है, असत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं। औरंगजेब द्वारा अपनी हिंदू जनता पर किए गए अत्याचार और हिंसा को दिल्ली की एक सड़क से उसका नाम हटाकर कोई कैसे मिटा सकता है? उदाहरण के लिए कौन भूल पाएगा कि 9 अप्रैल, 1669 को उसने अपने हाकिमों को स्कूलों और हिंदुओं के मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश जारी किया था, जिसकी वजह से बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा में कृष्ण मंदिर और सोमनाथ मंदिर क्षतिग्रस्त कर दिए गए। मथुरा में मंदिर को तहस-नहस करने के बाद उसने उस जगह पर एक उत्कृष्ट मस्जिद का निर्माण किया। 2 अप्रैल, 1679 को उसने जजिया कर लगा दिया। यह एक तरह का टैक्स था जो हिंदुओं को अपने धर्म का पालन करते रहने के लिए देना पड़ता था।
औरंगजेब ने सिख गुरुद्वारों को ध्वस्त करने का आदेश दिया, गुरु तेग बहादुर को कैद कर लिया और कई दिनों तक यातनाएं देने के बाद उनकी हत्या कर दी, क्योंकि उन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था। गुरु गोविंद सिंह के समय में उसने सिखों पर क्रूरता जारी रखी और उनके चार बेटों की हत्या कर दी। यह इतिहास पर निर्भीक रुख रखने वाले भारत के कुछ बड़े इतिहासकारों - जदुनाथ सरकार और आरसी मजूमदार के महत्वपूर्ण कामों में से औरंगजेब के जीवन और अपराधों की एक झलक भर है। हमारे औपनिवेशिक इतिहास को रोजाना याद दिलाने से दूर रखने के लिए ब्रिटिश सम्राटों और सूबेदारों के नाम हमारी सड़कों से हटाए गए। यह काम हमारे दिल-दिमाग में इस विचार को बैठाने के लिए भी था कि भारत अब आजाद है। इसी तरह औरंगजेब जैसे लोगों के नाम वाली सड़कों के नामकरण धार्मिक कट्टरता हटाने और पंथनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र के विचार को डालने के लिए बदले जाने चाहिए।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि क्यों औरंगजेब रोड का नाम अब डॉ. कलाम के नाम पर रखा गया है। हमें यह जरूर पूछना चाहिए कि भारत सरकार ने इतने वर्षों तक क्यों औरंगजेब को प्रतिष्ठित रखा और इस भयानक विचार के पीछे कौन था? दरअसल नया नामकरण देश को मध्यकालीन असभ्यता के प्रभाव से निकालकर उन पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और आधुनिक विचारों की ओर ले जाने वाला कदम है जिनके लिए डॉ. कलाम जाने जाते थे। लेकिन इन वर्षों में जिन्होंने भारत को चलाया और भारत के इतिहास में सबसे नृशंस व्यक्तियों में से एक के महिमामंडन की अनुमति दी, वे अब भी औरंगजेब के लिए मत देते लगते हैं
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