Thursday, 10 September 2015

बाईस दिन का युद्ध और दशकों लंबा दर्द @विजय क्रांति

1965 में जब पाकिस्तान की सेना ने भारत पर हमला किया, उस वक्त मैं 16 साल का होने जा रहा था। इस उम्र के कच्चे किशोर मन पर कई घटनाएं गहरी खरोंच छोड़ जाती हैं। उस युद्ध ने मेरे जैसे करोड़ों हिंदुस्तानी दिलों के साथ भी कुछ ऐसा ही किया था।

अमेरिका के तेज-तर्रार पैटन टैंक और सैबर जेट विमानों से लैस पाकिस्तानी सेना के दिमाग पर ताकत का नशा पागलपन की हद तक चढ़ा हुआ था। भारतीय सेना के पास सोवियत संघ से मिले दोयम दर्जे के हथियार थे, जो अमेरिकी हथियारों के मुकबले पासंग भी नहीं थे। इसी नशे में धुत्त पाकिस्तान के फौजी शासक फील्ड मार्शल अयूब खां ने घोषणा कर दी थी कि थोड़े दिनों में ही वह विजेता पाकिस्तानी फौज के साथ लाल किले में चाय पिएंगे।

इधर भारत का नेतृत्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री कर रहे थे, जो अपनी शालीनता और सादगी के लिए मशहूर थे। यह वह जमाना था, जब पाकिस्तान अमेरिका की गोद में बैठा हुआ था और रूस के साथ दोस्ती के अपराध में अमेरिका और उसके दोस्त भारत को हर छोटी-बड़ी बात पर सजा देने को उतावले रहते थे। यही दौर था, जब अनाज की कमी और अकाल से पीड़ित भारत अमेरिका के ‘पीएल-480’ कानून के तहत खैरात में मिलने वाले गेहूं पर बुरी तरह आश्रित था।

शुरू-शुरू में तो अमेरिकी टैंक और हवाई जहाजों के बूते पर पाकिस्तान का पलड़ा भारी रहा। लेकिन भारतीय फौजियों के हौसले ने कुछ दिनों में ही लड़ाई का रुख बदल दिया।

लोहे का चलता-फिरता किला माने जाने वाले पैटन टैंकों को भारतीय फौजियों ने पंजाब के खेमकरण सेक्टर में इस कदर बर्बाद किया कि वहां का ‘असल उत्तर’ गांव पैटन टैंक के अंतरराष्ट्रीय कब्रिस्तान के रूप में आज भी मशहूर है। यही हाल भारत के लड़ाका नेट विमानों ने सैबर जेटों का किया। अंतरराष्ट्रीय हथियार बाजार में अपने सबसे मशहूर फौजी साजो-सामान की ऐसी खिल्ली उड़ती देख अमेरिका की सरकार का तिलमिलाना तय था। उधर जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के हाजी पीर दर्रे और टिथवाल पर भारतीय सेना के कब्जे ने भी अयूब खां के होश फाख्ता कर दिए थे।

लाल किले पर चाय पीने का सपना देखने वाले अयूब खां को जब लाहौर भी हाथ से निकलता दिखा, तो वह लगे वाशिंगटन से गुहार लगाने। अमेरिकी राष्ट्रपति ने शास्त्री जी को धमकी दे डाली कि अगर भारत ने पाकिस्तान की पिटाई बंद नहीं की, तो वह ‘पीएल-480’ रोक देंगे। शास्त्री जी को भारतीय सेना की बहादुरी पर तो पूरा भरोसा था, लेकिन गेहूं की कमी से गृहयुद्ध की आशंका बहुत डरावनी थी। अमेरिकी धमकी ने पूरे भारत को अपमान की भट्ठी में झोंक दिया।

पर शास्त्री जी तो शास्त्री ही थे। उन्होंने देशवासियों से अपील की कि अगर वे लोग सप्ताह में केवल एक भोजन छोड़ने का व्रत रखें, तो भारत सरकार इस अमेरिकी धमकी का जवाब देगी और भारतीय सेना पाकिस्तान को धूल चटा देगी। शास्त्री जी की अपील ने जादू का काम किया। व्रत रखने वाले करोड़ों लोगों में मेरे जैसे लाखों किशोर भी थे।

वह युद्ध 22 दिन चला। भारतीय सेना की जोरदार जीत हुई। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव में वार्ता की मेज पर भारत को पाकिस्तान से जीते हुए इलाके वापस करने पर मजबूर होना पड़ा। ताशकंद में हुए उस समझौते के बाद शास्त्री जी को ऐसा सदमा लगा कि वह दिल के दौरे से वहीं स्वर्ग सिधार गए। बाद में हरित क्रांति ने भारत को विदेशी खैरात से मुक्ति दिलाई। निर्यात भी शुरू हुआ और जरूरतमंद देशों को मदद भी दी जाने लगी। इसके बावजूद देश के लाखों लोगों का साप्ताहिक व्रत जारी रहा। उन घायल दिलों में से एक किशोर मन मेरा भी था, जो एक ताकतवर देश की दादागीरी और भारत के अपमान की टीस से मुक्त होने को तैयार नहीं था। यह दर्द अब केवल उस दिन खत्म होने को तैयार था, जब भारत भी अमेरिका को भोजन और आर्थिक मदद की खैरात बांटता।

दोस्तों के बीच मेरा यह ‘पॉलिटिकल व्रत’ अक्सर मजाक का विषय बनता रहा। भला कौन मानने को तैयार था कि कभी ऐसा दिन भी आएगा? यह ‘मजाक’ चालीस साल तक चलता रहा। और मेरा व्रत भी। फिर अचानक सितंबर, 2005 में अमेरिका में कटरीना तूफान के कहर और विनाश लीला की खबर आई। अमेरिका को मदद की जरूरत थी। भारत सरकार ने अमेरिकी सरकार को पांच करोड़ डॉलर नकद और दो हवाई जहाज भरकर भोजन और राहत सामग्री भेजी।

इस खबर ने दिल को दोनों तरफ से छू लिया। एक तरफ हजारों अमेरिका वासियों के प्रति दुख और संवेदना थी, दूसरी ओर एक अपमानित देश के आत्मसम्मान की बहाली की खुशखबरी थी। आखिरकार व्रत तोड़ने का दिन आ गया था। मैंने मंदिर जाकर कटरीना के शिकार अमेरिकियों के लिए प्रार्थना की और भगवान को हिंदुस्तानी होने का गर्व लौटाने के लिए धन्यवाद भी किया। इस गर्व को वापस पाने के लिए 40 साल का उपवास और इंतजार तो बनता ही है न

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