स्थान रक्षा मंत्रालय का कार्यालय. रूम नंबर 108. साउथ ब्लॉक, नई दिल्ली. दिन सितंबर 1, 1965. समय दोपहर 4 बजे.
रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण, एयर मार्शल अर्जन सिंह, रक्षा मंत्रालय में विशेष सचिव एचसी सरीन, एडजुटेंट जनरल लेफ़्टिनेंट जनरल कुमारमंगलम के साथ गहन मंत्रणा में व्यस्त थे.
मुद्दा था छंब सेक्टर में उस दिन सुबह हुआ पाकिस्तानी टैंकों और तोपों का ज़बरदस्त हमला जिसने भारतीय सेना और ख़ुफ़िया एजेंसियों को अचरज में डाल दिया था.
पाकिस्तान का हमला तड़के साढ़े तीन बजे शुरू हुआ था और नौ बजते-बजते छंब उनके क़ब्ज़े में था. एक दिन पहले ही हालात का जायज़ा लेने के लिए थल सेनाध्यक्ष जनरल जेएन चौधरी कश्मीर गए थे. वो उस दिन वहाँ से वापस आने वाले थे.
बैठक शुरू हुए अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि जनरल चौघरी ने कमरे में प्रवेश किया.
उन्होंने एयर मार्शल अर्जन सिंह के साथ कुछ देर दबे शब्दों में बात की और रक्षा मंत्री चव्हाण की तरफ़ देख कर कहा कि उन्हें छंब सेक्टर में वायु सेना के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए. चौधरी ने चव्हाण से ये भी कहा कि उन्हे जवाबी हमला करने के लिए सीमा पार करने की इजाज़त भी दी जाए.
बमबारी का फ़ैसला
चव्हाण कुछ मिनटों तक सोचते रहे जबकि कमरे में मौजूद सभी लोगों की निगाहें उन पर लगी हुई थीं. फिर उन्होंने मुलायम लेकिन दृढ़ आवाज़ में बोलना शुरू किया, "भारत सरकार आपको छंब में वायु सेना के इस्तेमाल की इजाज़त देती है. आप सीमा पर भारतीय सैनिकों के लिए भी सिग्नल जारी करें."
रक्षा सचिव पीवीआर राव ने चव्हाण के मौखिक आदेशों को रिकॉर्ड किया. समय था चार बजकर 45 मिनट. पांच बजकर 19 मिनट पर भारत के वैंपायर विमानों ने छंब पर बमबारी करने के लिए टेक ऑफ़ किया.
कुछ करना होगा
उसी दिन स्थान 10 जनपथ, प्रधानमंत्री का कार्यालय. समय रात के 11 बजकर 45 मिनट. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अचानक अपनी कुर्सी से उठे और अपने दफ़्तर के कमरे के एक छोर से दूसरे छोर तक तेज़ी से चहलक़दमी करने लगे.
शास्त्री के सचिव सीपी श्रीवास्तव ने बाद में अपनी किताब 'ए लाइफ़ ऑफ़ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स' में लिखा, "शास्त्री ऐसा तभी करते थे जब उन्हें कोई बड़ा फ़ैसला लेना होता था. मैंने उनको बुदबुदाते हुए सुना... अब तो कुछ करना ही होगा."
आधी रात के बाद शास्त्री अपने दफ़्तर के बग़ल में अपने निवास स्थान पर कुछ घंटों की नींद लेने पहुंचे. श्रीवास्तव लिखते हैं कि उनके चेहरे को देख कर ऐसा लग रहा था कि उन्होंने कोई बड़ा फ़ैसला कर लिया है.
कुछ दिनों बाद हमें पता चला कि उन्होंने तय किया था कि कश्मीर पर हमले के जवाब में भारतीय सेना लाहौर की तरफ़ मार्च करेगी. लेकिन उस समय तक उन्होंने ये बात किसी से साझा नहीं की. अगले दिन और फिर तीन सितंबर को दोबारा उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और पाकिस्तान पर हमला करने की योजना को अंतिम रूप दिया.
डिसपैच राइडर पकड़ा गया
उधर तीन-चार सितंबर की रात को पाकिस्तान में डिवीज़न हेडक्वार्टर के कर्नल एस.जी. मेंहदी ने मिलिट्री इंटेलिजेंस के मुख्यालय में लेफ़्टिनेंट कर्नल शेर ज़माँ को फ़ोन कर बताया कि उन्होंने भारत के एक डिसपैच राइडर को पकड़ा है जो कि भारत की फ़र्स्ट आर्मर्ड डिवीज़न के लिए एक पत्र ले कर जा रहा था. उसमें बताया गया है कि भारत लाहौर पर हमला करने वाला है जिसे ऑपरेशन नेपाल का नाम दिया गया है.
पाकिस्तान ने इस लीड को गंभीरता से नहीं लिया. उन्हें लगा कि भारत ने जानबूझ कर उन्हें गुमराह करने के लिए डिसपैच राइडर को पकड़वाने का नाटक रचा था. उस समय पाकिस्तान के मिलिट्री ऑपरेशन के महानिदेशक लेफ़्टिनेंट जनरल गुल हसन खाँ अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्हें याद है कि उन्होंने चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल शेर बहादुर को इस बारे में बात कर सुझाव दिया था कि पाकिस्तान अपनी सेना को सीमा पर रक्षात्मक पोज़ीशन पर ले आए.
शेर बहादुर ऐसा करने में झिझक रहे थे क्योंकि पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने ताकीद कर रखी थी कि भारत को किसी भी हालत में भड़कने का मौक़ा न दिया जाए. पाकिस्तान के थल सेनाध्यक्ष जनरल मूसा उस दिन छंब का दौरा कर रहे थे और देर रात तक वापस नहीं लौटे थे.
जनरल मूसा और मेलविल डिमैलो
चार सितंबर की शाम जनरल हेडक्वार्टर के ऑपरेशन रूम में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल मूसा आकाशवाणी का बुलेटिन सुन रहे थे. उद्घोषक मेलविल डिमैलो ने श्रोताओं का आगाह किया कि एक महत्वपूर्ण फ़्लैश के लिए तैयार रहिए. उन्होंने घोषणा की, प्रधानमंत्री ने लोकसभा को सूचित किया है कि पाकिस्तानी सेना ने सियालकोट सेक्टर से जम्मू की तरफ़ बढ़ना शुरू कर दिया है.
जनरल मूसा और डिमैलो बैच मेट थे और दोनों को साथ साथ देहरादून में इंडियन मिलिट्री अकादमी में कमीशन मिला था. बाद में डिमैलो सेना छोड़ कर आकाशवाणी चले गए थे. पाकिस्तानी सेना के बढ़ने की ख़बर पूरी तरह से ग़लत थी. मूसा ताज़ा हवा लेने के लिए ऑपरेशन रूम से बाहर आए. उन्हें डिमैलो के ग़लत ख़बर देने और बोलने के अंदाज़ से लगा कि भारत कुछ बहुत बड़ा करने जा रहा है.
ऑपरेशन बैंगिल
पहले तय हुआ कि एच आवर यानि हमला करने का समय सात सितंबर को सुबह चार बजे होगा. लेकिन पश्चिम क्षेत्र के कमांडर-इन-चीफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल हरबख़्श सिंह ने 24 घंटे पहले यानि छह सितंबर को आगे बढ़ने का फ़ैसला किया. इस पूरे ऑप्रेशन का कोड वर्ड था ‘बैंगिल.’ सेना मुख्यालय से एक और कोडवर्ड भेजा गया ‘बैनर’. इस का अर्थ था कि इस अभियान को नियत समय पर शुरू किया जाए.
पाकिस्तान को इसकी भनक न लगे ये सुनिश्चित करने के लिए जनरल हरबख़्श सिंह जानबूझ कर शिमला में एक पूर्व निर्धारित दोपहर भोज में शामिल हुए. भोज ख़त्म होते ही एक हेलिकॉप्टर उन्हें दोबारा सीमा पर ले आया. वो पहले अमृतसर में रुके और उन्होंने पूरे शहर में कर्फ़्यू लगाने का आदेश दिया. निर्धारित समय पर भारत ने चार जगहों से पाकिस्तानी सीमा के अंदर प्रवेश किया और कुछ ही घंटों में डोगराई के उत्तर में भसीन, दोगाइच और वाहग्रियान पर क़ब्ज़ा कर लिया.
मेजर जनरल निरंजन प्रसाद की 15 डिवीज़न ने तो इच्छोगिल नहर पार कर ली और उनके कुछ सैनिक बाटापुर पहुंच गए जहाँ जूते बनाने वाली कंपनी बाटा की एक फ़ैक्ट्री थी. वहाँ से जो तस्वीरें भेजी गईं, उसके आधार पर बीबीसी ने भी ग़लत ख़बर प्रसारित की कि भारतीय सेना लाहौर में घुस चुकी है.
अयूब की डांट
पाकिस्तान के राष्ट्रपति फ़ील्ड मार्शल अयूब ख़ाँ को इस हमले की सूचना रावलपिंडी में एयर डिफ़ेंस हेडक्वार्टर में तैनात एयर कोमॉडोर अख़्तर ने दी. अयूब ने इसकी उम्मीद नहीं की थी. उन्होंने आईएसआई के प्रमुख ब्रिगेडियर रियाज़ हुसैन को फ़ोन मिलाया. रियाज़ को तब तक भनक भी नहीं थी कि भारतीय सेना पाकिस्तान में घुस चुकी है.
अयूब उन पर चिल्ला पड़े, "भारत की पहली आर्मर्ड डिवीज़न भूसे में सुई की तरह नहीं है कि आप को पता ही न चल सके कि वो इस समय कहाँ है?"
ब्रिगेडियर रियाज़ ने कांपती हुई आवाज़ में जवाब दिया, "सर हमें दोष मत दीजिए. जून 1964 से ही मिलिट्री इंटेलिजेंस को सिर्फ़ राजनीतिक ज़िम्मेदारियाँ दी जा रही है." विदेश मंत्री भुट्टो और विदेश सचिव अज़ीज़ अहमद पहले दिन से अयूब को आश्वस्त कर रहे थे कि भारत पंजाब पर आक्रमण नहीं करेगा.
नौ बजे पाकिस्तानी सेना के चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टॉफ़ ने जनरल हेडक्वार्टर को सूचित किया कि भारत ने लाहौर और सियालकोट पर हमला बोल दिया है. उनके आख़िरी शब्द थे, "जो कुछ भी हमारे पास है वो शो विंडो में ही है. इसके अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं है. गुड लक."
मेजर अज़ीज़ भट्टी की बहादुरी
ये वाक़्या पाकिस्तान की असली सैनिक स्थिति को रेखाँकित करता था, हांलाकि उसके पास आला दर्जे के अमरीकी हथियार थे. पाकिस्तान के नेतृत्व की फ़ैसले लेने की क्षमता पर कई सवाल उठाए गए.
अगले 22 दिनों में हुई बड़ी लड़ाइयों में दोनों देशों के निचले स्तर के अफ़सरों और सैनिकों ने शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन कमान के स्तर पर दोनों तरफ़ से कई बड़ी ग़लतियाँ हुईं.
बर्की के मोर्चे पर पाकिस्तान के मेजर अज़ीज़ भट्टी ने पांच दिनों तक भारतीय सैनिकों की ज़बर्दस्त गोलाबारी का मुक़ाबला किया. इस दौरान वो हमेशा सबसे आगे रहे और आख़िर में एक भारतीय टैंक के गोले का शिकार हुए. उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार निशान-ए हैदर-दिया गया.
उस लड़ाई में भारत की ओर से लड़ने वाले ब्रिगेडियर कंवलजीत सिंह कहते हैं, "पाकिस्तान के सैनिक जिस तरह हमारे ऊपर इतना एक्युरेट फ़ायर कर रहे थे, उससे साफ़ लगता था कि उनका अफ़सर किस स्तर का आर्टलरी अफ़सर होगा. भट्टी को ये श्रेय जाता है कि उन्होंने इतनी देर तक और इतने अच्छे तरीक़े से मोर्चा संभाला."
सेल्यूट न कर पाने पर आँसू
उसी तरह भारत की तरफ़ से 4-हॉर्स के मेजर भूपेंदर सिंह ने फ़िलौरा की लड़ाई में अदम्य बहादुरी का परिचय दिया. उन्होंने कई पाकिस्तानी टैंक बरबाद किए. उनके टैंक पर पाकिस्तानियों ने कोबरा मिसाइल से हमला किया. उससे इतनी गर्मी पैदा हुई कि भूपेंदर सिंह का कड़ा गल कर उनकी खाल में घुस गया.
उनके बदन के सारे कपड़े और उनकी पूरी खाल बुरी तरह से जल गई. उनको इलाज के लिए दिल्ली के बेस हॉस्पिटल लाया गया. वो इस बुरी तरह जले हुए थे कि उनके ज़ख्मों पर पट्टी तक नहीं लगाई जा सकती थी. इसी दौरान प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री उनसे मिलने गए. जब वो उनके सामने पहुंचे तो मेजर भूपेंदर की आँखों से आँसू निकल आए.
शास्त्री ने उनसे कहा, "आप इतनी बहादुर सेना के इतने बहादुर सिपाही है. आप की आँखों पर आँसू शोभा नहीं देते." मेजर भूपेंदर ने कहा, "मैं इसलिए नहीं रो रहा हूँ कि मुझे दर्द है. मैं इस लिए रो रहा हूँ कि एक सिपाही खड़े हो कर अपने प्रधानमंत्री को सेल्यूट नहीं कर पा रहा है." मेजर भूपेंदर को बचाया नहीं जा सका लेकिन उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया.
अयूब का टेक ऑफ़, भारत का हमला
लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री ने बीबीसी को बताया कि लड़ाई के दौरान प्रधानमंत्री निवास स्थान 10 जनपथ पर उनके परिवार की सुरक्षा के लिए एक बंकर बनाया गया था. दिन में कम से कम एक बार वहाँ पूरा शास्त्री परिवार इकट्ठा होता था.
वैसे सुरक्षा के लिहाज़ से शास्त्री जी का पूरा परिवार ज़्यादातर राष्ट्रपति भवन में सोने जाया करता था. ऐसा तत्कालीन राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन के ख़ास अनुरोध पर किया गया था क्योंकि राधाकृष्णन का मानना था कि राष्ट्रपति भवन की दीवारें कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं.
उधर फ़ील्ड मार्शल अयूब खाँ अपने शयन कक्ष में जब तक मौजूद रहते वहाँ हरी बत्ती जलती रहती. 19 सितंबर को उन्होंने विदेश मंत्री भुट्टो के साथ गुप्त रूप से चीनी नेताओं से बात करने के लिए चीन जाने का फ़ैसला किया. उनके बेडरूम की हरी बत्ती जलते रहने दी गई ताकि पूरी दुनिया को ये आभास रहे कि वो रावलपिंडी में हैं. यहाँ तक कि उनका स्टाफ़ रोज़मर्रा की तरह उनके बेडरूम में बेड टी पहुंचाता रहा.
यात्रा को गुप्त रखने के लिए उन्होंने रावलपिंडी के बजाए पेशावर से बीजिंग के लिए उड़ान भरने का फ़ैसला किया. जब उनका जहाज़ टेक ऑफ़ कर ही रहा था कि भारतीय युद्धक विमानों ने पेशावर हवाई अड्डे पर हमला बोल दिया. टेक आफ़ रोका गया लेकिन जहाज़ के इंजिन को बंद नहीं किया गया. जैसे ही भारतीय विमान हमला करके वापस अपने देश के लिए उड़े, अयूब खाँ के विमान ने बीजिंग के लिए उड़ान भरी.
लड़ाई जारी रखने की झिझक
बाइस दिनों तक चलने वाली इस लड़ाई में भारत के क़रीब 3,000 और पाकिस्तान के क़रीब 3,800 सैनिक मारे गए. टाइम पत्रिका ने लिखा कि युद्ध विराम के समय भारत के पास पाकिस्तान का 690 वर्ग मील क्षेत्र था जबकि पाकिस्तान ने भारत के 250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर क़ब्ज़े का दावा किया था. दोनों देशों ने जीत का दावा किया लेकिन वास्तव में दोनों ही देश अपने सैनिक उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहे.
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी से पूछा, "अगर लड़ाई को कुछ दिनों तक और जारी रखा जाए तो क्या भारत की जीत हो सकती है."
जनरल ने जवाब दिया कि भारत के सभी मुख्य हथियार इस्तेमाल हो चुके हैं और बहुत से टैंक भी बरबाद हुए हैं. लेकिन वास्तव में 22 सितंबर तक भारत ने सिर्फ़ 14 फ़ीसदी असलहे का इस्तेमाल किया था.
दूसरी तरफ़ जब अयूब ने यही सवाल अपने जनरलों से पूछा तो जनरल मूसा और एयर मार्शल नूर ख़ाँ दोनों ने लड़ाई को जारी रखने के ख़िलाफ़ सलाह दी. अयूब इस युद्ध से इतने हतोत्साहित हुए कि उन्होंने एक मंत्रिमंडल की बैठक में कहा, "मैं चाहता हूँ कि यह समझ लिया जाए कि पाकिस्तान 50 लाख कश्मीरियों के लिए 10 करोड़ पाकिस्तानियों की ज़िंदगी कभी नहीं ख़तरे में डालेगा...कभी नहीं.
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