महात्मा गांधी को उपनिवेश विरोधी, धार्मिक चिंतक, व्यावहारिक और विलक्षण प्रतिभा वाले व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जिन्होंने अहिंसा को उद्देश्य प्राप्ति के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था.
उन्हें एक चतुर राजनेता और पितृसत्तात्मक हिंदू समाज में यक़ीन रखनेवाले 'सनकी' के तौर पर भी देखा जाता है.
गांधी नस्लवादी थे?
लेकिन क्या भारत के सबसे बड़े नेता नस्लवादी भी थे?
दक्षिण अफ़्रीका में महात्मा गांधी के बिताए हुए दिनों और वहां उनके कामोंं पर किताब लिखने वाले एक लेखक का तो कम से कम यही मानना है.
दक्षिण अफ़्रीकी विद्वान अश्विन देसाई और ग़ुलाम वाहिद ने 1893 से 1913 तक यानी लगभग बीस साल तक अपने देश में रहने वाले इस शख़्स की जटिल ज़िंदगी की पड़ताल की है.
गांधी ने वहां भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी.
देसाई और ग़ुलाम ने अपनी किताब 'द साउथ अफ़्रीकन गांधी: स्ट्रेचर बीयरर ऑफ़ इंपायर' में लिखा है कि गांधी ने अपने दक्षिण अफ़्रीका प्रवास के दौरान 'भारतीयों के संघर्ष को अफ़्रीकियों और दूसरे काले लोगों के संघर्ष से अलग रखा. हालांकि रंग भेद के चलते उन्हें भी राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया था और वे भी ब्रिटेन की प्रजा होने का दावा कर सकते थे.'
दोनों लेखक कहते हैं कि ग़ैर बराबरी के क़ानून ख़त्म करने या मुक्त व्यापार के लिए गांधी ने जो रणनीति बनाई थी, उसने एक अलग भारतीय पहचान की स्थापना की.
उनके अनुसार इस वजह से वो भारतीयों के मुद्दों को अफ़्रीकियों से अलग कर उठा पाए और शुरूआती दिनों में गांधी का रवैया भी गोरों की तरह ही था.
'काफ़िर'
लेखकों का कहना है कि गांधी ठेके के मज़दूरों के बुरे हालात की अनदेखी करते रहे.
लेखकों के अनुसार गांधी का ये ख़्याल था कि सत्ता गोरों के हाथों में रहे और गांधी ने अपने प्रवास के दिनों के लंबे हिस्से में कालों को 'काफ़िर'-एक अपमानसूचक शब्द कहा.
महात्मा गांधी ने 1893 में नताल की संसद को लिखा था कि 'इस उपनिवेश में ये आम धारणा है कि अफ़्रीका के मूल निवासियों से भारतीय कुछ बेहतर हैं.'
उन्होंने 1904 में जोहानिसबर्ग के स्वास्थ्य अधिकारी को लिखा कि 'परिषद काफ़िरों को 'कुली लोकेशन' झुग्गी से बाहर निकालें' जहां अफ़्रीकी मूल के लोग बड़ी तादाद में भारतीयों के साथ रहते हैं.
उन्होंने लिखा, 'मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं काफ़िरों और भारतीयों के मेल जोल को पसंद नहीं करता.'
गांधी ने इसी साल लिखा कि अफ़्रीकियों की तरह भारतीय 'युद्ध नृत्य नहीं करते, न ही वे काफ़िर बीयर पीते हैं.'
हैशटैग 'गांधीमस्टफॉल'
साल 1905 में जब डर्बन में प्लेग फैला, तो गांधी ने लिखा कि 'यह समस्या तब तक बरक़रार रहेगी जब तक अस्पतालों में भारतीयों और अफ़्रीकियों को अंधाधुंध साथ रखा जाएगा.
इतिहासकारों का मानना है कि यह अपने आप में कोई नई बात नहीं है. और दक्षिण अफ़्रीका के कुछ लोग हमेशा ये आरोप लगाते रहे हैं कि जिस आदमी ने भारत को आज़ादी दिलाई वो अंग्रेज़ों के साथ मिल कर नस्लभेद को बढ़ावा देता रहा.
इस साल अप्रैल में दक्षिण अफ़्रीका में गांधी की प्रतिमा को तोड़ने फोड़ने के आरोप में एक आदमी गिरफ़्तार किया गया था. सोशल मीडिया पर हैशटैग 'गांधीमस्टफॉल' काफ़ी चला था.
'गांधी भी मनुष्य थे'
गांधी के जीवनीकार और उनके पोते राजमोहन गांधी जब अफ़्रीक़ा पहुंचे तो वो 24 साल के थे और दक्षिण अफ़्रीका के कालों को लेकर वो 'कई बार दंभ और पूर्वाग्रहों से भरे हुए थे.'
वो मानते हैं कि दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए चलाए गए संघर्ष से कालों के अधिकारों की लड़ाई का रास्ता खुला. वे तर्क देते हैं कि 'गांधी भी दूसरे मनुष्यों की तरह पूर्ण नहीं थे.'
राजमोहन गांधी के अनुसार 'एक अपूर्ण गांधी उस समय के ज़्यादातर हमवतनों से अधिक प्रगतिशील और सुधारवादी थे.'
बहुत शोध पर आधारत किताब 'गांधी बिफ़ोर इंडिया' के लेखक रामचंद्र गुहा का मानना है कि 20वीं सदी के शुरुआती दिनों में दक्षिण अफ़्रीका में काले लोगों की बराबरी की बात करना समय से पहले की बात होती.
एक दूसरे टिप्पणीकार ने लिखा कि गांधी पर नस्लभेद का आरोप लगाना जीवन की जटिलता को निहायत सीधे तौर पर देखने जैसा है.
आर्यों का भाईचारा
पर नई किताब के लेखक इससे असहमत हैं.
देसाई ने मुझसे कहा, ''गांधी आर्यों के भाईचारे में यक़ीन करते थे. यह विचार सभ्यता के मामले में गोरों और भारतीयों को अफ़्रीकियों से ऊपर मानता था. गांधी इस मामले में नस्लीय भेद भाव मानने वाले थे. और अफ़्रीकियों की अधीनता में गोरों के साथ होने की वजह से वे नस्लवादी थे.''
देसाई आगे कहते हैं, "गांधी इस मामले में नस्लवादी थे कि वो अल्पसंख्यक अंग्रेज़ों के जूनियर पार्टनर का रोल स्वीकार करने को तैयार थे. शुक्र है कि वो इसमें कामयाब नहीं हुए वर्ना रंगभेद के ज़ुल्म के लिए हम ज़िम्मेदार होते.''
अफ़्रीकी प्रतिरोध
वे कहते हैं, "पर यदि गांधी अपने समय के नस्लवादी विचार के साथ थे, तो उन्हें कैसे दक्षिण अफ़्रीका की आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोगों में शुमार किया गया?"
वे आगे कहते हैं, "आप गांधी को दक्षिण अफ़्रीका में लोगों को कुचलने वाले उपनिवेशकों का साथ देने वाला कहें और उसी देश की स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी भूमिका के लिए उनका बचाव भी करें, यह नहीं हो सकता."
देसाई इससे भी इंकार करते हैं कि गांधी ने कालों के हक़ की लड़ाई का रास्ता साफ़ किया. वे कहते हैं, "एक वाक्य में कहूं तो ऐसा कह कर आप गांधी के दक्षिण अफ़्रीका पंहुचने के बहुत पहले शुरू हुए उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अफ़्रीकी प्रतिरोध को ख़ारिज कर रहे हैं."
राम गुहा अपनी किताब में लिखते हैं कि केप टाउन के उनके एक दोस्त ने उनसे कहा, "आपने हमें एक वकील दिया, हमने आपको महात्मा लौटाया.''
अत्याचारों की अनदेखी
देसाई का मानना है कि यह हास्यास्पद है. गांधी वैसे व्यक्ति थे, "जिन्होंने ग़रीब अफ़्रीकियों पर और अधिक टैक्स लगाने का समर्थन किया और उनके ऊपर हो रहे अत्याचार को अनदेखा किया था."
ये दोनों लेखक गांधी पर भारतीय इतिहास लेखन को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं. इतिहासकार पैट्रिक फ़्रेंच ने 2013 में लिखा था, "अफ़्रीकियों को नज़रअंदाज़ करने वाले गांधी के विचार संत बनाने वाले उनसे जुड़ मिथकों के बीच एक ब्लैक होल की तरह हैं."
दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने के तक़रीबन सौ साल बाद वहां गांधी पर एक बार फिर से विचार शुरू हुआ है. 'साम्राज्य के इस आदमी' के प्रति विरोधों के बावजूद देसाई और वाहिद मानते हैं कि गांधी ने 'बराबरी और सम्मान के लिए वैश्विक मांग' उठाई थी.
लेकिन महान लोगों में भी किसी न किसी तरह की कमी पाई जाती है. और शायद गांधी इस मामले में अलग नहीं थे.
No comments:
Post a Comment