Thursday, 10 September 2015

शासकों के नाम पर सड़कें क्यों? @रामचंद्र गुहा

कुछ साल पहले मुझे अरुणाचल प्रदेश की राजधानी इटानगर स्थित 'राजीव गांधी यूनिवर्सिटी" में बोलने का अवसर मिला था। व्याख्यान के अगले दिन मुझे इटानगर की सैर कराई गई और वहां के दर्शनीय स्थान दिखाए गए। वहां के दर्शनीय स्थानों में प्रमुख थे : 'जवाहरलाल नेहरू स्टेट पार्क" और 'इंदिरा गांधी स्टेट म्यूजियम!"
हाल ही में जब मैंने पढ़ा कि नई दिल्ली स्थित औरंगजेब रोड का नाम बदलकर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रखा जा रहा है तो मुझे अपनी इटानगर यात्रा की याद हो आई। सोशल मीडिया सहित सार्वजनिक विमर्श के अन्य उपायों में सरकार के इस कदम का खूब गर्मजोशी से स्वागत किया जा रहा था। इस उत्साह का एक कारण तो यही था कि भारत में अब्दुल कलाम का नाम बेहद आदर के साथ लिया जाता है। कुछ अर्थों में इसका एक अन्य कारण मुगल शासक औरंगजेब के प्रति सामान्यत: प्रदर्शित की जाने वाली घृणा थी। वहीं कुछ को शायद यह देखकर राहत मिली हो कि नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के नाम पर सड़कों, हवाई अड्डों, पार्कों और म्यूजियमों का नामकरण करने की परंपरा अब खत्म हो रही है।
इसी के साथ ये सुझाव भी दिए जाने लगे कि इस परिपाटी को कायम रखा जाए। वे नाम सुझाए जाने लगे, जिनके आधार पर इस तरह से सड़कों आदि का नामकरण किया जा सकता है। बेंगलुरु स्थित उद्यमी मोहनदास पै ने ट्वीट किया कि हमारी रक्षा के लिए लड़ाई लड़ने वाले छत्रपति शिवाजी, रंजीत सिंह और महाराणा प्रताप के नाम पर नई दिल्ली में सड़कें और इमारतें क्यों नहीं हो सकतीं? इस ट्वीट को बहुत सराहना मिली और कइयों ने इसे शेयर किया। इससे यह संकेत मिला कि अनेक मध्यवर्गीय भारतीय भी यही चाहते हैं कि नई दिल्ली की सड़कों का नामकरण इन शासकों के नाम पर किया जाए। अभी दिल्ली की प्रमुख सड़कों का नामकरण हुमायूं, बाबर, अकबर आदि के नाम पर किया गया है।
मैं मोहनदास पै को जानता हूं और उनकी सराहना करता हूं। उनमें जनकल्याण और परोपकार की भावना बहुत सघन है और उन्होंने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा गरीबी उन्मूलन पर केंद्रित समाज-कल्याण की योजनाओं के लिए समर्पित कर दिया है। लेकिन ताजा मामले में यह जरूर कहना होगा कि उनका उत्साह उनकी ऐतिहासिक समझ पर हावी हो गया है।
नई दिल्ली की सड़कों का नामकरण शिवाजी, राणा प्रताप और रंजीत सिंह के नाम पर करना तीन कारणों से अनुचित होगा। पहला कारण तो यही कि इससे बहुसंख्यकवाद की उस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, जो कि दिन-ब-दिन हमारे समाज में गहराई से पैठती जा रही है। यह बहुसंख्यकवाद एक समुदाय के बरक्स दूसरे समुदाय को श्रेष्ठ बताने की चेष्टा करता है। अलबत्ता पै महोदय स्वयं सांप्रदायिक सोच वाले व्यक्ति नहीं हैं, लेकिन उनसे प्रेरित होकर ऐसी मांग करने वाले दूसरों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
दूसरा अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि शिवाजी, राणा प्रताप और रंजीत सिंह मूलत: क्षेत्रीय नायक थे। यह कहना इतिहास की एक गलत व्याख्या करना होगा कि उन्होंने 'हमारी" रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी थी। पै महोदय का गृहनगर मैंगलोर है, मेरा गृहनगर देहरादून है। शिवाजी और राणा प्रताप के शासनकाल और संघर्षकाल के दौरान कोंकण समुद्रतट और दून घाटी के बाशिंदे उनसे अनजान थे। उदयपुर में जरूर महाराणा प्रताप के नाम पर एक पार्क है। और मुंबई में तो एक हवाई अड्डे, एक रेलवे टर्मिनस, एक म्यूजियम सहित बहुत कुछ का नामकरण शिवाजी के नाम पर किया गया है। क्षेत्रीय संदर्भों में राजपूत और मराठा अस्मिता की अभिव्यक्ति भले तर्कसंगत हो, लेकिन भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश की राजधानी में क्षेत्रीय अस्मिताओं की ज्यादा अहमियत नहीं होती। तीसरा और सबसे प्रमुख कारण यह है कि ये सभी सामंतवाद के युग के शासक थे और राजधानी की सड़कों का नामकरण उनके नाम पर किए जाने से बचना चाहिए। मुगलों की तरह हिंदू-सिख शासक भी जातिगत ऊंच-नीच की भावना से ग्रस्त थे और मुगलों की तरह उनके राज में भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति दोयम दर्जे की थी।
अंग्रेजों ने जब नई दिल्ली बसाई थी तो उन्होंने खुद को अतीत के राष्ट्रव्यापी प्रसार वाले शासकों व साम्राज्यवादियों का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना था। यही कारण था कि दिल्ली की सड़कों का नामकरण उन्होंने अकबर और औरंगजेब जैसे मुगल शासकों के साथ ही सम्राट अशोक के नाम पर भी किया। हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान के नाम पर भी लुटियंस दिल्ली में एक सड़क है। लेकिन जो लोग दिल्ली की सड़कों का नामकरण मध्यकाल के शासकों (फिर चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम) के नाम पर करने की मांग करते हैं, वे जाने-अनजाने ब्रिटिश राज के साम्राज्यवादी और गैर-लोकतांत्रिक आग्रहों का समर्थन करते हैं। क्योंकि सच्चाई तो यही है कि गत छह दशकों से भी अधिक समय से भारत एक गणतांत्रिक राष्ट्र रहा है और ऐसे में मध्यकालीन सामंतों और शासकों के प्रति सराहना का भाव रखना भारतीय संविधान के मूल्यों और भावना के अनुरूप नहीं होगा।
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। जिस तरह से वे देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचे, वह केवल स्वातंत्र्योत्तर भारत में ही संभव हो सकता था। कलाम सही मायनों में एक गणतांत्रिक नायक थे। उनके जैसे ही और भी कई ऐसे नायक हैं, जिनके नाम पर राजधानी की सड़कों और इमारतों का नाम रखकर उन्हें आदरांजलि अर्पित की जा सकती है।
आखिर आधुनिक भारत के महानतम वैज्ञानिक सीवी रमन के नाम पर दिल्ली में एक सड़क क्यों नहीं होनी चाहिए? भारत की सर्वाधिक विलक्षण आधुनिक महिलाओं में से एक कमलादेवी चट्टोपाध्याय को इस तरह से सम्मानित क्यों नहीं किया जाना चाहिए, जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन, रिफ्यूजियों के पुनर्वास से लेकर हस्तकौशल के पुनरुत्थान सहित कई चीजों में अग्रणी भूमिका निभाई थी? सत्यजित राय जैसे महान फिल्मकार, बिस्मिल्ला खां जैसे महान संगीतकार, नंदलाल बोस जैसे महान कलाकार के नाम पर दिल्ली में सड़कें क्यों नहीं होनी चाहिए?
औरंगजेब रोड का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रखने का निर्णय तो खैर ऐसी कोई बहस शुरू होने से पहले ही लिया जा चुका था, लेकिन अब सवाल उठता है कि हम आगे कर सकते हैं? हम नामकरण की प्रवृत्ति को लेकर आगे बढ़ने का भी चयन कर सकते हैं और पीछे हटने का भी। जो भी हो, हमें यह निर्णय विवेकपूर्वक ही करना चाहिए

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