फैजाबाद के जिन गुमनामी बाबा को उनके समर्थक नेताजी सुभाष चंद्र बोस साबित करने पर तुले हैं, उनका पूरा रहस्य अब भी पूरी तरह सामने नहीं आ सका है, हालांकि उनकी मृत्यु को 30 साल बीत चुके हैं। उनकी कोई प्रमाणित फोटो तक उपलब्ध नहीं है, जिससे उनकी पहचान स्थापित करने में मदद मिल सके। एक दाढ़ी वाला स्केच अवश्य प्रचारित किया जा रहा है, पर वह भी उसे बनाने वाले कलाकार की कल्पना पर आधारित और प्रायोजित बताया जाता है। गुमनामी बाबा किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। यहां तक कि जिन्हें उनका निकटस्थ बताया जाता है, उनके बीच भी वे पर्दे की दीवार गिरने नहीं देते थे।
कहते हैं कि गुमनामी बाबा के पास कई बक्सों में भरी हुई नेताजी से संबंधित अनेक वस्तुएं, साहित्य और उपयोगी सामग्री थी। बाबा और नेताजी के हस्ताक्षरों को मिलान के लिए जिन तीन जगहों पर भेजा गया था, उनमें से दो की टिप्पणियां प्रतिकूल हैं। बाबा के पास यह सामग्री कब, कहां और कैसे आई? यह उनकी संग्रहशीलता का परिचायक थी या असंदिग्ध साक्ष्य का?
दरअसल जिसे हम नेताजी के रूप में जानते हैं, वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान हथेली पर रखकर घूमता था। स्वतंत्रता के बाद भी देश में आईएनए के प्रति घृणा और द्वेष की भावना नहीं रही। सरकार की ओर से भी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान दिया गया। उनके जो साथी देश में वापस आए, उन्हें जीवन भर सम्मान ही मिलता रहा।
गुमनामी बाबा को नेता जी मानने के लिए हम इसलिए तैयार नहीं है कि वह लुक-छिपकर जीवन जी रहे थे और असलियत प्रकट होने से घबराते थे, जो नेता जी की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाता। जो लोग नेताजी के जन्म दिवस पर पश्चिम बंगाल के कुछ लोगों के बाबा के पास आने का प्रचार करते हैं, उनमें से किसी ने भी बाबा की मृत्यु की सूचनाओं के बाद भी इस बाबत जानने की आवश्यकता नहीं समझी। नेता जी के घर-परिवार, इष्ट मित्रों, सहयोगियों एवं उनके ही नाम पर फॉरवर्ड ब्लाक जैसा संगठन चलाने वाले किसी व्यक्ति ने उन्हें नेता जी के रूप में स्वीकार नहीं किया। केवल ललिता बोस ही प्रतिकूल दृष्टिकोण वाली थीं। उन्होंने उच्च न्यायालय तक यह प्रसंग उठाया, लेकिन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाईं।
अब सवाल उठता है कि नेता जी के प्राकट्य में बाधा क्या थी। तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजों के ट्रांसफर ऑफ पावर ऐक्ट में उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंपने का प्राधिकार था। लेकिन भारत में क्या किसी नेता की यह हैसियत थी कि वह आजादी के बाद नेताजी को ब्रिटिश सरकार के हाथों में सौंप सकता? यदि वह अनुबंध था, तो किनके बीच था और अब तक उजागर क्यों नहीं हुआ? भारत में भी इस बीच कई राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं और वे सभी नेताजी के विरोधी नहीं कहे जा सकते। उस समय उनकी असलियत क्यों नहीं खुली, जब 1977 में केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी? बाद में भी भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी छह वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। इस समय भी भाजपा के नरेंद्र मोदी शक्तिशाली और ऊर्जावान प्रधानमंत्री के रूप में विद्यमान हैं। ये सारी सरकारें किन कारणों से नेताजी से जुड़े तथ्यों को, यदि वे हैं, तो उन्हें छिपाने में दिलचस्पी रखती हैं?
नेताजी के संबंध में जानकारियां प्राप्त करना जनता का अधिकार है। इस संबंध में सारी जांचें चूंकि केंद्र सरकार ने कराई थीं, इसलिए यदि कोई विपरीत जानकारी उपलब्ध हो, तो उसे पेश करना सरकार की जिम्मेदारी है। पर जब नेताजी को गुमनामी बाबा से जोड़ा जाता है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या दोनों के स्वभाव में किसी प्रकार की समानता थी? क्या गुमनामी बाबा की असलियत न मालूम होना ही उनके नेताजी होने का पूर्ण प्रमाण है? गुमनामी बाबा को जिन कारणों से हम नेताजी मानने से हिचकते हैं, उनमें सबसे बड़ा तो यही है कि गिरफ्तारी के डर से छिपने वाले को हम साहसी नहीं मानते, और किसी भयभीत व्यक्ति को नेताजी कहना, उसका कम, नेताजी का अपमान ज्यादा है
कहते हैं कि गुमनामी बाबा के पास कई बक्सों में भरी हुई नेताजी से संबंधित अनेक वस्तुएं, साहित्य और उपयोगी सामग्री थी। बाबा और नेताजी के हस्ताक्षरों को मिलान के लिए जिन तीन जगहों पर भेजा गया था, उनमें से दो की टिप्पणियां प्रतिकूल हैं। बाबा के पास यह सामग्री कब, कहां और कैसे आई? यह उनकी संग्रहशीलता का परिचायक थी या असंदिग्ध साक्ष्य का?
दरअसल जिसे हम नेताजी के रूप में जानते हैं, वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान हथेली पर रखकर घूमता था। स्वतंत्रता के बाद भी देश में आईएनए के प्रति घृणा और द्वेष की भावना नहीं रही। सरकार की ओर से भी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान दिया गया। उनके जो साथी देश में वापस आए, उन्हें जीवन भर सम्मान ही मिलता रहा।
गुमनामी बाबा को नेता जी मानने के लिए हम इसलिए तैयार नहीं है कि वह लुक-छिपकर जीवन जी रहे थे और असलियत प्रकट होने से घबराते थे, जो नेता जी की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाता। जो लोग नेताजी के जन्म दिवस पर पश्चिम बंगाल के कुछ लोगों के बाबा के पास आने का प्रचार करते हैं, उनमें से किसी ने भी बाबा की मृत्यु की सूचनाओं के बाद भी इस बाबत जानने की आवश्यकता नहीं समझी। नेता जी के घर-परिवार, इष्ट मित्रों, सहयोगियों एवं उनके ही नाम पर फॉरवर्ड ब्लाक जैसा संगठन चलाने वाले किसी व्यक्ति ने उन्हें नेता जी के रूप में स्वीकार नहीं किया। केवल ललिता बोस ही प्रतिकूल दृष्टिकोण वाली थीं। उन्होंने उच्च न्यायालय तक यह प्रसंग उठाया, लेकिन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाईं।
अब सवाल उठता है कि नेता जी के प्राकट्य में बाधा क्या थी। तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजों के ट्रांसफर ऑफ पावर ऐक्ट में उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंपने का प्राधिकार था। लेकिन भारत में क्या किसी नेता की यह हैसियत थी कि वह आजादी के बाद नेताजी को ब्रिटिश सरकार के हाथों में सौंप सकता? यदि वह अनुबंध था, तो किनके बीच था और अब तक उजागर क्यों नहीं हुआ? भारत में भी इस बीच कई राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं और वे सभी नेताजी के विरोधी नहीं कहे जा सकते। उस समय उनकी असलियत क्यों नहीं खुली, जब 1977 में केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी? बाद में भी भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी छह वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। इस समय भी भाजपा के नरेंद्र मोदी शक्तिशाली और ऊर्जावान प्रधानमंत्री के रूप में विद्यमान हैं। ये सारी सरकारें किन कारणों से नेताजी से जुड़े तथ्यों को, यदि वे हैं, तो उन्हें छिपाने में दिलचस्पी रखती हैं?
नेताजी के संबंध में जानकारियां प्राप्त करना जनता का अधिकार है। इस संबंध में सारी जांचें चूंकि केंद्र सरकार ने कराई थीं, इसलिए यदि कोई विपरीत जानकारी उपलब्ध हो, तो उसे पेश करना सरकार की जिम्मेदारी है। पर जब नेताजी को गुमनामी बाबा से जोड़ा जाता है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या दोनों के स्वभाव में किसी प्रकार की समानता थी? क्या गुमनामी बाबा की असलियत न मालूम होना ही उनके नेताजी होने का पूर्ण प्रमाण है? गुमनामी बाबा को जिन कारणों से हम नेताजी मानने से हिचकते हैं, उनमें सबसे बड़ा तो यही है कि गिरफ्तारी के डर से छिपने वाले को हम साहसी नहीं मानते, और किसी भयभीत व्यक्ति को नेताजी कहना, उसका कम, नेताजी का अपमान ज्यादा है
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