- 3 घंटे पहले
1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध को भारतीय इतिहास में मात्र हाशिए की जगह मिलती है. लोगों की यादों में भी उस युद्ध की वो जगह नहीं है जो शायद 1962 के भारत चीन युद्ध या 1971 के बांगलादेश युद्ध की है.
कारण शायद ये है कि इस लड़ाई से न तो हार की शर्मसारी जुड़ी है और न ही निर्णायक जीत का उन्माद.
घटना के पचास साल बाद तस्वीरें या तो ज़हन से पूरी तरह मिट जाती हैं या धुंधली पड़ जाती हैं. लेकिन इससे एक फ़ायदा भी होता है. बीता हुआ समय तस्वीर को एक बेहतर परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है.
बीबीसी हिंदी की संपादकीय टीम की बैठक में 1965 के युद्ध के पचास साल होने पर कवरेज की बात हो रही थी तो हमारे संपादक निधीश त्यागी का सुझाव था- "क्यों न युद्ध के 22 दिनों से जुड़ी 22 कहानियों पर काम किया जाए जिनके बारे में लोगों को या तो बिल्कुल पता नहीं हैं या बहुत कम पता है".
लेकिन ये कोई आसान काम नहीं था. वो जमाना इंटरनेट का नहीं था कि हर चीज़ गूगल पर मिल जाए. लेकिन काम शुरू हो चुका था- पुस्तकालय खंगाले गए, सैंकड़ों किताबें पढ़ी गईं, अभिलेखागार में जाकर कभी गोपनीय रहे दस्तावेज़ों पर नज़र दौड़ाई गई. इतना ही नहीं, सैनिक केंद्रों पर जाकर 50 साल पुरानी युद्ध डायरियों को भी हमने पलटा.
47 लोगों से बातचीत
लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत थी लड़ाई में शामिल अफ़सरों को तलाशना और उन्हें बात करने के लिए राज़ी करना क्योंकि एक तो उनमें से बहुत से लोग अब इस दुनिया में नहीं रहे, जो हैं भी वो बहुत उम्रदराज़ हो चले हैं, उनकी सेहत और याददाश्त ने भी उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया है.
बहरहाल, इस पूरे अभियान में 47 लोगों से आमने-सामने बात की गई और न जाने कितने लोगों से फ़ोन पर. इनसे मिलने के लिए भारत के कई शहरों में जाना हुआ. बात केवल इस ओर की नहीं थी, पाकिस्तान के भी कई सैनिक अफसरों को ढूँढ निकाला गया, उन्होंने भी रोमांचित कर देने वाले अनुभव सुनाए.
पाकिस्तानी एयर कोमोडोर सज्जाद हैदर ने बताया कि पठानकोट पर हमला करने से पहले उन्होंने एक बाल्टी में पानी भरवा कर उसमें ईयू-डे-कोलोन की पूरी बोतल खाली कर दी. आठ तौलिए मंगवाए गए. आपरेशन में शामिल सभी आठ पायलटों से कहा कि वो इस सुगंधित पानी में तौलिए भिगोकर अपना मुंह पोछ लें ताकि अगर अल्लाह से मिलने का मौक़ा आ जाए तो उनके जिस्म से खुशबू आए.
तारापोर की अंतिम इच्छा
उसी तरह चविंडा की लड़ाई के बीचोंबीच कर्नल तारापोर ने अपने साथी मेजर चीमा को निर्देश दिया कि अगर इस लड़ाई के दौरान वे इस दुनिया में न रहें तो उनका अंतिम संस्कार युद्ध के मैदान पर ही किया जाए.
'मेरी प्रेयर बुक मेरी मां को दे दी जाए. मेरी अंगूठी मेरी पत्नी को और मेरा फ़ाउंटेन पेन मेरे बेटे ज़र्ज़ीस को दे दिया जाए.’ पांच दिन बाद तारापोर एक पाकिस्तानी टैंक गोले के शिकार हुए. उन्हें मरणोपरांत भारत का वीरता का सबसे बड़ा पदक परमवीर चक्र दिया गया.
उस लड़ाई में भारत की ओर से शरीक कैप्टन अजय सिंह ने बताया कि कुछ लोगों ने कहा कि अगर कर्नल तारापोर का अंतिम संस्कार लड़ाई के मैदान में किया जाता है तो चिता से उठते धुएँ को देखकर पाकिस्तानी टैंक उन पर फ़ायर करेंगे.
लेकिन उनकी यूनिट ने तय किया कि चाहे जो हो जाए, पाकिस्तान के कितने ही गोले उनके ऊपर आएं, तारापोर की अंतिम इच्छा का सम्मान किया जाएगा. तारापोर की अंत्येष्टि पाकिस्तानी सेना के आग उगलते गोलों के बीच लड़ाई के मैदान में ही की गई.
युद्ध के अधिकतर ब्योरों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. इस सीरीज़ में इससे बचने की कोशिश की गई है. लड़ाइयों में भी ग़लतियां होती हैं. 1965 की लड़ाई में भी ग़लतियां हुईं, दोनों पक्षों की ओर से.
इन्हें छिपाने की कोशिश नहीं की गई है. ऐसे भी मौके आए जब एक पक्ष ने दूसरे पक्ष के सैनिकों के कारनामों की तारीफ़ की है. ये बताता है कि सैनिक बहादुरी का सम्मान करते हैं, चाहे वो दुश्मन की ही क्यों न हो.
शमा जलती रहे तो बेहतर
यह सीरीज़ आपको 50 साल पहले हुए उस भारत पाकिस्तान युद्ध की ओर ले जाएगी जहाँ से बहुत से सैनिक कभी वापस नहीं लौटे, कुछ वापस आए जीवट की दास्तान लेकर.
हमारा मक़सद न तो किसी का कीर्तिगान करना है और न ही किसी को सही या ग़लत ठहराना, सैनिकों की कहानियों के ज़रिए पूरी तस्वीर आपके सामने पेश करना चाहते हैं. . बीबीसी हिंदी ऑनलाइन और रेडियो पर हमारी ये कोशिश कितनी कामयाब रही, ये हमें बताइगा जरूर.
बहरहाल, साहिर लुधियानवी की नज़्म बरबस याद आती है--
टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें,
कोख धरती की बांझ होती है.
फ़तह का जश्न हो या हार का सोग,
जिंदगी मयत्तों पर रोती है.
इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों,
जंग टलती रहे तो बेहतर है.
आप और हम सभी के आंगन में,
शमा जलती रहे तो बेहतर है
No comments:
Post a Comment