आज के भारत में दोनों का नाम हमेशा एक साथ ही आता है। देश के प्रधानमंत्री और देश के उप-प्रधानमंत्री (जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल) जनभावनाओं के सागर की लहरों में जिस तरह से भारत की नैया के खेवैया बने हुए हैं, वह सचमुच देखने लायक है। जनता का समर्थन पूरी तरह उनके साथ है और अक्सर उन्हें लोगों के कोप का शिकार भी बनना पड़ता है। वे दोनों मिलकर एक व्यक्तित्व बनाते हैं, एक ऐसा संयुक्त चरित्र, जो दोनों की खामियों की भरपायी करता है। एक ऐसा व्यक्तित्व, जो लोकप्रिय मंत्रिमंडल के लिए आदर्श है। दोनों में से हर कोई दूसरे के बिना अधूरी तस्वीर-सा दिखेगा। अक्सर हैरत होती है कि अगर इस तरह के दो लगभग विरोधाभासी दिखने वाले लोग साथ न आए होते, तो दिल्ली की सरकार की क्या सूरत बनती? दो दोस्त एक आदर्श जोड़ी नहीं बन सकते, अगर वे एक-दूसरे के रबर स्टांप की तरह काम करते हों। दो सहकर्मी अगर एक-दूसरे पर ही बरसते रहें, तो न कोई प्रगति हो सकती है और न ही कोई फैसला। लेकिन हमें जो दो शख्स मिले हैं, वे कुछ अलग ही किस्म के हैं। हमें थोड़ा रुककर यह समझना होगा कि किस तरह वे साथ आए हैं, तो एक प्रभावशाली सहयोग पैदा हुआ है।
सरदार का व्यक्तित्व आकर्षक है, वह किसी विचार को तुरंत समझ जाते हैं, जल्दी से सोचते हैं और तत्काल कार्रवाई शुरू कर देते हैं। वह अपने साथ जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक रूप में काम करने में विश्वास करते हैं। वह हमेशा सजग रहते हैं, हमेशा समझने को तैयार, जानकारी पाने को बेचैन- मधुमक्खी के छत्ते की तरह उनके दिमाग में हर चीज को रखने की एक निश्चित जगह होती है। जब जरूरत पड़ती है, तो वह इस जानकारी का इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार रहते हैं। वह बीमार हों या स्वस्थ, दिल्ली में हों या बंबई में, सो रहे हों या जाग रहे हों, सोच रहे हों या सपना देख रहे हों, उनका दिमाग हमेशा उस दिन की ज्वलंत समस्या पर केंद्रित होता है। उस समय के मुद्दे और उसके समाधान के लिए वह हमेशा सक्रिय रहते हैं। अक्सर वह एक साथ चार टेलीफोन पर बात कर रहे होते हैं, जैसे कि बंबई की दलाल स्ट्रीट और कलकत्ता की क्लाइव स्ट्रीट के शेयर दलाल करते हैं। इसकी खासियत यही होती है कि सारे धूम-धड़ाके और ढोल-मजीरे के बची कोई बहुत सधी हुई आवाज नहीं उभरती और करोड़ों रुपये का कारोबार हो जाता है, कई की सल्तनत ढह जाती है। 562 रियासतों का भविष्य एक मिनट में तय हो गया था, नौ बड़े राज्यों की नियति कुछ ही क्षणों में बदल गई। जब जमींदारों को मुआवजा देने का समय आया था, तो प्रांतीय सरकारों ने अपने हाथ खींच लिए थे, इसी तरह जब कांग्रेस कार्यसमिति और मंत्रिमंडल के बीच रिश्ते का सवाल आया, हर बार मामला कुछ ही देरी में हल हो गया।
इन सब मामलों में यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि सरदार और नेहरू हर मामले में एक-दूसरे से सहमत थे। लेकिन वे विविधता में एकता का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। एक हाथ की सभी उंगलियां समान नहीं होतीं। किसी मां-बाप के दो बच्चे ऐसे नहीं होंगे कि जो एक समान महसूस करते हों और एक समान काम करते हों। जिगरी दोस्तों के विचार भी एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं। मतभेद और अलग ढंग से सोचना एक कुदरती चीज है। इसके बावजूद सहमति पर पहुंचना मुश्किल होता है, जो काफी प्रयास से ही मुमकिन है। यही वह जगह है, जहां दो सार्वजनिक व्यक्तित्व दुनिया के सामने इस बात की मिसाल पेश करते हैं कि किस तरह सहयोग किया जाए, समर्पण अगर समान उद्देश्य के प्रति हो, तो किस तरह जरूरी चीजों को गैर-जरूरी चीजों से अलग किया जाना चाहिए। कैसे तत्काल व दूरगामी को देखना होगा और सिद्धांत व व्यवहार को। सिर्फ स्वभाव के मामले में ही वे दोनों अलग नहीं हैं, बल्कि उनकी जो पृष्ठभूमि है, वह भी दोनों के नजरिये को अलग करती है।
गृहमंत्री का सबसे बड़ा मकसद है देश में आंतरिक सुरक्षा और शांति को बनाए रखना, जबकि विदेश मंत्री हमेशा विदेशी मामलों में उलझा हुआ यह सोचता है कि दुनिया भर की प्रतिक्रियाओं के लिए क्या नीति अपनाई जाए। हो सकता है कि किसी खास समस्या को लेकर किसी विदेशी के बारे में गृहमंत्री यह मानते हों कि इसका देश में रहना कतई वाजिब नहीं है, लेकिन विदेश मंत्री उस समस्या और उसी विदेशी के मामले में उदार रवैया अपनाना चाहते हों। मामला चाहे किसी शादीशुदा जोड़े का हो या फिर मंत्रिमंडल के सहयोगियों का, सहयोग की कला अपनी बात कहने और आपसी समझ-बूझ बनाने से ही आगे बढ़ती है। यह सिर्फ शुद्ध राजनीति का मामला नहीं है कि विचार और दृष्टिकोण को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं।
सरदार न सिर्फ पूर्व की संस्कृति की उपज हैं, बल्कि वह एक सजग हिंदू भी हैं, इसके बावजूद वह पश्चिम के विचारों को स्वीकार करते हैं और दूसरे समुदायों से बेहतर संबंध बनाते हैं। जहां प्रतिबद्धताएं मजबूत हों और यह तय हो कि कोई समझौता नहीं किया जाएगा, वहां अपने सहयोगियों के साथ मन, वचन और कर्म से कौशलपूर्ण समझदारी दिखानी होती है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां मामला किसी के अपने विभाग का होता है और जहां निगरानी व संतुलन की जरूरत पड़ती है, वहां यह जरूरी हो जाता है कि वह अपने विचार को ज्यादा जोरदार ढंग से रखे। यह कहा जा सकता है कि जहां कहीं ऐसा मौका आता होगा, सरदार यही करते होंगे। पर उनके लिए देश हमेशा ही उनके अपने हित से बड़ा रहा है, जिसके लिए वह किसी देशभक्त की तरह जी-जान से जुटे रहते हैं।
(यह लेख 1949 में प्रकाशित एक स्मारिका के लिए लिखा गया था।)
सरदार का व्यक्तित्व आकर्षक है, वह किसी विचार को तुरंत समझ जाते हैं, जल्दी से सोचते हैं और तत्काल कार्रवाई शुरू कर देते हैं। वह अपने साथ जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक रूप में काम करने में विश्वास करते हैं। वह हमेशा सजग रहते हैं, हमेशा समझने को तैयार, जानकारी पाने को बेचैन- मधुमक्खी के छत्ते की तरह उनके दिमाग में हर चीज को रखने की एक निश्चित जगह होती है। जब जरूरत पड़ती है, तो वह इस जानकारी का इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार रहते हैं। वह बीमार हों या स्वस्थ, दिल्ली में हों या बंबई में, सो रहे हों या जाग रहे हों, सोच रहे हों या सपना देख रहे हों, उनका दिमाग हमेशा उस दिन की ज्वलंत समस्या पर केंद्रित होता है। उस समय के मुद्दे और उसके समाधान के लिए वह हमेशा सक्रिय रहते हैं। अक्सर वह एक साथ चार टेलीफोन पर बात कर रहे होते हैं, जैसे कि बंबई की दलाल स्ट्रीट और कलकत्ता की क्लाइव स्ट्रीट के शेयर दलाल करते हैं। इसकी खासियत यही होती है कि सारे धूम-धड़ाके और ढोल-मजीरे के बची कोई बहुत सधी हुई आवाज नहीं उभरती और करोड़ों रुपये का कारोबार हो जाता है, कई की सल्तनत ढह जाती है। 562 रियासतों का भविष्य एक मिनट में तय हो गया था, नौ बड़े राज्यों की नियति कुछ ही क्षणों में बदल गई। जब जमींदारों को मुआवजा देने का समय आया था, तो प्रांतीय सरकारों ने अपने हाथ खींच लिए थे, इसी तरह जब कांग्रेस कार्यसमिति और मंत्रिमंडल के बीच रिश्ते का सवाल आया, हर बार मामला कुछ ही देरी में हल हो गया।
इन सब मामलों में यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि सरदार और नेहरू हर मामले में एक-दूसरे से सहमत थे। लेकिन वे विविधता में एकता का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। एक हाथ की सभी उंगलियां समान नहीं होतीं। किसी मां-बाप के दो बच्चे ऐसे नहीं होंगे कि जो एक समान महसूस करते हों और एक समान काम करते हों। जिगरी दोस्तों के विचार भी एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं। मतभेद और अलग ढंग से सोचना एक कुदरती चीज है। इसके बावजूद सहमति पर पहुंचना मुश्किल होता है, जो काफी प्रयास से ही मुमकिन है। यही वह जगह है, जहां दो सार्वजनिक व्यक्तित्व दुनिया के सामने इस बात की मिसाल पेश करते हैं कि किस तरह सहयोग किया जाए, समर्पण अगर समान उद्देश्य के प्रति हो, तो किस तरह जरूरी चीजों को गैर-जरूरी चीजों से अलग किया जाना चाहिए। कैसे तत्काल व दूरगामी को देखना होगा और सिद्धांत व व्यवहार को। सिर्फ स्वभाव के मामले में ही वे दोनों अलग नहीं हैं, बल्कि उनकी जो पृष्ठभूमि है, वह भी दोनों के नजरिये को अलग करती है।
गृहमंत्री का सबसे बड़ा मकसद है देश में आंतरिक सुरक्षा और शांति को बनाए रखना, जबकि विदेश मंत्री हमेशा विदेशी मामलों में उलझा हुआ यह सोचता है कि दुनिया भर की प्रतिक्रियाओं के लिए क्या नीति अपनाई जाए। हो सकता है कि किसी खास समस्या को लेकर किसी विदेशी के बारे में गृहमंत्री यह मानते हों कि इसका देश में रहना कतई वाजिब नहीं है, लेकिन विदेश मंत्री उस समस्या और उसी विदेशी के मामले में उदार रवैया अपनाना चाहते हों। मामला चाहे किसी शादीशुदा जोड़े का हो या फिर मंत्रिमंडल के सहयोगियों का, सहयोग की कला अपनी बात कहने और आपसी समझ-बूझ बनाने से ही आगे बढ़ती है। यह सिर्फ शुद्ध राजनीति का मामला नहीं है कि विचार और दृष्टिकोण को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं।
सरदार न सिर्फ पूर्व की संस्कृति की उपज हैं, बल्कि वह एक सजग हिंदू भी हैं, इसके बावजूद वह पश्चिम के विचारों को स्वीकार करते हैं और दूसरे समुदायों से बेहतर संबंध बनाते हैं। जहां प्रतिबद्धताएं मजबूत हों और यह तय हो कि कोई समझौता नहीं किया जाएगा, वहां अपने सहयोगियों के साथ मन, वचन और कर्म से कौशलपूर्ण समझदारी दिखानी होती है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां मामला किसी के अपने विभाग का होता है और जहां निगरानी व संतुलन की जरूरत पड़ती है, वहां यह जरूरी हो जाता है कि वह अपने विचार को ज्यादा जोरदार ढंग से रखे। यह कहा जा सकता है कि जहां कहीं ऐसा मौका आता होगा, सरदार यही करते होंगे। पर उनके लिए देश हमेशा ही उनके अपने हित से बड़ा रहा है, जिसके लिए वह किसी देशभक्त की तरह जी-जान से जुटे रहते हैं।
(यह लेख 1949 में प्रकाशित एक स्मारिका के लिए लिखा गया था।)