Saturday, 31 October 2015

नेहरू और सरदार पटेल की जोड़ी @पट्टाभी सीतारमैया

आज के भारत में दोनों का नाम हमेशा एक साथ ही आता है। देश के प्रधानमंत्री और देश के उप-प्रधानमंत्री (जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल) जनभावनाओं के सागर की लहरों में जिस तरह से भारत की नैया के खेवैया बने हुए हैं, वह सचमुच देखने लायक है। जनता का समर्थन पूरी तरह उनके साथ है और अक्सर उन्हें लोगों के कोप का शिकार भी बनना पड़ता है। वे दोनों मिलकर एक व्यक्तित्व बनाते हैं, एक ऐसा संयुक्त चरित्र, जो दोनों की खामियों की भरपायी करता है। एक ऐसा व्यक्तित्व, जो लोकप्रिय मंत्रिमंडल के लिए आदर्श है। दोनों में से हर कोई दूसरे के बिना अधूरी तस्वीर-सा दिखेगा। अक्सर हैरत होती है कि अगर इस तरह के दो लगभग विरोधाभासी दिखने वाले लोग साथ न आए होते, तो दिल्ली की सरकार की क्या सूरत बनती? दो दोस्त एक आदर्श जोड़ी नहीं बन सकते, अगर वे एक-दूसरे के रबर स्टांप की तरह काम करते हों। दो सहकर्मी अगर एक-दूसरे पर ही बरसते रहें, तो न कोई प्रगति हो सकती है और न ही कोई फैसला। लेकिन हमें जो दो शख्स मिले हैं, वे कुछ अलग ही किस्म के हैं। हमें थोड़ा रुककर यह समझना होगा कि किस तरह वे साथ आए हैं, तो एक प्रभावशाली सहयोग पैदा हुआ है।

सरदार का व्यक्तित्व आकर्षक है, वह किसी विचार को तुरंत समझ जाते हैं, जल्दी से सोचते हैं और तत्काल कार्रवाई शुरू कर देते हैं। वह अपने साथ जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक रूप में काम करने में विश्वास करते हैं। वह हमेशा सजग रहते हैं, हमेशा समझने को तैयार, जानकारी पाने को बेचैन- मधुमक्खी के छत्ते की तरह उनके दिमाग में हर चीज को रखने की एक निश्चित जगह होती है। जब जरूरत पड़ती है, तो वह इस जानकारी का इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार रहते हैं। वह बीमार हों या स्वस्थ, दिल्ली में हों या बंबई में, सो रहे हों या जाग रहे हों, सोच रहे हों या सपना देख रहे हों, उनका दिमाग हमेशा उस दिन की ज्वलंत समस्या पर केंद्रित होता है। उस समय के मुद्दे और उसके समाधान के लिए वह हमेशा सक्रिय रहते हैं। अक्सर वह एक साथ चार टेलीफोन पर बात कर रहे होते हैं, जैसे कि बंबई की दलाल स्ट्रीट और कलकत्ता की क्लाइव स्ट्रीट के शेयर दलाल करते हैं। इसकी खासियत यही होती है कि सारे धूम-धड़ाके और ढोल-मजीरे के बची कोई बहुत सधी हुई आवाज नहीं उभरती और करोड़ों रुपये का कारोबार हो जाता है, कई की सल्तनत ढह जाती है। 562 रियासतों का भविष्य एक मिनट में तय हो गया था, नौ बड़े राज्यों की नियति कुछ ही क्षणों में बदल गई। जब जमींदारों को मुआवजा देने का समय आया था, तो प्रांतीय सरकारों ने अपने हाथ खींच लिए थे, इसी तरह जब कांग्रेस कार्यसमिति और मंत्रिमंडल के बीच रिश्ते का सवाल आया, हर बार मामला कुछ ही देरी में हल हो गया।

इन सब मामलों में यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि सरदार और नेहरू हर मामले में एक-दूसरे से सहमत थे। लेकिन वे विविधता में एकता का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। एक हाथ की सभी उंगलियां समान नहीं होतीं। किसी मां-बाप के दो बच्चे ऐसे नहीं होंगे कि जो एक समान महसूस करते हों और एक समान काम करते हों। जिगरी दोस्तों के विचार भी एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं। मतभेद और अलग ढंग से सोचना एक कुदरती चीज है। इसके बावजूद सहमति पर पहुंचना मुश्किल होता है, जो काफी प्रयास से ही मुमकिन है। यही वह जगह है, जहां दो सार्वजनिक व्यक्तित्व दुनिया के सामने इस बात की मिसाल पेश करते हैं कि किस तरह सहयोग किया जाए, समर्पण अगर समान उद्देश्य के प्रति हो, तो किस तरह जरूरी चीजों को गैर-जरूरी चीजों से अलग किया जाना चाहिए। कैसे तत्काल व दूरगामी को देखना होगा और सिद्धांत व व्यवहार को। सिर्फ स्वभाव के मामले में ही वे दोनों अलग नहीं हैं, बल्कि उनकी जो पृष्ठभूमि है, वह भी दोनों के नजरिये को अलग करती है।

गृहमंत्री का सबसे बड़ा मकसद है देश में आंतरिक सुरक्षा और शांति को बनाए रखना, जबकि विदेश मंत्री हमेशा विदेशी मामलों में उलझा हुआ यह सोचता है कि दुनिया भर की प्रतिक्रियाओं के लिए क्या नीति अपनाई जाए। हो सकता है कि किसी खास समस्या को लेकर किसी विदेशी के बारे में गृहमंत्री यह मानते हों कि इसका देश में रहना कतई वाजिब नहीं है, लेकिन विदेश मंत्री उस समस्या और उसी विदेशी के मामले में उदार रवैया अपनाना चाहते हों। मामला चाहे किसी शादीशुदा जोड़े का हो या फिर मंत्रिमंडल के सहयोगियों का, सहयोग की कला अपनी बात कहने और आपसी समझ-बूझ बनाने से ही आगे बढ़ती है। यह सिर्फ शुद्ध राजनीति का मामला नहीं है कि विचार और दृष्टिकोण को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं।

सरदार न सिर्फ पूर्व की संस्कृति की उपज हैं, बल्कि वह एक सजग हिंदू भी हैं, इसके बावजूद वह पश्चिम के विचारों को स्वीकार करते हैं और दूसरे समुदायों से बेहतर संबंध बनाते हैं। जहां प्रतिबद्धताएं मजबूत हों और यह तय हो कि कोई समझौता नहीं किया जाएगा, वहां अपने सहयोगियों के साथ मन, वचन और कर्म से कौशलपूर्ण समझदारी दिखानी होती है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां मामला किसी के अपने विभाग का होता है और जहां निगरानी व संतुलन की जरूरत पड़ती है, वहां यह जरूरी हो जाता है कि वह अपने विचार को ज्यादा जोरदार ढंग से रखे। यह कहा जा सकता है कि जहां कहीं ऐसा मौका आता होगा, सरदार यही करते होंगे। पर उनके लिए देश हमेशा ही उनके अपने हित से बड़ा रहा है, जिसके लिए वह किसी देशभक्त की तरह जी-जान से जुटे रहते हैं।

(यह लेख 1949 में प्रकाशित एक स्मारिका के लिए लिखा गया था।)

Friday, 30 October 2015

एक रुपये की तनख्वाह पर ले आए संचार क्रांति @रेहान फ़ज़ल

सैम पित्रोदाImage copyrightSAM PIITRODA
बहुत समय नहीं हुआ जब भारत में टेलीफ़ोन को एक पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया जाता था.
टेलीफ़ोन का उपकरण इतना भारी हुआ करता था कि बहुत से लोग उसे इस डर से नहीं उठाते थे कि उन्हें कहीं हर्निया न हो जाए.
रेहान फ़जल की विवेचना यहां सुनें.
एक मज़ाक ये भी प्रचलित था कि कभी-कभी अभिभावक अपने शरारती बच्चों को नियंत्रण में लाने के लिए इसके भारी रिसीवर का इस्तेमाल किया करते थे.
कहने का मतलब ये कि टेलीफ़ोन को आपस में संपर्क स्थापित करने के लिए संयोगवश ही इस्तेमाल किया जाता था. ‘डेड टेलीफ़ोन’ भारतीय संस्कृति का एक प्रचलित मुहावरा बन गया था.
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का निवास भी इससे अछूता नहीं रहा था. भारत के हर 100 में से सिर्फ 0.4 फ़ीसदी लोगों के पास फ़ोन थे. इनमें से 55 फ़ीसदी फ़ोन शहरी आबादी के सात फ़ीसदी लोगों के पास थे.
सैम पित्रोदाImage copyrightsam pitroda
Image captionसैम पित्रोदा तितलागढ़ के अपने पैतृक निवास पर.
इस सब को बदलने का श्रेय अगर किसी एक शख्स को दिया जा सकता है तो वो हैं सैम पित्रोदा.
सैम के सफ़र की शुरुआत ओडिशा के बोलांगीर ज़िले के एक छोटे से गाँव तीतलागढ़ में हुई थी. सैम के दादा बढ़ई और लोहार का काम किया करते थे.
उस ज़माने में सैम का सबसे प्रिय शगल होता था अपने घर के सामने से गुज़रने वाली रेलवे लाइन पर दस पैसे का सिक्का रखना और ट्रेन के गुज़रने के बाद कुचले हुए सिक्के को ढूंढ कर जमा करना.
सैम पित्रोदा और रेहान फ़ज़ल
Image captionबीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ सैम पित्रोदा.
सैम के पिता चाहते थे कि वो गुजराती और अंग्रेज़ी सीखें. इसलिए उन्होंने उन्हें और उनके बड़े भाई मानेक को पढ़ने के लिए पहले गुजरात में विद्यानगर के शारदा मंदिर बोर्डिंग स्कूल और फिर बड़ोदा विश्वविद्यालय भेजा.
वहाँ से उन्होंने भौतिकी शास्त्र में पहली श्रेणी में एमएससी की परीक्षा पास की. वहीं उनकी मुलाकात उनकी भावी पत्नी अनु छाया से हुई. जब उन्होंने अनु को पहली बार देखा तो वो धूप में अपने बाल सुखा रही थीं.
सैम पित्रोदा की पत्नी अनु छाया.Image copyrightsam pitoda
Image captionसैम पित्रोदा की पत्नी अनु छाया.
सैम याद करते हैं, "मैंने उसे देखते ही पहली निगाह में अपना दिल दे दिया. उस समय मैं सिर्फ़ बीस साल का था. आज की तरह उस समय भी मेरे पास डायरी हुआ करती थी. उसमें मैंने लिखा कि मैं इस लड़की से शादी करूँगा."
लेकिन अनु तक अपनी भावना पहुंचाने में सैम को डेढ़ साल लग गए. अमरीका जाने से पहले वो उनका हाथ मांगने उनके पिता से मिलने गोधरा गए. अभी उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी ही थी कि उनका कुत्ता दौड़ता हुआ आया और उसने सैम के हाथ में काट खाया.
सैम उससे इतने परेशान हुए कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला और अनु का हाथ मांगने की बात उनके दिल में ही रह गई.
सैम पित्रोदा की पत्नी अनु छाया.Image copyrightsam pitroda
Image captionसैम पित्रोदा अपनी पत्नी अनु छाया के इलिनॉय यूनिवर्सिटी में.
जब सैम शिकागो पहुंचे तो उन्हें अमरीकी संस्कृति से सामंजस्य बैठाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी. सैम याद करते हैं, "वहाँ सब कुछ नया था. हर चीज़ अजीब सी लगती थी... लोग अजीब थे... खाना अजीब था... बातें अजीब थीं.. भाषा अजीब थी. पहली बार मैंने वहाँ डोर नॉब देखा. हमारे यहाँ तो सांकल होती थी. रिवॉल्विंग दरवाज़ा पहली बार मैंने वहाँ देखा. हमारी समझ में आ गया कि जिंदगी अब आगे देखने के लिए है, पीछे देखने के लिए नहीं."
वो बताते हैं, "मेरे लिए सबसे बड़ा साँस्कृतिक झटका ये था कि एक साथ कई लोग बाथरूम में सामूहिक तौर पर नहाया करते थे और वो भी बिल्कुल नंगे होकर और उस पर तुर्रा ये कि नहाते समय वो आपस में बातें भी किया करते थे. मुझे ऐसा करते हुए बहुत शर्म आई. इसलिए मैंने उससे बचने के लिए रात के बारह बजे नहाना शुरू कर दिया ताकि हॉस्टल के बाथरूम में कोई शख़्स मौजूद न हो."
पढ़ाई ख़त्म करने के बाद सैम ने टेलीविज़न ट्यूनर बनाने वाली कंपनी ओक इलेक्ट्रिक में काम करना शुरू कर दिया. तब तक सैम का नाम सत्यनारायण पित्रोदा हुआ करता था.
जब उनको अपनी तन्ख़्वाह का चेक मिला तो उसमें उनका नाम सैम लिखा हुआ था. जब वो वेतन का काम देखने वाली महिला के पास इसकी शिकायत ले कर गए तो उसने कहा कि तुम्हारा नाम बहुत लंबा है, इसलिए मैंने इसे बदल दिया.
सैम पित्रोदाImage copyrightsam pitroda
सैम ने सोचा कि कोई कैसे उनकी मर्ज़ी के बगैर उनका नाम बदल सकता है लेकिन फिर उनको ख़्याल आया कि अगर वो चेक में नाम बदलने पर ज़ोर देंगे तो उन्हें इसे भुनाने में दो हफ़्ते और लग जाएंगे. ये नाम उनसे चिपक गया और वो सत्यनारायण से सैम हो गए.
1974 में वो दुनिया की सबसे पहली डिज़िटल कंपनियों में से एक विस्कॉम स्विचिंग में काम करने लगे. 1980 में रॉकवेल इंटरनेशनल ने इसे ख़रीद लिया. सैम इस कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट बन गए और इसमें उनकी हिस्सेदारी भी हो गई.
उन्होंने इसे बेचने का फ़ैसला किया और मुआवज़े में उन्हें चालीस लाख डॉलर मिले. 1980 में वो दिल्ली आए. इससे पहले वो पंद्रह साल की उम्र में एक कॉलेज टूर पर सिर्फ़ दो दिन के लिए दिल्ली आए थे.
वो उस समय दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ ताज होटल में रुके हुए थे. वहाँ पहुंचते ही उन्होंने अपनी पत्नी अनु को टेलीफ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन टेलीफ़ोन लगा ही नहीं. अगले दिन सुबह जब उन्होंने अपने होटल की खिड़की से झाँका तो देखा कि नीचे सड़क पर डेड फ़ोन की एक सांकेतिक शव यात्रा निकल रही है.
सैम पित्रोदाImage copyrightsam pitroda
शव की जगह टूटे हुए, काम न करने वाले फ़ोन रखे हुए थे और लोग ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रहे थे. सैम ने उसी समय तय किया कि वो भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था को ठीक करेंगे.
26 अप्रैल, 1984 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सी-डॉट की शुरुआत की मंज़ूरी दी. सैम को एक रुपए वार्षिक वेतन पर सी-डॉट का प्रमुख बनाया गया.
सैम बताते हैं, "रूज़वेल्ट के समय में अमरीका में लोगों ने देश को अपनी मुफ़्त सेवाएं दी थीं. हमारे जो दोस्त यहाँ थे रजनी कोठारी, आशीष नंदी, धीरू भाई सेठ उन सबने कहा कि अगर तुम्हें देश की सेवा करनी हो तो दिल लगा कर काम करो."
वो कहते हैं, "मैंने सोचा कि ये समय भारत को देने का है, उससे लेने का नहीं. भारत ने मुझे बहुत कुछ दिया था. मैंने दस डालर में यहाँ से मास्टर्स किया फ़िज़िक्स में. उस ज़माने में तनख़्वाह तो बहुत थी नहीं. दस हज़ार रुपए महीने तनख़्वाह ले कर मैं क्या करता?"
सैम पित्रोदा और अर्जुन सिंहImage copyrightsam pitroda
Image captionपूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के साथ सैम पित्रोदा.
इससे पहले सैम ने इंदिरा गाँधी और उनके मंत्रिमंडल के सामने एक घंटे का प्रेजेंटेशन दिया.
सैम कहते हैं, "हमने बंगलौर में हार्डवेयर डिज़ाइन करना शुरू किया. सॉफ़्टवेयर के लिए हमें दिल्ली में जगह नहीं मिल रही थी. राजीव गांधी ने सलाह दी कि आप एशियाड विलेज जाइए. जगह तो अच्छी थी लेकिन वहाँ एयरकंडीशनिंग नहीं थी. दिल्ली की गर्मी में एयरकंडीशनिंग न हो तो सॉफ़्टवेयर का काम नहीं हो सकता था. अकबर होटल में जगह ख़ाली थी. हमने वहाँ दो फ़्लोर ले लिए."
वो बताते हैं, "शुरू में फ़र्नीचर नहीं था. हमने छह महीने तक खटिया पर बैठ कर काम किया. हमने 400 युवा इंजीनयरों को भर्ती किया. उन्हें ट्रेन किया. पता चला कि इनमें कोई लड़की नहीं है. फिर लड़कियों को लाया गया उसमें."
सैम पित्रोदा, अपने परिवार के साथ.Image copyrightsam pitroda
Image captionसैम पित्रोदा, अपने परिवार के साथ.
कुछ ही महीनों में भारत के हर गली कूचे में पीले रंग के एसटीडी या पीसीओ बूथ दिखाई देने लगे. इस पूरे अभियान में बीस लाख लोगों को रोज़गार मिला, ख़ास तौर पर पिछड़े और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को.
फ़ोन भारतीय लोगों की सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बन गए. बूथ चलाने वाले लोगों ने वहाँ पर सिगरेट, टॉफ़ियाँ और यहाँ तक कि दूध भी बेचना शुरू कर दिया. टेलीफ़ोन अब विलासिता की चीज़ न रह कर रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ बन गया.
सैम बताते हैं, "हमने पहले ग्रामीण एक्सचेंज बनाया. फिर बड़ा डिजिटल एक्सचेंज बनाया. फिर तो दूर संचार क्रांति शुरू हो गई क्योंकि लोग कुशल हो गए. वो बीज था जो हमने बोया. हर शख्स जिसने कभी सी-डॉट में काम किया, वो आज या तो कोई बड़ा मैनेजर है, प्रोफ़ेसर है या उद्यमी है. हमने एक दक्षता पैदा की और फिर मल्टीप्लायर प्रभाव शुरू हो गया."
सैम पित्रोदा, अपने परिवार के साथ.Image copyrightsam pitroda
इस बीच सैम को 'टेलीकॉम आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया. उस दौरान मशहूर कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के अध्यक्ष जैक वेल्च भारत आए. वो राजीव गांधी से मिलने वाले थे लेकिन वो किसी ज़रूरी काम में व्यस्त थे.
उन्होंने सैम को उनसे मिलने भेजा. सैम ने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया. वेल्च ने पहला सवाल किया, "हमारे लिए आपके पास क्या प्रस्ताव है?"
सैम ने कहा, "हम आपको सॉफ़्टवेयर बेचना चाहते हैं." वेल्च बोले, "लेकिन हम तो यहाँ सॉफ़्टवेयर ख़रीदने नहीं आए हैं. हमारी मंशा तो आपको इंजन बेचने की है."
सैम ने कहा कि हमारा आपसे इंजन ख़रीदने का कोई इरादा नहीं है. वेल्च ने कहा कि हम इतनी दूर से जिस काम के लिए आए हैं, आप उस पर बात तक करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब क्या किया जाए?
सैम ने कहा आइए नाश्ता करते हैं. लंबी चुप्पी के बाद वेल्च ने कहा, "बताइए आप सॉफ़्टवेयर के बारे में कुछ कह रहे थे." सैम ने 35 एमएम की स्लाइड पर अपना प्रेजेंटेशन शुरू किया.
सैम पित्रोदा, राजीव गांधी और अर्जुन सिंहImage copyrightsam pitroda
Image captionसैम पित्रोदा, राजीव गांधी और अर्जुन सिंह.
वेल्च ने उसके एक-एक शब्द को ग़ौर से सुना और कहा, "आप हमसे क्या चाहते हैं?"
सैम का जवाब था, "एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का ऑर्डर." वेल्च ने कहा, "मैं अपनी कंपनी के चोटी के ग्यारह लोगों को आपके पास भेजूँगा. आप उन्हें कनविंस करिए कि आपके प्रस्ताव में दम है."
एक महीने बाद जीई के चोटी के अधिकारी दिल्ली पहुंचे. सैम ने उस समय नई-नई बनी कंपनी इंफ़ोसिस के साथ उनकी बैठक तय की. इंफ़ोसिस ने कहा कि उनका तो कोई दफ़्तर भी नहीं है.
सैम ने कहा आप जीई वालों को ये बात मत बताइए और उनसे किसी पांच सितारा होटल में मिलिए. वो बैठक हुई और जीई ने एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का पहला ऑर्डर दिया और यहीं से भारत के सॉफ़्टवेयर कंसल्टिंग उद्योग की नींव रखी गई.
राजीव गांधीImage copyrightphotodivision.gov.in
लेकिन इस बीच राजीव गाँधी चुनाव हार गए. 21, मई, 1991 को अचानक राजीव गाँधी की हत्या हो गई. इसके बाद सैम का भारत में मन नहीं लगा.
सैम याद करते हैं, "हमने सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री ही नहीं खोया, मैंने अपना सबसे प्यारा दोस्त खो दिया. ये एक इच्छा और एक सपने का अंत था. मैंने अपनी नागरिकता तक बदल दी थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा था और तभी मैंने पाया कि तब तक मेरे सारे पैसे ख़त्म हो गए थे. मैंने पिछले दस साल से कोई वेतन नहीं लिया था. मैंने सोचा कि अब समय आ गया है वापस अमरीका जाने का."
ये बात सुनने में थोड़ी अजीब सा लग सकती है कि सैम पित्रोदा ने काम करने की धुन में 1965 के बाद से कोई फिल्म नहीं देखी थी.
दिनेश त्रिवेदीImage copyrightPTI
उनके नज़दीकी दोस्त और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी बताते हैं, "सैम पित्रोदा न तो शॉपिंग करने जाते हैं, न ही किसी जन्म दिन पार्टी में जाते हैं और न ही कभी फ़िल्म देखने जाते हैं. एक बार वो मेरे घर पर रुके हुए थे. उनकी पत्नी अनु भी उनके साथ थीं. मैंने उनसे कहा, चलिए फ़िल्म देखी जाए. सैम ने कहा फ़िल्म और मेरा दूर-दूर का वास्ता नहीं है. लेकिन मैं उन्हें ज़बरदस्ती थ्री ईडियट्स फ़िल्म दिखाने ले गया."
"जब हम फ़िल्म देख कर बाहर निकले तो अनु ने कहा आप का बहुत-बहुत धन्यवाद. मैंने कहा धन्यवाद देने की क्या ज़रूरत है. अनु ने कहा कि चालीस साल की वैवाहिक ज़िंदगी में हमने पहली बार साथ में कोई फ़िल्म देखी है."
सैम पित्रोदाImage copyrightsam pitroda facebook
आज 73 साल की उम्र में सैम पित्रोदा जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व मिलना मुश्किल है. वो बचपन से तबला बजाते हैं, चित्रकारी करते हैं और बेहतरीन संगीत सुनते हैं. ग़जलें सुनना उन्हें बेहद पसंद है.
इकॉनॉमिस्ट और वॉल स्ट्रीट जर्नल पढ़ना उन्हें पसंद है. हाल मे वियना में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. संगीत सुनने का उन्हें बहुत शौक है ख़ासतौर से ड्राइव करते हुए.
बचपन में उन्होंने जो फ़िल्में देखीं थीं पचास के दशक में 'बरसात', 'नागिन', 'काग़ज़ के फूल'... 'प्यासा' और जब भी इन फ़िल्मों के गीत वो सुनते हैं, अपने आप को गुनगुनाने से नहीं रोक पाते.

एक विश्वास के टूटने की दास्तान @चंदन श्रीवास्तव

अब से कोई पैंसठ साल पहले की बात है. कतार में खड़े आखिरी व्यक्ति के आंख से आंसू पोंछने के वादे के साथ ‘इंडिया दैट इज भारत’ में जनता की चुनी हुई सरकार बन चुकी थी. आजादी की लड़ाई की यादें अभी इतनी धुंधली नहीं पड़ी थीं कि लोगों को लगे इस देश में शासन का ‘तंत्र’ तो ‘लोक’ से कटा हुआ है. 
 
बेशक खाने को अनाज नहीं था, दुश्मन से लड़ने को हथियार नहीं थे. तो भी, एक विश्वास था कि अंगरेजी साम्राज्य के हाथों बहुत गंवा चुके भारत के दिन बहुरेंगे, राजनेता जनता का सेवक बन कर देश-सेवा करेंगे. नेता इस विश्वास की रक्षा का यकीन दिलाते थे. विश्वास-रक्षा का यही सवाल रहा होगा, जो उस वक्त राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद आज के छत्तीसगढ़ के एक जिले सरगुजा के गांव पंडोपुर पहुंचे. 
 
आदिवासियों के दुख-सुख को नजदीक से महसूस करने के लिए राष्ट्रपति ने दो दिन गांव में ही बिताने का निश्चय किया. कंदमूल के सहारे भूख मिटाने और किसी तरह जिंदगी के दिन काटनेवाले लोगों के उस गांव में घूमते हुए राजेंद्र प्रसाद ने कुशल-क्षेम जानने के नाते कोरवा जनजाति के एक व्यक्ति से पूछा- रोटी खा ली? कोरवा का जवाब था- ‘रोटी क्या चीज होती है?’ भूख जिसका दैनंदिन का अनुभव हो, वह जवाब में भला और क्या कहता! राष्ट्रपति को राहत का ख्याल आया. उन्होंने कोरवा जनजाति को गोद लिया, आदेश हुआ कि गांव के प्रत्येक परिवार को दस एकड़ जमीन दी जाये, ताकि वे भुखमरी की दशा से बाहर निकलें.
 
पैंसठ साल पुराने इस वाकये ने अपने को अजीब तरह से दोहराया है. सरगुजा से जसपुर नगर कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर होगा. जसपुर नगर के कोरवा समुदाय का एक प्रतिनिधिमंडल इस हफ्ते राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलने पहुंचा है. 
 
और, अचरज कीजिए कि मिलने की वजह एक बार फिर से रोटी ही है. इस प्रतिनिधिमंडल के पास महामहिम को सुनाने के लिए एक कहानी है- भुखमरी की दर्दनाक कहानी. इलाके का एक बुजुर्ग पहाड़ी कोरवा लंबूराम इस माह के पहले पखवाड़े में एक दिन पत्नी की बीमारी का इलाज कराने अपने गांव से कई कोस दूर पर मौजूद एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पहुंचा. इलाज हुआ, लेकिन उपचार की जरूरत के हिसाब से अस्पताल में ही रुकना पड़ा. अस्पताल में खाने-पीने की सुविधा नहीं थी और ना ही लंबूराम की जेब में इतने पैसे थे कि कुछ खरीद कर अपना और पत्नी का पेट भर सके. 
 
लंबूराम तीन दिनों तक भूखा-प्यासा रहा. चौथे दिन पत्नी को पीठ पर लादकर अपने गांव को चला. बारिश आता देख रास्ते के एक खेत में बनी छपरी में इस दंपत्ति ने शरण ली. इसी बीच उम्र के साठ साल पूरे कर चुके लंबूराम के सीने में दर्द उठा और उसकी आंखें हमेशा के लिए मुंद गयीं. छत्तीसगढ़ का शासन-प्रशासन हैरान-परेशान है. पक्ष और विपक्ष की राजनीति ने अपनी सुविधा के हिसाब से लंबूराम की कहानी को मुआवजे की मांग और राहत की घोषणा की लीक पर बांट लिया है. 
 
कोई-कोई कह रहा है लंबू राम ऐसा भी गरीब ना था, उसके कब्जे में कुछ कट्ठा खेत थे. कहानी का यह करुण सिरा हाथ से छूट गया है कि लंबूराम का परिवार भोजन के अधिकार कानून की दुहाई देनेवाले रमन सरकार के शासन के भीतर इतना मजबूर था कि पिछले साल बीमारी के उपचार कराने के लिए रकम जुटाने की बात आयी, तो उसे अपना राशन-कार्ड मोटी गांठ वाले किसी बिचौलिये को एक हजार रुपये में गिरवी रखना पड़ा.
 
पहाड़ी कोरवा को गोद लेनेवाले राजेंद्र प्रसाद और पहाड़ी कोरवा का दुख सुननेवाले प्रणब मुखर्जी के बीच भारत ने पूरे छह दशक की यात्रा की है. इस बीच अर्थव्यवस्था पौने तीन लाख करोड़ से बढ़ कर 57 लाख करोड़ रुपये की हो चुकी है. 
 
लेकिन लकड़ी चुन कर, महुआ बीन कर जीविका चलाने पर मजबूर लंबूराम और उसकी पत्नी सुकनी के पास इस 57 लाख करोड़ की कितनी पायी पहुंची है? सवा अरब आबादी वाले भारत के बारे में एफएओ (यूएन) की नयी रिपोर्ट कह रही है कि 20 करोड़ लोग दो जून की रोटी को मोहताज हैं. पिछले साल नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट ने बताया कि देश के चौदह बड़े राज्यों के ग्रामीण इलाके में लोगों को रोजाना 2,400 किलोकैलोरी का भोजन भी हासिल नहीं है.
 
सरकारी गोदाम अनाज से भरे हैं, सरकार का खजाना रुपये से भरा है, शासन जनता की अधिकारिता के कानूनों से भरा है. छह दशकों में अगर कुछ खत्म हुआ है, तो यह विश्वास कि सरकार कतार में खड़े आखिरी आदमी की आंख का आंसू पोंछ सकती है.

Tuesday, 27 October 2015

'मन की बात' से किसे है ऐतराज? @अनुराग चतुर्वेदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को अपने 'मन की बात" कार्यक्रम में जैसे ही घोषणा की कि 1 जनवरी 2016 से लागू होने वाले नए नियमों के तहत केंद्र सरकार की ग्रुप डी, सी और बी की अराजपत्रित नौकरियों के लिए युवाओं को इंटरव्यू नहीं देना होगा, जदयू ने तुरंत इस घोषणा को बिहार में हो रहे विधानसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में आचार संहिता का उल्लंघन बता दिया। इससे पहले भी ऐसी स्थिति निर्मित हुई थी, जब प्रधानमंत्री के 'मन की बात" कार्यक्रम को लेकर इस आशय की बातें कही गई थीं।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री 'मन की बात" करते हैं तो वे किस भूमिका में होते हैं और किसे संबोधित कर रहे होते हैं? जब किसी कार्यक्रम का राष्ट्रव्यापी प्रसारण हो रहा हो तो क्या वह राष्ट्र के नाम संदेश होता है या क्षेत्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्यों के मुताबिक उसकी व्याख्या की जानी चाहिए? एक प्रांत में हो रहा चुनाव या वहां पर लगी आचार संहिता क्या सरकार के मुखिया के राष्ट्र के नाम संदेश में बाधक होनी चाहिए? आखिर लाल किले की प्राचीर से दिया जाने वाला संबोधन भी तो राष्ट्र के नाम संदेश ही होता है। लेकिन वहां से बोलने वाला व्यक्ति किसी पार्टी का प्रतिनिधि नहीं होता, वह देश में सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा नागरिक होता है।
देश की स्मृति में आज भी प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा 14 अगस्त की मध्यरात्रि को दिया गया रेडियो संदेश जीवंत है, जिसमें पं. नेहरू ने कहा था कि दुनिया अभी सो रही है, लेकिन भारत जाग रहा है और वह अपनी नियति स्वयं रचेगा। इसी तरह 1962 की लड़ाई हो, भारत-पाक संघर्ष हों, स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के संदेश हों, इन अवसरों पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले संदेशों को नागरिक ध्यान से सुनते और उनसे प्रेरित होते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेढ़ वर्ष पूर्व अपने लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान 'चाय पर चर्चा" नामक जन-संवाद कार्यक्रम के माध्यम से अपने मतदाताओं से सीधा संपर्क स्थापित किया था। चुनाव जीतने के बाद इसे उन्होंने 'मन की बात" का रूप दे दिया। अपने इस कार्यक्रम के माध्यम से वे सामाजिक विषयों पर देश की जनता से मासिक संवाद करते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और प्रजातंत्र में असहमति का भी महत्व होता है। यही कारण होगा कि बिहार चुनाव को देखते हुए विपक्षी दलों द्वारा चुनाव आयोग से निरंतर यह मांग की जा रही है कि 'मन की बात" कार्यक्रम पर रोक लगा दी जाए। जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, आयोग ने इससे इनकार कर दिया है।
'मन की बात" कार्यक्रम कोई राजनीतिक प्रचार का मंच नहीं है। उसमें प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे मनुष्यता के विभिन्न् पक्षों को छुएंगे। वे समाज की दशा-दिशा बताने और उन्हें बदलने वाली बातों पर चर्चा करेंगे। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वालों की हत्याओं पर वे बोलेंगे, भूमि अधिनियम पर किसानों की शंकाओं का जवाब देंगे। लोकतंत्र में संवाद सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होता है। जिस भी शासक ने संवाद खत्म किया, वह लोकप्रियता के शीर्ष पायदान पर तो क्या, ज्यादा समय तक सत्ता में भी नहीं रह पाया। देश में राष्ट्रीय पर्वों पर राष्ट्र के नाम संदेश देने की एक नीरस परिपाटी बनी हुई थी, जिसमें 'मन की बात" एक ताजा हवा के झोंके की तरह आता है, लेकिन इस अपेक्षा के साथ कि उस कार्यक्रम में सरकार के मुखिया गंभीर और चुनौतीपूर्ण विषयों पर तार्किक ढंग से अपनी बात रखेंगे।
प्रधानमंत्री जब 'मन की बात" करते हैं, तब वे एनडीए या भाजपा के नेता नहीं होते। विपक्षी अगर उनके लिए अच्छे बोल नहीं बोलते, तब भी उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वे एक राजपुरुष की तरह बोलेंगे। सच और सटीक बोलेंगे, क्योंकि गलतियां जनता के जेहन में बस जाती हैं। 'मन की बात" का मूल विचार बहुत अच्छा है। एक समय ऐसा आ सकता है, जब 'मन की बात" देश की आवाज बन जाए। वीआईपी संस्कृति, भ्रष्टाचार, अस्पतालों में मरीजों की भर्ती, स्कूलों की बदहाली, ऐसे सैकड़ों विषय हैं, जिन पर प्रधानमंत्री अपनी बात देशवासियों से साझा कर सकते हैं।
वैसे भी किसी राष्ट्र-प्रमुख द्वारा रेडियो के माध्यम से देशवासियों को संबोधित करने की परिपाटी कोई नई नहीं है। अमेरिका और ब्रिटेन में इस तरह के संबोधन परंपरागत रूप से होते रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने 30 भाषणों की एक सीरीज दी थी। ये भाषण 1933 से 1944 के दौरान दिए गए थे। यह पहली बार था जब अमेरिकी कार्यपालिका के सर्वोच्च अधिकारी ने इस तरह से पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग पर देश की जनता से संवाद स्थापित किया था। वैश्विक मंदी से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक से जुड़ी घटनाएं रूजवेल्ट के भाषणों के केंद्र में रहती थीं। रेडियो के माध्यम से वे देश में फैल रही अनेक अफवाहों का खंडन तो करते ही थे, अपनी नीतियों को भी अवाम तक पहुंचा पाते थे। रूजवेल्ट के इन भाषणों की एक राष्ट्रपति के रूप में उनकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उनकी 'फायर साइड चैट" (एक तरह की चौपाल-चर्चा) ने भी उन्हें अवाम में खूब इज्जत दिलाई थी।
इसी तरह विंस्टन चर्चिल के रेडियो संदेश भी बहुत चर्चित थे। नाजियों ने भी रेडियो की ताकत को बखूबी समझा था और हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स के हाथों में जर्मनी के सूचना-प्रचार के तमाम सूत्र रहा करते थे। वैसे भी वह रेडियो का दौर था और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति अभी भविष्य के गर्भ में थी। रेडियो आम जनता का साधन माना जाता रहा है। वह महंगा यंत्र नहीं है, हालांकि भारत में वर्षों तक यह व्यवस्था रही कि रेडियो का इस्तेमाल करने से पहले एक लाइसेंस पड़ेगा। ब्रिटेन में तो रेडियो लाइसेंस की फीस से ही बीबीसी जैसी निष्पक्ष और सरकारी दबाव से मुक्त संस्था चलती है।
भारत में आकाशवाणी, विविध भारती प्रसार भारती के अधीन हैं और सरकारी दबावों से मुक्त नहीं हो पाई हैं। चूंकि रेडियो ध्वनि आधारित माध्यम है, इसलिए उसके काम करने के तरीके टीवी से अलग होते हैं। बीबीसी के दिल्ली स्थित सबसे बड़े नाम मार्क टुली ने कहा था कि डेढ़ सौ शब्द लिखने के बाद उन्हें रपट समाप्त करनी पड़ती है, क्योंकि रेडियो पर लंबी रपटें पसंद नहीं की जातीं।
भारत में जनता से संवाद के लिए आज भी मंचीय भाषण ही सबसे उपयुक्त माने जाते हैं, लेकिन क्या ये संवाद हैं? वह तो एकतरफा कथन होता है। जनता से संवाद दोतरफा या इंटरेक्टिव कैसे हो? संवाद चर्चित और सामयिक विषयों पर हों या ऐतिहासिक विवेचनाओं पर? क्या भावनात्मक संवाद हो या धार्मिक आस्था कानून से भी ऊपर है, इस तरह के तर्कों पर आधारित हो? ये वे विषय हैं, जिन पर राष्ट्रीय सहमति निर्मित हो तो बेहतर। संवैधानिक पद क्या राजनीतिक दलों की निष्ठा से ऊपर होते हैं? क्या इस तरह के संवाद में कार्यपालिका का निर्णय भी है? ऐसे अनेक सवालों के बीच अपार संभावनाओं वाला 'मन की बात" राष्ट्र के जनमानस से जुड़ा हुआ है।

Monday, 26 October 2015

सावरकर मानते थे कि गाय की पूजा करना मानव जाति का स्तर गिराना है |

विनायक दामोदर सावरकर द्वारा मराठी भाषा में लिखी गई किताब ‘विज्ञाननिष्ठ निबंध’ भाग 1 और भाग 2, स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित की थी. इस किताब के अध्याय 1.5 का शीर्षक है – गोपालन हवे, गोपूजन नव्हे. हिंदी में इसका अनुवाद होगा – गाय की देखभाल करिये, लेकिन पूजा नहीं. सत्याग्रह की सहयोगी वेबसाइट स्क्रोलडॉटइन पर प्रकाशित इस अध्याय के अग्रेजी अनुवाद का हिंदी रूपांतरण.
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह स्वाभाविक ही है कि लोगों को गाय अच्छी लगे. गाय लंबे समय से हमारे साथ रही है. वह हमें कई चीजें उपलब्ध करवाती है. उसका दूध, अनाज के साथ मिलकर हमारे शरीर का विकास करता है. जो गायें रखते हैं उनके लिए ये परिवार के किसी सदस्य जैसी ही बन गई हैं. हिंदूओं का करुणापूर्ण मन और हृदय गायों के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है.
हम गाय के प्रति समर्पित हैं क्योंकि वह इतनी उपयोगी है. यह हमारा कृतज्ञता बोध है जो उसे दैवीय बना देता है. जो लोग गाय की पूजा करते हैं यदि उनसे आप पूछें कि गाय पूजनीय क्यों है तो वे सिर्फ यह बताते हैं कि वह कितनी उपयोगी है.
ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य के ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.
यदि गाय की पूजा इसलिए की जाती है कि वह इतनी उपयोगी है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी देखभाल इतनी अच्छी तरह से हो कि उसकी उपयोगिता ज्यादा से ज्यादा बढ़ सके? यदि गाय का सबसे अच्छा उपयोग करना है तो सबसे पहले आपको उसकी पूजा बंद करनी पड़ेगी. जब आप गाय की पूजा करते हैं तो आप मानव जाति का स्तर नीचे गिराते हैं.
ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय तो एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य के ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.
गाय एक तरफ से खाती है और दूसरी तरफ से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है. जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी में बैठ जाती है. फिर वह अपनी पूंछ (जिसे हम सुंदर बताते हैं) से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला लेती है. एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता उसे दैवीय कैसे माना जा सकता है?
ऐसा क्यों है कि गाय का मूत्र और गोबर तो पवित्र है जबकि अंबेडकर जैसे व्यक्तित्व की छाया तक अपवित्र? यह एक उदाहरण दिखाता है किस तरह हमारी समझ खत्म हो गई है.
ऐसा क्यों कि गाय का मूत्र और गोबर तो पवित्र है जबकि अंबेडकर जैसे व्यक्तित्व की छाया तक अपवित्र? यह एक उदाहरण दिखाता है किस तरह हमारी समझ खत्म हो गई है.
यदि हम ये कहते हैं कि गाय दैवीय है और उसकी पूजा हमारा कर्तव्य है तो इसका मतलब है कि मनुष्य गाय के लिए बना है, गाय मनुष्य के लिए नहीं. यहां उपयोगितावाद की दृष्टि जरूरी है : गाय की अच्छी देखभाल करें क्योंकि वह उपयोगी है. इसका मतलब है कि युद्ध के समय, जब यह अपंग हो सकती है, इसे न मारने की कोई वजह नहीं है.
यदि हमारे हिंदू राष्ट्र के किसी अभेद्य नगर पर हमला होता है और रसद खत्म हो रही है तो क्या हम नई रसद आने तक इंतजार करेंगे? तब राष्ट्र के प्रति समर्पण, सेना की कमान संभाल रहे नेता के लिए यह कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह गोवध का आदेश दे और गोमांस को खाने की जगह इस्तेमाल करे. यदि हम गाय की ऐसे ही पूजा करते रहे तो हमारे सैनिकों के सामने फिर यही विकल्प होगा कि वे भूख से मर जाएं और नगर पर दूसरों का कब्जा हो जाए.
यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात नहीं है कि गाय पूज्य है, जैसी मूर्खतापूर्ण और सरल धारणा ने देश को हानि पहुंचाई है. इतिहास बताता है कि हिंदू साम्राज्यों को इस मान्यता की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा है. राजाओं को अक्सर युद्ध हारने पड़े क्योंकि वे गाय की हत्या नहीं कर सकते थे. मुसलमानों ने गाय को ढाल की तरह इस्तेमाल किया क्योंकि उन्हें भरोसा था कि हिंदू इस पशु को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.
गाय पूज्य है, जैसी मूर्खतापूर्ण और सरल धारणा ने देश को हानि पहुंचाई है. इतिहास बताता है कि हिंदू साम्राज्यों को इस मान्यता की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा है.
जो बात गायों के लिए सही है, वही मंदिरों के लिए भी कही जा सकती है. जब एक शक्तिशाली हिंदू सेना ने मुल्तान पर आक्रमण किया तो वहां के मुसलमान शासक ने पवित्र सूर्य मंदिर तोड़ने की धमकी दे दी. इसके तुरंत बाद हिंदू सेना वहां से लौट आई. ठीक यही तब हुआ जब मल्हारराव होलकर काशी को स्वतंत्र करवाने वहां पहुंचे. लेकिन जब मुसलमानों ने वहां मंदिर तोड़ने, ब्राह्मणों की हत्याएं करने और जो भी हिंदुओं के लिए पवित्र है उसे अशुद्ध करने की धमकी दी तो उन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए.
कुछ गायों, ब्राह्मणों और मंदिरों को बचाने जैसी मूर्खता के कारण देश का बलिदान हो गया. इसमें कुछ भी गलत नहीं था यदि  देश के लिए उनका बलिदान किया जाता. हर एक मुसलमान आक्रमणकारी को युद्ध जीतने दिया गया क्योंकि हिंदू गाय और मंदिर बचाना चाहते थे. इस तरह पूरा देश हाथ से चला गया.
विकल्प दो हैं जिनमें से एक को चुनना है. उपयोगितावादी दृष्टि और धर्मांधता की जकड़न. धार्मिक ग्रंथ और पुजारी सिर्फ यही कहते हैं कि यह पाप है और यह पवित्र है: वे यह नहीं बताते कि क्यों. विज्ञान धर्मांधता से अलग है. वह चीजों की व्याख्या करता है और हमें सही या गलत जानने के लिए वास्तविकता का परीक्षण करने की अनुमति देता है. विज्ञान हमें बताता है कि गाय उपयोगी है इसलिए हमें उसे नहीं मारना चाहिए – लेकिन यदि वह मनुष्य की भलाई के लिए अहितकर सिद्ध हो तो वह मारी भी जा सकती है.

अब्राहम लिंकन अनजानी शख्सियत : एक नायक के निर्माण की कहानी @चंदन पांडेय

पुस्तक समीक्षा स्ट्रिपडेल कारनेगी रचित ‘लिंकन द अननोन’ के अनुवाद ‘अब्राहम लिंकन अनजानी शख्सियत’ का एक अंश – ‘अगर दासता गलत नहीं है तो कुछ भी गलत नहीं है. मैं अपने जीवन में किसी निर्णय की सच्चाई को लेकर इतना आश्वस्त नहीं रहा, जितना आज हूं, लेकिन मैं सुबह नौ बजे से ही लोगों से मिलता और हाथ मिलाता रहा हूं. मेरा हाथ कुछ जकड़-सा गया है. भविष्य में इस दस्तखत का बारीकी से निरीक्षण किया जाएगा. अगर मेरे हाथ में तनिक भी कंपन हुआ तो लोग कहेंगे कि उसके मन में कोई-न-कोई दुविधा जरूर थी.’ (अब्राहम लिंकन, एक जनवरी, 1863 के दिन मुक्ति के घोषणा-पत्र पर दस्तखत करने से ठीक पहले सिवार्ड से बात करते हुए).

किताब : अब्राहम लिंकन अनजानी शख्सियत (लिंकन द अननोन का हिंदी अनुवाद)
लेखक : डेल कारनेगी 
अनुवाद : कृष्णमोहन
प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपये

दास प्रथा से मुक्ति के नायक अब्राहम लिंकन का जीवन और उनका समय, इतिहास और सभ्यता के अध्ययन की कुंजी है. मानव सभ्यता के विकास में रुचि रखने वाले अक्सर किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए लिंकन के जीवन में झांककर देखना चाहते होंगे, ऐसा ‘अब्राहम लिंकन अनजानी शख्सियत’ से गुजरते हुए समझा जा सकता है.
इस पुस्तक को पढ़ते हुए जो बात सर्वाधिक चमक के साथ उभरती है वह है : एक नायक के निर्माण की प्रक्रिया. ये नायक हमारी आपकी तरह जीवन जी रहे होते हैं, लगन से अपने काम में लगे होते हैं. केंद्र में दाखिल सत्ता इनको बेपरवाही की हद तक अनदेखा किए रहती है, अपना शिकार बनाती है, इनका विश्वास कुचलती है और कभी-कभार तो इन्हें ही कुचल देती है. इनके आसपास की जनता मसरूफ रहती है, कुछेक दोस्त होते हैं जिन्हें इन पर अपने से भी अधिक भरोसा होता है और फिर जब ये खास लोग अपने महती कार्य को अंजाम देते है तो नायक का जन्म होता है.
अब्राहम लिंकन का मैरी टॉड से प्रेम और विवाह उन्हें ऊंचाईयों तक जरूर ले गया लेकिन यही घटनाएं उनके जीवन की त्रासदी भी हैं
लिंकन के निर्माण को डेल कारनेगी ने उनके जीवन की उन महत्वपूर्ण घटनाओं के मार्फत देखा है, जिनसे प्रभावित होकर खुद लिंकन ने फैसले लिए या उनके प्रभाव से दूसरों ने लिए. इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है लिंकन का विवाह. इस किताब में लिंकन के प्रेम और वैवाहिक जीवन पर पर्याप्त और समझदारी भरा अध्ययन दिखता है. मसलन, अपनी पहली प्रेमिका ‘एन’ की मृत्यु के बाद लिंकन अपना शहर छोड़ने का फैसला लेते हैं. इस प्रेम का उनके मन-मस्तिष्क पर गहरा असर पड़ता है.
दूसरे शहर यानी स्प्रिंगफील्ड में लिंकन का प्रवास उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण समय है. यहां वे वकालत में करियर आजमाने आए हैं और यहीं उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है. इसी शहर में वे डेमोक्रेट डगलस से विवाद करते हैं और अपने कई ओजस्वी भाषण देते हैं और यहीं से उनके राष्ट्रपति बनने की राह खुलती है. ये सब घटनाएं पहली नजर में लिंकन के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अंश जान पड़ती हैं लेकिन उनके जीवन को एक अलग दिशा देने वाली घटना जो इस शहर में घटी और जिसे लेखक ने भलीभांति लक्षित किया है, वह थी – मैरी टॉड से प्रेम.
लिंकन का यह प्रेम और इस स्त्री से विवाह उन्हें ऊंचाइयों तक जरूर ले गया लेकिन यही घटना लिंकन के जीवन की त्रासदी भी है. इंसान की अतिमहत्वाकांक्षाओं को एक खूबसूरत चित्र के मार्फत दर्ज किया जाए तो वह शर्तिया मेरी टॉड का रूप लेगी. वह आत्मविश्वास भी क्या गजब रहा होगा जहां एक लड़की तय करती है या बात-बात में कहती है कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति से ही विवाह करेगी. लेखक ने मैरी की बहन के कथन का उल्लेख किया है, ‘(मैरी) चमक-दमक, शक्ति और प्रदर्शन पसंद करती थी और मेरी जानकारी में सबसे महत्वाकांक्षी महिला थी.’
इस किताब से आप जान पाएंगे कि वे कौन लोग थे और उनकी मंशा क्या थी जो लिंकन को राष्ट्रपति की गद्दी तक तो ले गए लेकिन फिर वहां से हटाने की मुहिम भी चलाई
लेखक एक सुनहरे संयोग का जिक्र करता है. 1860 में जिन दो लोगों ने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी दर्ज की थी – स्टीफेन ए डगलस और अब्राहम लिंकन – वे दोनों 1939 में (जब मैरी लिंकन से मिली) स्प्रिंगफील्ड में ही थे और, संयोग की पराकाष्ठा यह कि, दोनों ही ने मैरी से विवाह का प्रस्ताव रखा था. डगलस एक सितारे की तरह उग रहे थे और जाहिर है, मैरी की पहली पसंद भी वही बने. लेकिन यह डेमोक्रेट उम्मीदवार समय रहते उन्हें पहचान गया. फिर डगलस ने एक दूसरी लड़की देखी और प्रेम कर लिया. डगलस की ईर्ष्या को जगाने के लिए ही मैरी ने लिंकन से नजदीकी बनाई थी. डेल कारनेगी ने इन प्रसंगों को कमाल का लिखा है और इनके जरिए लिंकन के जीवन के सर्वाधिक निर्णायक पहलू को उजागर किया है.
इस किताब से आप जान पाएंगे कि आखिर वे कौन से कारक थे जिसने ‘ली’ जैसे योद्धा, जो आदर्शवादी था और जिसने अपने सारे गुलामों को आजाद कर दिया था, को गुलामों के विरुद्ध ही लड़ने पर मजबूर किया. वे कौन लोग थे और उनकी मंशा क्या थी जो लिंकन को राष्ट्रपति की गद्दी तक तो ले गए लेकिन फिर वहां से हटाने की मुहिम भी चलाई. लिंकन की ह्त्या के प्रयास करने वाले कौन थे और आखिरकार जान विल्कीस बूथ कौन था जिसने लिंकन की ह्त्या कर दी.
लिंकन के व्यक्तित्व के रेशे-रेशे से परिचय कराने वाली यह पुस्तक भारतीय संदर्भो में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हमारे समाज में जाति की जकड़ कहीं से भी दासप्रथा से कम जहरीली नहीं है. इन दोनों प्रथाओं के मुक्ति संघर्ष में साम्य भी है. लेखक डेल कारनेगी की अनूठी दृष्टि के कारण यह किताब दस्तावेज की तरह है, जिसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए. कृष्णमोहन अपने अनुवादकीय में ठीक ही लिखते हैं – एक ऐसी किताब जिसे पढ़ने के बाद कोई पहले जैसा नहीं रह सकता.