Monday, 18 January 2016

जनरल जेएफआर जैकब: भारतीय गौरव की गाथा @सौम्या शंकर

यह कहना सही होगा कि 1971  के भारत-पाक युद्ध को सीज़फायर से संपूर्ण समर्पण में तब्दील करने में जनरल जेएफआर जैकब की भूमिका सबसे अहम रही. यह उनकी कूटनीतिक सफलता थी जिसने भारतीय उपमहाद्वीप का भूगोल बदल दिया और एक नया देश अस्तित्व में आया. जनरल जैकब हर उस सम्मान के हकदार हैं जो एक देश किसी नायक को दे सकता है.
1923 में जनरल जैकब कोलकाता के एक धार्मिक यहूदी परिवार में पैदा हुए थे. दूसरे विश्वयुद्ध के समय उन्होंने हिटलर के जर्मनी से जान बचाकर भाग रहे एक यहूदी परिवार को गोद लिया था.
उस यहूदी परिवार की दारुण यातना भरी कहानी सुनने के बाद जनरल जैकब ने तत्कालीन ब्रिटिश-इंडियन सेना में जाने का निश्चय किया लेकिन वहां उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा. उन्हें धार्मिक आधार पर भेदभाव झेलना पड़ा. लेकिन वे सेना में बने रहे. एक इजराइली पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा कि भारतीयों में इस तरह की चीज़ नहीं पायी जाती.
खैर विश्वयुद्ध समाप्त हो गया. नाजी जर्मनी का पतन हुआ और जैकब वापस भारत लौट आए. देश की आजादी के बाद भी वे सेना में बने रहे. सेना में उन्होंने तेजी से उंचाइयां चढ़ी. 1969 में सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ ने उन्हें पूर्वी कमान का प्रमुख नियुक्त कर दिया.
1971 war
इसी कमान की अगुवाई करते हुए उनके जीवन का सबसे स्वर्णिम अवसर आया. 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी जनरल एएके नियाजी को आत्मसमर्पण करने के लिए उन्होंने मजबूर किया.
युद्ध के बीच नियाजी ने जनरल जैकब को लंच पर आमंत्रित किया था. लंच के दौरान उन्होने सीजफायर की संभावनाओं पर चर्चा की. सिर्फ एक अधिकारी के साथ वहां गए जैकब साथ में आत्मसमर्पण के कागजात लेकर गए थे. उन्होंने चतुराई से 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण की जमीन तैयार की थी.
यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी. जैकब के साथ उस दौरान सिर्फ 3000 के करीब सैनिक थे. बाद में उन्होंने उस घटना के बारे में बताया, 'मैंने ईश्वर से मदद की दुआ मांगी.' नियाजी के कैंप से बाहर निकल कर बाहर बरामदे में आ गए थे. आधे घंटे तक वे अपना पाइप पीते रहे और टहलते रहे. 'मैं सोच रहा था कि अगर नियाजी समर्पण नहीं करेगा तब मैं क्या करूंगा? उनके पास 30,000 जवान थे जबकि मेरे पास सिर्फ 3,000. वे अगले तीन हफ्तों तक लड़ाई जारी रख सकते थे.'
फिर भी नियाजी ने आत्मसमर्पण कर दिया. वह घटना आजाद भारत के सामरिक इतिहास की सबसे गौरवपूर्ण घटना मानी जाती है.
'उनकी सफलता की सबसे बड़ी वजह रही रणनीति कुशलता. उन्होंने सीमा पर मौजूद पाकिस्तान की मजबूत कमान से सीधे टकराव नहीं लिया. दुश्मन के ताकतवर मोर्चों पर भिड़ने की बजाय उन्होंने सबको बाइपास करते हुए सीधे ढाका में हमला किया.
वो नियाजी के साथ मानसिक युद्ध लड़ रहे थे. पाकिस्तानी सैनिक अपनी चौकियों पर इंतजार करते रह गए. नियाजी के सभी मजबूत मोर्चों को उन्होंने एक तरह से अलग-थलग कर दिया,' यह कहना है उनके दोस्त और सहयोगी रहे मेजर जनरल अशोक मेहता का.
'पाकिस्तानी बार-बार सीजफायर के लिए हल्ला मचा रहे थे लेकिन ये जैकब थे जिन्होंने इसे आत्मसमर्पण में तब्दील किया. 14 दिसंबर के आस-पास सुरक्षा परिषद में रूस ने भारत के पक्ष में 4-5 बार वीटो का इस्तेमाल किया था. जबकि अमेरिका सुरक्षा परिषद पर सीज़फायर के लिए दबाव डाल रहा था. अगर ऐसा होता तो इतिहास एकदम अलग होता,' मेहता बताते हैं.
बीबीसी को जैकब ने झूठी खबर दी कि ढाका में सेना की ब्रिगेड को उतारा गया है.सच्चाई सिर्फ एक बटालियन की तैनाती थी
'जैकब उस समय अर्धसैनिक बलों का इस्तेमाल कर रहे थे. उन्होंने बीबीसी को झूठी खबर दी कि ढाका के उत्तर में भारतीय सेना की एक पूरी ब्रिगेड को उतारा गया है. जबकि सच्चाई यह थी कि वह सिर्फ एक बटालियन थी. इसके साथ ही वायुसेना द्वारा ढाका स्थित गवर्नर हाउस पर हमला करने की खबर ने मिलकर पाकिस्तानी पक्ष पर जबर्दस्त मानसिक दबाव बना दिया.'
यह बात लगभग हर बड़ी और महान घटनाओं के साथ जुड़ी होती है. इस कहानी के साथ भी कई शंकाएं और षडयंत्रकारी कहानियां जुड़ी हुई हैं.
नियाजी ने कुछ समय बाद बयान दिया था कि जनरल जैकब ने उन्हें मजबूर किया. लेकिन पाकिस्तान में इस हार की जांच के लिए बने हमूदुर रहमान आयोग ने नियाजी के बारे में कहा- 'आत्मसमर्पण के लिए तैयार होकर उसने (नियाजी) बेहद शर्मनाक और अछम्य काम किया है. जबकि उसने खुद ही भारतीय कमांडर के सामने सीजफायर का प्रस्ताव रखा था.'
'जनरल जैकब और मेरे बीच इस बात को लेकर लंबी बहस हुई थी कि ढाका हमारे लक्ष्य में शुरुआत से ही था या फिर यह भारतीय सेना की कार्रवाई के बाद उसे मिली तेज सफलता के कारण बाद में शामिल हुआ. उनका जवाब था कि ढाका ही शुरुआत से असली लक्ष्य था.' मेहता बताते हैं. वे साथ ही जोड़ते हैं, 'लेकिन लेफ्टि. जनरल सगत सिंह की राय इससे अलग थी. दुर्भाग्य से वह बहस कभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंच सकी.'
हालांकि जनरल जैकब के दावे की ताकीद खुद उनकी दुश्मन पाकिस्तानी सेना ने ही कर दी. इस युद्ध से संबंधित पाकिस्तान नेशनल डिफेंस कॉलेज के एक अध्ययन में कहा गया है, 'इसका सारा श्रेय जनरल जैकब को जाता है. उन्होंने पूर्वी कमान को चतुराई और योजनाबद्ध तरीके से संगठित किया था जिसे उनके कमांडरों सफलता से लागू भी किया.'
जैकब ने महज 3,000 सैनिकों की मदद से पाक जनरल नियाजी से 93,000 सैनिकों के साथ सरेंडर कराया
जैकब के एक और दोस्त वाइस एडमिरल केके नायर ने भी इस ऑपरेशन से जुड़े सभी विवादों को खारिज किया. 'वह एक महान भारतीय थे और महान सैनिक थे. मैं उन्हें अच्छे से जानता हूं. ढाका सरेंडर की घटना पर किसी भी तरह का विवाद पैदा करना बिल्कुल गलत और दुर्भाग्यपूर्ण है,' नायर कहते हैं. वे आगे कहते हैं, 'वह देश के प्रति ऐसे तमाम लोगों से कहीं ज्यादा समर्पित थे जिन्हें मैंने अपने जीवन में उच्च पदों पर देखा है.'
सिर्फ नियाजी और पाकिस्तानी सेना का समर्पण ही नहीं बल्कि ऑपरेशन जैकपॉट में भी जनरल जैकब की केंद्रीय भूमिका रही. ऑपरेशन जैकपॉट का उद्देश्य मुक्ति बाहिनी को संगठित करना था.
उस महान अभियान के अगुआओं में जैकब आखिरी जिंदा शख्स थे. लिहाजा अब उन कहानियों और विवादों की सत्यता को प्रमाणित करने वाले लोग बहुत कम हैं. मेजर जनरल शेरू थपलियाल, जैकब से हुई अपनी बातचीत को याद करते हैं, 'उन्हें सैम मानेकशॉ का टेलीफोन आया. मानेकशॉ ने उनसे कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश में घुसने के लिए तैयार रहना चाहिए. जैकब ने सैम को बोला कि यह संभव नहीं है.'
थपलियाल सवाल करते हैं, 'लेकिन सैम मानेकशॉ कमान के प्रमुख से क्यों बात कर रहे थे? उन्हें सेना के कमांडर से बात करना चाहिए थी. इसी तरह की कुछ और गुत्थियां हैं. इसके बाद भी 1971 के युद्ध में उनके योगदान को किसी लिहाजा से नकारा नहीं जा सकता. हमने एक महान सैनिक खो दिया.'
सेना से रिटायर होने के बाद उन्होंने व्यापार में हाथ आजमाया पर असफल रहे. इसके बाद वे सैन्य मामलों के सलाहकार के तौर पर भाजपा से जुड़ गए. 1998 में उन्हें गोवा में लंबे समय से जारी राजनीतिक अस्थिरता के बीच राज्यपाल बनाया गया. उनके राजभवन पहुंचने के कुछ महीनों के भीतर गोवा में कई सरकारें बनी और गिरीं. अंतत: 1999 में उन्हें राजनीतिक दलों के बीच राष्ट्रपति शासन के लिए सहमति बनाने में कामयाबी मिल गई.
रिटायर होने के बाद उन्होंने व्यापार में हाथ आजमाया पर विफल रहे. इसके बाद वे सैन्य मामलों के सलाहकार के तौर पर भाजपा से जुड़ गए
गोवा के राज्यपाल के रूप में उन्होंने सरकारी कामकाज की धीमी और अकर्मण्य छवि को काफी हद तक खत्म कर दिया था. उन्होंने सरकारी दफ्तरों में औचक निरीक्षण शुरू कर दिया था. आम जनता के लिए राजभवन के दरवाजे खोल दिए थे. इस दौरान उनका सबसे चर्चित और सफल काम रहा दो जंगलों को खनन माफियाओं के चंगुल से बचाना.
भारतीय सेना में सेवा देने वाले आखिरी कुछेक अंतिम यहूदियों में शामिल हैं जनरल जैकब. उनका इज़राइल से गहरा रिश्ता था. कुछ लोगों का कहना था कि वे अपने इन संबंधों के दम पर 1990 के आर्थिक कठिनाई वाले दौर में इज़राइल से भारत के लिए वित्तीय मदद भी लाते थे.
इज़राइल में जैकब की छवि किसी नायक सरीखी है. लोग उन्हें जननाायक शिमोन पेरेज़ की तरह प्यार देते हैं. उनको लिखे एक पत्र में पेरेज़ ने कहा, 'हमें आप पर गर्व कि आपने एक भारतीय यहूदी के रूप में भारत की रक्षा के लिए इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. हमें भरोसा की है कि आपकी दोस्ती भारत और इज़राइल के बीच सहयोग और संबंधों को गहराई देने में मदद करेगी.'
आपको पता है कि इज़राइली सेना के म्युजियम लाटरन में एक पूरा सेक्शन जेएफआर जैकब को समर्पित है. इसमें उनकी यूनिफॉर्म और पिस्तौलों को जनता के दर्शन के लिए रखा गया है. 1995 में इज़राइल में जेरुशलम की स्थापना के 3000 साल पूरा होने के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में जनरल जैकब सम्मानित तिथि के रूप में मंच पर मौजूद थे.
जनरल जैकब ने ब्रिटिश-इंडियन सेना में जाने का निश्चय किया. वहां उन्हें धार्मिक आधार पर भेदभाव झेलना पड़ा
लेकिन जैकब भारत को किसी भी चीज से ज्यादा प्यार करते थे. 'इज़राइली इस बात से बेहद प्रभावित थे कि भारतीय सेना में एक यहूदी तीन सितारा जनरल है. मैं कहना चाहूंगा कि वह ज्यादातर इज़राइली सैनिकों की तरह ही बेहद आक्रामक थे. वह भारत की सुरक्षा को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे. वह पूरी तरह से भारतीय थे जिसे अपनी भारतीयता पर गर्व था. इस बारे में कोई संदेह नहीं है,' नायर कहते हैं.
अपने आखिरी दिनों में जैकब कुछ दिन के लिए कलिमपोंग स्थित विक्टोरियन शैली के बंगले में रहे थे. वहां उनके साथ रहने वालों के मुताबिक जनरल बेहद खुशमिजाज और हंसमुख इंसान थे.
'हम एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. मैंने उनकी दोनों किताबों की समीक्षा की है. रिटायरमेंट के बाद मैंने उनकी थोड़ा आलोचना की थी. इसके लिए वो हमेशा मेरी टांग खींचते रहते थे. जैकब को सैम मानेकशॉ के साथ थोड़ी दिक्कत थी. उन्हें हमेशा यह लगता था कि उन्हें 1971 की लड़ाई में उनके योगदान के मुताबिक उनका हक नहीं मिला,' जनरल मेहता कहते हैं.
'मैंने उन्हें याद दिलाया कि सेना में सिर्फ कमांडर को पुरस्कार मिलता है, उन्होंने मुझसे मजाक में कहा, मुझे पता है, तुम सैम मानेकशॉ के आदमी हो. उनकी यह शिकायत सरकार से भी रही. लेकिन जब भाजपा की सरकार बनी तो उसने जैकब को पंजाब और गोवा का राज्यपाल बनाया.'
क्या यह सच है कि भारतीय सेना के आखिरी यहूदी जनरल को उसका वाजिब हक नहीं मिला? 'वे सेना में सर्वोच्च पद तक पहुंचे,' नायर बताते हैं. 'मुझे लगता है कि उन्हें उनका हक मिला. अपने आखिरी दिनों में भी वो बेहद खुश और संतुष्ट थे. मैं उनसे नियमित मिलता रहता था. मरने कुछ दिन पहले तक.
जैकब एक अव्यवस्थित व्यक्ति भी थे. थपलियाल एक घटना को याद करते हुए बताते हैं, 'मैं पहली बार उनसे 1975 में आर्टिलरी स्कूल में ट्रेनिंग के दौरान मिला था. वो किसी कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने आए थे. एक शाम क्लब में एक युवा कैप्टन ने उनसे पूछा, 'सर, आप क्या पीएंगे?' उन्होंने जवाब दिया, 'भैंस का दूध'.
'युवा कैप्टर गंभीर हो गया. यह उसके लिए आदेश था. किसी को डेयरी भेजकर भैंस का दूध मंगाया गया. कैप्टन दूध लेकर जैकब के सामने उपस्थित हुआ. जैकब कैप्टन पर चल्लाए- तुम पागल हो गए हो क्या. शाम को भैंस का दूध कौन पीता है. दूध वापस ले जाकर जनरल के लिए व्हिस्की का प्रबंध किया गया.'
कुछ साल पहले दिए गए एक इंटरव्यू में जैकब ने कहा था, 'मैं भारत में पैदा हुआ और जीवन भर इसकी सेवा की है. यहीं पर मैं मरना भी चाहता हूं.'
उन्होंने ऐसा ही किया. जनरल जेएफआर जैकब, एक सैनिक जो युद्ध को जानता-समझता था, उसे कविताएं भावुक कर देती थीं. दिल्ली के आर्मी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. वे 93 साल के थे. एक भरा-पुरा जीवन जो जीवनपर्यंत कुंवारा रहा.
उनकी रचना बांग्लादेश फिलहाल इंस्लामी चरमपंथ की चपेट में है.

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