जनता दल यूनाइटेड-राजद गठबंधन और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ही खेमे कर्पूरी जयंती को बड़े पैमाने पर मनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं.
कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत पर दावेदारी के बारे में उनके बेटे और जनता दल यूनाइटेड से राज्यसभा के सदस्य रामनाथ ठाकुर की अपनी राय है.
वो कहते हैं, “कर्पूरी ठाकुर हमेशा जनता की मांग पर ध्यान देने वाले नेता रहे. जनता की मांग के मुताबिक और कर्पूरी जी की नीति और सिद्धांतों पर राज्य में जद-यू और राजद गठबंधन बना, जिस पर जनता ने मुहर लगाई.”
वहीं बिहार में भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता नंद किशोर यादव कहते हैं, “कर्पूरी जी जीवन भर गैर कांग्रेसवाद के नारे को बुलंद करते रहे. कांग्रेस के वंशवाद के ख़िलाफ़ और कांग्रेस के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लगातार लड़ते रहे. आज वही लोग जो कर्पूरी जी को अपना नेता मानते हैं, कांग्रेस की गोद में चले गए.”
इतना ही नहीं, नंद किशोर यादव ये भी दावा करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ही कर्पूरी की असली वारिस है.
वो कहते हैं, "कर्पूरी जी सर्वोच्च पद पर पिछड़ा समुदाय का व्यक्ति देखना चाहते थे. भाजपा ने नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाया है और गैर कांग्रेसवाद का झंडा हमने ही बुलंद किया हुआ है, तो हम ही उनके असली वारिस हो सकते हैं."
ऐसे में बड़ा सवाल ये उभरता है कि आखिर बिहार में जिस हज्जाम समाज की आबादी दो फ़ीसदी से कम है, उस समाज के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत के लिए इतनी हाय तौबा उनके निधन के 28 साल बाद क्यों मच रही है?
भारतीय जनता पार्टी देश भर में अपने लिए नये नये नायकों को तलाश कर रही है, ऐसे में पार्टी का ध्यान कर्पूरी ठाकुर पर जरूर गया होगा.
कर्पूरी के वारिस कहलाने वाली पार्टियों को बीजेपी की कोशिश रास नहीं आई होगी. लेकिन क्या ये पार्टियां कर्पूरी पर दावे के साथ उनकी विरासत को संभालने की भी कोशिश करेंगी?
मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुँचना लगभग असंभव ही था.
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे. 1952 के बाद बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे.
राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए.
जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता. उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं.
उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा.
उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए. उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए.”
एक दूसरा उदाहरण है, कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले.
इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना. मेरी बदनामी होगी.”
रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया.
प्रभात प्रकाशन ने कर्पूरी ठाकुर पर ‘महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर’ नाम से दो खंडों की पुस्तक प्रकाशित की है. इसमें कर्पूरी ठाकुर पर कई दिलचस्प संस्मरण शामिल हैं.
उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा. बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा. हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं."
रामनाथ अपने पिता की सादगी का एक किस्सा बताते हैं, “जननायक 1952 में विधायक बन गए थे. एक प्रतिनिधिमंडल में जाने के लिए ऑस्ट्रिया जाना था. उनके पास कोट ही नहीं था. एक दोस्त से मांगना पड़ा. वहां से यूगोस्लाविया भी गए तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा हुआ है और उन्हें एक कोट भेंट किया.”
हालांकि बिहार की राजनीति में उनपर दल बदल करने और दबाव की राजनीति करने का आरोप भी ख़ूब लगाया जाता रहा है. लेकिन कर्पूरी बिहार की परंपरागत व्यवस्था में करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे.
कांग्रेस विरोधी राजनीति के अहम नेताओं में कर्पूरी ठाकुर शुमार किए जाते रहे. इंदिरा गांधी अपातकाल के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें गिरफ़्तार नहीं करवा सकीं थीं.
पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया. उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया.
1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे.
वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी. उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया.
मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था.
युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी. इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए.
मुख्यमंत्री के तौर पर महज ढाई साल के वक्त में गरीबों के लिए उनकी कोशिशें की ख़ासी सराहना हुई.
दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिशों में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी.
वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी. वे सरकार बनाने के लिए लचीला रूख अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे.
यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी.
कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था.
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