सोनिया गांधी और राहुल गांधी को नेशनल हेरल्ड मामले में दिल्ली की अदालत में हाजिर होना पड़ा. कांग्रेस पार्टी की रणनीति इसे सरकारी प्रताड़ना के रूप में प्रचारित कर सहानुभूति बटोरने की थी. 38 साल पहले चार अक्टूबर, 1977 को इंदिरा गांधी सहानुभूति का यह खेल सफलता से खेल चुकी हैं. इंदिरा गांधी को इमरजेंसी के अपराधों की सजा के तौर पर अदालत में हाजिर होना पड़ा था. इस मौके का इस्तेमाल करते हुए इंदिरा गांधी ने देश के जनमत को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब "एक जिंदगी काफी नहीं" में इंदिरा गांधी को कोर्ट में ले जाने और हिरासत मे रखे जाने की घटना का विस्तार से वर्णन किया है. हम उनकी किताब से उस वाकए का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं, और साथ ही कुछ सवाल भी छोड़ रहे हैं, क्या इंदिरा और नेशनल हेरल्ड में कोई समानता है? क्या सोनिया और राहुल में इंदिरा वाला चुंबकीय आकर्षण है? क्या नेशनल हेरल्ड में हुई पेशी के जरिए सोनिया और कांग्रेस की स्थिति उसी तरह बदलेगी जैसी इंदिरा ने बदला था?
जनता सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के बीच दरार पैदा होने लगी थी. इसका पार्टी और सरकार दोनो पर ही असर पड़ा. दोनों इस बात पर भी सहमत नहीं हो पाए कि इमरजेंसी के दौरान ज्यादतियों की जांच के लिए कोई कमीशन नियुक्त किया जाय या नहीं.
मोरारजी देसाई ने फाइल पर लिख दिया था कि देश की जनता ने इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को हराकर उन्हें पर्याप्त सजा दे दी थी. लेकिन चरण सिंह इससे संतुष्ट नहीं थे. बाद में वे अपनी बात मनवाने में सफल रहे. क्योकि सभी कैबिनेट मंत्री न सिर्फ कमीशन नियुक्त करने बल्कि इंदिरा गांधी पर मुकदमा चलाए जाने की भी मांग करने लगे.
पता चला कि इंदिरा गांधी ने अपने बेटे की मारुती कार के बारे में एक प्रश्न के उत्तर में झूठ बोला था. लोकसभा ने उनकी गिरफ्तारी के प्रस्ताव को पास कर दिया. सदन भंग हुआ तो मैंने देखा कि कांग्रेस की महिला सांसदों ने इंदिरा गांधी को अपने घेरे में ले लिया था, ताकि उन्हें गिरफ्तार न किया जा सके.
आखिरकार जब सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार किया तो उन्होंने जमानत लेने से इनकार कर दिया. तीन अक्टूबर 1977 की सुबह उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की गई थी. उसी दिन असाधारण योग्यता और नैतिक साहस वाले एक आईपीएस अधिकारी एनके सिंह ने उन्हें एफआआईआर की एक प्रति दे दी थी.
उन पर अपने सरकारी पद का दुरुपयोग करने और चुनाव प्रचार के लिए जीपों का प्रबंध करने का आरोप लगाया गया था.
एनके सिंह सुबह आठ बजे इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने के लिए उनके घर पहुंचे तो वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने काफी हो-हल्ला किया. राजीव और संजय गांधी एक कार में पुलिस के पीछे-पीछे चलते रहे. इंदिरा गांधी की हिरासत के लिए बड़कल झील के पास एक जगह चुनी गई थी.
झील और फरीदाबाद के बीच का रेलवे फाटक बंद था. इंदिरा गांधी कार से नीचे उतर गईं और अपने वकील से सलाह करने की जिद करने लगीं. तब तक वहां भारी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी और उनकी रिहाई के समर्थन में नारे लगाने लगी थी. एनके सिंह उन्हें पुरानी दिल्ली में दिल्ली पुलिस की ऑफिसर्स मेस में ले गए. इंदिरा गांधी को वह जगह ठीक लगी और उन्होंने रात भर वहीं पर आराम किया.
अगली सुबह चार अक्टूबर को उन्हें मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया तो पुलिस के लिए उनके समर्थकों की भीड़ पर काबू पाना मुश्किल हो गया. मजिस्ट्रेट ने उन पर लगे आरोपों के समर्थन में सबूतों की मांग की. उन्होंने बताया कि पिछले दिन ही उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी और सबूत अभी इकट्ठा किए जा रहे थे. मजिस्ट्रेट ने वादी पक्ष से पूछा कि, तो फिर वे क्या करें. सरकार के पास कोई जवाब नहीं था.
इसके बाद मजिस्ट्रेट ने इंदिरा गांधी को इस आधार पर साफ बरी कर दिया कि उनकी हिरासत के पक्ष में कोई सबूत नहीं दिया गया था. सरकार ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं की. (1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो उक्त मजिस्ट्रेट को जमकर प्रताड़ित किया गया)
इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच के लिए जस्टिस जेसी शाह कमीशन नियुक्त किया गया था. इस एक सदस्यीय कमीशन को इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की कोई खबर नहीं थी. जस्टिस शाह ने जांच के बीचोबीच इस गिरफ्तारी से नाराज होकर इस्तीफा दे दिया.
उन्हें इंदिरा गांधी के खिलाफ 48,000 शिकायतें मिल थीं. मैं उनकी बंबई वापसी से पहले उनसे मिलने में सफल हो गया था. उन्होंने कहा कि उनसे बात किए बिना इंदिरा गांधी को कैसे गिरफ्तार कर लिया गया था. उनका मानना था कि इस गिरफ्तारी से इंदिरा गांधी की खोई हुई प्रतिष्ठा फिर से लौट आई थी. मोरारजी भाई बड़ी मुश्किल से जस्टिस शाह से इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी कर पाए.
मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि आम जनता ने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी को सही नहीं माना था. इसके बाद उनके प्रति सहानुभूति की एक लहर उठ खड़ी हुई. वे इस गिरफ्तारी में हुई गड़बड़ियों का पूरा लाभ उठाने में सफल रहीं.
सरकार ने आनन-फानन में और पूरे कागजातों और सबूतों के बिना उन्हें गिरफ्तार करने का बचकाना कदम उठा लिया था. इसके बाद लोग उनके खिलाफ जांच कमीशन पर भी उंगलियां उठाने लगे. भारत के लोग बड़े अनूठे लोग हैं. जब उन्हें लगता है कि दोषियों को सजा मिल चुकी है तो वे उनकी गलतियों को भुलाकर उन्हें क्षमा कर देते हैं. उनका ख्याल था कि उन्होंने इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को हराकर उन्हें पहले ही सजा दे दी थी.
जब संसद में उन पर बार-बार हमला किया जाता रहा और उन्हें अदालत में घसीटने की कोशिश होने लगी तो आम लोगों को लगा कि जनता सरकार ज्यादती कर रही थी. वे इंदिरा गांधी के साथ सहानुभूति महसूस करने लगे. कुछ लोग तो इमरजेंसी को सही ठहराते हुए कहने लगे कि देश के लिए अनुशासन जरूरी था.
इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर इमरजेंसी समर्थकों का गुट दबी जुबान में यह प्रचार करने लगा था कि प्रजातंत्र भारत की विद्वता के साथ मेल नहीं खाता था. कई लोगों को तो संजय गांधी की वापसी पर भी कोई ऐतराज नहीं था, जिन्हें कमीशन ने 'किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं' बताया था. या फिर बंसीलाल जिन्हें कमीशन नें 'अथरिटेरियन चीफ मिनिस्टर' का जीता-जागता उदाहरण बताया था.
इस बीच कमीशन के साथ सहयोग कर रहे अधिकारी भी अपने पांव पीछे खींचने लगे थे. क्या पता इंदिरा गांधी कब लौट आएं? वे कैसे हिम्मत दिखाते जब बड़े-बड़े राजनीतिक नेता ही नित रंग बदल रहे थे.
जनता पार्टी में शुरू में ही जो मतभेद पैदा हो गए थे, उससे आम लोग धीरे-धीरे पार्टी से उखड़ने लगे थे. जब मैंने लोगों के मोहभंग की तरफ मोरारजी देसाई का ध्यान खींचने की कोशिश की तो उन्होंने कहा कि पार्टी में कुछ मुट्ठी भर लोग सारी बुराइयों की जड़ थे, जिन्हें वे जल्द ही उखाड़ फेकेंगे. चरण सिंह भी इशी तरह का हठधर्मी नजरिया अपनाए हुए थे.
इंदिरा गांधी की निर्णायक और ऐतिहासिक हार के बाद लोग ऐसा महसूस कर रहे थे मानो उन्होंने फिर से आजादी पा ली हो. वे जनता पार्टी की जीत को दूसरी आजादी के रूप में देख रहे थे. वे देश का पुनर्निर्माण करने और जेपी के सपनों का परिवर्तन लाने की उम्मीद कर रहे थे. लेकिन अफसोस जनता पार्टी के नेता लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए.
इनमें से ज्यादातर वही पुराने चेहरे थे, जो अपने कुकर्मों की धब्बेदार परंपरा से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे. नई बोतलों में पुरानी शराब की तरह. इंदिरा गांधी की हार से लोगों को एक नई सुबह की, एक नई आशा की किरण दिखाई दी थी. यह इमरजेंसी के दमन और नसबंदीकरण के अंधकार से कितनी अलग थी.
लेकिन जनता पार्टी ने कुछ ही दिनों में लोगों का दिल तोड़ दिया था, उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया था.
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