लोंगवा घने जंगलों के बीच म्यांमार सीमा से लगता भारत का आख़िरी गांव है. भारत के इस पूर्वोत्तर राज्य में 16 जनजातियां रहती हैं.
नगालैंड में सर्वाधिक कबीले
कोंयाक आदिवासियों को बेहद ख़ूंखार माना जाता है. अपने क़बीले की सत्ता और ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए वे अक्सर पड़ोस के गांवों से लड़ाई किया करते थे.
कोंयाक गांव क्योंकि पहाड़ की चोटी पर है, इसलिए वे वहाँ से आसानी से अपने दुश्मनों पर नज़र रख सकते हैं.
आख़िरी पीढ़ी
लोंगवा का आधा हिस्सा भारत में है और आधा म्यांमार में. सदियों से इनके बीच दुश्मन का सिर काटने की प्रथा चल रही थी, जिस पर 1940 में प्रतिबंध लगाया गया.
हत्या या दुश्मन का सिर धड़ से अलग करने को यादगार घटना माना जाता था और इस कामयाबी का जश्न चेहरे पर टैटू बनाकर मनाया जाता था.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ नगालैंड में सिर काटने की आख़िरी घटना 1969 में हुई थी.
पिछली लड़ाइयों के निशान
भैंस, हिरण, सूअर और पूर्वोत्तर में मिलने वाली गोजातीय प्रजाति मिथुन की हड्डियों को कोंयाक क़बीले के हर घर की दीवार पर सजा हुआ देखा जा सकता है.
कोंयाक सिर काटने के ज़माने में दुश्मनों की खोपड़ियों पर क़ब्ज़ा कर इन्हें प्रमुखता से प्रदर्शित करते थे, लेकिन सिर काटने पर रोक लगाने के बाद इन खोपड़ियों को गांव से हटा दिया गया और ज़मीन में दफ़न कर दिया गया.
रहने के मकान
कोंयाक झोपड़ियां मुख्य रूप से बांस की बनी होती हैं. ये काफ़ी विशाल होती हैं और इनमें कई हिस्से होते हैं, जैसे रसोई, खाना खाने, सोने और भंडारण के लिए अलग-अलग स्थान.
सब्ज़ियों, मक्का और मांस को घर के बीचों-बीच बने चूल्हे के ऊपर बांस के कंटेनर में रखा जाता है.
चावल को लकड़ी के डंडे से पीटकर पारंपरिक पकवान चिपचिपा चावल बनाया जाता है.
एक जनजाति, दो देश
लोंगवा का अस्तित्व 1970 में भारत और म्यांमार सीमा रेखा खींचे जाने से बहुत पहले से है.
इस क़बीले को दो हिस्सों में कैसे बांटा जाए, इस सवाल का जवाब न सूझने पर अधिकारियों ने तय किया कि सीमा रेखा गांव के बीचों-बीच से जाएगी, लेकिन कोंयाक पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा.
सीमा के खंभे पर एक तरफ बर्मीज़ में और दूसरी तरफ हिंदी में संदेश लिखा गया है.
अंतरराष्ट्रीय घर
सीमा रेखा से गांव के मुखिया के घर को भी दो हिस्सों में काटती है, यहाँ मज़ाक में कहा जाता है कि गांव के मुखिया रात का भोजन भारत में करते हैं और सोते म्यांमार में हैं.
पारिवारिक समारोह
कोंयाक अब भी मुखिया शासन के अधीन आते हैं जिन्हें अंग कहा जाता है. इस मुखिया के अधीन कई गाँव आ सकते हैं.
अंगों के बीच बहुविवाह की प्रथा प्रचलित है और इन मुखियाओं के कई पत्नियों से कई बच्चे हैं.
बदलती मान्यताएं
19वीं सदी के अंत में ईसाई मिशनरियों के यहाँ पहुंचने तक कोंयाक जीववादी, प्रकृति की पूजा करने वाले लोग थे.
बीसवीं सदी के अंत तक राज्य की 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था. आज नगालैंड के हर गांव में कम से कम एक चर्च है.
साप्ताहिक परंपराएं
कोंयाक महिलाएं अक्सर हर रविवार को चर्च जाती हैं और वो भी पारंपरिक नगा स्कर्ट पहने हुए.
लुप्त होती संस्कृति
कोंयाक आदिवासियों के बड़े बुज़ुर्ग चूल्हे की आग के चारों ओर इकट्ठा होते हैं. भुनी हुई मक्का चबाते हैं और हँसी मज़ाक करते हैं.
साथ ही चलता है क़िस्से-कहानियों का दौर. लेकिन अब ये परंपरा लगभग ग़ायब होती जा रही है.
सजावटी ट्रॉफ़ियां
रंगीन मनके और गहने पहनने की प्रथा घट रही है. अतीत में, पुरुष-महिलाएं दोनों हार और कंगन पहना करते थे. पुरुषों के हार में कुछ पीतल के चेहरे दुश्मनों के कटे सिरों की संख्या बताते थे.
बदलते घर
आधुनिक सभ्यता से हालांकि लोंगवा अब भी काफ़ी दूर है, लकड़ी के घर और छप्पर एक खूबसूरत संग्रह हैं, लेकिन कहीं-कहीं टिन की छतों और कंक्रीट का निर्माण बदलाव की कहानी का संकेत दे रहे हैं.
अंग्रेज़ी में मूल लेख यहां पढ़ें, जो बीबीसी ट्रैवल पर उपलब्ध है.
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