Wednesday, 27 January 2016

सिप्ला आज है और जैसी है इसके पीछे एक भारतीय मुस्लिम और विदेशी यहूदी की प्रेमकहानी भी है

जरूरतमंद लोगों को कम से कम कीमत पर दवाएं उपलब्ध कराने वाली सिप्ला के इस कारोबारी दर्शन की प्रेरणा इसके संस्थापकों के अतीत से निकली है
यह 1992 की बात है. टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक ने बंबई में रहने वाले एक बड़े उद्योगपति यूसुफ के हामिद को फोन किया. मुंबई सांप्रदायिक दंगों की गिरफ्त में था और संपादक ‘एक मुसलमान नेता’ होने के नाते हामिद से इसपर राय लेना चाहते थे. यूसुफ का जवाब था, ‘आप मुझसे भारतीय यहूदी होने के नाते यह सवाल क्यों नहीं पूछ रहे हैं? क्या इसलिए कि मेरे नाम से हामिद जुड़ा है? मेरी मां यहूदी थीं!’ यूसुफ का कहना बिल्कुल सही था क्योंकि उनके नाना-नानी ‘होलोकास्ट’ में मारे गए थे.
सिप्ला कंपनी के चेयरमैन यूसुफ हामिद के पिता केए हामिद यानी ख्वाजा अब्दुल (1862-1948) हामिद अलीगढ़ में जन्मे थे. यह परिवार उज्बेकिस्तान के ख्वाजा उबैदुल्ला अहरार (1403-1490) का वंशज है
भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से एक सिप्ला के चेयरमैन यूसुफ कुलीन तबके से ताल्लुक रखने वाले एक भारतीय मुस्लिम वैज्ञानिक और लिथुयानिया के यहूदी परिवार की एक महिला की संतान हैं. यूसुफ की मां कम्यूनिस्ट विचारधारा को मानने वाले परिवार से आती थीं और खुद भी पक्की कम्यूनिस्ट थीं. अपने दौर के लिहाज से यह एक असाधारण शादी थी. कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक विशेषज्ञता के साथ व्यापारिक चतुराई यूसुफ को अपने पिता से और देशभक्ति और आम लोगों की बेहतरी के लिए काम करने की सोच अपनी मां से मिली. शायद यही वजह है कि उनकी कंपनी तीसरी दुनिया के गरीब लोगों को महंगी दवाओं के सस्ते जेनरिक विकल्प उपलब्ध करवाती है और वह इस क्षेत्र में काफी प्रतिष्ठित नाम है.
अपने दौर की सबसे अलग प्रेम कहानी
यूसुफ हामिद के पिता केए हामिद यानी ख्वाजा अब्दुल (1862-1948) हामिद अलीगढ़ में जन्मे थे. यह परिवार उज्बेकिस्तान के ख्वाजा उबैदुल्ला अहरार (1403-1490) का वंशज है. उज्बेकिस्तान में अहरार को महान नक्शबंदी सूफी माना जाता है जो मुगल शासकों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए उनके साथ भारत आए थे. हामिद की मां मसूद जहान बेगम (1872-1957) अफगानिस्तान के एक अंग्रेज परस्त आमिर शुजा उल मुल्क के परिवार से आती हैं. अफगानिस्तान में जब अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक विद्रोह हुआ तो यह परिवार भारत आ गया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की बुनियाद रखने वाले सर सय्यद अहमद खां यूसुफ हामिद के दादा ख्वाजा अब्दुल अली के चाचा थे.
ख्वाजा अब्दुल अली भारत में ब्रिटिश सरकार के अधीन न्यायायिक सेवा में थे लेकिन केए हामिद विदेशी शासन के सख्त खिलाफ रहे. महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन चलाया तो हामिद ने अपने कॉलेज में हड़ताल करवा दी थी. इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया. फिर जब उन्होंने दीक्षांत समारोह रोकने की कोशिश की तो इस बार पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया.
हामिद आखिरकार अलीगढ़ लौट आए. यहां मुस्लिम नेताओं ने एक नए विश्वविद्यालय – जामिया मिलिया इस्लामिया – की स्थापना की थी और जिसने सरकारी फंड लेने से मना कर दिया था. हामिद ने यहां बतौर शिक्षक कुछ समय तक कैमिस्ट्री भी पढ़ाई. महात्मा गांधी ने तब तक खादी को भारतीय राष्ट्रवाद का केंद्र बना दिया था और इस आंदोलन से प्रभावित हामिद खुद भी खादी की बिक्री और निर्माण में दिलचस्पी लेने लगे. अपने मामा के घर उनकी पहली बार महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात भी हुई थी. जामिया में पढ़ाने के दौरान ही उनकी जाकिर हुसैन से भी दोस्ती हुई जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने. इन दोनों ने जर्मनी में जाकर उच्च शिक्षा हासिल की. यहां केए हामिद ने दुनिया के जानेमाने वैज्ञानिक प्रोफेसर ए रोशेनहीम के मार्गदर्शन में कैमिस्ट्री की पढ़ाई की थी.
लुबा बर्लिन के कम्यूनिस्ट हल्कों में काफी सक्रिय थीं. उन्होंने अपने पति को भी इस आंदोलन में शामिल किया. सबसे मजेदार बात है कि शादी के पहले उन्होंने हामिद को जो पहला तोहफा दिया था वह लेनिन का पोस्टकार्ड था
लुबा डेरेक्जांस्का (1903-1991) से मुलाकात और शादी
यूसुफ हामिद
सिप्ला के चेयरमैन यूसुफ हामिद का जन्म सोवियत पोलैंड के विल्ना में हुआ था
यह 1925 की बात है. हामिद अपने दोस्तों के साथ बर्लिन के नजदीक एक झील पर सैर-सपाटे के लिए गए थे. वे जिस बोट पर थे वहीं उनकी लुबा डेरेक्जांस्का से मुलाकात हुई. लुबा का जन्म तत्कालीन सोवियत पोलैंड के विल्नो (अब इस शहर को विल्नियस के नाम से जाना जाता है और यह लिथुआनिया में है) शहर में हुआ था. लुबा भी जर्मनी में पढ़ाई के लिए आई थीं. इस पहली मुलाकात से शुरू हुआ सिलसिला जल्दी ही प्यार में बदल गया और 1928 में हामिद ने लुबा से बर्लिन की एक मस्जिद (तब यहां एक ही मस्जिद हुआ करती थी) में निकाह कर लिया. अगले साल उन्होंने दोबारा विल्नो के सिनगॉग (यहूदी धर्मस्थल) में भी शादी की और लंदन में यहूदी शादी के तौर पर इसका रजिस्ट्रेशन करवाया.
लुबा बर्लिन के कम्यूनिस्ट हल्कों में काफी सक्रिय थीं. उन्होंने अपने पति को भी इस आंदोलन में शामिल किया. सबसे मजेदार बात है कि शादी के पहले उन्होंने हामिद को जो पहला तोहफा दिया था वह लेनिन का पोस्टकार्ड था (हालांकि बाद के सालों में हामिद का साम्यवाद से मोहभंग हो गया था और वे इस विचारधारा के प्रति संदेहभरा नजरिया रखने लगे थे). हामिद भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के बीच भी काफी जाना-माना नाम थे. इन दोनों के माता-पिता काफी उदारवारी विचारों के थे और उन्होंने खुशी-खुशी यह रिश्ता स्वीकार किया था.
यूसुफ का जन्म विल्नो में हुआ था और यह होलोकास्ट (हिटलर द्वारा यहूदियों का नरसंहार) से पहले की बात है. यूसुफ का नाम हिब्रू भाषा के जोसफ से प्रेरित है और इसका अरबी संस्करण है. लुबा के दादा का नाम भी यही था और पोलैंड के राष्ट्रपति का भी पहला नाम जोजेफ ही था. तो परिवार और हामिद के पोलिश दोस्तों की खुशी को देखते हुए यह नाम सबको ठीक लगा. जन्म के एक महीने बाद ही यह दंपति यूसुफ को लेकर बंबई आ गया.
1941 में विल्नो पर हिटलर की नाजी सेना का कब्जा हो गया था और उसने तुरंत ही यहां नरसंहार शुरू कर दिया. हामिद ने लुबा के माता-पिता को भारत लाने की पूरी कोशिश की लेकिन इससे पहले ही उनकी हत्या कर दी गई थी
लुबा रीतिरिवाजों के हिसाब से यहूदी नहीं थीं लेकिन उनके बेटे यूसुफ ने एक सिनगॉग में अपने मां की स्मृति में ‘सिफरेई तोराह (विशेष धार्मिक प्रतीक)’ रखवाया है. यूसुफ ने महाराष्ट्र के थाने में स्थित शार हशामैम सिनगॉग के पुनर्निर्माण के लिए काफी वित्तीय मदद भी की है.
होलोकास्ट से हामिद परिवार भी प्रभावित रहा है
1941 में विल्नो पर हिटलर की नाजी सेना का कब्जा हो गया था और उसने तुरंत ही यहां नरसंहार शुरू कर दिया. लुबा का भाई इसमें बच गया क्योंकि वह उस समय हामिद के साथ बंबई में काम करने लगा था. उनकी बहन नाजी सेना आने के पहले ही मॉस्को जा चुकी थीं. हालांकि लुबा अपने मां-बाप को होलोकास्ट से नहीं बचा पाईं. वे भी भारत आने की तैयारी कर चुके थे. लुबा और हामिद ने इसके लिए कोशिश भी की लेकिन जरूरी कागजातों में देर हो गई और तब तक वे नाजी सेना के हाथों मौत के घाट उतारे जा चुके थे.
सिप्ला की स्थापना
भारत में कुछ साल गुजारने के बाद हामिद को आखिरकार अपना कारोबार जमाने में सफलता मिल गई. अपनी पत्नी के साथ से उनकी अब तक जो सोच बनी थी उसके चलते उन्होंने 1935 में कैमिकल, इंडस्ट्रियल एंड फार्मास्युटिकल लैबोरेटरीज या सिप्ला की स्थापना की. वे एकाधिकार और इसके जरिए जबर्दस्ती दवाओं को महंगी करने खिलाफ थे. 11 दिसंबर, 1964 में टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे लेख में केए हामिद का कहना था कि पेटेंट कानूनों के अंतर्गत दूसरे निर्माताओं के लिए ‘अनिवार्य लायसेंसिंग’ की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए ताकि कोई कंपनी एकाधिकार करके दवाओं की मनमानी कीमत न बढ़ा सके.
यूसुफ अपने नाना-नानी के साथ लाखों यहूदियों के नरसंहार की कहानी सुनते हुए बड़े हुए हैं और शायद यही वजह है कि वे बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों को इसी तरह का नरसंहार करने वाली कंपनियां मानते हैं. उनकी यह सोच सिप्ला को आगे बढ़ाने में भी दिखती है. अपने पिता की मुहिम आगे बढ़ाते हुए यूसुफ ने ‘एड्स’ की दवा का पेटेंट रखने वाली कंपनियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और आज सिप्ला इस बीमारी से लड़ाई के लिए लाखों लोगों को सस्ती दवाएं मुहैया करवाती है. उनकी कंपनी देश में जेनेरिक दवाइयां उपलब्ध कराने के मामले में अग्रणी है.
(यह हमारी सहयोगी वेबसाइट स्क्रोलडॉटइन पर प्रकाशित आलेख का संपादित स्वरूप है)

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