Saturday, 23 January 2016

नेताजी और नेहरू के बनते-बिगड़ते रिश्तों का सच? @आरके सिन्‍हा

आज देश के सबसे बड़े नायकों में से एक नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिन है। केंद्र सरकार ने इस दिन नेताजी की गुमशुदगी से संबंधित कुछ फाइलें सार्वजनिक करने की घोषणा की है। पूरा देश उत्सुकता से यह जानने का इंतजार कर रहा है कि नेताजी के संदर्भ में क्या जानकारी सामने आती है। वैसे उनके व्यक्तित्व के तमाम ऐसे पहलू हैं, जिन पर लोगों का ध्यान कम गया है। ऐसा ही एक पक्ष है उनके द्वारा मजदूरों के हितों के लिए किया गया संघर्ष। वे टाटा स्टील मजदूर संघ के 1928 से 1937 तक अध्यक्ष रहे। यूनियन की गतिविधियों में वे बहुत सक्रिय थे। टाटा स्टील मजदूर संघ को छोड़ने के बाद वे देश की आजादी के लिए चले आंदोलन का हिस्सा बन गए। जवाहरलाल नेहरू उनसे अपने को असुरक्षित महसूस करते थे, हालांकि नेताजी ने उनको सदैव सम्मान दिया और अपना अग्रज माना।
देश की आजादी के बाद भी नेहरू को लगता रहा कि नेताजी कभी भी देश के सामने आ सकते हैं। इसका खुलासा अब हो चुका है। नेहरू के निर्देश पर बोस के परिजनों पर नजर रखी जाती थी। नेहरू को पता था कि नेताजी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में हैं। अगर वे लौटे तो उनकी सत्ता चली जाएगी। नेहरू की सोच के साथ कांग्रेस खड़ी थी। इसीलिए कांग्रेस सरकारें हमेशा ही बोस के परिवार पर खुफिया नजर रखती रहीं। नेहरू की 1964 में मृत्यु के बाद भी 1968 तक बोस के परिजनों पर खुफिया एजेंसियों की नजर रही।
नेताजी के सबसे करीबी भतीजे अमियानाथ बोस 1957 में जापान गए थे। इस बात की जानकारी जब प्रधानमंत्री नेहरू को मिली तो उन्होंने 26 नवंबर 1957 को देश के विदेश सचिव सुबीमल दत्ता से कहा कि वे भारत के टोक्यो में राजदूत की ड्यूटी यह पता करने के लिए लगाएं कि अमियानाथ बोस जापान में क्या कर रहे हैं। इस सनसनीखेज तथ्य का खुलासा अनुज धर की पुस्तक इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप में हुआ है।
सवाल यह उठता है कि आखिर नेहरू जापान में अमियानाथ बोस की गतिविधियों को जानने को लेकर इतने उत्सुक क्यों थे? क्या उन्हें लगता था कि अमियानाथ की गतिविधियों पर नजर रखने से नेताजी के बारे में उन्हें पुख्ता जानकारी मिल सकेगी? अमियानाथ नेताजी के बेहद करीबी भतीजे थे।
नेताजी लगातार नेहरू को खत लिखते थे। उनमें सिर्फ देश की आजादी से जुड़े सवालों पर ही चर्चा नहीं होती थी, वे नेहरू से पारिवारिक मसलों पर भी पूछताछ करते थे। नेताजी के पंडित नेहरू को 30 जून 1936 से लेकर फरवरी 1939 तक पत्र भेजने के रिकॉर्ड मिलते हैं। इन सभी पत्रों में नेताजी ने नेहरू के प्रति बेहद आदर का भाव ही निरंतर प्रदर्शित किया है।
लेकिन नेहरू को लिखे शायद उनके आखिरी खत के स्वर से संकेत मिलते हैं कि उनको समझ में आ गया था कि वे (नेहरू) उनसे दूरियां बना रहे हैं। 1939 में अपने 27 पन्‍नों के खत में वे साफ कहते हैं कि मैं महसूस करता हूं कि आप (नेहरू) मुझे बिल्कुल नहीं चाहते। दरअसल नेताजी इस बात से आहत थे कि नेहरू ने 1939 में त्रिपुरा में हुए कांग्रेस के सत्र में उनका साथ नहीं दिया। नेताजी फिर से कांग्रेस के त्रिपुरा सत्र में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, पर उन्होंने विजयी होने के बाद भी अपना पद छोड़ दिया था। क्यों छोड़ा था, इस तथ्य से आज सारा देश वाकिफ है। देश को यह भी अच्छी तरह से पता है कि नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधीजी के उम्मीदवार डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को शिकस्त दी थी। इस नतीजे से कांग्रेस में आंतरिक कलह तेज हो गई थी। गांधीजी नहीं चाहते थे कि नेताजी फिर से कांग्रेस के अध्यक्ष बनें। जाहिर है कि गांधीजी की इस राय से नेहरू भी इत्तेफाक ही रखते थे।
तब नेताजी ने अपने लंदन में रहने वाले भतीजे अमियाबोस को 17 अप्रैल 1939 को लिखे पत्र में कहा था कि नेहरू ने मुझे अपने व्यवहार से बहुत पीड़ा पहुंचाई है। उन्होंने उसी पत्र में आगे लिखा कि कांग्रेस में नेहरू की स्थिति कमजोर हुई है। वे जब त्रिपुरा सत्र में बोल रहे थे तब उन्हें हूट किया गया। इसके बाद से नेहरू नेताजी से दूरियां बनाने लगे। नेहरू के नेताजी को लेकर बदले मिजाज का एक उदाहरण देखिए। उन्होंने गुवाहाटी में आयोजित एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर नेता अपनी सेना के साथ भारत को आजाद करवाने के लिए आक्रमण करेंगे तो वे खुद उनसे दो-दो हाथ करने से नहीं कतराएंगे।
इसमें शक नहीं कि अगर नेताजी जीवित होते तो जिन शक्तियों ने 1977 में कांग्रेस को शिकस्त दी थी, वे ही शक्तियां 1962 में भी कांग्रेस को मात दे सकती थीं। हालांकि अब अगर-मगर करने का कोई लाभ नहीं है। नेताजी तहेदिल से गांधीजी का सम्मान करते थे, लेकिन वे नेहरू की गांधीजी के प्रति निजी निष्ठा को समझ नहीं पाते थे।

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