Saturday, 30 January 2016

आखिर शहादत से हम क्या समझें? @गोपालकृष्‍ण गांधी

इस मौके पर गणमान्यजन राजकीय लवाजमे के साथ राजघाट पर पहुंचेंगे। और उस तीस जनवरी मार्ग पर भी, जहां रामचंद्र गांधी के शब्दों में, '79 साल के बूढ़े महात्मा ने घृणा के पथ पर निकली तीन गोलियों को अपने सीने पर रोका था।" औपचारिकताओं के निर्वाह के बाद जब साइरन बजाती गाड़ियां वहां से रवाना हो चुकी होंगी, तब अतीत के प्रति मोह, आज के प्रति असंतोष और आने वाले कल के प्रति अंदेशों से भरे आमजन भी वहां उस व्यक्ति को श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंचेंगे, जिसने असत्य को त्यागकर सत्य को अपनी आखिरी सांस तक जिया था।
मैं नहीं जानता वे कौन थे, लेकिन वे निश्चित ही बेहद जज्बाती लोग रहे होंगे, जिन्होंने 30 जनवरी को शहीद दिवस कहकर पुकारा होगा। लेकिन चूंकि 1948 के साल में ऐन इसी तारीख को अपने प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शहादत पर भी अपना एकाधिकार कायम नहीं करना चाहता होगा, लिहाजा आज मैं यहां पर पांच अन्य व्यक्तियों को विशेष रूप से याद करना चाहूंगा।
1931 का साल, मार्च का तीसरा सप्ताह। ब्रिटिश हुकूमत ने अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा-ए-मौत दी थी। लोगों में गुस्सा और शोक था। लेकिन एक और शहादत भी थी, जिसका महत्व किंचित कम नहीं था। वह शहादत फांसी के तख्ते पर नहीं, बल्कि मनुष्यता के लोकवृत्त में घटित हुई थी। कानपुर के मोहल्लों में भयावह सांप्रदायिक हिंसा फैली हुई थी। शिक्षक, पत्रकार और उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेशशंकर विद्यार्थी ने पुलिस को फोन नहीं किया, न ही अखबारों के दफ्तरों में जाकर सांप्रदायिकता की कड़ी निंदा की। न ही वे प्रार्थना में झुके और बड़बखानियों का सहारा लिया। उन्होंने ठीक वही किया, जो स्वयं महात्मा ऐसे अवसरों पर सत्याग्रहियों से चाहते थे। विद्यार्थी तनावग्रस्त क्षेत्रों में गए और चार दिनों के अंतराल में सैकड़ों हिंदुओं-मुस्लिमों की जान बचाई।
उनके जीवनीकार आनंदी प्रसाद माथुर बताते हैं कि 25 मार्च को जब विद्यार्थी ने सुना कि मैदा बाजार में हिंसा भड़क उठी है तो वे तुरंत घर छोड़कर वहां के लिए चल पड़े। उनकी धर्मपत्नी कहती रही कि कृपया आप न जाइए, जिस पर उन्होंने जवाब दिया, 'डरने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने तो कभी किसी का समुदाय का बुरा नहीं किया तो मुझे भला कोई क्यों नुकसान पहुंचाएगा।"
विद्यार्थी ने वहां देखा कि एक व्यक्ति जान बचाकर भाग रहा है। उसने उनसे पास में छुपकर बैठे कुछ लोगों की जान बचाने की गुहार की। विद्यार्थी का सामना सीधे मौत से था, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। किसी ने उन्हें पास की एक गली में खींचकर छुपाने की कोशिश की तो उन्होंने कहा कि 'तुम मुझे क्यों खींच रहे हो। अगर मेरे लहू से इन लोगों की प्यास बुझ सकती है तो वही सही।" उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दी। तब 'यंग इंडिया" में लिखते समय गांधी ने कहा था कि 'गणेश शंकर विद्यार्थी ने जैसी मृत्यु पाई, उससे ईर्ष्या होती है। अवसर आने पर हम भी ऐसे ही आत्म-बलिदान के लिए प्रेरित हों!"
ऐसा ही एक अवसर फिर वर्ष 1946 में आया। स्थान था गुजरात का अहमदाबाद शहर।
पहली जुलाई थी, आषाढ़ सुदी। रथयात्रा की तैयारियां हो रही थीं कि भीषण सांप्रदायिक दंगा शुरू हो गया। तीस साल के वसंत राव और सत्रह साल के रज्जब अली, दोनों कांग्रेस से जुड़े हुए थे। वसंत डांडी यात्रा में सहभागिता कर चुके थे और सेवादल के सदस्य थे। रज्जब का झुकाव गांधी और मार्क्स दोनों की ओर था और वे तीन बार जेल की सैर कर चुके थे। जब जमालपुर के उपनगरीय इलाकों से खबर आई कि वहां पर उन्मत्त भीड़ हिंसा पर उतारू हो गई है तो दोनों वहां को दौड़े। उन्हें चेतावनी दी गई कि वे वहां न आएं, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और दंगाइयों को रोकने की गरज से उनके रास्ते पर जाकर लेट गए। सैकड़ों हिंसक पैरों के नीचे कुचलकर दोनों शहीद हुए।
अगस्त-सितंबर 1947 में जब गांधी कलकत्ता में थे, तब देश में सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी। गांधी शहर के सबसे तनावग्रस्त क्षेत्र बेलियाघाट में जा पहुंचे। जिस हैदरी मंजिल में वे ठहरे थे, वहां 31 अगस्त की रात दंगाइयों ने हमला बोला। गांधी के एक सहयोगी बिशन को उन्होंने मुस्लिम समझा और उसे जान से मारने ही वाले थे कि गांधी उनके सामने आ गए और कहा, 'मुझे मार डालो, मुझे मार डालो, तुम लोग मुझ पर वार क्यों नहीं करते?" भीड़ तितरबितर हो गई। गांधी से जुड़े दो बहादुर नौजवान स्मृतेश बनर्जी और सचिन मित्रा अगले दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में गए। कलकत्ते की जचरिचा स्ट्रीट में दंगाइयों को नियंत्रित करने के प्रयास में सचिन की जान चली गई, वहीं एक शांति मार्च की पहरेदारी करते स्मृतेश शहीद हुए।
सचिन-स्मृतेश की शहादत के बाद गांधी को भी महज पांच माह ही और जीवित रहना था। जनवरी 1948 में उनके अंतिम उपवास के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जब बिड़ला भवन में उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने सुना कि कुछ लोग कह रहे हैं : 'गांधी को मर जाने दो!" नेहरू अपनी गाड़ी से बाहर निकले और गुस्से से चिल्लाते हुए बोले : 'किसने कहा यह? किसने? मेरे मुंह पर कहो! उसे पहले मुझे मारना होगा!"
आज राजघाट पर फूल अर्पित करने वालों को महात्मा के साथ ही गणेश शंकर विद्यार्थी, वसंत-रज्जब, स्मृतेश-सचिन जैसे उन असंख्य लोगों को भी याद करना चाहिए, जिन्होंने भारत की एकता को कायम रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। उन्हें उन असंख्य निर्दोषों को भी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए, जिन्होंने सरहद के इस पार और उस पार सांप्रदायिक हिंसा में अपनी जान गंवाई। वे लोग भी किसी शहीद से कम नहीं हैं।
शहादत कोई इतिहास की चीज नहीं होती। न ही आत्म-बलिदान का साहस कोई ऐसी शै है, जो किसी जमाने में हुआ करती थी, पर अब नहीं है। आज भी भ्रष्टाचार और अनैतिक ताकतों का विरोध करते हुए अनेक साहसी और ईमानदार लोग अपनी जान की कुर्बानी दे रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वालों के खिलाफ कई लोग अपनी जान की परवाह किए बिना आंदोलन छेड़े हुए हैं। राजनेताओं और माफियाओं के शक्तिशाली गठजोड़ से उनकी ठनी हुई है। जिस भारत के लिए गांधी ने अपनी जान की कुर्बानी दी, उसमें लोक-प्रशासन को स्वच्छ-पारदर्शी बनाए रखने और हमारे संविधानप्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने के लिए वे भी शहीद हो रहे हैं।
सांप्रदायिकता आवेश में आकर हत्या करवाती है और भ्रष्टाचार हमें धीरे-धीरे मारता है। लेकिन आज भी ऐसे जाने-अनजाने चेहरों की कमी नहीं है, जो इन दोनों बुराइयों से लड़ने की कुव्वत रखते हैं। सवाल यही है कि क्या कोई ऐसा भी है, जो उनके लिए यह कहे : 'मुझे मार डालो, मैं कहता हूं, पहले मेरी हत्या कर दो!

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