Saturday, 30 January 2016

#MahatmaGandhi एक महान यात्रा के 15 पड़ाव

मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या की ख़बर देते हुए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अवाम से कहा था, "हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और अब हर जगह अंधेरा है." अंग्रेजी लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने महात्मा गांधी की हत्या पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "इससे पता चलता है कि भला इंसान होना कितना जानलेवा हो सकता है."
मानव इतिहास की महानतम शख्सियतों में शुमार किए जाने वाले गांधी के हर आचार-विचार का लाखों के जीवन पर सीधा असर पड़ा. भारत और उसके बाहर, दुनिया के कई प्रमुख नेता उन्हें अपना राजनीतिक गुरु या प्रेरणास्रोत मानते रहे हैं. ऐसे अभूतपूर्व व्यक्तित्व के जीवन का हर साल, हर दिन या हर पल एक अहमियत रखता होगा. फिर भी हम अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन के 15 महत्वपूर्ण पड़ाव पेश करने की कोशिश कर रहे हैं.
1869
मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म दो अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर राज्य के कठियावाड़ में हुआ था. उनके पिता करमचंद गांधी कठियावाड़ रियासत के दिवान के थे. उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखायी स्थानीय स्कूलों में हुई थी. 1887 में उन्होंने करीब 40 प्रतिशत अंकों के साथ मैट्रिक की परीक्षा पास की. शायद इसी वजह से तृतीय श्रेणी को व्यंजना में गांधी डिविजन भी कहा जाने लगा. इस बीच 1883 में मोहनदास की शादी उम्र में उनसे थोड़ी बड़ी कस्तूरबाई माखनजी कपाड़िया से हुई.
1888
उन्होंने 1888 में भावनगर के समलदास कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वो पढ़ाई पूरी किए बगैर ही वो घर वापस आ गए थे. बाद में उनके परिवार ने उन्हें आगे के पढ़ाई के लिए लंदन भेजने का निर्णय लिया. 1888 ही में उनके पहले बेटे हरिलाल का जन्म हुआ.
अगस्त, 1888 में गांधी कानून की पढ़ाई के लिए लंदन गए. वो पोरबंदर बदंरगाह से बॉम्बे गए और वहां से लंदन. जून, 1891 में उन्हें बैरिस्टर की डिग्री मिली. उसी साल वो भारत वापस आ गए. वापस आने के बाद उन्होंने बॉम्बे में प्रैक्टिस करने की कोशिश की लेकिन उनकी वकालत ज्यादा चली नहीं. वो राजकोट वापस आ गए और वहीं काम करने लगे.
लंदन प्रवास के दौरान गांधी का पहली बार अंतरराष्ट्रीय समुदाय से परिचय हुआ. शाकाहार, हिंदू धर्म और सभी धर्मों के शिक्षाओं के बीच तुलनात्मक शिक्षाओं से जुड़े गांधी के विचारों पर ब्रिटेन प्रवास का गहरा असर पड़ा. इस दौरान ही वो थियोसफिकल सोसाइटी के संपर्क में भी आए. एनी बेसेंट समेत थियोसोफिकल सोसाइटी के कई नेताओं का उनके भावी जीवन में महत्वपूर्ण असर रहा.
1893
1893 में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका स्थित दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी के वकील के रूप में काम करने का अनुबंध कर लिया. मई, 1893 में उन्होंने 24 साल की उम्र में कंपनी के नटाल स्थित दफ्तर में नौकरी ज्वाइन कर ली. दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही गांधी के साथ ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे उनके भावी जीवन की आधारशिला माना जाता है.
मई, 1893 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका की अदालत में गए तो मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा. गांधी यह कहकर कोर्ट से बाहर चले गए कि भारत में पगड़ी उतारने को असम्मान माना जाता है. स्थानीय अखबार में इस बाबत खबर भी छपी.
इसके बाद इसी साल जून में गांधी को ट्रेन यात्रा के दौरान पहले दर्जे में नहीं बैठने दिया गया. उनके पास पहले दर्जे का टिकट था लेकिन उन्हें तीसरे दर्जे में बैठने के लिए कहा गया. वहां भारतीयों के संग ऐसा बरताव आम बात थी. इस घटना ने गांधी का जीवन बदलकर रख दिया.
गांधी ने 1894 में नताल इंडियन कांग्रेस की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभायी. उन्होंने इस संगठन के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के राजनीतिक और मानवाधिकारों की लड़ाई लड़नी शुरू की.  इससे पहले भारत में 1885 में एओ ह्यूम इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कर चुके थे. जिससे कई प्रमुख भारतीय जुड़े हुए थे.
1899 में उन्होंने बोअर युद्ध के दौरान इंडियन एम्बुलेंस कॉर्प की स्थापना की थी. 1903 में चार भाषाओं (गुजराती, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी) में इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन शुरू किया. 1904 में जॉन रस्किन के 'अनटू दिस लास्ट' पुस्तक से प्रभावित होकर फीनिक्स आश्रम की स्थापना की.
1906
1906 में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में पहली बार सत्याग्रह का व्यावहारिक प्रयोग किया. इसी साल उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत भी लिया. सितंबर, 1906 में जोहांसबर्ग के एम्पायर थिएटर में गांधी के नेतृत्व में करीब तीन हजार लोग एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट आर्डिनेंस 1906 के विरोध के लिए एकत्रित हुए.
इस कानून के तहत ट्रांसवेल के आठ साल से अधिक उम्र के बच्चों समेत सभी एशियाई मूल के पुरुषों को फिंगरप्रिंट वाला एक प्रमाणपत्र रखने का प्रावधान था. गांधी और उनके साथियों ने इसका शांतिपूर्ण विरोध किया. विरोध के बावजूद ये कानून पारित हो गया लेकिन 'सत्याग्रह' की ऐतिहासिक नींव पड़ चुकी थी. कानून के बाद भी उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी. लंबे संघर्ष के बाद 1913 में ब्रिटिश सरकार ने कानून में सुधार किया. इसी साल उन्होंने भारतीय मूल के लोगों पर तीन पाउंड का टैक्स लगाने के खिलाफ हड़ताल की.
1908 से 1914 के बीच किए गए सत्याग्रह आंदोलनों के कारण गांधी को दक्षिण अफ्रीका में चार बार जेल जाना पड़ा. वो कुल मिलाकर करीब सात महीने जेल में रहे. दक्षिण अफ्रीका में मिली सफलता से गांधी भारत में भी काफी लोकप्रिय हो चुके थे. 1909 में उन्होंने अपनी मशहूर किताब 'हिंद स्वराज' भी लिखी.
उनके दक्षिण अफ्रीका में रहने के दौरान ही गोपालकृष्ण गोखले और सीएफ एंड्रूज जैसे भारतीय नेताओं ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया.
1915
1915 में गांधी भारत वापस आए. बॉम्बे बंदरगाह पर उनके स्वागत के लिए गोखले समेत उस समय के कई बड़े भारतीय नेता मौजूद थे. गोखले को गांधी भारत में अपना राजनीतिक गुरु भी मानते थे. जो गांधी एक मामूली युवक के रूप में लंदन पढ़ने गए थे करीब ढाई दशक बाद अंतरराष्ट्रीय जगत में विख्यात भारतीय नेता को रूप में देश वापस आए.
1915 में वो शांति निकेतन और हरिद्वार कुंभ गए. इसी साल भारत में पहली बार अहमदाबाद में उन्होंने आश्रम की स्थापना की. 1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय जाकर भाषण दिया. इसी साल वो पहली बार लखनऊ कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू से मिले.
1917
बिहार के चंपारण के नील किसानों से जर्बदस्ती नील की खेती करायी जाती थी. किसानों की दुर्दशा को देखते हुए राजकुमार शुक्ल ने गांधी से किसानों की मदद का अनुरोध किया. गांधी के वहां पहुंचने से पहले ही अंग्रेज सरकार ने उनके चंपारण प्रवेश पर रोक लगा दी. गांधी ने सरकारी निषेध को स्वीकार नहीं किया. आखिरकार सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा.
उन्होंने चंपारण में रुककर उनकी लड़ाई लड़ने का फैसला किया. चंपारण में एक विरोध प्रदर्शन के बाद जब अदालत ने गांधी पर सरकारी आदेश के लिए जुर्माना लगाया तो गांधी ने जुर्माना देने से इनकार कर दिया था. गांधी के नेतृत्व में हुए आंदोलन के बाद अंग्रेज सरकार ने नील किसानों को राहत देने की मांग स्वीकार कर ली. चंपारण सत्याग्रह के रूप में मशहूर ये आंदोलन भारत में उनका पहला आंदोलन था.
1917 में गांधी ने साबरमती आश्रम की स्थापना भी की और इसी साल महादेव देसाई उनके सचिव बने. इसके बाद देसाई जीवनपर्यंत उनके सचिव रहे.
चंपारण के बाद 1918 में गांधी गुजरात के खेड़ा किसान आंदोलन के मार्गदर्शक बने. खेड़ा आंदोलन में सरदार वल्लभभाई पटेल उनके संपर्क में आए. पटेल खेड़ा आंदोलन का सक्रिय नेतृत्व कर रहे थे.
1919
1919 में ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट पारित किया. इस कानून के तहत किसी भी विद्रोही नेता को बगैर किसी कानूनी कार्रवाई के गिरफ्तार किया जा सकता था. इसके तहत गिरफ्तार व्यक्ति किसी तरह की कानूनी सुनवाई की अपील भी नहीं कर सकता था. इस कानून को संक्षेप में उस समय दिए गए नारे  'न दलील, न वकील, न अपील' से समझा जा सकता है. गांधी ने विरोधस्वरूप पहली बार भारत में राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया.
1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश जनरल डायर ने निहत्थी जनता पर गोलियां चलवा दीं. सैकडो़ं भारतीय मारे गए. गांधी ने इस कुकृत्य के खिलाफ अहमदाबाद में तीन दिन का उपवास रखा.
1919 में ब्रिटेन ने तुर्की के ओटोमन खलीफा को युद्ध में हराकर उसे शर्मनाक समझौता करने पर मजबूर किया. भारत में मोहम्मद अली और शौकत अली बंधुओं के नेतृत्व में मुस्लिम नेताओं ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में खिलाफत आंदोलन शुरू किया. गांधी ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया.
1919 में उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका यंग इंडियन और गुजराती पत्रिका नवजीवन शुरू किया.
सितंबर, 1920 में गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन की घोषणा की.
1921
1921 में गांधी कांग्रेस के कार्यकारी अधिकारी चुने गए. उन्होंने कांग्रेस पार्टी का नया संविधान तैयार करवाया. संभ्रात लोगों की पार्टी समझी जाने वाली कांग्रेस में नाममात्र के शुल्क पर आम लोगों को सदस्य बनाने की शुरुआत की. स्वराज प्राप्ति को पार्टी का लक्ष्य बनाया.
स्वेदशी आंदोलन की शुरुआत करते हुए आजीवन खादी पहनने का व्रत लिया. स्वदेशी के समर्थन में बंबई में पहली बार विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी. सांप्रदायिक विद्वेष के खिलाफ बंबई में उन्होंने पांच दिन का उपवास रखा.
1922 में उत्तर प्रदेश के चौरीचौरा में हुई हिंसा के कारण गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया.
1928
1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गांधी ने ब्रिटिश सरकार से भारत को डोमिनियन स्टेटस देने की मांग की. मांग न माने जाने पर उन्होंने पूरी आजादी के लिए असहयोग आंदोलन करने की चेतावनी दी. ब्रिटिश सरकार ने उनकी मांग नहीं मानी. नतीजतन, 26 जनवरी, 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने 'पूर्व स्वराज' को अपना लक्ष्य घोषित किया. 1929 में ही तिरंगे को भारतीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया जो थोड़े बदलाव के साथ आजादी के बाद भारत का ध्वज बना.
1930
ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के नमक बनाने पर पाबंदी लगा रखी थी. गांधी ने इस नमक कानून का विरोध किया. उन्होंने इस कानून के विरोध में गुजरात के साबरमती से अपने साथियों के साथ पदयात्रा शुरू की. 200 मील की पदयात्रा के बाद अरब सागर के दांडी तट पर अपने हाथों से नमक बनाकर उन्होंने इस कानून को तोड़ा. इस घटना ने पूरे देश में उत्साह की नई लहर पैदा कर दी.
1932
ब्रितानी प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 1932 में कम्युनल अवार्ड की घोषणा की. इसके तहत भारत में अछूतों को हिंदुओं से पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था. गांधी पहले से ही इसके खिलाफ थे.
कम्युनल अवार्ड की घोषणा के समय गांधी पुणे की यरवदा जेल में थे. इस कानून के विरोध में उन्होंने जेल में ही अनशन शुरू कर दिया. गांधी का कहना था कि दलितों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देने से हिंदू समाज विभाजित होगा. डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने इस कानून का समर्थन किया था. लंबी बातचीत के बाद आंबेडकर अछूतों के लिए हिंदुओं से पृथक निर्वाचन की मांग से पीछे हट गए. भारतीय इतिहास में इस समझौते को पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है.
पूना पैक्ट हो जाने के बाद गांधी ने अपना अनशन समाप्त किया. इसी साल उन्होंने 'हरिजन सेवस संघ' की स्थापना की.
1932 में उन्होंने हरिजन (अंग्रेजी), हरिजन सेवक (हिंदी) और हरिजनबंधु (गुजराती) पत्रिकाओं की स्थापना की.
1942
भारत को पूरी आजादी दिलाने के लिए 'भारत छोड़ो आंदोलन' की शुरुआत. गांधी ने इस आंदोलन के लिए 'करो या मरो' का नारा दिया. ब्रितानी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल गांधी की मांग के आगे झुकने को तैयार नहीं थे. गांधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा को गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों को दो साल की सजा हुई. दोनों को आगा खां पैलेस जेल में रखा गया.
1942 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. इसी साल उनके लंबे समय से सचिव रहे महादेव देसाई का निधन हो गया.
1944
1944 में गांधी को बहुत बड़ी निजी क्षति पहुंची. करीब 62 साल से उनकी जीवनसंगिनी रहीं कस्तूरबा की आगा खां पैलेस जेल ही में मृत्यु हो गई. पत्नी की मृत्यु के कुछ महीनों बाद गांधी को अंग्रेज सरकार ने बिना किसी शर्त जेल से रिहा कर दिया.
1946
ब्रिटिश वायसराय ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 12 सदस्यों वाली अंतरिम सरकार का गठन किया. बाद में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग भी अंतरिम सरकार का हिस्सा बनी.
बंगाल, पंजाब और बिहार समेत कई जगहों पर सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए. जब दिल्ली में भारत की विभाजन की शर्तें तय की जा रही थीं उस समय गांधी ने दंगा प्रभावित नाओखली जाने का निर्णय लिया. अगस्त, 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो गांधी कलकत्ता में थे. उन्होंने कलकत्ता में ही सांप्रदायिक दंगे रोकने के लिए अनशन किया. उन्होंने दंगे रुकने के बाद ही अनशन तोड़ा.
दंगे रोकने में गांधी की भूमिका को देखते हुए तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन ने गांधी 'वन मैन बाउंड्री फोर्स' कहा था क्योंकि दूसरे इलाकों में दंगे रोकने के लिए भारी संख्या में सेना तैनात करनी पड़ी थी.
1948
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी रोज की तरह तड़के साढ़े तीन बजे उठे. उठकर सुबह की प्रार्थना की. कुछ काग़ज़ी काम किया. छह बजे वो दोबारा सो गए और फिर आठ बजे उठे. उसके बाद उनकी शाम की प्रार्थना से पहले तक सबकुछ रोजमर्रा जैसा ही रहा.
शाम चार बजे वो सरदार पटेल से मिले. उन्हें पांच बजे शाम की प्रार्थना में पहुंचना था. पटेल से बातचीत के कारण वो थोड़ी देर से आभा और मनु के साथ प्रार्थनास्थल के लिए निकले. प्रार्थना मंच पर पहुंचने से पहले ही हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने उनपर गोली चला दी. गोडसे ने 77 साल के महात्मा के सीने में एक के बाद एक, तीन गोलियां उतार दीं. गांधी वहीं अमर हो गए.
1948 में गांधी ने दो महत्वपूर्ण कार्य करने की योजनाएं बनायी थीं. वो आजादी के बाद एक बार फिर कांग्रेस पार्टी का पुनर्गठन करना चाहते थे. कुछ वैसे ही जैसे 1921 में उन्होंने कांग्रेस में बुनियादी बदलाव किए थे.
उन्होंने इसी साल फ्रंटियर गांधी ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान से पाकिस्तान आने का भी वादा किया था. वो भी बगैर वीज़ा के. लेकिन वो ये दोनों काम नहीं कर सके.
गांधी जीते जी जो कर सके उससे प्रभावित होकर एल्बर्ट आइंस्टाइन ने उनके बारे में कहा था, "आने वाली पीढ़ियों को इसपर यकीन करना मुश्किल होगा कि इस धरती पर हाड़-मांस का बना कोई ऐसा आदमी भी रहा होगा.

#MahatmaGandhi तो महात्मा गांधी को गोडसे ने इसलिए मारा था @नासिरूद्दीन

"सचाई का रास्‍ता कंकालों से बना है जिन पर हम चलने की हिम्‍मत कर रहे हैं"
मोहनदास करमचंद गांधी, नोआखाली, 1947
बीसवीं सदी में दुनिया महात्मा गांधी की मेधा से चमत्कृत हो गई थी. तीसरी दुनिया के गुलाम देश भारत से निकली इस अद्भुत प्रतिभा ने पूरी दुनिया के गुलाम देशों और नेताओं को रास्ता दिखाया था. आज भारत अपनी उस महान थाती को सहेज पाने में कितना सफल या असफल है, इसका एक आकलन हम अपनी उस नई पीढ़ी के जरिए लगा सकते हैं जिसके हाथों में भारत का भविष्य होगा. हमारे स्कूली छात्रों के मन में महात्मा गांधी की क्या छवि है, उनकी हत्या को आज के छात्र कैसे देखते हैं, इसे जानने की एक कोशिश इस आलेख में की गई है.
किसी की हत्‍या की गई हो तो उसकी वजह भी होगी. महात्मा गांधी की भी हत्‍या की गई थी. जाहिर है, इसकी भी कोई वजह होगी. वैसे क्‍या वजह है? हम कह सकते हैं, 68 साल बाद क्‍या यह भी कोई सवाल है? ऐसा सवाल जिसका जवाब तलाशने की जरूरत हो?
पिछले दिनों उत्‍तरी बिहार के एक स्‍कूल में कुछ साथियों के साथ जाना हुआ. हमें नौवीं क्‍लास के छात्रों से रू-ब-रू होना था. यह उस शहर का नामी निजी स्‍कूल है. स्‍टूडेंट भी मेधावी हैं. हम इनसे बातचीत का मौजू तलाश रहे थे. जनवरी का महीना है. हमें सूझा, क्‍यों न महात्मा गांधी की हत्‍या पर बात की जाए. देखा जाए बच्‍चे क्‍या सोचते या जानते हैं? तो हमने तय किया कि इसी पर बात होगी.
क्‍लास में करीब 60 लड़के-लड़कियां होंगे. सबकी उम्र 15 के आसपास होगी. हमारे सामने सवाल था, कहां से और कैसे शुरू किया जाए. हमने बोर्ड पर लिखा ‘30 जनवरी.’ बातचीत शुरू हुई. क्‍या 30 जनवरी कुछ खास तारीख है? सभी छात्रों से अलग-अलग जवाब मिले- इस दिन गांधी जी की हत्‍या हुई थी...शहीद दिवस है... गांधी जी राष्‍ट्रपिता हैं आदि.
हमार अगला सवाल था- अगर हत्‍या हुई थी तो क्‍या आप बता सकते हैं, गांधी जी की हत्‍या किसने की थी? नाथूराम गोडसे- ये जवाब ज्‍यादातर बच्चे जानते थे. इसके बाद सवाल किया गया- नाथूराम गोडसे ने गांधी जी को क्‍यों मारा? इसके जवाब काफी अलग-अलग थे. कुछ व्‍यक्तिगत जवाब थे तो कुछ सामूहिक. इन जवाबों से ये भी झलक मिलती है कि गोडसे को बच्चे क्‍या समझते हैं? स्‍टूडेंट क्‍या मानते हैं? समाज क्‍या मानता है? समाज में क्‍या-क्‍या प्रचारित है? स्‍टूडेंट से जो जवाब मिले उनके मुताबिक,
  • गांधी जी देश के बंटवारे के लिए जिम्‍मेदार थे.
  • गोडसे यह मानता था कि गांधी जी की वजह से भारत-पाकिस्‍तान का बंटवारा हुआ.
  • गांधी जी मुसलमानों के साथ रहना चाहते थे. वे सब कुछ मुसलमानों को दे देना चाहते थे. कई लोग उनसे सहमत नहीं थे.
  • गांधी जी को केवल मुसलमानों की चिंता थी.
  • गांधी जी पाकिस्‍तान को पैसा दिलाने के लिए अनशन पर बैठ गए थे.
  • गांधी जी भारत के खजाने से पाकिस्‍तान को पैसा देना चाह रहे थे.
  • गांधी जी पाकिस्‍तानी पक्षी थे.
  • नाथूराम को चिंता थी कि आजादी के बाद मुसलमानों को देश का बड़ा भाग मिल जाएगा और उन्‍हें ज्‍यादा संसाधान देना होगा.
  • पाकिस्‍तान पूर्व और पश्चिम दोनों ओर था. गांधी जी पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्‍तान के बीच सम्‍पर्क के लिए भारत के बीच से रास्‍ता बनाने को तैयार हो गए थे. यानी अभी जो बांग्‍लादेश और पाकिस्‍तान है, गांधी जी इनके बीच आने-जाने के लिए भारत से होकर सड़क बनाने पर राज़ी हो गए थे. हमारे घर में घुसकर पाकिस्‍तान जाता. इससे सुरक्षा को खतरा पैदा होता. लड़ाई होती. इसकी वजह से गांधी जी कि हत्‍या की गई.
  • गोडसे आरएसएस (राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ) से जुड़ा था. आरएसएएस हिन्‍दू राष्‍ट्र बनाना चाहता था. गांधीजी सेक्युलर राष्‍ट्र बनाना चाहते थे.
  • यह मांग की जा रही थी कि अगर पाकिस्‍तान एक मुसलिम देश है तो भारत को हिन्‍दू राष्‍ट्र बनना चाहिए. गांधीजी इस राय से सहमत नहीं थे.
  • जिन्‍ना और नेहरू सत्‍ता चाहते थे. इन्‍होंने गांधीजी को मरवा दिया.
  • गोडसे चाहता था कि हिन्‍दू राष्‍ट्र बने. गांधीजी सेक्‍यूलर राष्‍ट्र चाहते थे. इसलिए मार दिया. 
  • नाथूराम ने गांधीजी को मुसलमान के भेष में मारा ताकि दंगा हो जाए.
  • गांधीजी हिन्‍दू-मुसलमान एकता चाहते थे. वे सेक्‍युलर थे. हिन्‍दू मुसलमान का साथ नाथूराम को पसंद नहीं था. इसलिए मार दिया. 
  • वह दंगों के खिलाफ थे.
  • वह बंटवार नहीं चाहते थे.
और
  • गांधी जी बनिया थे, इसलिए वे आरक्षण चाहते थे. गोडसे ब्राह्मण और आरक्षण विरोधी था. इसलिए मार दिया. 
तीन-चार बातों को छोड़ दें तो ज्‍यादातर बातों को एक से ज्यादा छात्रों का समर्थन था. राय देने वालों में सभी धर्म के बच्चे शामिल थे. यही नहीं, इन शहरी स्‍टूडेंट के अलावा हमने तीन अलग-अलग जिलों और गांवों के करीब 15 लड़के-लड़कियों से भी यही जानने की कोशिश की.
कुछ बच्चों को लगता था कि गांधी जी आरक्षण समर्थक थे और गोडसे विरोधी इसीलिए उसने गांधी की हत्या कर दी
इनमें अधिकांश बच्‍चे दलित परिवारों के हैं. अलग-अलग सरकारी स्‍कूलों में अलग-अलग क्‍लास में पढ़ रहे हैं. अलग-अलग उम्र के हैं. उनमें से कइयों को न तो 30 जनवरी के बारे में जानकारी थी और न ही वे नाथूराम गोडसे के बारे में जानते थे. सीनियर क्‍लास के दो-तीन लड़कों को गांधीजी की हत्‍या के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी. वे नाथूराम को जान रहे थे. उनके मुताबिक, गांधी ने देश का बंटवारा कराया, इसलिए नाथूराम ने उन्‍हें मार दिया. लेकिन ये सभी ग्रामीण बच्‍चे गांधी जी को जानते थे. उनका मानना था कि गांधी जी हिन्‍दू-मुसलमानों के बीच एकता के लिए लड़ रहे थे.
गांधी जी की हत्‍या क्‍यों की गई- इस सवाल के जो जवाब मिले उसे हम किस तरह देखें:
गांधी जी मुसलमान और पाकिस्‍तान के पक्षधर थे. मुसलमान हर चीज में बड़ा हिस्‍सा चाहते थे. गांधीजी उन्‍हें हिस्‍सा दिलाने के लिए अनशन पर बैठे. वो देश का बंटवारा चाहते थे. वह हिन्‍दू राष्‍ट्र के विरोधी थे. वह धर्मनिरपेक्षता चाहते थे. नाथूराम गोडस आरएसएस से जुड़ा था. भारत को हिन्‍दूराष्‍ट्र बनाना चाहता था. ये परस्‍पर विरोधी विचार हैं, लेकिन पहले दो विचारों की पैठ ज्‍यादा अंदर तक और बड़े समूह तक है.
हमने इन सबसे जानना चाहा कि आखिर गांधी जी की हत्‍या के बारे में उन्‍हें ये जानकारियां कहां से मिलीं. ज्‍यादातर का कहना था, सुना है. कुछ ने कहा, कहीं पढ़ा है. कुछ ने बताया, क्‍लास में पढ़ा है. सर ने बताया है लेकिन ज्‍यादतर की जानकारी का स्रोत गैर स्‍कूली शिक्षा है.
बच्‍चे-बच्चियों की इस जानकारी में कई चीजें काफी अहम भूमिका अदा करती नजर आ रही हैं. मसलन उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्‍ठभूमि क्‍या है? वे किस धर्म या जाति से आते हैं? कहां पढ़ते हैं? कहां रहते हैं? जानकारियों का जरिया क्‍या है?
यही नहीं, गांधीजी की हत्‍या के बारे में बच्‍चों को कई बातें ऐसी पता हैं, जिनका सिर-पैर नहीं है. हालांकि उनके दिमाग में ये बातें हैं, इसका मतलब समाज में भी ये बातें किसी न किसी रूप में हैं. खासकर मध्‍यवर्गीय परिवारों से आने वाले ब‍च्‍चे-बच्चियों की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि इस मुल्‍क में उनके मुताबिक आज जो भी समस्‍याएं हैं, उसके लिए गांधीजी जिम्मेदार हैं.
बातचीत के दौरान कई बार ऐसा भी लगा कि गांधीजी की हत्‍या के बारे में जब इतने तर्क प्रचारित या प्रसारित हैं तो क्‍या समाज में कुछ लोग इस हत्‍या को सही ठहराने का तर्क तो नहीं मुहैया कराते हैं? ये खुलकर हत्‍या को जायज नहीं ठहराते हैं. मगर उन तर्कों में जायज ठहराने के बीज छिपे होते हैं. इन जायज ठहराने वाले तर्कों का आधार वे बातें हैं, जिनको आसानी से ‘राष्‍ट्रवाद’ का जामा पहनाया जा सकता है.
हालांकि, गांधीजी के विचार की जब बात आई तो कुछ ब‍च्‍चे-बच्चियों ने पुरजोर तरीके से कहा, कि वे हिन्‍दू-मुसलमान की एकता चाहते थे. इनमें ज्‍यादातर गांव के बच्चे थे.
हममें से कोई इतिहासकार नहीं है. हमने गांधीजी की कही गई बातों और उन पर लिखी कुछ किताबों के आधार पर ये संवाद जारी रखने की कोशिश की. हमारा जोर इस बात पर था कि सुने पर यकीन न करें. खुद पढ़े, शोध करें, विचार करें तब मानें. खासकर गांधीजी की कही बातों को जरूर पढ़ें.
कोई देश एक राष्‍ट्र तब ही बन सकता है जब उसमें दूसरों को अपने में समाहित करने लेने की क्षमता होः महात्मा गांधी
गांधीजी को क्‍यों मारा गया, इसका सही-सही जवाब इतिहासकार ही दे पाएंगे. फिर भी इतिहास के किताबों में लिखे तथ्‍यों से इतर भी समाज में घटनाओं की अपनी कहानी होती है. यह कहानी बताती है कि हम घटनाओं और उसके पात्रों को किस रूप में देखते हैं या देखना चाहते हैं.
अक्सर एक ही घटना का ब्‍योरा अलग-अलग समाजों में अलग रूपों के साथ मिलता है. इसमें कुछ तथ्‍य होता है. कुछ कल्‍पना. कुछ अपनी इच्‍छा होती है. कुछ विचार की भूमिका होती है. मगर सबसे अहम होता है कि हम घटना को कहां से, किस कोण से क्‍यों देख रहे हैं. इस‍ लिहाज से बच्‍चे-बच्चियों के जरिए यह जानना अहम है कि आखिर गांधी जी को क्‍यों मारा गया.
यह हमारे समाज और हमारी शिक्षण प्रणाली का भी आईना है. अगर हम बापू की हत्‍या को इस मुल्‍क के इतिहास की बड़ी अहम घटना मानते हैं तो इतना तय है कि इस अहम घटना की सही तस्वीर पेश करने में हमारी स्‍कूली शिक्षा बुरी तरह से असफल रही है. इसके बरअक्‍स कई ऐसे जरिए हैं, जो बच्‍चों तक जानकारी पहुंचा रहे हैं.

तथ्‍य क्‍या बोलते हैं?

अब हम जरा ऊपर गिनाए गए गांधी जी की हत्‍या की वजहों पर विचार करते हैं. इतिहासकार या शोधकर्ताओं का सहारा लेते हैं और तथ्‍य की तह तक जाने की कोशिश करते हैं.
  • क्‍या गांधी जी बंटवारा चाहते थे? उन्‍होंने पाकिस्‍तान बनवाया था?
गांधी जी इस विचार के पूरी तरह खिलाफ थे कि हिन्‍दू और मुसलमान दो राष्‍ट्र हैं. उनका मानना था, ‘राष्‍ट्रवाद धर्मों से ऊपर है और इस अर्थ में हम भारतीय पहले हैं और हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई या पारसी बाद में.’ एक जगह वे कहते हैं, ‘धर्म, राष्‍ट्रीयता का माप नहीं है. वह तो व्‍यक्ति और उसके भगवान के बीच का व्‍यक्तिगत मसला है.’
गांधी जी एक और जगह लिखते हैं, ‘चूंकि भारत में विभिन्‍न धर्मावलम्‍बी निवास करते हैं मात्र इसलिए ऐसा मानना अनुचित होगा कि भारत एक राष्‍ट्र नहीं है. किसी देश में विदेशियों के आने से वह राष्‍ट्र नष्‍ट नहीं हो जाता बल्कि विदेशी उस राष्‍ट्र में घुलमिल जाते हैं, उसका हिस्‍सा बन जाते हैं. कोई देश एक राष्‍ट्र तब ही बन सकता है जब उसमें दूसरों को अपने में समाहित करने लेने की क्षमता हो. भारत हमेशा से ऐसा ही राष्‍ट्र रहा है. सच तो यह है कि किसी देश में उतने धर्म होते हैं जितने लोग उस राष्‍ट्र में निवास करते हैं परंतु जो लोग राष्‍ट्रीयता की मूल आत्‍मा की समझ रखते हैं वे कभी एक-दूसरे के धर्मों में हस्‍तक्षेप नहीं करते. यदि किसी देश के नागरिक एक-दूसरे के धर्मों में हस्‍तक्षेप करते हैं तो उस देश को सच्‍चा राष्‍ट्र नहीं कहा जा सकता. फिर भी हिन्‍दू, मुसलमान, पारसी ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक-देशी, एक-मुल्‍की हैं. वे देशी भाई हैं और उन्‍हें एक दूसरे के स्‍वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा. दुनिया के किसी भी हिस्‍से में एक-राष्‍ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है, हिन्‍दुस्‍तान में तो ऐसा था ही नहीं.’
राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘मोहनदास’ में लिखा है कि गांधीजी जबरन बंटवारे और जबरन एकता के खिलाफ थे. वे अंत-अंत तक ‘मजबूरी में’ या ‘द्विराष्‍ट्रवाद के सिद्धांत’ के आधार पर देश के बंटवारे के खिलाफ थे. वे आपसी समझौते के आधार पर प्रांतीय बंटवारे के बारे में सोचने को तैयार थे. 11 मार्च 1947 को उन्‍होंने कहा, "अगर जिन्‍ना साहब मुझसे कहते हैं: ‘पाकिस्‍तान की मांग मानो वरना मैं तुम्‍हारी हत्‍या कर दूंगा’, मेरा जवाब होगा: अगर आपको लगता है तो आप मेरी हत्‍या कर सकते हैं. लेकिन यदि आप पाकिस्‍तान चाहते हैं तो सबसे पहले आपको मुझे इसकी वजह बतानी होगी. इसकी व्‍याख्‍या करनी होगी. मुझे तर्कों से संतुष्‍ट करना होगा."
आजादी के वक्‍त यह मुल्‍क कैसा होगा या इसका भूगोल क्‍या होगा, गांधीजी दूर से ही यह सब देख रहे थे
आजादी से पहले के आखिरी चंद महीनों में गांधी को बहुत सारी बातों के बारे में जानकारी नहीं थी. पंजाब के बंटवारे के प्रस्‍ताव के बारे में गांधी जी को अखबारों से पता चला. राजमोहन गांधी के मुताबिक इसके बाद गांधी जी ने वल्‍लभ भाई पटेल को पंजाब के बंटवारे के बारे में जानकारी देने के लिए खत लिखा था.
आजादी के वक्‍त यह मुल्‍क कैसा होगा या इसका भूगोल क्‍या होगा, गांधीजी दूर से ही यह सब देख रहे थे. इतिहासकारों के मुताबिक, बहुत सारी बातों का फैसला उनकी जानकारी के बगैर हो रहा था. राजमोहन गांधी ने बहुत विस्‍तार से लिखा है कि कैसे गांधी हर रोज इस प्रयास में जुटे थे कि इस मुल्‍क का बंटवारा न हो. वे इसके लिए किसी हद तक जाने को तैयार थे. यह कहना शायद बेहतर होगा कि आखिरी दिनों में नेहरू, पटेल, कृपलानी, मौलाना आजाद, मुहम्‍मद अली जिन्‍ना, लियाकत अली खां फैसला ले रहे थे. इनके फैसलों पर देश के कई हिस्‍सों में हो रही खूरेंजी असर डाल रही थी. गांधीजी दिल्‍ली से दूर पहले बंगाल और फिर बिहार में खूरेंजी रोकने में जुटे थे.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्‍तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखा है कि गांधी ने आजाद और एकजुट भारत की लड़ाई ताउम्र लड़ी और आखिर में वो विलगाव और उदासीनता के साथ इसका विभाजन ही देख सके... 15 अगस्‍त 1947 के दिन गांधी दिल्‍ली में नहीं थे. वे कश्‍मीर होते हुए कोलकाता चले आए थे. वहां उन्‍होंने आजादी का पहला दिन 24 घंटे उपवास रखकर मनाया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, "जिस आजादी के लिए उन्‍होंने इतना लम्‍बा संघर्ष किया वह एक अस्‍वीकार्य कीमत के बिना पर मिली थी. आजादी का मतलब बंटवारा भी था."
इतिहासकार सुमित सरकार ने अपनी किताब ‘आधुनिक भारत’ में कहा है कि आखिरी के साल महात्‍मा गांधी के श्रेष्‍ठतम काल हैं. सरकार लिखते हैं, "कांग्रेसी नेतृत्‍व से अधिकाधिक रूप से कटते हुए 77 साल के इस बूढ़े व्यक्ति ने अदम्‍य साहस के साथ पहले नोआखाली के गांवों, फिर बिहार, और फिर कलकत्‍ता और दिल्‍ली के दंगाग्रस्‍त इलाकों में अपना सब कुछ यह सिद्ध करने के लिए दांव पर लगा दिया कि अहिंसा और हृदय-परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को उसने जीवन भर माना है, वे झूठे नहीं हैं."
क्‍या इन बातों से ये लग रहा है कि वे मुल्‍क का बंटवारा चाहते थे? तो आखिर ‘द्विराष्‍ट्रवाद का सिद्धांत’ आया कहां से?
मुल्‍क को दो टुकड़ों में बांटने वाला विचार ‘द्विराष्‍ट्रवाद का सिद्धांत’ है. इस सिद्धांत का मूल है- हिन्‍दू और मुसलमान दो राष्‍ट्र हैं. एजी नूरानी अपनी पुस्‍तक ‘सावरकर एंड हिन्‍दुत्‍व’ में लिखते हैं कि सावरकर ने सबसे पहले ‘द्विराष्‍ट्रवाद का सिद्धांत’ दिया. उन्‍होंने इसे सबसे पहले 1923 में अपनी पुस्‍तक ‘हिन्‍दुत्‍व’ में इसे पेश किया.
उन्होंने 30 दिसम्‍बर 1937 को हिन्‍दू महासभा में अपने अध्‍यक्षीय भाषण में इसे रखा. उन्‍होंने कहा, ‘भारत में हिन्‍दू और मुसलमान, मुख्‍यत: दो राष्‍ट्र हैं.’ एक साल बाद 1938 में उन्‍होंने कहा, "भारत-हिन्‍दुस्‍थान में हिन्‍दू एक राष्‍ट्र हैं और मुसलमान एक अल्‍पसंख्‍यक समुदाय हैं." दूसरी ओर, मुहम्‍मद अली जिन्‍ना ने अपना  ‘द्विराष्‍ट्रवाद का सिद्धांत’ 1939 में साफ और औपचारिक तौर पर पेश किया. इसी सिद्धांत की वजह से मुल्‍क का बंटवारा हुआ.
इसके बरअक्‍स हमने देखा कि गांधी ने ‘द्विराष्‍ट्रवाद के सिद्धांत’ का कभी समर्थन नहीं किया. इसलिए गांधी पर यह इल्‍जाम सरासर उनके साथ ज्‍यादती है. 1971 में बांग्‍लादेश के बनने के बाद ‘द्विराष्‍ट्रवाद के सिद्धांत’ का खोखलापन भी सामने आ गया. गांधी जी कितने सही था, इससे साबित हो गया.

गांधी बंटवारे के लिए जिम्‍मेदार थे, इसलिए नाथूराम गोडसे ने उन्‍हें मार दिया?

दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद गांधीजी पर कई हमले या हत्‍या की कोशिशें हुईं. एकसूची के मुताबिक 1922 से 1948 के बीच गांधीजी पर हमले या उनकी जान लेने की लगभग 15 कोशिशें हुईं. इनमें 10 गंभीर किस्‍म की थीं. इनमें से छह 1934 से 1946 के बीच की घटनाएं हैं. तब न तो बंटवारा हुआ था और न ही पाकिस्‍तान बना था. यही नहीं 1948 में ही 30 जनवरी से पहले भी इस तरह की दो कोशिश हो चुकी थी.
नाथूराम गोडसे अकेला नहीं था. 30 जनवरी 1948 के पहले भी नाथूराम गोडसे दो बार गांधी की जिंदगी लेने की कोशिश कर चुका था. इसलिए ये विचार कि बंटवारे की वजह से नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्‍या की, सही नहीं है.

तो क्‍या गांधी जी मुसलमान परस्‍त थे?

गांधीजी किसी के परस्‍त नहीं थे. अपने को सनातनी हिन्‍दू कहते थे और गाते थे, ‘वैष्‍णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाणे रे.’ हां, वे मुसलमानों, पारसियों, सिखों, ईसाइयों से नफरत नहीं करते थे. किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव के खिलाफ थे. वे मानते थे, ‘हिन्‍दू और मुसलमान दोनों भारत की संतान हैं. वे सब लोग जो इस देश में जन्‍मे हैं और जो इसे अपनी मातृभूमि मानते हैं, वे चाहे हिन्‍दू हों या मुसलमान या पारसी या ईसाई, जैन या सिख, वे सब समान रूप से उसकी संतान हैं और इसीलिए वे भाई-भाई हैं और खून से भी ज्‍यादा मजबूत बंधन से एक-दूसरे से बंधे हुए हैं.’
अपने जीवन के आखिरी सालों में आजादी से पहले और बाद में उनकी एकमात्र चिंता भारत की संतानों की एकता थी. वे नफरत बोने वाले के खिलाफ कोई मुरव्‍वत नहीं बरतते थे. फिर वह चाहे मुसलमान हों या हिन्‍दू या सिख.
वे उस कठिन वक्‍त में एकमात्र ऐसे नेता थे और शायद अब तक हैं जो हिन्‍दुओं, मुसलमानों या सिखों के उत्‍तेजित और हिंसक समूह के साथ आंख में आंख डालकर बात करने की ताकत रखते थे. 1946-47 के उनके विचार को पढ़ते हुए यह साफ है कि उन्‍होंने नोआखाली के मुसलमानों को सामने बैठाकर लानत-मलामत की. आगे उनके कुछ विचार हैं, जो गांधी जी ने नोआखाली और दिल्‍ली में शांति कायम करने के दौरान रखे थे.
‘हम हिन्‍दू हों या मुसलमान, सभी हिन्‍दुस्‍तानी हैं. आजाद हिन्‍दुस्तान में हम एक-दूसरे के दुश्‍मन बनकर नहीं रह सकते. हमें आपस में दोस्‍त और भाई बनकर ही रहना चाहिए.’
‘भारतमाता ने ऐसे कौन से पाप किए हैं कि उसके हिन्‍दू और मुसलमान बच्‍चे आज आपस में लड़ रहे हैं.’
‘आप लोग मेरी बात मानें चाहे न मानें, मगर मैं आपको यकीन दिलाना चाहता हूं कि मैं हिन्‍दू-मुसलमान दोनों का सेवक हूं. पाकिस्‍तान जोर जबरदस्‍ती से कायम नहीं किया जा सकता. अपने मुसलमान भाइयों से मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि चाहे आप हिन्‍दुस्‍तान में एक प्रजा बनकर रहें, चाहे अलग होकर दो जुड़ी-जुड़ी प्रजाओं की तरह रहें, हर हालत में आपको चाहिए कि आप हिन्‍दुओं को अपना दोस्‍त बनाकर रहें. एक हजार हिन्‍दुओं का सौ मुसलमानों को घेर लेना या एक हजार मुसलमानों का सौ हिन्‍दुओं को घेर लेना और उन पर जुल्‍म करना बहादुरी नहीं, बुजदिली है.
‘बंगाल में मुसलमानों ने हिन्‍दुओं को कसाई की तरह कत्‍ल किया और कसाईपन से भी बदतर काम किए. उधर बिहार में हिन्‍दुओं ने भी मुसलमानों को उसी तरह कत्‍ल किया. जब दोनों ने ही दुष्‍टता से काम किए हैं, तब दोनों की करतूतों का मुकाबला करना या यह कहना फजूल है कि एक दल दूसरे दल से कम बुरा है. इसी तरह यह पूछने में भी कोई सार नहीं कि पहले दंगा किसने शुरू किया था.’
‘हिन्‍दुओं और मुसलमानों के लिए यह शर्म की बात है कि हिन्‍दुओं को इस तरह अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा. मुसलमानों के लिए यह शर्म की बात इसलिए है कि हिन्‍दू उन्‍हीं की डर से अपने घर-बार छोड़ कर भाग गए थे. एक इंसान दूसरे इंसान में डर क्‍यों पैदा करे...’
‘मुझे तब तक शांति और आराम नहीं मिलेगा, जब तक एक-एक मुसलमान, हिन्‍दू और सिख हिन्‍दुस्‍तान और पाकिस्‍तान में फिर से अपने घर में नहीं बस जाएगा. अगर कोई मुसलमान दिल्‍ली या हिन्‍दुस्‍तान में नहीं रह सका और कोई सिख पाकिस्‍तान में नहीं रह सकता, तो हिन्‍दुस्‍तान की सबसे बड़ी मस्जिद जामा मस्जिद या ननकाना साहब और पंजा साहब का क्‍या होगा? क्‍या इन पवित्र स्‍थानों में दूसरे काम होने लगेंगे? ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है. मैं पंजाब जा रहा हूं ताकि वहां के मुसलमानों को उनकी गलती सुधारने के लिए कह सकूं. लेकिन जब तक मैं दिल्‍ली के मुसलमानों के लिए न्‍याय नहीं पा सकता तब तक पंजाब में सफल होने की आशा नहीं कर सकता. मुसलमान दिल्‍ली में पीढ़ियों से रहते आए हैं. अगर हिन्‍दू और मुसलमान फिर से भाई की तरह रहने लगें तो मैं पंजाब की तरफ बढूंगा और पाकिस्‍तान में दोनों जातियों के बीच मेल पैदा करने के लिए कुछ करूंगा या मरूंगा... (18 सितम्‍बर 1947 का प्रवचन)
क्या इन विचारों से लगता है कि गांधी सिर्फ मुसलमानों की बात कर रहे हैं?

तो गांधी जी ने पाकिस्‍तान को पैसा दिलाने और मुसलमानों को सुविधाएं दिलाने के लिए अनशन किया?

आजादी के बाद गांधीजी का पहला सत्‍याग्रह, उनका बेमियादी अनशन था. यह उनकी जिंदगी का आखिरी सत्‍याग्रह साबित हुआ. गांधीजी पाकिस्‍तान के भूगोल और दिल्‍ली में हो रही हिंसा से टूट रहे थे. 12 जनवरी 1948 का दिन. वे प्रार्थना सभा में पहुंचे. उन्‍होंने एलान किया, ‘कोई भी इंसान, जो पवित्र है, अपनी जान से ज्‍यादा कीमती चीज कुरबान नहीं कर सकता. उपवास कल सुबह पहले खाने के बाद शुरू होगा. उपवास का अरसा अनिश्‍चत है. और जब मुझे यकीन हो जाएगा कि सब कौमों के दिल मिल गए हैं, और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं मगर अपना अपना धर्म समझने के कारण, तब मेरा उपवास छूटेगा...हिन्‍दुस्‍तान का, हिन्‍दू धर्म का, सिख  धर्म का और इस्‍लाम का बेबस बनकर नाश होते देखने के बनिस्‍बत मृत्‍यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी.’भूखे रहने के मकसद में पाकिस्‍तान का जिक्र नहीं है. पाकिस्‍तान के लिए सुविधाओं की मांग नहीं है. पाकिस्‍तान को दिए जाने वाले पैसे का जिक्र नहीं है. बल्कि फाका के दौरान जब भी मौका हुआ, गांधी जी ने पाकिस्‍तान में चल रही हिंसा का जिक्र तल्‍खी के साथ किया. चुन्‍नीभाई वैद्य ने अपने एक लेख में इसकी पड़ताल की है. यहां तक कि जब दिल्‍ली के चुनिंदा लोगों और डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद के नेतृत्‍व में सौ लोगों के दस्‍तखत से गांधी जी से फाका तोड़ने की अपील की गई, उसमें भी इस तरह का कोई जिक्र नहीं है.
हां, यह सच जरूर है कि उस वक्‍त की सरकार ने इसी दौरान पाकिस्‍तान को दिए जाने वाले बाकि पैसे देने पर राज़ी हो गई थी. यह कैबिनेट का फैसला था और उसका इस अनशन से लेना-देना नहीं है.
और तो और, इस दौरान वे कहते हैं, ‘पाकिस्‍तान को अपने पापों का बोझ उठाना होगा, जो बड़े भयानक हैं. यूनियन में हमने भी पाकिस्‍तान के पापों की नकल की और उसके साथ हम भी पापी बन गए. तराजू के पलड़े करीब-करीब बराबर हो गए. क्‍या अब भी हमारी बेहोशी दूर होगी और हम अपने पापों का प्रयाश्चित करके बदलेंगे या फिर हमें गिरना ही होगा?’

तो नाथूराम गोडसे कौन था?

Nathuram Godse, Narayan Apte and Vishnu Ramkrishna Karkar
(बाएं से दाएं) नाथुराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु रामकृष्ण करकरे(तस्वीर- एपी से साभार)
नाथूराम गोडसे महाराष्‍ट्र के पुणे का रहने वाला था. उसका जन्‍म 19 मई 1910 को हुआ. गांधी की हत्‍या करने के अपराध में उसे 15 नवम्‍बर 1949 को फांसी हुई. हालांकि उस वक्‍त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गांधीजी के दो बेटों ने उसकी फांसी की सज़ा रद्द करने की अपील की थी.
नाथूराम गोडसे हिन्‍दुत्‍ववादी विचारों का था. वह पहले राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ से जुड़ा और फिर हिन्‍दू महासभा का सदस्‍य हो गया. वह विनायक दामोदर सावरकर के विचारों का समर्थक था. उसने अग्रणी नाम का मराठी अख़बार निकाला. बाद में इसका नाम बदलकर ‘हिन्‍दू राष्‍ट्र’ कर दिया. नाथूराम गोडसे ने कोर्ट में जो बयान दिया उसके मुताबिक, ‘सन 1925 के लगभग स्‍वर्गीय डॉ. हेडगेवार ने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक की नींव डाली. उनके भाषणों का मुझ पर प्रभाव पड़ा. मैं स्‍वयंसेवक बना. मैं महाराष्‍ट्र के उन युवकों में था, जिन्‍होंने संघ में उसके प्रारंभ से भाग लिया. कुछ वर्षों तक मैंने संघ में काम किया. कुछ दिनों पश्‍चात मैंने सोचा कि वैधानिक रूप से हिन्‍दुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए राजनीति में भाग लेना चाहिए. जिस कारण मैं संघ छोड़कर हिन्‍दू महासभा में आ गया.‘
लेकिन गांधीजी की हत्‍या के बाद संघ परिवार बार-बार गोडसे से अपने को सीधे-सीधे जोड़ने से बचता रहा है. यही नहीं उसके साथ किसी भी तरह के रिश्‍ते से नकारता रहा है.
आरएसएस के साथ नाथूराम का रिश्‍ता था या नहीं, यह उसके भाई गोपाल गोडसे से बेहतर कौन बता सकता है. गोपाल गोडसे गांधीजी की हत्‍या का सह-अभियुक्‍त था. एक इंटरव्‍यू के दौरान फ्रंटलाइन पत्रिका ने गोपाल गोडसे से इस बारे में कुछ सवाल किए थे. गोपाल गोडसे का जवाब कुछ यों था, ‘हम सभी भाई आरएसएस में थे. नाथूराम, दत्‍तात्रेय, मैं और गोविंद. आप कह सकते हैं कि हम अपने घर में बड़े होने की बजाय आरएसएस में पले-बढ़े थे. यह हमारे लिए परिवार जैसा था. नाथूराम आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह बन गया था. उसने अपने बयान में यह कहा था कि उसने आरएसएस छोड़ दी थी. उसने ऐसा इसलिए कहा क्‍योंकि गांधी की हत्‍या के बाद गोलवलकर और आरएसएस काफी मुसीबत में पड़ गए थे. लेकिन उसने आरएसएस नहीं छोड़ी थी. 1944 में नाथूराम ने हिन्‍दू महासभा का काम करना शुरू किया था. उस वक्‍त वह आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह हुआ करता था.
इसके बाद नाथूराम और आरएसएस के रिश्‍ते के बारे में कहने को कुछ बचा नहीं रहता.

महात्मा गांधी की हत्या की सफाई में नाथूराम गोडसे ने कोर्ट में क्‍या कहा?

नाथूराम गोडसे ने 8 नवम्‍बर 1948 को 90 पेजों वाला अपना बयान कोर्ट के सामने पढ़ा. इसमें उसने गांधी की हत्‍या को जायज ठहराया. उसने अपने वैचारिक आधार के बारे में बात की. उसने कहा, ‘मैंने वीर सावरकर और गांधी जी के लेखन और विचार का गहराई से अध्‍ययन किया है. चूंकि मेरी समझ में पिछले तीस सालों में भारतीय जनता की सोच और काम को किसी भी और कारकों से ज्‍यादा इन दो विचारों ने गढ़ने का काम किया है. इन सभी सोच और अध्‍ययन ने मेरा विश्‍वास पक्‍का किया कि बतौर राष्‍ट्रभक्‍त और विश्‍व नागरिक मेरा पहला कर्तव्‍य हिन्‍दुत्‍व और हिन्‍दुओं की सेवा करना है. 32 सालों से इकट्ठा हो रही उकसावेबाजी, नतीजतन मुसलमानों के लिए उनके आखिरी अनशन ने आखिरकार मुझे इस नतीजे पर पहुंचने के लिए प्रेरित किया कि गांधी का अस्तित्‍व तुरंत खत्‍म करना ही चाहिए.’
जाहिर है, गोडसे ने अपने बयान में ढेर सारी बातें कही हैं लेकिन वस्‍तुत: यह विचारों की लड़ाई थी. गोडसे भी यह बात छिपा नहीं पाया है. इसलिए तर्क चाहे जो दिए जाएं, इतना तो तय है कि नाथूराम गोडसे को गांधी जी के लेखन, विचार और काम से नफरत थी.

फिर अलग मुल्‍क क्‍यों बनाया?

पाकिस्‍तान की नींव ‘द्विराष्‍ट्रवाद के सिद्धांत’ पर रखी गई. इस सिद्धांत को मानने वाले हमारे देश में भी मौजूद हैं. यह सिद्धांत कितना बनावटी है, यह विचार की बजाय एक रचना के जरिए समझी जा सकती है. इब्‍ने इंशा पाकिस्‍तान के मशहूर शायर और व्‍यंग्‍यकार हैं. उन्‍होंने ‘उर्दू की आखिरी किताब’ लिखी है. इसकी एक रचना है ‘हमारा मुल्‍क.’ यह भारत-पाकिस्‍तान बंटवारे पर सटीक व्‍यंग्‍य है. यह बताता है कि वस्‍तुत: बंटवारा कितना हास्‍यास्‍पद कदम था. 
हमारा मुल्‍क
‘ईरान में कौन रहता है’?
‘ईरान में ईरानी कौम रहती है’
‘इंगलिस्‍तान में कौन रहता है’?
‘इं‍गलिस्‍तान में अंग्रेजी कौम रहती है’?
‘फ्रांस में कौन रहता है’?
‘फ्रांस में फ्रांसीसी कौम रहती है’
‘ये कौन सा मुल्‍क है’?
‘ये पाकिस्‍तान है’
‘इसमें पाकिस्‍तानी कौम रहती होगी’?
‘नहीं, इसमें पाकिस्‍तानी कौम नहीं रहती है. इसमें सिंधी कौम रहती है. इसमें पंजाबी कौम रहती है. इसमें बंगाली कौम रहती है. इसमें यह कौम रहती है. इसमें वह कौम रहती है’!
‘लेकिन पंजाबी तो हिन्‍दुस्‍तान में भी रहते हैं. सिंधी तो हिन्‍दुस्‍तान में भी रहते हैं. फिर ये अलग मुल्‍क क्‍यों बनाया था?’‘गलती हुई, माफ कर दीजिए, आइंदा नहीं बनाएंगे!’

#MahatmaGandhi गांधीजी जिंदाबादः फैज़ अहमद फैज़



शुक्रवार, 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई. फैज अहमद फैज का लिखा यह संपादकीय 2 फरवरी 1948 को पाकिस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ. mkgandhi.org पर प्रकाशित इस श्रद्धांजलि का हम अविकल अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं.
ब्रिटिश परंपरा में किसी सम्राट की मृत्यु की घोषणा कुछ यूं की जाती है, "सम्राट नहीं रहे, सम्राट जिंदाबाद!" करीब 25 साल पहले महात्मा गांधी ने इसी तर्ज पर सीआर दास की मृत्यु पर एक मार्मिक संपादकीय का शीर्षक लिखा था, 'देशबंधु नहीं रहे, देशबंधु जिंदाबाद!'
अगर हमने गांधीजी को विनम्र श्रद्धांजलि देने के लिए ये शीर्षक चुना है तो वो इसलिए कि हमें इस बात का, पहले से कहीं ज्यादा यकीन है कि इस पतित सदी में मानवता के इस सेवक और वंचितों के मसीहा से ज्यादा अमरता का हकदार कोई दूसरा नहीं हो सकता.
इस लेख के लिखे जाने तक महात्मा गांधी को अपना नश्वर शरीर छोड़े बेहद कष्टकारी 48 घंटे बीच चुके हैं. इस सदमे के शुरुआती धक्के का असर अब धीरे-धीरे कम हो रहा है. सुबह के धुंधले कुहासे और विषाद में डूबी रोशनी के बीच ये उम्मीद जगमगा रही है कि गांधीजी की जिंदगी व्यर्थ नहीं गई.
हो सकता है कि अंतिम रूप से ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना अपरिपक्वता हो लेकिन इस त्रासदी ने जिस तरह दुनिया की आत्मा को झकझोरा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि एक इंसान की जन्मजात अच्छाई से हमारे अभिभूत हो जाने को माफ कर दिया जाएगा.
गांधीजी का जाना सिर्फ भारत की क्षति नहीं है, पाकिस्तान के लिए भी उतना ही बड़ा आघात हैः फैज अहमद फैज
कम से कम हम पुरजोर आवाज़ में भारत के अपने शंकालु दोस्तों से ये तो कह ही सकते हैं कि गांधीजी का जाना सिर्फ भारत की क्षति नहीं है, पाकिस्तान के लिए भी उतना ही बड़ा आघात है. इस लाहौर शहर में हमने ऐसे उदास चेहरे, नम आंखें और लरजती आवाज़ें देखीं जिनपर यकीन करना शायद मुश्किल हो. हमने अवाम के दुख की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति के रूप में लोगों को हड़ताल और अवकाश पर जाते भी देखा.
हमारे हिंदुस्तानी दोस्तों को ध्यान देना चाहिए, और हम इसे अपनी पूरी ताकत से कहना चाहेंगे कि पाकिस्तान किसी सदिच्छा, दोस्ती की किसी पहल, और सीमापार से किसी भी तरह के सहयोग का जवाब देने के लिए जरूरी इंसानियत की भावना अपने भीतर रखता है. हमें पहले भी एक उम्मीद थी और उसकी ठोस वजह थी. इस त्रासदी के बाद भारत में गहरा आत्ममंथन चल रहा है. उसकी गंभीरता पर  हमें पूरा भरोसा है. भारत सरकार को भी इस बात का अंदाजा हो गया है कि वो ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठी हुई है.
(गांधी की हत्या के अगले दिन) शनिवार को बॉम्बे में एक छोटी सी घटना हुई जिसमें एक हिंदू गिरोह ने 'एंटी-पाकिस्तान फ्रंट' के दफ्तर में तोड़-फोड़ की. पूरा दफ्तर तहस-नहस कर दिया. हमें अफसोस है कि इस घटना से देर से ही सही भारत को ये अहसास हो गया होगा कि मुसलमान न तो पापी हैं, और न ही भारत के दुश्मन.
'पंडित नेहरू ने अमृतसर में आएसएस और हिंदू महासभा को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था'
हिंदुओं के एक बड़े तबके को ये पता चल चुका है कि उनका दुश्मन कौन है और उनकी राजनीतिक धारा क्या है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भारत के उप-प्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल लखनऊ में कुछ समय पहले एक सभा में मुस्लिम राष्ट्रवादियों की खिंचाई कर रहे थे. वहां पर उन्होंने आरएसएस और हिंदू महासभा- ऐसा संगठन, अफसोस जिसने मानवीय इतिहास के सबसे बड़े अपराधी नाथूराम विनायक गोडसे को जन्म दिया- की तारीफ की.
इस तरह सरदार पटेल ने इन संगठनों के अंध-राष्ट्रवाद को बढ़ावा ही दिया. ये उलटबांसी लग सकती है लेकिन इस त्रासदी (गांधी की हत्या) से दो दिन पहले पंडित नेहरू ने अमृतसर में आएसएस और हिंदू महासभा के बुलबुले की हवा निकालते हुए साफ शब्दों में उन्हें भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था.
जब विभिन्न राजनीतिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी को सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने का वचन दिया जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपना अनशन तोड़ा, उसके एक दिन बाद ही हिंदू महासभा नेता डॉक्टर देशपाण्डे और प्रोफेसर राम सिंह ने पूरी ढिठाई से कहा कि मुसलमानों को देश से बाहर निकाल देना चाहिए. 
अगर भारत सरकार ने इन उग्र और कट्टर सांप्रदायिक नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश की होती तो शायद गांधीजी 125 वर्ष तक जीते. पटेल का खुफिया विभाग दिल्ली और भारत के दूसरे हिस्सों में मासूम मुसलमानों के घरों में बम और दूसरे हथियार रखवाने की बजाय महात्माजी की कीमती जिंदगी को बचाने के भले काम में लगा होता तो ये विशाल उप-महाद्वीप, दरअसर पूरी दुनिया, 'इस आपदा का' शिकार नहीं बनती.
भारत के मुसलमानों के लिए महात्माजी हमेशा आशा और साहस के एक प्रतीक रहेंगेः फैज अहमद फैज
इस त्रासदी से पहले हुई घटनाओं को याद करने का हमारा कोई इरादा नहीं लेकिन हमें एक ठोस वजह से ये करना पड़ रहा है क्योंकि पांच करोड़ मुसलमानों की नियति भारत के साथ जुड़ी हुई है. हम मांग करते हैं कि भारतीय सत्तावर्ग उनके संग ईमानदार और निष्पक्ष व्यवहार करे.
अगर हम गांधीजी की मृत्यु का इस्तेमाल भारत में मुसलमानों की हितचिंता की राजनीति के लिए करते हैं तो हम इंसानियत से गिर जाएंगे. लेकिन हम कृतज्ञतापूर्वक इस सच से वाकिफ हैं कि भारतीय मुसलमानों को न्याय और बराबरी मिलने से ज्यादा खुशी इस महान मृतात्मा को कोई दूसरी चीज नहीं दे सकती. जीवनभर उन्होंने इसकी पुरजोर पैरवी की.
अंत में उन्होंने इसके लिए अपनी जान भी दी. इन अनगिनत मुसलमानों के लिए महात्माजी हमेशा आशा और साहस के एक प्रतीक रहेंगे. हालांकि उनका देहांत हो चुका है लेकिन वो अनंत काल तक जीते रहेंगे

आखिर शहादत से हम क्या समझें? @गोपालकृष्‍ण गांधी

इस मौके पर गणमान्यजन राजकीय लवाजमे के साथ राजघाट पर पहुंचेंगे। और उस तीस जनवरी मार्ग पर भी, जहां रामचंद्र गांधी के शब्दों में, '79 साल के बूढ़े महात्मा ने घृणा के पथ पर निकली तीन गोलियों को अपने सीने पर रोका था।" औपचारिकताओं के निर्वाह के बाद जब साइरन बजाती गाड़ियां वहां से रवाना हो चुकी होंगी, तब अतीत के प्रति मोह, आज के प्रति असंतोष और आने वाले कल के प्रति अंदेशों से भरे आमजन भी वहां उस व्यक्ति को श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंचेंगे, जिसने असत्य को त्यागकर सत्य को अपनी आखिरी सांस तक जिया था।
मैं नहीं जानता वे कौन थे, लेकिन वे निश्चित ही बेहद जज्बाती लोग रहे होंगे, जिन्होंने 30 जनवरी को शहीद दिवस कहकर पुकारा होगा। लेकिन चूंकि 1948 के साल में ऐन इसी तारीख को अपने प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शहादत पर भी अपना एकाधिकार कायम नहीं करना चाहता होगा, लिहाजा आज मैं यहां पर पांच अन्य व्यक्तियों को विशेष रूप से याद करना चाहूंगा।
1931 का साल, मार्च का तीसरा सप्ताह। ब्रिटिश हुकूमत ने अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा-ए-मौत दी थी। लोगों में गुस्सा और शोक था। लेकिन एक और शहादत भी थी, जिसका महत्व किंचित कम नहीं था। वह शहादत फांसी के तख्ते पर नहीं, बल्कि मनुष्यता के लोकवृत्त में घटित हुई थी। कानपुर के मोहल्लों में भयावह सांप्रदायिक हिंसा फैली हुई थी। शिक्षक, पत्रकार और उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेशशंकर विद्यार्थी ने पुलिस को फोन नहीं किया, न ही अखबारों के दफ्तरों में जाकर सांप्रदायिकता की कड़ी निंदा की। न ही वे प्रार्थना में झुके और बड़बखानियों का सहारा लिया। उन्होंने ठीक वही किया, जो स्वयं महात्मा ऐसे अवसरों पर सत्याग्रहियों से चाहते थे। विद्यार्थी तनावग्रस्त क्षेत्रों में गए और चार दिनों के अंतराल में सैकड़ों हिंदुओं-मुस्लिमों की जान बचाई।
उनके जीवनीकार आनंदी प्रसाद माथुर बताते हैं कि 25 मार्च को जब विद्यार्थी ने सुना कि मैदा बाजार में हिंसा भड़क उठी है तो वे तुरंत घर छोड़कर वहां के लिए चल पड़े। उनकी धर्मपत्नी कहती रही कि कृपया आप न जाइए, जिस पर उन्होंने जवाब दिया, 'डरने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने तो कभी किसी का समुदाय का बुरा नहीं किया तो मुझे भला कोई क्यों नुकसान पहुंचाएगा।"
विद्यार्थी ने वहां देखा कि एक व्यक्ति जान बचाकर भाग रहा है। उसने उनसे पास में छुपकर बैठे कुछ लोगों की जान बचाने की गुहार की। विद्यार्थी का सामना सीधे मौत से था, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। किसी ने उन्हें पास की एक गली में खींचकर छुपाने की कोशिश की तो उन्होंने कहा कि 'तुम मुझे क्यों खींच रहे हो। अगर मेरे लहू से इन लोगों की प्यास बुझ सकती है तो वही सही।" उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दी। तब 'यंग इंडिया" में लिखते समय गांधी ने कहा था कि 'गणेश शंकर विद्यार्थी ने जैसी मृत्यु पाई, उससे ईर्ष्या होती है। अवसर आने पर हम भी ऐसे ही आत्म-बलिदान के लिए प्रेरित हों!"
ऐसा ही एक अवसर फिर वर्ष 1946 में आया। स्थान था गुजरात का अहमदाबाद शहर।
पहली जुलाई थी, आषाढ़ सुदी। रथयात्रा की तैयारियां हो रही थीं कि भीषण सांप्रदायिक दंगा शुरू हो गया। तीस साल के वसंत राव और सत्रह साल के रज्जब अली, दोनों कांग्रेस से जुड़े हुए थे। वसंत डांडी यात्रा में सहभागिता कर चुके थे और सेवादल के सदस्य थे। रज्जब का झुकाव गांधी और मार्क्स दोनों की ओर था और वे तीन बार जेल की सैर कर चुके थे। जब जमालपुर के उपनगरीय इलाकों से खबर आई कि वहां पर उन्मत्त भीड़ हिंसा पर उतारू हो गई है तो दोनों वहां को दौड़े। उन्हें चेतावनी दी गई कि वे वहां न आएं, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और दंगाइयों को रोकने की गरज से उनके रास्ते पर जाकर लेट गए। सैकड़ों हिंसक पैरों के नीचे कुचलकर दोनों शहीद हुए।
अगस्त-सितंबर 1947 में जब गांधी कलकत्ता में थे, तब देश में सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी। गांधी शहर के सबसे तनावग्रस्त क्षेत्र बेलियाघाट में जा पहुंचे। जिस हैदरी मंजिल में वे ठहरे थे, वहां 31 अगस्त की रात दंगाइयों ने हमला बोला। गांधी के एक सहयोगी बिशन को उन्होंने मुस्लिम समझा और उसे जान से मारने ही वाले थे कि गांधी उनके सामने आ गए और कहा, 'मुझे मार डालो, मुझे मार डालो, तुम लोग मुझ पर वार क्यों नहीं करते?" भीड़ तितरबितर हो गई। गांधी से जुड़े दो बहादुर नौजवान स्मृतेश बनर्जी और सचिन मित्रा अगले दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में गए। कलकत्ते की जचरिचा स्ट्रीट में दंगाइयों को नियंत्रित करने के प्रयास में सचिन की जान चली गई, वहीं एक शांति मार्च की पहरेदारी करते स्मृतेश शहीद हुए।
सचिन-स्मृतेश की शहादत के बाद गांधी को भी महज पांच माह ही और जीवित रहना था। जनवरी 1948 में उनके अंतिम उपवास के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जब बिड़ला भवन में उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने सुना कि कुछ लोग कह रहे हैं : 'गांधी को मर जाने दो!" नेहरू अपनी गाड़ी से बाहर निकले और गुस्से से चिल्लाते हुए बोले : 'किसने कहा यह? किसने? मेरे मुंह पर कहो! उसे पहले मुझे मारना होगा!"
आज राजघाट पर फूल अर्पित करने वालों को महात्मा के साथ ही गणेश शंकर विद्यार्थी, वसंत-रज्जब, स्मृतेश-सचिन जैसे उन असंख्य लोगों को भी याद करना चाहिए, जिन्होंने भारत की एकता को कायम रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। उन्हें उन असंख्य निर्दोषों को भी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए, जिन्होंने सरहद के इस पार और उस पार सांप्रदायिक हिंसा में अपनी जान गंवाई। वे लोग भी किसी शहीद से कम नहीं हैं।
शहादत कोई इतिहास की चीज नहीं होती। न ही आत्म-बलिदान का साहस कोई ऐसी शै है, जो किसी जमाने में हुआ करती थी, पर अब नहीं है। आज भी भ्रष्टाचार और अनैतिक ताकतों का विरोध करते हुए अनेक साहसी और ईमानदार लोग अपनी जान की कुर्बानी दे रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वालों के खिलाफ कई लोग अपनी जान की परवाह किए बिना आंदोलन छेड़े हुए हैं। राजनेताओं और माफियाओं के शक्तिशाली गठजोड़ से उनकी ठनी हुई है। जिस भारत के लिए गांधी ने अपनी जान की कुर्बानी दी, उसमें लोक-प्रशासन को स्वच्छ-पारदर्शी बनाए रखने और हमारे संविधानप्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने के लिए वे भी शहीद हो रहे हैं।
सांप्रदायिकता आवेश में आकर हत्या करवाती है और भ्रष्टाचार हमें धीरे-धीरे मारता है। लेकिन आज भी ऐसे जाने-अनजाने चेहरों की कमी नहीं है, जो इन दोनों बुराइयों से लड़ने की कुव्वत रखते हैं। सवाल यही है कि क्या कोई ऐसा भी है, जो उनके लिए यह कहे : 'मुझे मार डालो, मैं कहता हूं, पहले मेरी हत्या कर दो!