Monday, 28 September 2015

सूनी कलाइयों के जश्न @शशि शेखर

उस दिन टेलीविजन के छोटे परदे पर वीर अब्दुल हमीद की बेवा को देखा। काल से उपजे हालात ने उनकी देह को जर्जर कर दिया और पोपले चेहरे में अब मन में उमड़ते भावों को व्यक्त करने की कुव्वत नहीं बची है। वह सादी साड़ी में लिपटी मंच पर खड़ी थीं। अगर उन्हें तन्हा छोड़ दिया जाए, तो क्या कोई अनुमान लगा सकता है कि वह उस रणबांकुरे की धर्मपत्नी हैं, जिसने अपने मुल्क के लिए जान कुर्बान कर दी? 
'वीर अब्दुल हमीद' हमारी पीढ़ी के हीरो रहे हैं।

हमीद और उन जैसे जांनिसारोंके परिवारों पर फिर कभी चर्चा। आइए, 1965 की जंग की वर्षगांठ पर सायास उपजाए गए सरकारी हर्षोल्लास के बीच जांचने-परखने का प्रयास करें कि इस युद्ध ने हमें क्या दिया? वे कौन से मुद्दे हैं, जो आज तक समर शास्त्रियों की चिंता का विषय हैं? 

गजब थी वह लड़ाई! पाकिस्तान में तब जुल्फिकार अली भुट्टो चमचमाती सियासी शख्सियत हुआ करते थे। उन दिनों वहां फील्ड मार्शल अयूब खां की हुकूमत थी और भुट्टो साहब नए पाकिस्तान को रचने के नाम पर उनकी सैनिक ग्रंथियों को हवा दे रहे थे। इस दौरान वह अपने फौजी आका को यह समझाने में कामयाब रहे कि आम कश्मीरी भारत की सरपरस्ती से निकलकर पाकिस्तान के छाते के नीचे आने को बेताब बैठे हैं। अगर हम अपनी सेना वहां भेज दें, तो लोग उसके खैर मकदम के लिए टूट पड़ेंगे। अयूब साहब मुगालते में आ गए। उन्होंने पहले सादे कपड़ों में सैनिक भेजे, फिर बाकायदा हमला बोल दिया। 

कश्मीर से लगी सीमा पर पाकिस्तानी पूरी ताकत से चढ़ आए। उन दिनों हिन्दुस्तान 1962 में चीन से मिली पराजय से आत्मग्लानि में डूबा हुआ देश था। जवाहरलाल नेहरू को गुजरे कुछ ही महीने बीते थे। वह भारतीय इतिहास के सबसे ग्लैमरस नेताओं में एक थे। उनके मुकाबले लाल बहादुर शास्त्री की शख्सियत बेहद साधारण नजर आती थी। ऐसे में, पाकिस्तान का हमला! देश चिंता से घिर गया। 

उधर, नई दिल्ली के सत्ता सदन में हलचल मची हुई थी। हमारी काफी फौज चीन की सीमा पर थी। उसे हटाया नहीं जा सकता था। पाकिस्तानी हमला अप्रत्याशित और बेहद तेज था। क्या चीन के बाद अब पाकिस्तान से हारने की बारी थी? ऐसे में, ठिगने कद के शास्त्री ने हिमालय जैसी दृढ़ता दिखाई। उन्होंने फौज को अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघने और वायुसेना के उपयोग की इजाजत दे दी। वायुसेना के प्रयोग का फैसला चीन युद्ध के दौरान नेहरू तक नहीं कर सके थे। अगर वह ऐसा कर पाते, तो शायद 1962 की जंग के नतीजे कुछ और होते। 

एक तरफ दिल्ली में ऐसे साहसिक फैसले हो रहे थे, दूसरी तरफ पाकिस्तान की राजधानी रावलपिंडी (तब इस्लामाबाद नहीं बना था) में भुट्टो और अयूब अपनी पीठ ठोक रहे थे। जब लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की अगुवाई में भारतीय सेना ने लाहौर की ओर कूच किया, तो पाकिस्तानी असावधान थे। हमारी फौज इच्छोगिल नहर पार कर लाहौर के दरवाजे तक पहुंच गई। इस युद्ध में भारतीय जवानों ने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया। 

मैं तब कक्षा एक में पढ़ने वाला बच्चा था। 50 साल बीतने के बावजूद मुझे आज भी मिर्जापुर स्टेशन पर सैनिकों की कलाइयों पर राखी बांधती, उन्हें खाना-पानी, जेवर अथवा नकदी सौंपती महिलाएं याद हैं। उनके आंसू याद हैं। पुरुषों के भर्राए हुए गले से निकलते हुए नारे याद हैं। उस दौरान हम जैसे बच्चे भी अपने गले फाड़कर चिल्लाते और खराशें पैदा कर लिया करते। दिन हो या रात, सैनिकों से भरी ट्रेन के रुकने भर की देरी होती कि पूरा शहर अपनी उमड़ती भावनाओं के साथ वहां हाजिर हो उठता। 

वे फौजें कभी नहीं हारतीं, जिनके पीछे उनकी मातृभूमि का हर बच्चा, बूढ़ा और जवान खड़ा होता है। यह शास्त्री के साहसिक फैसलों और एक करामाती नारे- 'जय जवान, जय किसान' का कमाल था। तय है। इस युद्ध में हम हारे नहीं, पर क्या वह जीत मुकम्मल थी? 

1965 की जंग ने दोनों देशों को बहुत नुकसान पहुंचाया। हालांकि, सरहद के दोनों ओर नेताओं ने अपने अवाम को यही बताया कि हम जीते हैं। इसीलिए सितंबर के महीने में भारत और पाक में तमाम संगठन अपनी तरह से जीत का जश्न मनाते हैं। अब पांच दशक बीतने के बाद यह तय हो गया है कि भारत के पास खुशी मनाने की ज्यादा वजहें हैं। यह सच है कि तीन हजार से ज्यादा जवानों ने रक्त बहाकर सितंबर 1965 के शुरुआती 22 दिनों में जो मिसाल पेश की, उससे पूरा देश चीन से मिली पराजय के सदमे से निकलने में कामयाब हो सका। इस अचानक उपजे आत्म-विश्वास ने 1971 में पाकिस्तान के विभाजन की भूमिका भी लिख दी। 

यह बात अलग है कि इस विभाजन से भी पाकिस्तान ने कुछ नहीं सीखा। उसकी कश्मीर कुंठा आज भी कायम है। याद करें। 1999 में कारगिल में वही कहानी दोहराई गई। पाकिस्तानी फौजी हमारे देश में सादे लिबास में घुस आए। अटल बिहारी वाजपेयी के सियासी नेतृत्व में भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा तो पार नहीं की, पर वायु और थल सेना के सूझबूझ भरे प्रयोग ने पाकिस्तान को एक बार फिर शर्मसार किया। 1965 की लड़ाई के बाद अयूब का पतन हुआ। 1971 के बाद जनरल याहिया खां को जलालत उठानी पड़ी। इस बार जनरल परवेज मुशर्रफ की छवि दागदार हुई। पाकिस्तान का सत्ता सदन इसके बावजूद चुप नहीं बैठा। आज भी छाया युद्ध के जरिए वे हमारी विकास यात्रा में रोड़े अटकाना चाहते हैं। 

यह एक दरिद्र पड़ोसी की ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का जगजाहिर नमूना है। 
इसीलिए उस दिन श्रीमती हमीद को देखने के बाद मेरे मन में सवाल उभरा कि जीत का यह जश्न तब मुकम्मल होगा, जब हम साल-दर-साल अपने जवानों की शहादतों को रोक सकेंगे। ऐसा इसलिए जरूरी है, ताकि फिर किसी महिला को आरोपित वैधव्य का सामना न करना पड़े। क्या हम ऐसा कर पा रहे हैं? यकीनन, बहुत कुछ किया जाना शेष है। हमारी परंपरा में सूनी मांग और कलाइयों से जश्न नहीं मनाए जाते। 

जंग के हालात अभी तक खत्म नहीं हुए हैं। पिछले डेढ़ दशक में हमने अपने पड़ोसियों के रुख में खतरनाक बदलाव देखे हैं। इस दौरान बीजिंग और इस्लामाबाद बेहद करीब आए हैं। बलूचिस्तान का ग्वादर बंदरगाह चीन के हवाले कर पाकिस्तान ने उसकी नौसेना के लिए अपने समुद्री दरवाजे खोल दिए हैं। उधर पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेना की मौजूदगी चौंकाती है। कुछ महीनों से खबरें उड़ रही हैं कि 'पीपुल्स आर्मी' ने वहां अपने स्थायी अड्डे बनाने शुरू कर दिए हैं। अगर यह सच है, तो इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता। चीन हमें हर ओर से घेर रहा है। इस्लामाबाद और बीजिंग की मित्रता दो ऐसे दुश्मनों की दोस्ती है, जो हमारे लिए हर हाल में घातक है। 

नेपोलियन बोनापार्ट ने कभी कहा था— 'आपको एक ही दुश्मन से बार-बार नहीं लड़ना चाहिए, वरना आप अपने तमाम युद्ध कौशल उसे सिखा देंगे।' क्या पाकिस्तान के मामले में ऐसा नहीं हो रहा? हम उसके छल-बल से वाकिफ हैं, लेकिन क्या उससे हर मोर्चे पर निपटने के लिए तैयार भी हैं? 
इस यक्ष प्रश्न का जवाब देने की जिम्मेदारी दिल्ली के सत्ता सदन की थी, है और रहेगी।

नेहरू या बोस, किससे प्रभावित थे भगत सिंह ? @अपूर्वानंद

सुभाष चंद्र बोसImage copyrightNetaji Research Bureau
सुभाष चन्द्र बोस पर फिर चर्चा शुरू हो गई है. पिछले सत्तर सालों में जाने कितनी बार बोस की वापसी के कयास लगाए गए हैं.
यह स्वीकार करना कि वे दुनिया में नहीं हैं, कुछ लोगों की निगाह में राष्ट्रद्रोह से कम नहीं. आख़िर इस देश में ऋषियों के हजारों वर्ष तक तपस्या करने का वर्णन महाभारत और रामायण जैसे ‘इतिहास-ग्रंथों’ में मिलता हैं या नहीं.
बोस भारत को अंग्रेजों से आज़ाद कराना चाहते थे, इसमें क्या शक.
उनके विचारों में समाजवादी रुझान भी देखा जा सकता है. लेकिन यह तथ्य है कि उन्होंने आख़िरकार हिटलर, मुसोलिनी और तोजो से परहेज़ नहीं रखा, बल्कि सक्रिय सहयोग लिया.

समाजवादी हिटलर

हिटलरImage copyrightGetty
यह भी न भूलें कि हिटलर भी एक प्रकार का समाजवादी ही था. इस तथ्य को बहुत से भारतीय अगर बहुत गंभीर नहीं मानते तो सिर्फ इसलिए कि फासीवाद की विभीषिका की उन्होंने सिर्फ कहानियाँ पढ़ी हैं.
क्यों यूरोप में स्वस्तिक का चिह्न धारण करना सभ्यता के ख़िलाफ़ माना जाता है, यह समझने के लिए क्या हर किसी को आश्वित्ज़ की यात्रा करनी ही चाहिए?
एक शख्स ऐसा था जिसने सुभाष चंद्र बोस के फासीवाद की ओर झुकाव का बहुत पहले अनुमान कर लिया था.
Image copyrightGetty
वह एक नौजवान था, कोई इक्कीस साल का. उसका नाम भगत सिंह था. वह न तो कांग्रेसी था और न कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य. उनकी क्रांतिकारिता में किसी को शक नहीं. उनका सुभाष चंद्र बोस के बारे में क्या ख्याल था?
1928 में भगत सिंह कोई 21 साल के जवान थे. ‘किरती’ नामक पत्र में उन्होंने ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार' नाम से एक लेख लिखा.
वे असहयोग आंदोलन की असफलता और हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों की मायूसी के बीच उन आधुनिक विचारों की तलाश कर रहे थे जो नए आंदोलन के लिए नींव का काम करें.
वे इस लेख में दो नए उभरते नेताओं ‘बंगाल के पूजनीय श्री सुभाष चंद्र बोस और माननीय पंडित श्री जवाहरलाल नेहरू’ के विचारों की पड़ताल करते हैं.

‘भावुक बंगाली’

महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोसImage copyrightGANDHI FILM FOUNDATION
भगत सिंह के अनुसार सुभाष ‘भारत की प्राचीन संस्कृति के उपासक’ और नेहरू ‘पश्चिम के शिष्य’ माने जाते हैं. पहला ‘कोमल हृदयवाला भावुक’ और दूसरा ‘पक्का युगांतरकारी’ माना जाता है. लेकिन खुद भगत सिंह सुभाष और नेहरू के बारे में क्या राय रखते हैं?
भगत सिंह अमृतसर और महाराष्ट्र में कांग्रेस के सम्मेलनों के इनके भाषणों को पढ़कर कहते हैं कि हालाँकि दोनों पूर्ण स्वराज्य के समर्थक हैं लेकिन इनके विचारों में ‘ज़मीन आसमान का अंतर’ है.
बंबई की एक जनसभा का वे ख़ास जिक्र करते हैं जिसकी अध्यक्षता नेहरू कर रहे थे और भाषण सुभाष ने दिया.
उन दोनों के वक्तव्यों को पढ़कर वे सुभाष को एक ‘भावुक बंगाली’ कहते हैं. उन्होंने भाषण शुरु किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष संदेश है. वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा.
वे उनके भाषण को ‘दीवाने’ का प्रलाप ठहराते हुए टिप्पणी करते हैं, "यह भी वही छायावाद है. कोरी भावुकता है. वे हर बात में पुरातन युग की महानता देखते हैं. वे हर चीज़ को प्राचीन भारत में खोज निकालते हैं, पंचायती राज को भी और साम्यवाद को भी."

परिवर्तनकारी या युगांतरकारी?

सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरूImage copyrightnetaji research bureau
भगत सिंह सुभाष के राष्ट्रवाद को भी अजीबोगरीब मानते हैं और उनके इस विचार से कतई सहमत नहीं कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता कोई नायाब चीज़ है और बाक़ी राष्ट्रीयताएं भले ही संकीर्ण हों, भारतीय राष्ट्रवाद ऐसा हो नहीं सकता.
भगत सिंह सुभाष चन्द्र बोस के उलट नेहरू से अधिक प्रभावित जान पड़ते हैं.
वे कहते हैं कि सुभाष परिवर्तनकारी हैं जबकि नेहरू युगांतरकारी.
भगत सिंह का मानना था, "एक के विचार में हमारी पुरानी चीज़ें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए. एक ‘भावुक’ कहा जाएगा और दूसरा ‘युगांतरकारी और विद्रोही."
21 साल के क्रांतिकारी भगत सिंह की यह टिप्पणी और भी मानीखेज है, "सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है. लेकिन पंडित नेहरू राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं."

विचारों का भटकाव

सुभाष चंद्र बोसImage copyrightnetaji research bureau
सुभाष और नेहरू में किसका चुनाव किया जाए?
भगत सिंह अपना निर्णय सुनाते हैं, "सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं....इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त ज़रूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है."
भगत सिंह उनके अंधे पैरोकार बन जाने के ख़िलाफ़ हैं. लेकिन जहाँ तक विचारों का संबंध है, वहां वे उनके साथ लग जाने की सलाह देते हैं ताकि नौजवान इंकलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इंकलाब की आवश्यकता, दुनिया में इंकलाब के स्थान, आदि के बारे में जान सकें.
नेहरू इसमें नौजवानों की मदद करेंगे कि वे "सोच-विचार कर अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें."

भावुकतावादी राष्ट्रवाद

सुभाष चंद्र बोसImage copyrightAFP
अपने इस लेख को लिखने के कोई तीन साल बाद भगत सिंह ने फाँसी के फंदे को गले लगाया.
कोई तेरह साल बाद सुभाष का भावुक और संकीर्ण राष्ट्रवाद उन्हें हिटलर तक ले गया. बीसवीं सदी में मानवता के सबसे बड़े अपराधियों में से एक के साथ हाथ मिलाने सुभाष को दुविधा न हुई.
भगत सिंह जीवित रहते तो कहते कि मैंने बरसों पहले नौजवानों को सावधान कर दिया था.
भगत सिंह की यह चेतावनी कि नौजवान सुभाष चंद्र बोस के संकरे भावुकतावादी राष्ट्रवाद के विचारों से सावधान रहे, क्या 100 पहले के जवानों के लिए थी, आज के जवानों के लिए नहीं?

Saturday, 26 September 2015

स्मारकों की सार्थकता पर सवाल @विवेक शुक्ला

दिल्ली में नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के कामकाज पर विवाद के बाद इसके निदेशक डॉ महेश रंगाराजन ने पिछले दिनों इस्तीफा दे दिया. लेकिन, इस संदर्भ में एक बड़ा सवाल यह भी है कि नेताओं के नाम पर बने ऐसे स्मारकों, जहां रोज गिनती के लोग पहुंचते हैं, से देश को कितना लाभ हो रहा है? स्मारक बनाने के तय नियम न होने के चलते ज्यादातर मामलों में नेताजी ने राजधानी के जिन महंगे बंगलों में अपने जीवन के अंतिम दिन गुजारे, उन्हें ही उनके स्मारक में तब्दील कर गया है. 
 
नेहरूजी देश के महान नेता थे, पर उनके स्मारक और वहां बनी समृद्ध लाइब्रेरी का इस्तेमाल एक खास तबके तक सीमित रहा. नेहरू प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तीन मूर्ति भवन में रहते थे, वह अंगरेजों के राज में भारत के कमांडर इन चीफ का आवास था. 
 
नेहरूजी के निधन के बाद उसे उनके स्मारक में तब्दील कर दिया गया. हालांकि नेहरूजी के बाद यह भवन लाल बहादुर शास्त्री को आवंटित हुआ था, पर उन्होंने वहां जाने से मना कर दिया था. बहुत से बुद्धिजीवी बताते हैं कि यह भवन पीएम हाउस के लिए सबसे उपयुक्त रहता, क्योंकि राजधानी के बीचों-बीच होने के अलावा संसद भवन और केंद्रीय सचिवालय के भी करीब है. 
 
विशाल क्षेत्र में फैला होने के कारण यहां पीएम हाउस में काम करनेवाले अधिकतर मुलाजिमों के रहने की भी व्यवस्था की जा सकती थी.
 
शास्त्री जी प्रधानमंत्री के रूप में 10-जनपथ बंगले में रहे. तब वे दो बंगले, जिनमें आजकल सोनिया गांधी और रामविलास पासवान रहते हैं, भी 10-जनपथ का ही हिस्सा थे. शास्त्रीजी के निधन के बाद बंगला उनकी पत्नी को दे दिया गया. वह 1993 यानी अपनी मृत्यु तक उसमें रहीं. उसके बाद उसे शास्त्रीजी का स्मारक बना दिया गया. अभी इसमें रोज कुछेक लोग ही आते हैं.
 
स्मारक चलानेवाले ट्रस्ट की हालत भी पतली बतायी जाती है. यूपीए-2 सरकार ने ऐसे स्मारकों के लिए धन देना बंद करने का फैसला किया था. उसके बाद मोदी  सरकार ने फैसला किया है कि सरकार सिर्फ महात्मा गांधी की जयंती एवं पुण्य तिथि से खुद को जोड़ेगी, अन्य दिवंगत नेताओं की जयंती एवं पुण्य-तिथि संबंधित ट्रस्ट, पार्टी, सोसाइटी या समर्थक अपने स्तर पर फंड जुटा कर मनाएंगे. 
इंदिरा गांधी के 1-सफदरजंग रोड में बने स्मारक में भी रोज कुछ ही लोग पहुंचते हैं. भीमराव आंबेडकर ने पंडित नेहरू की कैबिनेट से 31 अक्तूबर,1951 को इस्तीफा दे दिया था और उसके अगले ही दिन वे 26-अलीपुर रोड बंगले इस बंगले में आ गये थे. अपनी जिंदगी के अंतिम पांच बरस बाबा साहब ने यहीं अपनी पत्नी सविताजी के साथ गुजारे थे. उन्हें सांकेतिक रेंट पर इस बंगले में रहने का आग्रह किया था राजस्थान के सिरोही के राजा ने. 
 
बाबा साहब ने यहीं रहते  हुए ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ नाम से कालजयी पुस्तक लिखी. बाबा साहब की मृत्यु के बाद सविताजी करीब तीन सालों तक इसी बंगले में रहीं. उसके बाद सिरोही के राजा ने बंगले को मदनलाल जैन नाम के व्यापारी को बेच दिया. जैन ने इसे स्टील व्यवसायी जिंदल परिवार को बेच दिया. फिर जिंदल परिवार इसमें रहने लगा. उसने बंगले में कुछ बदलाव भी किये. 
 
सन् 2000 के आसपास अंबेडकरवादी मांग करने लगे कि 26-अलीपुर रोड बंगले को बाबा साहब के स्थायी स्मारक के रूप में विकसित किया जाये. मांग जोर पकड़ने पर वाजपेयी सरकार ने जिंदल परिवार से बंगला ले लिया और उसे उसके बराबर जमीन उसी क्षेत्र में दी. तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2 दिसंबर, 2003 को इस बंगले को बाबा साहब के स्मारक के रूप में देश को समर्पित किया. यहां बाबा साहब की एक प्रतिमा लगी है. उनके बहुत से चित्र और एक पुस्तकालय भी है. लेकिन, इन्हें देखने आनेवालों का टोटा ही रहता है.
 
अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार ने नये स्मारकों के निर्माण पर विराम लगा दिया है. इसमें दो राय नहीं कि देश की महान विभूतियों से जुड़ी यादों को इस तरह से सहेज कर रखा जाये कि देश-समाज के लिये किये गये उनके कार्यों की जानकारी आनेवाली पीढ़ियों को मिलती रहे. 
 
लेकिन जरूरी यह भी है कि स्मारक का निर्माण मनमाने तरीके से न हो, इसके लिए सर्वसम्मति से कुछ नियम तय किये जाएं. साथ ही स्मारकों में नियमित रूप से कुछ ऐसे कार्यक्रम भी आयोजित किये जाएं, जो लोगों को वहां आने के लिए प्रेरित करे. स्मारकों की सार्थकता तभी बनी रहेगी.

'संभव है लाल बहादुर शास्त्री की हत्या की गई हो'

बिहार: 141 साल पुराना अखबार फिर शुरू @सीटू तिवारी

बेहार हेराल्ड का 1922 का संस्करण
Image captionबेहार हेराल्ड का 1922 का संस्करण
बिहार की राजधानी पटना की खज़ांची रोड स्थित बिहार बंगाली एसोसिएशन के छोटे-से उमस भरे कमरे में बीते डेढ़ महीने से चहल-पहल बढ़ गई है.
बिहार, बंगाल, लखनऊ, दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों से यहां बधाई संदेश आ रहे हैं. लोग अपनी समस्याओं का पुलिंदा भी एसोसिएशन के दफ़्तर भेज रहे हैं.
एसोसिएशन के सदस्य ये तय करने में माथा पच्ची कर रहे हैं कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के मुद्दों को आगामी बिहार चुनावों में कैसे उठाया जाए.
दरअसल ये पूरी कवायद और बधाई संदेश 'बेहार हेराल्ड' के लिए है. 'बेहार हेराल्ड' पटना से निकलने वाला 141 साल पुराना साप्ताहिक अंग्रेजी अख़बार है.

1874 में शुरुआत

बेहार हेराल्ड का 2015 का संस्करण
Image captionबेहार हेराल्ड का 2015 का संस्करण
जमीन मालिकों यानी लैंड ओनर्स एसोसिएशन के सदस्य गुरु प्रसाद सेन ने 1874 में इस अखबार को शुरू किया था.
गुरु प्रसाद सेन ढाका से आकर पटना में बसे थे. 110 साल यानी 1987 तक इस अखबार का प्रकाशन हुआ और इसके बाद आर्थिक दिक्कतों के चलते ये बंद हो गया.
बिहार बंगाली एसोसिएशन ने इस अखबार को जुलाई, 2015 में फिर से शुरू किया है. शुरूआत में अखबार को सिर्फ 4 पन्ने का निकाला गया है. अखबार ने अपने दो अंकों के ज़रिए ही 700 ग्राहक बना लिए हैं.
अखबार का वितरण देख रहे बिश्वनाथ बताते हैं, “अभी हम 1000 प्रतियां छाप रहे हैं जो पूरी खप रही हैं. अखबार की प्रति और पन्नों की संख्या बढ़ाकर 8 करने की योजना है. फिलहाल हम कलकत्ता भी 50 प्रतियां भेज रहे हैं जहां से अब 100 और कॉपी की डिमांड आ गई है. दिल्ली और लखनऊ से भी अख़बार की मांग आ रही है.”

दोबारा शुरू करने की ज़रूरत

दिलीप कुमार सिन्हा, बेहार हेराल्ड
Image captionबिहार बंगाली एसोसिएशन के अध्यक्ष दिलीप सिन्हा
अखबार को दोबारा शुरू करने की जरूरत के सवाल पर बिहार बंगाली एसोसिएशन के अध्यक्ष दिलीप सिन्हा कहते हैं कि यहाँ सारे भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों में ये विचार आम हो गया है कि उनके मुद्दों को मेनस्ट्रीम अख़बार तरजीह नहीं देते.
सिन्हा कहते हैं, "शिक्षा, रोजगार, आजादी के ये सारे सवाल बैक बेंचर हो गए हैं. ऐसे में हमें अपनी बात कहने के लिए मंच चाहिए.”
सेक्यूलरिज्म और डेमोक्रेसी की टैग लाइन के साथ शुरू हुए इस अखबार के शुरुआती दिनों के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है. लेकिन एसोसिएशन के आर्काइव में मौजूद 1922 के बाद के बेहार हेराल्ड को देखकर लगता है कि अखबार “ओपिनियन मेकर” का काम करता था.
अखबार में स्वास्थ्य, शिक्षा, भाषाई, जमींदारी, सांप्रदायिकता सहित सामयिक मुद्दों पर संपादकीय खूब लिखे जाते थे. तो रोज़मर्रा की घटनाओं की भी रिपोर्टिंग होती थी.

'ओपिनियन मेकर'

बेहार हेराल्ड 1936 का संस्करण
नए कलेवर में आए बेहार हेराल्ड की संपादकीय टीम के विद्दुत पाल बताते हैं, “ उस वक्त अखबार का स्वर ना तो अंग्रेजों और ना ही आजादी पूर्व कांग्रेस के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है."
पाल कहते हैं, "अखबार किसी भी मसले पर एक ओपिनियन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था. यानी अखबार जो सच्चाई है वो जस का तस सामने ऱख कर समाज के ओपिनियन फॉरमेशन में मदद करता था.”
अखबार में उस वक्त आजादी के आंदोलनों से जुड़ने के लिए कारोबारी विज्ञापन देते थे तो कमर्शियल विज्ञापनों की भी भरमार थी.
1976 में अखबार के साथ बतौर एडवर्टीजमेंट मैनेजर के रूप में काम कर चुके बिश्वनाथ देव बताते हैं, “लोगों के बीच खासकर बंगालियों के बीच इसका क्रेज इस कदर था कि अगर अखबार उनके पास डाक से वक़्त पर ना पहुंचे तो वो सीधे एसोसिएशन के दफ्तर अखबार लेने पहुंच जाते थे.”

दूसरों की प्रतिक्रिया

बेहार हेराल्ड 1965 का संस्करण
बिहार में तकरीबन 13 लाख बंगाली भाषी लोग रहते हैं. फिलहाल अख़बार के नए अंकों में बंगाली भाषियों के मुद्दों के अलावा सामयिक मुद्दों पर जोर है.
एसोसिएशन ने दूसरे भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक के संगठनों से भी संपर्क किया है. दूसरे संगठनों में भी इस बात को लेकर खुशी है.
केरल से आए एडम कहते हैं, “हमको एलियन की तरह ट्रीटमेंट मिलता है. हमारी बात कोई नहीं सुनता, बस त्यौहार के मौके पर फोटो छप जाती है. उम्मीद है कि हमें भी आवाज़ मिलेगी.

Monday, 21 September 2015

इसलिए नेताजी नहीं थे गुमनामी बाबा @शीतला सिंह

फैजाबाद के जिन गुमनामी बाबा को उनके समर्थक नेताजी सुभाष चंद्र बोस साबित करने पर तुले हैं, उनका पूरा रहस्य अब भी पूरी तरह सामने नहीं आ सका है, हालांकि उनकी मृत्यु को 30 साल बीत चुके हैं। उनकी कोई प्रमाणित फोटो तक उपलब्ध नहीं है, जिससे उनकी पहचान स्थापित करने में मदद मिल सके। एक दाढ़ी वाला स्केच अवश्य प्रचारित किया जा रहा है, पर वह भी उसे बनाने वाले कलाकार की कल्पना पर आधारित और प्रायोजित बताया जाता है। गुमनामी बाबा किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। यहां तक कि जिन्हें उनका निकटस्थ बताया जाता है, उनके बीच भी वे पर्दे की दीवार गिरने नहीं देते थे।

कहते हैं कि गुमनामी बाबा के पास कई बक्सों में भरी हुई नेताजी से संबंधित अनेक वस्तुएं, साहित्य और उपयोगी सामग्री थी। बाबा और नेताजी के हस्ताक्षरों को मिलान के लिए जिन तीन जगहों पर भेजा गया था, उनमें से दो की टिप्पणियां प्रतिकूल हैं। बाबा के पास यह सामग्री कब, कहां और कैसे आई? यह उनकी संग्रहशीलता का परिचायक थी या असंदिग्ध साक्ष्य का?

दरअसल जिसे हम नेताजी के रूप में जानते हैं, वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान हथेली पर रखकर घूमता था। स्वतंत्रता के बाद भी देश में आईएनए के प्रति घृणा और द्वेष की भावना नहीं रही। सरकार की ओर से भी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान दिया गया। उनके जो साथी देश में वापस आए, उन्हें जीवन भर सम्मान ही मिलता रहा।
गुमनामी बाबा को नेता जी मानने के लिए हम इसलिए तैयार नहीं है कि वह लुक-छिपकर जीवन जी रहे थे और असलियत प्रकट होने से घबराते थे, जो नेता जी की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाता। जो लोग नेताजी के जन्म दिवस पर पश्चिम बंगाल के कुछ लोगों के बाबा के पास आने का प्रचार करते हैं, उनमें से किसी ने भी बाबा की मृत्यु की सूचनाओं के बाद भी इस बाबत जानने की आवश्यकता नहीं समझी। नेता जी के घर-परिवार, इष्ट मित्रों, सहयोगियों एवं उनके ही नाम पर फॉरवर्ड ब्लाक जैसा संगठन चलाने वाले किसी व्यक्ति ने उन्हें नेता जी के रूप में स्वीकार नहीं किया। केवल ललिता बोस ही प्रतिकूल दृष्टिकोण वाली थीं। उन्होंने उच्च न्यायालय तक यह प्रसंग उठाया, लेकिन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाईं।

अब सवाल उठता है कि नेता जी के प्राकट्य में बाधा क्या थी। तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजों के ट्रांसफर ऑफ पावर ऐक्ट में उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंपने का प्राधिकार था। लेकिन भारत में क्या किसी नेता की यह हैसियत थी कि वह आजादी के बाद नेताजी को ब्रिटिश सरकार के हाथों में सौंप सकता? यदि वह अनुबंध था, तो किनके बीच था और अब तक उजागर क्यों नहीं हुआ? भारत में भी इस बीच कई राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं और वे सभी नेताजी के विरोधी नहीं कहे जा सकते। उस समय उनकी असलियत क्यों नहीं खुली, जब 1977 में केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी? बाद में भी भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी छह वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। इस समय भी भाजपा के नरेंद्र मोदी शक्तिशाली और ऊर्जावान प्रधानमंत्री के रूप में विद्यमान हैं। ये सारी सरकारें किन कारणों से नेताजी से जुड़े तथ्यों को, यदि वे हैं, तो उन्हें छिपाने में दिलचस्पी रखती हैं?

नेताजी के संबंध में जानकारियां प्राप्त करना जनता का अधिकार है। इस संबंध में सारी जांचें चूंकि केंद्र सरकार ने कराई थीं, इसलिए यदि कोई विपरीत जानकारी उपलब्ध हो, तो उसे पेश करना सरकार की जिम्मेदारी है। पर जब नेताजी को गुमनामी बाबा से जोड़ा जाता है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या दोनों के स्वभाव में किसी प्रकार की समानता थी? क्या गुमनामी बाबा की असलियत न मालूम होना ही उनके नेताजी होने का पूर्ण प्रमाण है? गुमनामी बाबा को जिन कारणों से हम नेताजी मानने से हिचकते हैं, उनमें सबसे बड़ा तो यही है कि गिरफ्तारी के डर से छिपने वाले को हम साहसी नहीं मानते, और किसी भयभीत व्यक्ति को नेताजी कहना, उसका कम, नेताजी का अपमान ज्यादा है

युद्ध जिसमें पाक हारा, भारत नहीं जीता @शेखर गुप्ता

कुछ हद तक उदार- और ईमानदार- सैन्य इतिहासकार भी बताएंगे कि 1965 का युद्ध आखिरी था, जिसमें भारत के खिलाफ पाकिस्तान के जीतने के अवसर थे। उसके पास बेहतर सैन्य साज-ओ-सामान था, उन्नत टेक्नोलॉजी थी, नाटो से मिली बेहतर ट्रेनिंग, स्पष्ट युद्ध नीति और रणनीतिक लक्ष्य भी था। अब यह भरोसा करना कठिन लगता है, लेकिन तब आंतरिक और राजनीतिक स्तर पर भारत की तुलना में पाकिस्तान अधिक एकजुट दिखाई देता था। भारत के सामने तो नगा विद्रोह, द्रविड़ पृथकतावाद और अस्थिर कश्मीर जैसी समस्याएं थीं।

सबसे महत्वपूर्ण यह था कि युद्ध छेड़ने का समय, स्थान और तरीका पाक ने तय किया था। उद्‌देश्य था कश्मीर घाटी पर कब्जा। उसने सही निष्कर्ष निकाला था कि चीन से 1962 की हार के बाद भारतीय सेना का आधुनिकीकरण शुरू हो चुका है। साल-दो साल में यह अधिक शक्तिशाली सेना हो जानी थी। वे गलत नहीं थे। आइए देखें कि टेक्नोलॉजी और सैन्य सामग्री में पाक को जमीन, पानी व हवा में कैसी फौजी बढ़त हासिल थी :

-पाक के अमेरिका में बने पैटन टैंक उपमहाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ थे। दलील दी सकती है कि भारत के ब्रिटेन में बने ‘सेंचुरिअन’ बराबरी के थे, लेकिन एक तो इनकी संख्या कम थी, पाकिस्तान के पैटन की तुलना में आधे। हमारे शेष टैंक द्वितीय विश्वयुद्ध के शरमन और हल्क फ्रेंच एएमएक्स थे। चिनाब में पाक के मुख्य हमले का मुकाबला करने वाली ब्रिगेड के पास तो एएमएक्स के दो स्क्वैड्रन ही थे। दूसरी बात, भारतीय टैंक रात में उपयोगी नहीं थे। पैटन टैंकों में यह खूबी थी। भारत सिर्फ बड़ी संख्या में इन्फैंट्री डिवीजन के मामले में बेहतर था। किंतु जैसा कि लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने ‘वॉर डिस्पैचेस’ में बताया है कि इनमें कई नए थे, जिन्हें 1962 के युद्ध के बाद गठित किया गया था। वे युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।

-पाक के पास बेहतर तोपखाना और बड़ी संख्या में उच्च क्षमता की अमेरिकी तोपें थीं। बड़े पैमाने पर संतुलन पाक के पक्ष में हो जाता था, जैसा सियालकोट सेक्टर में टैंक व इन्फैंट्री के बीच हुई खुली लड़ाई में साबित हुआ। हरबख्श सिंह ने यहां तक कहा है कि सैन्य उपकरणों और तोपखाने के इस्तेमाल की नीति का पाक ने बेहतर उपयोग किया था। भारतीय सेना का 75 फीसदी नुकसान पाक तोपखाने के कारण ही हुआ।

-हवा में एफ-86 सैबर तथा एफ-104 स्टार फाइटर पर लगी मिसाइलों से पाक हवाई फौज को श्रेष्ठता हासिल थी। भारतीय वायु सेना में मिग-21 का पहला स्क्वैड्रन शामिल किया जा रहा था और सिर्फ नौ विमान मिले थे। पायलटों को नए विमानों की ट्रेनिंग दी जा रही थी। फिर एफ-104 पूरी तरह और कुछ एफ-86 विमान भी रात में कार्रवाई करने में सक्षम थे। भारत के पास रात में कारगर लड़ाकू विमान नहीं थे। इसके कारण रात में पाक बमवर्षक भारतीय ठिकानों तक सुरक्षित पहुंच जाते, जबकि रात में हमारे बमवर्षक पाक हवाई फौज के निशाने पर रहते थे। सी-130 हर्क्यूलिस के रूप में पाक के पास बेहतरीन परिवहन बेड़ा था।

- नौसेना के मोर्चे पर भारत के पास बड़ा बेड़ा था, लेकिन अमेरिका से मिले गाज़ी के साथ पाक पनडुब्बी युग में पहुंच गया था। सोनार व पनडुब्बी का पता लगाने की हमारी क्षमता में खामियां थीं, इसलिए इस क्षेत्र में यह लड़ने के काबिल नहीं थी। एकमात्र विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत बंदरगाह में था। यह सक्रिय होता भी तो इसका सीमित असर ही होता। ये सारी बातें दिमाग में रखकर अय्युब और भुट्‌टो ने युद्ध का फैसला लिया। उस साल कच्छ सेक्टर में भारतीय रक्षा ब्रिगेड के कमजोर प्रदर्शन से भी पाक का मुगालता बढ़ गया। वहां भारतीय वायुसेना ने लड़ने से परहेज रखा और पाक को गलतफहमी हो गई कि वह लड़ना ही नहीं चाहती। चूंकि यह 1962 के बाद का वक्त था तो पाक को लगा कि उसका वक्त आ गया है। फिर भी सबकुछ पाक की मर्जी मुताबिक क्यों नहीं हुआ? इन कारणों पर दोनों ओर के निष्पक्ष सैन्य इतिहासकार सहमत हैं :

-पाकिस्तानी कमांडरों का अहंकार और जीत की घोषणा जल्दी करने की दिली तमन्ना। खेमकरण में टैंकों से किया हमला इसका उदाहरण है,जो एक वक्त इतना खतरनाक लग रहा था कि जनरल जेएन चौधुरी व्यास नदी के पीछे नई रक्षा पंक्ति तक हटना चाहते थे (सौभाग्य से हरबख्श सिंह ने उन्हें ऐसा न करने के लिए प्रेरित किया)। यह होता तो पंजाब का ज्यादातर हिस्सा पाक के पास चला जाता। पाक की इस शानदार कार्रवाई से ही उसे सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा। 1 आर्मर्ड डिवीजन नष्ट होने के साथ ही मैदान में पाक की आक्रमण क्षमता काफी हद तक खत्म हो गई।

-भारत की बेहतर युद्ध नीति और टुकड़ियों के स्तर पर बख्तरबंद इकाई का बेहतर नेतृत्व। पहाड़ों में खासतौर पर रात की लड़ाइयों में भारत का बेहतर प्रदर्शन। भारत कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र में हावी रहा, जबकि छंब के मैदानों में इसे एक हिस्सा गंवाना पड़ा।

-पाक की अद्‌भुत सामरिक पहल, अमल के नाकारापन से बर्बाद हो गई। मसलन, 6 सितंबर की शाम को अग्रिम हवाई ठिकानों पर हमले करके इसने भारत को चौका दिया, खासतौर पर पठानकोट में, जहां अग्रिम मोर्चे के हमारे 10 विमान नष्ट कर दिए गए। किंतु आगे क्या करना है, यह उसे पता नहीं था। हलवारा और आदमपुर में कुछ नुकसान झेलने के बाद पाक हवाई फौज ने भारतीय हवाई ठिकानों पर दिन में हमले नहीं किए, जबकि युद्ध में वह तब तक हावी रही थी। कोई भी नौसेना युद्ध पर असर डालने लायक बड़ी नहीं थी। भारतीय नौसेना तो लड़ाई के लिए तैयार नहीं थी। पाक नौसेना ने द्वारका पर सांकेतिक हमला भर करके मौका गंवा दिया।

-कुल-मिलाकर भारतीय सैन्य बलों ने रक्षात्मक लड़ाई में फौलादी संकल्प व कुशलता दिखाई जैसा कि खेमकरण की लड़ाई में साबित हुआ। यह पाक के इस मिथक के बिल्कुल खिलाफ था कि ‘हिंदू’ सैन्य बल उसे रोक नहीं पाएंगे। रणनीतिक रूप से पाक ने बड़े हमले का वक्त चुनने में गलत अनुमान लगाया और मूर्खतापूर्ण ढंग से यह सोचा कि कश्मीर में उसकी भड़काऊ कार्रवाई का जवाब सिर्फ वहीं तक सीमित रहेगा। भारत ने जैसे ही पंजाब में मोर्चा खोला, इसे फौरन बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।

सारे युद्ध गलत अनुमानों से शुरू होते हैं। 1965 का युद्ध पाक की गलतफहमी का नतीजा था। फैसला उसका था, जो तुलनात्मक सैन्य शक्ति के आकलन पर आधारित था। राजनीतिक-आर्थिक रूप से भी भारत संकट में था। इस युद्ध में सिर्फ पाक के रणनीतिक लक्ष्य थे और वह इन्हें हासिल करने में नाकाम रहा। इससे कुछ हद तक इस प्रश्न का जवाब मिलता है कि कौन युद्ध में जीता और कौन हारा? चूंकि पाक कोई उद्‌देश्य हासिल नहीं कर सका, निश्चित ही पराजय उसी की हुई है। किंतु जमीनी लड़ाइयों में हावी रहने के बावजूद सैन्य स्तर पर भारत युद्ध नहीं जीत सका। यह पाकिस्तान की सामरिक हार थी, लेकिन सैन्य स्तर पर गतिरोध की स्थिति रही

Sunday, 20 September 2015

आधुनिक भारत के रहस्य : वह टाइम कैप्सूल कहां है जो इंदिरा गांधी ने जमीन में दफन करवाया था? @पवन वर्मा

आज से 43 साल पहले लाल किला परिसर में एक टाइम कैप्सूल जमीन के नीचे दबाया गया और चार साल बाद बाहर भी निकलवा लिया गया, लेकिन उसके भीतर क्या था और आज वह कहां है, यह किसी को नहीं पता.
आधुनिक भारत के रहस्यपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के काम करने के तौरतरीकों में लोग कई समानताएं खोज सकते हैं. लेकिन इनके राजनैतिक जीवन की एक घटना इन तीनों के साथ विचित्र तरह का संयोग है. यह घटना ‘टाइम कैप्सूल’ से जुड़ा विवाद है.
इसमें सबसे हालिया विवाद मई, 2010 का है. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उनकी सरकार ने गांधीनगर में बनने वाले महात्मा मंदिर की नींव में एक टाइम कैप्सूल दफन करवाया था. तीन फुट लंबे और ढाई फुट चौड़े इस स्टील सिलेंडर में कुछ लिखित सामग्री और डिजिटल कंटेट रखा गया था. सरकार के मुताबिक कैप्सूल में गुजरात के पचास साल का इतिहास संजोया गया था. कांग्रेस ने उस समय इसका काफी विरोध किया. पार्टी ने आरोप लगाया कि टाइम कैप्सूल के माध्यम से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इतिहास में अपना महिमामंडन करना चाहते हैं. कांग्रेस ने धमकी भी दी कि वह सत्ता में आई तो कैप्सूल निकलवा देगी.
इंदिरा गांधी सरकार स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगांठ को यादगार तरीके से मनाना चाहती थी. इसके लिए योजना बनाई गई कि 15 अगस्त, 1973 को लाल किला परिसर में एक टाइम कैप्सूल जमीन में दबाया जाएगा
गुजरात कांग्रेस ने कैप्सूल में रखे दस्तावेजों में दर्ज जानकारी जानने के लिए राज्य सूचना आयोग में एक अर्जी भी लगाई थी. पार्टी ने बाद में दावा किया कि उसे जो जानकारी मिली है उसके मुताबिक टाइम कैप्सूल में गुजरात के इतिहास के बजाय नरेंद्र मोदी के कामों को तवज्जो दी गई है और इसमें 90 फीसदी से ज्यादा सूचनाएं नरेंद्र मोदी के बारे में हैं.
बसपा की सुप्रीमो मायावती के बारे में 2009 में यह चर्चा चली थी कि उन्होंने अपनी पार्टी और खुद की उपलब्धियों से जुड़ी हुई जानकारी के दस्तावेज एक टाइम कैप्सूल में रखवाकर कहीं दफन करवाए हैं. हालांकि इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई लेकिन उस समय मीडिया में यह खबर सुर्खियों में थी.
टाइम कैप्सूल से जुड़ा तीसरा और भारतीय राजनैतिक इतिहास का सबसे विवादास्पद मामला पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधित है. वैसे समयानुक्रम के हिसाब से इसे देश में इस तरह का पहला मामला कहा जाना चाहिए. यह 1980 के दशक की बात है. उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने राजनीतिक करियर के शीर्ष पर थीं. उनकी सरकार स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगांठ को यादगार तरीके से मनाना चाहती थी. इसके लिए योजना बनाई गई कि 15 अगस्त, 1973 को लाल किला परिसर में एक टाइम कैप्सूल जमीन में दबाया जाएगा. सरकार का कहना था कि इसके भीतर रखे जाने वाले दस्तावेजों में आजादी के शुरुआती 25 सालों की उपलब्धियों का विशेष विवरण होगा, साथ ही देश के प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक समय तक की उल्लेखनीय घटनाओं का जिक्र भी इसमें शामिल किया जाएगा.
राजनीतिक हल्कों में सरकार का विरोध यह कहकर हो रहा था कि इंदिरा गांधी टाइम कैप्सूल में खुद और अपने परिवार का महिमामंडन करने वाली जानकारियां रखवा रही हैं.
इंदिरा गांधी सरकार ने इस टाइम कैप्सूल को नाम दिया था – कालपात्र. कालपात्र में भारतीय इतिहास के कौन से महत्वपूर्ण हिस्सों का विवरण रखा जाएगा इसकी जिम्मेदारी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) को दी गई. मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर एस कृष्णास्वामी इस सामग्री को तैयार कर रहे थे. लेकिन यह योजना शुरुआत में ही बौद्धिक और राजनीतिक हल्कों में विवादित हो गई. कृष्णास्वामी ने काल पात्र के भीतर रखे जाने वाले दस्तावेजों की एक प्रति तमिलनाडु के अभिलेखागार आयुक्त और प्रसिद्ध इतिहासकार टी बद्रीनाथ को भेज दी. वे इसपर उनकी राय जानना चाहते थे. बद्रीनाथ ने सामग्री के अध्ययन के बाद खुलेआम इसकी आलोचना कर दी. उनका कहना था कालपात्र में रखे जाने वाले दस्तावेज इतिहास का गलत प्रस्तुतिकरण करते हैं. राजनीतिक हल्कों में सरकार का विरोध यह कहकर हो रहा था कि इंदिरा गांधी खुद और अपने परिवार का महिमामंडन करने वाली लिखित सामग्री काल पात्र में रखवा रही हैं.
हालांकि इस विरोध के बावजूद स्वतंत्रता दिवस के दिन काल पात्र लाल किला परिसर में जमीन के नीचे दबा दिया गया. 1977 में कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. अब देश में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव के पहले ही यह कह दिया था कि वे काल पात्र को जमीन से निकलवाकर उसकी सामग्री का दोबारा अध्ययन करेंगे. सरकार गठन के कुछ ही दिनों बाद लाल किला परिसर से खुदाई करके काल पात्र निकलवा लिया गया. उस समय मीडिया में रहे कुछ लोगों की मानें तो सरकार ने इसमें रखे दस्तावेजों का अध्ययन किया था. इनमें कुछ का दावा है कि काल पात्र के दस्तावेजों में ज्यादातर सामग्री इंदिरा गांधी और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों के बारे में थी, तो वहीं एक वर्ग की राय है कि इसमें भारतीय इतिहास से जुड़े विवरण विवादास्पद नहीं कहे जा सकते. इस घटना के बारे में एक और दिलचस्प जानकारी यह है कि कालपात्र को जमीन में दबाने में कुल आठ हजार रुपये खर्च हुए लेकिन इसे बाहर निकलवाने में सरकार को 58 हजार रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़े थे.
मानुषी पत्रिका की संपादक मधु किश्वर ने 2012 में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से सूचना के अधिकार के तहत टाइम कैप्सूल के बारे में जानकारी मांगी थी
काल पात्र जमीन से निकाल लिया गया था इसके बारे में तो राजनीतिक इतिहासकारों को कोई शक नहीं है. लेकिन बाद में इसका क्या हुआ यह किसी को नहीं पता. यह भी साफ नहीं है कि काल पात्र में रखे दस्तावेजों में असल में क्या लिखा था.
जनता पार्टी सरकार ने भी बाद में काल पात्र के बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की. यह मामला 2012-13 में एक बार फिर सुर्खियों में आया था. मानुषी पत्रिका की संपादक मधु किश्वर ने 2012 में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से सूचना के अधिकार के तहत काल पात्र के बारे में जानकारी मांगी थी. इसके जवाब में पीएमओ का कहना था कि उसके पास इससे जुड़ी कोई सूचना नहीं है. किश्वर इसके बाद राष्ट्रीय सूचना आयोग भी गईं. आयोग ने पीएमओ को काल पात्र की जानकारी जुटाने का निर्देश दिया था, लेकिन आज तक इसके बारे में पीएमओ की तरफ से कोई जानकारी सामने नहीं आई.
इंदिरा गांधी सरकार ने तांबे के इस कालपात्र को जमीन से बाहर निकालने के लिए एक हजार साल की समयावधि तय की थी. सरकार का कहना था कि एक हजार साल बाद जब यह कालपात्र जमीन से निकाला जाएगा तो इसमें रखे दस्तावेज युवा पीढ़ी को उनके गौरवशाली देश के इतिहास से परिचित करवाएंगे. हालांकि यह कालपात्र चार साल बाद ही जमीन से निकाल लिया गया. लेकिन जिस प्रकार से इसको लेकर रहस्य कायम है उसे देखते हुए लगता है कि इससे जुड़ी सूचनाएं जब भी सार्वजनिक होंगीं, इतिहास के बारे में वर्तमान पीढ़ी को कुछ पता चले या न चले पिछले समय की राजनीति के बारे में जरूर बहुत कुछ पता चलेगा.

आधुनिक भारत के रहस्य : क्या नरसिंह राव सरकार ने पुरुलिया में हथियार गिरवाए थे? @प्रदीप सती

दो दशकों से चल रही सीबीआई जांच, मुख्य आरोपी के बयान और विशेषज्ञों की राय ने पुरुलिया हथियार कांड को रहस्यमय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
आधुनिक भारत के रहस्ययह आज से साढ़े चार साल पहले की बात है. पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने थे. राज्य की सत्ताधारी कम्युनिस्ट सरकार को चुनौती देने के लिए तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और कांग्रेस पार्टी साथ मिल कर चुनाव लड़ रहे थे. इस गठबंधन के पक्ष में प्रचार करने के लिए देश के तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम 25 अप्रैल, 2011 को कोलकाता पहुंचे. उन्होंने उस दिन एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करके बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को ‘अब तक की सबसे खराब सरकार’ बताते हुए उस पर कई आरोप लगाए. इन आरोपों में एक बेहद संगीन था. चिदंबरम का कहना था, ‘राज्य सरकार और वामपंथी कैडर ने हिंसा की सारी हदें पार करते हुए समूचे बंगाल को कत्लगाह में तब्दील कर दिया है.’
21 दिसंबर को भारतीय उड्डयन अधिकारियों ने थाईलैंड से कराची जा रहे एक ‘संदिग्ध’ एयरक्राफ्ट को मुंबई के ऊपर उड़ते वक्त ट्रैक किया और उसे नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया
चिदंबरम के इस आरोप से माहौल अभी गरमा ही रहा था कि तब तक भारत के एक मोस्ट वांटेड अपराधी ने खुद उनकी पार्टी (कांग्रेस) के बारे में लगभग ऐसी ही बातें कह दीं. किम डेवी नाम के इस शख्स ने एक समाचार चैनल को दिए इंटरव्यू में यह कह कर सनसनी फैला दी कि 1995 में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने विदेशों से हथियारों का भारी भरकम जखीरा मंगवाकर समूचे पश्चिम बंगाल में कत्लोगारद मचाने का पूरा इंतजाम कर लिया था. डेवी के इस दावे के बाद चिदंबरम के आरोप तो राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए और डेढ़ दशक पहले की वह घटना फिर से चर्चा में आ गई, जिसे हम ‘पुरुलिया हथियार कांड’ के नाम से जानते हैं. किम डेवी ने अपने दावे में इसी घटना का हवाला दिया था.
आधुनिक भारत की सबसे रहस्यमय घटनाओं में से एक माना जाने वाला पुरुलिया हथियार कांड एक ऐसा वाकया है जिसने भारत की जांच एजेंसियों और खुफिया संस्थाओं के कौशल को तो बेपर्दा किया ही साथ ही कई सारे खोजी पत्रकारों और जासूसों को भी अब तक बुरी तरह उलझा कर रखा है. वजह सीधी है. बीस बरस बीत जाने के बाद आज तक कोई साफ-साफ नहीं बता पाया है कि आखिर पुरुलिया हथियार कांड के पीछे की सच्चाई क्या है. अब तक जो सामने आया है वे हैं अनुमान, विरोधाभाषी विश्लेषण और कुछ हद तक बिलकुल असंभव सी लगने वाली व्याख्याएं. इन तमाम बातों पर चर्चा करने से पहले एक सरसरी नजर में इस पूरी घटना को समझ लेते हैं.
18 दिसंबर, 1995 को पश्चिम बंगाल के पुरुलिया कस्बे के ग्रामीण सुबह-सबेरे जागने के बाद रोजमर्रा की तरह अपने खेतों की ओर जा रहे थे. इस दौरान उन्हें अचानक जमीन पर कुछ बक्से दिखाई दिए. जब इन बक्सों को खोला गया तो ग्रामीणों की आखें खुली की खुली रह गईं. इनमें भारी मात्रा में बंदूकें, गोलियां, रॉकेट लांचर और हथगोले जैसे हथियार भरे हुए थे. जितने विस्फोटक ये हथियार थे यह खबर भी उतने ही विस्फोटक तरीके से देशभर में फैल गई. यह इतनी बड़ी घटना थी कि सरकार को इस मामले में तुरंत ही देश के सामने नतीजे पेश करने थे. सरकार के लिए यह राहत की बात थी कि जांच एजेंसियों को चार दिन बाद ही एक बड़ी सफलता मिल गई. 21 दिसंबर को भारतीय उड्डयन अधिकारियों ने थाईलैंड से कराची जा रहे एक ‘संदिग्ध’ एयरक्राफ्ट को मुंबई के ऊपर उड़ते वक्त ट्रैक किया और उसे नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया. इस जहाज में सवार लोगों से पूछताछ के बाद पता चला कि पुरुलिया हथियार कांड के तार इसी एयरक्राफ्ट और इसमें सवार लोगों से जुड़े हैं.
किम डेवी का कहना है कि ये हथियार बंगाल के स्थानीय लोगों और नक्सलियों में बांटे जाने थी ताकि वे राज्य सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ सकें
जांच एजेंसियों के मुताबिक ‘एन्तोनोव-26′ नाम के इस रूसी एयरक्राफ्ट ने ही 17 दिसंबर, 1995 की रात को पुरुलिया कस्बे में हथियार गिराए थे. पैराशूटों की मदद से गिराए गए उन बक्सों में बुल्गारिया में बनी 300 एके 47 और एके 56 राइफलें, लगभग 15,000 राउंड गोलियां (कुछ मीडिया रिपोर्टें राइफलों और गोलियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा बताती हैं), आधा दर्जन रॉकेट लांचर, हथगोले, पिस्तौलें और अंधेरे में देखने वाले उपकरण शामिल थे. ‘एन्तोनोव-26′ में मौजूद एक ब्रिटिश हथियार एजेंट पीटर ब्लीच और चालक दल के छह सदस्यों को फौरन गिरफ्तार करके उनके खिलाफ जांच शुरू कर दी गई. लेकिन इस कांड का असली सूत्रधार बताया जाने वाला किम डेवी, जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है, आश्चर्यजनक रूप से हवाई अड्डे से बच निकलने और अपने मूल देश डेनमार्क पहुंचने में कामयाब हो गया.
किम डेवी इसके बाद कभी भी भारत की गिरफ्त में नहीं आ सका. दूसरी तरफ आजीवन कारावास की सजा पाने वाले उसके सहयोगी पीटर ब्लीच और चालकदल के सभी सदस्यों को भी भारत सरकार ने माफी देकर रिहा कर दिया है. लेकिन अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि इस कांड के पीछे असल वजह आखिर क्या थी ? इस घटना को लेकर अब तक इतनी सारी कहानियां सामने आ चुकी हैं जिन्हें पढ़ने-सुनने के बाद ‘जितने मुंह उतनी बातें’ वाली कहावत का मतलब आसानी से समझा जा सकता है. इनमें सबसे पहले किम डेवी की उस थ्योरी की चर्चा करते हैं जिसका थोड़ा-सा जिक्र हमने इस रिपोर्ट की शुरुआत में किया है.
साजिश की सूत्रधार भारत सरकार थी!
29 अप्रैल, 2011 को टाइम्स नाऊ पर प्रसारित एक इंटरव्यू में किम डेवी ने दावा किया कि पुरुलिया हथियार कांड भारत सरकार के इशारे पर अंजाम दिया गया था. उसके मुताबिक तब केंद्र की कांग्रेस सरकार पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट सरकार को अस्थिर करना चाहती थी. पीवी नरसिंह राव की सरकार बंगाल में सत्ताधारी दल के कैडर की हिंसा का जवाब हिंसा से देना चाहती थी इसलिए उसने ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-5 के साथ मिल कर एक योजना बनाई. डेवी ने इंटरव्यू में बताया कि इस योजना के तहत विदेश से हथियारों की खेप लाकर बंगाल के स्थानीय लोगों और नक्सलियों में बांटी जानी थी ताकि वे राज्य सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ सकें. डेवी का यह दावा अगले दिन ही खारिज कर दिया गया. इस मामले की जांच कर रही सीबीआई ने इसे बरगलाने वाला बयान बताते हुए कहा कि वह अपनी पहले वाली दलील पर कायम है, जिसके मुताबिक इस घटना के पीछे बंगाल के एक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन आनंद मार्ग का हाथ था. हालांकि सीबीआई के इस खंडन के बाद भी कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके आधार पर डेवी का दावा भले ही 24 कैरट का न लगे पर आसानी खारिज होने लायक भी नहीं लगता.
सबसे बड़ा सवाल है कि क्या बिना भारत सरकार की जानकारी और इजाजत के कोई विदेशी एयरक्राफ्ट (वह भी हथियारों से भरा) भारत के वायुक्षेत्र में प्रवेश कर सकता था?
सबसे बड़ा सवाल है कि क्या बिना भारत सरकार की जानकारी और इजाजत के कोई विदेशी एयरक्राफ्ट (वह भी हथियारों से भरा) भारत के वायुक्षेत्र में प्रवेश कर सकता था? और तो और यह एयरक्राफ्ट आठ घंटे तक बनारस के एयरपोर्ट पर रुका भी रहा. यहां से ईंधन भरवाने के बाद ही इसने पुरुलिया में हथियार गिराए थे. फिर वह कोलकाता होते हुए थाइलैंड निकल गया. जानकार सवाल उठाते हैं कि एक ऐसा विमान जो आठ घंटे एक एयरपोर्ट पर रुकने के बाद अगले गंतव्य के लिए आधी रात को उड़ान भरता हो, क्या उस पर देश की सुरक्षा एजेंसियों की नजर नहीं होनी चाहिए थी? और यदि एजेंसियों ने ऐसा किया होता तो क्या वह विमान पुरुलिया में इतनी आसानी से हथियार गिरा सकता था?
डेवी ने भी अपने दावे के पक्ष में दलील दी थी कि उसका विमान कराची से भारतीय वायु सीमा में तभी दाखिल हो सकता था जब भारत सरकार को पहले से इसकी जानकारी हो. इस दलील के आधार पर कई लोग आज भी मानते हैं कि उस वक्त सरकार के अंदर कोई तो ऐसा जरूर था जिसे सब पता था.
पुरुलिया हथियार कांड की जांच सीबीआई कर रही है लेकिन जांच में उसकी एक कथित ‘भूल’ खुद ही डेवी के दावे को मजबूत करती है. सीबीआई अब तक डेवी का डेनमार्क से प्रत्यर्पण नहीं करवा पाई है. मई, 2011 में सीबीआई ने डेनमार्क सरकार से उसके प्रत्यर्पण की मांग की थी. लेकिन यह मांग इस आधार पर ठुकरा दी गई क्योंकि जो वारंट सीबीआई ने डेवी के खिलाफ जारी किया था, उसकी मियाद पहले ही खत्म हो चुकी थी. सीबीआई से यह लापरवाही भूलवश हुई या जानबूझकर ऐसा किया गया इस पर भी बस अनुमान ही लगाए जा सकते हैं.
सीबीआई का दावा है कि बंगाल का धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन आनंद मार्ग इन हथियारों की मदद से बंगाल सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ना चाहता था
क्या पूरा मामला आनंद मार्गी बनाम वामपंथी टकराव का नतीजा था?
अब सीबीआई की आनंद मार्ग वाली थ्योरी पर आते हैं. इस मामले में सीबीआई ने जो चार्जशीट बनाई है उसके मुताबिक पुरुलिया हथियार कांड के पीछे आनंद मार्ग है. सीबीआई का कहना है कि आनंद मार्गी इन हथियारों की मदद से बंगाल सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ना चाहते थे. इस दावे के पक्ष में सीबीआई की तीन मुख्य दलीलें हैं. पहली यह कि आनंद मार्गी और वामपंथी आपस में ‘सनातन बैरी’ रहे हैं और इनके बीच अक्सर खूनी वारदातें होती रहती हैं. दूसरी दलील है कि जिस स्थान पर हथियारों का जखीरा गिराया गया वह आनंद मार्ग के मुख्यालय से कुछ ही दूरी पर था. सीबीआई की तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण दलील है कि गिराए गए हथियारों की जो मात्रा पीटर ब्लीच ने बताई थी, उससे बहुत कम हथियार ही मौके से बरामद हुए और इसका मतलब है कि कुछ हथियार आनंद मार्गी उठाकर ले जा चुके थे.
सीबीआई ने अपने निष्कर्ष सच साबित करने के लिए यह दावा भी किया कि इस कांड का मुख्य आरोपी किम डेवी खुद एक आनंद मार्गी है. अदालत सीबीआई की इन सभी दलीलों को खारिज कर चुकी है. हालांकि इसके बाद भी एक बड़ा तबका मानता है कि इस कांड के पीछे आनंद मार्गी ही थे. बीबीसी ने भी अपनी एक रिपोर्ट में ऐसा ही दावा किया था.
अमेरिका, म्यांमार, बांग्लादेश और लिट्टे तक का नाम इस मामले में आ चुका है
कुछ लोगों द्वारा पुरुलिया हथियार कांड को लेकर एक और दिलचस्प थ्योरी दी गई है. इन लोगों में अधिकतर रक्षा विशेषज्ञ हैं. इनका मानना है कि ये हथियार बांग्लादेश के उग्रवादी गुटों के लिए थे लेकिन भौगोलिक सीमा की पहचान करने में गलती होने की वजह से इन्हें पुरुलिया में गिरा दिया गया. कुछ लोग इसे अमेरिका की करतूत बताते हुए कहते हैं कि उसकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने म्यांमार के काचेन विद्रोहियों की मदद के लिए हथियारों से भरे इस एयरक्राफ्ट को भेजा था. रक्षा और खुफिया मामलों के विशेषज्ञों का एक तबका इस घटना को श्रीलंका सरकार के खिलाफ लड़ रहे अलगाववादी संगठन लिट्टे से भी जोड़ता है. उनके मुताबिक ये हथियार लिट्टे के लिए थे हालांकि ऐसा मानने वालों की तादाद बहुत कम है.
इन सब तर्कों और अनुमानों के बीच पुरुलिया हथियार कांड की सीबीआई जांच ऐसे किसी अंतिम नतीजे पर पहुंचती नहीं दिख रही है जो सभी दूसरे अनुमानों को खारिज कर दे. जाहिर है कि जब तक ऐसा नहीं होता यह मामला देश के सबसे बड़े रहस्यों में से एक बना रहेगा.