15 फ़रवरी 1980 का दिन. काबुल से एक बस क़ंधार की तरफ़ जा रही है. तमाम यात्रियों के साथ पीछे की सीट पर 'द ऑब्ज़र्वर' अख़बार के संवाददाता श्याम भाटिया बैठे ऊंघ रहे हैं.
तभी अचानक बस रुकती है. खिड़की के शीशों पर धुंध जमी है. इसलिए उनके बाहर देख पाना इतना आसान नहीं है.
श्याम अपनी उंगली से शीशे पर लगी धुँध साफ़ करते हैं. श्याम अपनी उनीदी आंखों से देखते हैं कि कुछ अफ़ग़ान लोग हाथ में कलाशनिकोव लिए ड्राइवर से बात कर रहे हैं. अचानक दो लोग बस पर चढ़कर ड्राइवर को बस से उतरने का आदेश देते हैं.
वह दोनों अचानक ग़ायब हो जाते हैं. वही दो मुजाहिदीन दोबारा बस पर चढ़ते हैं और सभी यात्रियों को बस से उतरने का आदेश देते हैं.
पहला यात्री उतरते ही उन मुजाहिदीन से बहस करने लगता है. अचानक एक मुजाहिदीन एक पिस्टल निकालता है और उस यात्री को गोली से उड़ा देता है.
श्याम भाटिया याद करते हैं, "मुजाहिदीन सभी यात्रियों से उनके परिचय पत्र मांग रहे थे और जिनका परिचय पत्र लाल रंग का था, उनके सिर में वो दो-तीन मिनट के अंतराल पर गोली मार रहे थे. मुझे थोड़ी-थोड़ी देर पर आवाज़ सुनाई दे रही थी... फुट-फुट-फुट. मैं चूँकि आख़िरी सीट पर था, मेरा नंबर सबसे बाद में आया. जैसे ही मैं नीचे उतरा मैंने देखा मेरे दाहिनी तरफ़ शवों का अंबार लगा था. मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था. मैंने उन्हें अपना नीले और सुनहरे रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट दिखाया. देखते ही उनके नेता ने जिसके हाथ में पिस्तौल थी मेरे गाल पर ज़ोर का थप्पड़ रसीद किया."
भाटिया ने आगे कहा, “मैंने कांपते हुए चिल्लाकर कहा मैं ब्रिटिश पत्रकार हूँ. उनमें से एक ने कहा, तुम पत्रकार नहीं जासूस हो और फिर मेरे ऊपर थप्पड़ों की बरसात शुरू हो गई. फिर उन्होंने बस में आग लगा दी. धुआँ उठता देख वहां रूसी हेलिकॉप्टर पहुँच गए. उन्होंने भागना शुरू किया और उनके पीछे मैंने भी भागना शुरू किया. मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. रुकने का मतलब था मौत- अगर गोलियों से नहीं तो शून्य से भी नीचे तापमान से.”
श्याम भाटिया इन लोगों के चंगुल से कैसे बचे? यह लंबी कहानी है लेकिन मशहूर पत्रकार मार्क टली कहते हैं कि यह तो श्याम भाटिया की क़िस्मत थी कि वो बच गए लेकिन इस घटना के कई साल बाद तालिबान ने भी मेरे साथ क़रीब-क़रीब ऐसा ही सुलूक किया था. उनके चंगुल में फंसने के बाद वो मुझे श...श कहकर इस तरह हाँका करते थे जैसे उस इलाक़े में या कश्मीर में चरवाहे अपनी बकरियों को हांका करते हैं.
श्याम भाटिया 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख दंगों के समय दिल्ली में थे.
श्याम याद करते हैं, “मैं सोने जा रहा था कि मेरे पास फ़ोन आया कि क्या आप मारे गए सिख लोगों के शव देखना चाहेंगे. उस जगह जाने के लिए कोई टैक्सी ड्राइवर तैयार नहीं था. मैंने एक ड्राइवर को वहां ले जाने के लिए पांच हज़ार रुपयों का लालच दिया, जो उस ज़माने में बड़ी रक़म होती थी. जब हम वहां पहुँचे, तो चारों तरफ़ जलते हुए रबर की बदबू फैली थी. जलते हुए टायर पड़े थे और उनके आसपास गुड़मुड़ाए हुए गट्ठर पड़े थे. जब मैं रेलिंग के ऊपर से कूदकर ज़रा और नज़दीक गया तो मैंने पाया कि ये गट्ठर नहीं सिखों के जल चुके शव थे. कुछ के सिरों पर अभी भी जलती हुई पगड़ियां लगी थीं. मैंने 119 लाशें गिनीं और तभी मैंने देखा कि पास में ज़ैतूनी रंग की सेना की लॉरी खड़ी है. उसका पिछला हिस्सा खुला था और उस पर एक के ऊपर एक शव पड़े थे. उनको गिन पाना तो मुश्किल था, लेकिन मैंने अनुमान लगाया कि वहां कम से कम 30 शव थे.''
श्याम बताते हैं कि होटल आकर मैंने राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के दफ़्तर में फ़ोन लगाया. उन्होंने फ़ोन करवाया कि वह दोपहर बाद मुझसे मिलेंगे. "मेरे सामने दिक़्क़त थी कि राष्ट्रपति भवन कैसे पहुँचा जाए क्योंकि कोई टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी निकालने के लिए तैयार नहीं था. तभी होटल की ट्रैवल एजेंसी के मैनेजर ने आकर मुझसे कहा कि अगर आप चाहें तो मेरी असिस्टेंट के ब्वॉय फ़्रेंड के स्कूटर पर राष्ट्रपति भवन जा सकते हैं. मैं सूट और टाई पहनकर स्कूटर के पीछे बैठा. जब मैं पहुँचा तो सुरक्षा गार्ड ने मुझे अंदर नहीं घुसने दिया."
"उसने मेरी कहानी सुनकर कहा बकवास...यहां कोई भी राष्ट्रपति से मिलने स्कूटर पर नहीं आता. उससे बहस करते हुए जब 15 मिनट हो गए तो अंदर से फ़ोन आया कि मुझे अंदर आने दिया जाए. ज़ैल सिंह ने मुझे अपने पास बैठाकर वो सब चीज़ें बताने को कहा, जो मैंने देखी थीं. मैं देख पा रहा था कि रो-रोकर उनकी आंखें लाल हो गई थीं. बार-बार वो यही दोहरा रहे थे...क्या किया उन्होंने."
दिलचस्प बात यह है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार पर किताब लिखने के दौरान जब मार्क टली ने ज़ैल सिंह से संपर्क करना चाहा, तो उनके नज़दीकी लोगों ने उनसे उन्हें मिलने नहीं दिया.
टली याद करते हैं, "जब मेरी किताब छपी तो ज़ैल सिंह ने उसे पसंद नहीं किया. उनके प्रवक्ता त्रिलोचन सिंह का मेरे पास फ़ोन आया कि ज्ञानी जी आपसे मिलना चाहते हैं. जब मैं अपने जिगरी दोस्त और किताब के सह लेखक सतीश जैकब के साथ ज़ैल सिंह से मिलने पहुँचा, तो उन्होंने पूछा कि आपने कैसे लिख दिया कि भिंडरावाले को बढ़ाने में मेरा हाथ है. सतीश ने उनसे पूछा कि भिंडरावाले को आपने बढ़ावा नहीं दिया तो किसने दिया? ज़ैल सिंह बोले कांग्रेस पार्टी ने. सतीश ने उनकी आंखों में आंखें डालकर सवाल किया- क्या आप उस समय कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं थे?"
श्याम भाटिया की किताब में अगला ज़िक्र है सद्दाम हुसैन की क्रूरता का, जिन्होंने अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ ज़हरीली गैस का इस्तेमाल किया था.
श्याम याद करते है, “ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान मैं तेहरान में था. मुझसे ईरानियों ने पूछा- क्या आप इराक़ियों के ज़हरीली गैस इस्तेमाल करने के सुबूत देखना चाहेंगे. मेरे हां करने पर वो मुझे और छह अन्य विदेशी संवाददाताओं को हेलिकॉप्टर में बैठाकर इराक़ सीमा के अंदर हलाबजा गांव ले गए.”
इसके आगे भाटिया बताते हैं, “लैंड करने से पहले एक ईरानी डॉक्टर ने हमें हरे रंग का इंजेक्शन देते हुए कहा कि अगर हमें कुछ बेचैनी का अहसास हो, तो हम इसे तुरंत अपनी जांघ में घोप लें. वहां उतरकर हमने देखा कि यहां-वहां मर्द-औरतों-बच्चों की लाशें पड़ी थीं. उनके चेहरे पर सांस न ले पाने की मजबूरी साफ़ देखी जा सकती थी. कुछ के चेहरे नीले पड़े हुए थे. शव भी बेतरतीब पड़े थे. किसी की बांह लटकी थी, तो किसी का पैर उठा था. ये लोग कुर्द थे जो इराक़ सरकार का विरोध कर रहे थे. हम लोग वहां आधे घंटे रुके होंगे, तभी ईरानियों ने कहा-वापस चलें कहीं इराक़ियों का दोबारा हमला न हो जाए.”
श्याम भाटिया ने बीबीसी को फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात से लिए गए अपने उस इंटरव्यू के बारे में भी बताया, जिसमें अराफ़ात उनसे नाराज़ हो गए थे.
उन्होंने कहा, “उस ज़माने में अराफ़ात से इंटरव्यू लेना बहुत मुश्किल होता था. मेरी उनके स्टाफ़ से दोस्ती हो गई थी. उन्होंने मुझसे कहा कि अराफ़ात का इंटरव्यू लेना चाहते हो, तो उनके लिए शहद की एक बोतल लेकर आओ. एक बार मैं ट्यूनिस में उनका इंटरव्यू लेने गया. 20-25 मिनट बाद मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं आपकी पत्नी का इंटरव्यू ले सकता हूँ.”
इसके आगे भाटिया सुनाते हैं, “इतना सुनते ही अराफ़ात नाराज़ हो गए. बोले-आपकी हिम्मत कैसे हुई, मेरी पत्नी के बारे में बात करने की. फ़ौरन कमरे से निकल जाइए. मैंने कमरे से निकलते हुए डरते-डरते कहा, मैं आपके लिए शहद की बोतल लेकर आया हूँ, जो बाहर मेज़ पर रखी है. होटल में आने के बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद ही किया था कि ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी.”
भाटिया कहते हैं, "बाहर अराफ़ात के दो बॉडीगार्ड खड़े थे. उन्होंने मुझे एक गाड़ी में बैठाया और अराफ़ात के उसी घर पर ले गए, जहां से उन्होंने मुझे बाहर निकाला था. जब दरवाज़ा खुला तो अराफ़ात एक बहुत सुंदर महिला के साथ खड़े थे. बोले-मिलिए मेरी पत्नी सुहा से. मैंने कहा आप तो नाराज़ थे मुझसे. वो बोले-वह नक़ली ग़ुस्सा था. आप रुकिए और हमारे साथ खाना खाइए और शहद के लिए बहुत शुक्रिया. अराफ़ात और उनकी पत्नी ने बहुत प्यार से मुझे चावल, हुमुस, मटन स्टू, सलाद और दो सब्ज़ियां खिलाईं और मैं उनके पास दो घंटे तक रहा."
बाद में श्याम और अराफ़ात दंपत्ति की नज़दीकी इतनी बढ़ गई कि एक बार अराफ़ात की पत्नी ने अपनी डेढ़ साल की बेटी ज़हवा की बेबी सिटिंग की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी.
श्याम बताते हैं, “एक बार मैं अराफ़ात का इंटरव्यू करने येरूशलम से ग़ज़ा गया. उनकी पत्नी सुहा ने मुझसे कहा कि क्या आप थोड़ी देर के लिए मेरी बेटी की देखभाल कर सकते हैं. हमारी आया आई नहीं है और हमें ज़रूरी मीटिंग के लिए तुरंत बाहर जाना है."
श्याम आगे बताते हैं, "मैंने उनसे पूछा मैं किस तरह इनकी देखभाल करूँ. सुहा ने कहा तुम्हारे भी बच्चे हैं. तुम्हें मालूम है बच्चों को किस तरह देखा-भाला जाता है. इसको प्रैम में बैठाओ और समुद्र के बग़ल में चहलक़दमी के लिए चले जाओ. कल्पना करें-मैं सूटबूट पहने, टाई समंदर की हवा में उड़ती हुई और मैं अराफ़ात की बेटी को प्रैम में टहला रहा हूँ और मेरे पीछे छह सशस्त्र फ़लस्तीनी सैनिक चल रहे हैं. डेढ़ घंटे बाद अराफ़ात और उनकी पत्नी लौटकर आए. उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया और मुझे एक लंबा इंटरव्यू दिया."
श्याम भाटिया ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में बेनज़ीर भुट्टो के साथ पढ़ा करते थे और उन चुनिंदा बाहरी लोगों में थे, जो उनके घरेलू नाम पिंकी से उन्हें पुकार सकते थे. बेनज़ीर भी उनके घर के नाम चुन्नू से उन्हें बुलाती थीं. एक बार जब वह प्रधानमंत्री नहीं थीं तो बेनज़ीर ने उन्हें मिलने दुबई बुलाया.
कुछ देर बात करने के बाद श्याम ने उनसे पूछा, “पिंकी जब आप प्रधानमंत्री थीं, तो आपको ख़्याल नहीं आया कि भारत के ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल किया जाए. सुनते ही बेनज़ीर एकदम चुप हो गई. बोली क्या तुम समझते हो कि मैं पागल हूँ. भारत के ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल करने का मतलब है अपने ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल करना. इस तरह की बकवास मत करो.”
अपनी किताब के अंत में श्याम भाटिया एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं कि किस तरह रूस-अज़रबैजान सीमा पर भारतीय होने की वजह से उनकी जान बची.
"मुझे रूसी सैनिकों ने पकड़ लिया. मैंने उन्हें लाख समझाया कि मैं एक पत्रकार हूँ, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और कहा कि तुम जासूस हो. मैंने उनसे कहा आपने बॉलीवुड की कोई फ़िल्म देखी है. बॉलीवुड का नाम सुनते ही वो ख़ुश हो गए. मैंने उन्हें राज कपूर की फ़िल्म का वो मशहूर गाना सुनाया- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी.. मेरी बेसुरी आवाज़ में इस गाने को सुनना था कि उनका मूड बदल गया. उन्होंने मेरी बहुत आवभगत की. मुझे क्रीम खिलाई, दूध पिलाया, नान खिलाई और अवैध ढंग से बनी वोद्का भी पीने को दी और मैं उनकी पकड़ से भी बच निकला और आपके सामने अपनी यह कहानी सुना रहा हूँ.
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