क़ुदरत ने सियाचिन को इंसानों के रहने के लिए नहीं बनाया. हालाँकि सियाचिन के बर्फ़ में जो अपार जल और जैविक सम्पदा है उसका सबसे बड़ा सुख इंसानों के लिए ही है. सदियों तक इस तथ्य का सम्मान हुआ. मुल्क के बँटवारे के वक़्त भी सियाचिन पर सीमा की काल्पनिक लक़ीर नहीं खींची गयी. 1949 के कराची समझौते और 1972 के शिमला समझौते में भी इसका लिहाज़ रहा. लेकिन बांग्लादेश युद्ध में मिली ऐतिहासिक और शर्मनाक हार के बाद पाकिस्तानी सेना ने सभी उसूलों से तौबा कर लिया. सियाचिन को लेकर सदियों से चली आ रही सोच तार-तार हो गयी.
पाकिस्तान के जन्म के वक़्त से ही उसके हुक़्मरानों में ये बीमारी घर कर गयी कि किसी भी तरह से भारत को नीचा दिखाया जाए. हर बार मुँह की ख़ाने से पाकिस्तान और ढीठ होता गया. नीयतख़ोर पाकिस्तान का क़ुदरत और क़िस्मत दोनों ने कभी साथ नहीं दिया. फिर भी वो हमेशा नयी ख़ुराफ़ात में ही लगा रहा. इसी फ़ितरत की वजह से 1975 में पाकिस्तान ने गुपचुप तरीक़े से सियाचिन में पर्वतारोहण की गतिविधियाँ शुरू की. उसकी मंशा थी कि पर्वतारोहण की बदौलत वो सियाचिन को अपने कब्ज़े वाला इलाक़ा बताने लगेगा. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए पाकिस्तान ने सियाचिन से जुड़े लेख पर्वतारोहण सम्बन्धी पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाये.
1978 में ऐसे ही एक लेख पर भारतीय सेना के कर्नल नरेन्द्र कुमार उर्फ़ ‘Bull’ की नज़र पड़ी. अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ पर्वतारोही कर्नल नरेन्द्र उस वक़्त जम्मू-कश्मीर में गुलमर्ग स्थित High Altitude Warfare School के कमांडर थे. उन्होंने एक अमरीकी प्रकाशन में सियाचिन को पाकिस्तान की सीमा में देखा. 1981 में कर्नल नरेन्द्र ने सियाचिन के मुहाने तक गयी नियंत्रण रेखा के आख़िरी छोर NJ9842 से आगे की सरहद तय करने के लिए पर्वतारोही अभियान शुरू किया.
इसमें उन्होंने पाया कि शिमला समझौते की अनदेखी करके पाकिस्तान सियाचिन में अवैध रूप से पर्वतारोही गतिविधियाँ चला रहा है. लेकिन अभियान के दौरान उन्होंने सियाचिन के सुदूर छोर पर भारतीय तिरंगा फ़हराकर नियंत्रण रेखा की सरहद तय कर दी. कर्नल नरेन्द्र कूड़ा रूपी उन पुख़्ता सबूतों के साथ अभियान से लौटे, जो विदेशी पर्वतारोहियों ने वहाँ फेंके थे.
1933 में रावलपिंडी में जन्मे कर्नल नरेन्द्र का परिवार विभाजन के बाद भारत आ गया. सेना में वो कुमायूँ रेज़ीमेंट की शान बने. पर्वतारोहण का उन्हें प्रचंड शौक़ था. इसी ने 1961 में उनके दोनों पैरों के अँगूठे छीन लिये. इसके बावजूद 20 बार कर्नल नरेन्द्र ने 8000 मीटर से ऊँची चोटियों को फ़तह किया. इस ऊँचाई को Death Zone कहा जाता है. उन्होंने एवरेस्ट (1965), नन्दादेवी (1964) और कंचनजंगा (1976) की दुर्गम चोटियों के अलावा पीर पंजाल, ज़ंसकार, लद्दाख, सालटोरो, कोराकोरम, हिमालय और अगिल जैसे सात ग्लेशियर रेंज को भी फ़तह किया. भारत को सियाचिन के रूप में श्वेत मुकुट देने का श्रेय कर्नल नरेन्द्र को ही है. इन्हीं उपलब्धियों की वजह से पर्वतारोही बिरादरी ने उन्हें ‘Bull’ उपनाम दिया.
1981 वाले कर्नल नरेन्द्र के सियाचिन अभियान की बदौलत भारतीय सेना बहुत चौकन्नी हो चुकी थी. तब सियाचिन की दुर्दान्त चोटियों पर पैनी नज़र रखने की रणनीति बनी. 1984 में सेना को लन्दन से ख़ुफ़िया जानकारी मिली कि पाकिस्तान ने अत्यधिक ऊँचाई वाली जगहों पर तैनात होने के लिए ज़रूरी पोशाकों और साज़ों-सामान का भारी आर्डर दिया है. ये आर्डर उसी कम्पनी को दिये गये जिससे भारत ऐसे सामान की ख़रीदारी करता था. इससे पहले पाकिस्तान को सियाचिन से भारतीय ब्रांड के सिगरेट के कुछ ख़ाली पैकेट मिले थे. इससे उसे लगा कि भारतीय लोग सियाचिन में आना-जाना कर रहे हैं.
1984 में ख़ुफ़िया तंत्र से भारत को पाकिस्तान की मंशा की भनक लग चुकी थी. लिहाज़ा, कर्नल नरेन्द्र के नेतृत्व में ऑपरेशन मेघदूत की तैयारी हुई. सेना की विशेष टुकड़ियों का सघन प्रशिक्षण तेज़ हुआ. लेकिन विशेष पोशाकों की कमी तो भारत में भी थी. इसीलिए 13 अप्रैल को ज़रूरी पोशाकों के भारत पहुँचने के अगले दिन ही कर्नल नरेन्द्र और उनके साथी सियाचिन की उन चोटियों पर जा जमे, जो सामरिक दृष्टि से बेहद अहम थीं.
इस तरह कर्नल नरेन्द्र ने ख़ून की एक बूँद बहाये बगैर सियाचिन के दो-तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. कुछ दिनों बाद जब पाकिस्तानी सेना वहाँ पहुँची तो उसने पाया कि सारी प्रमुख चोटियों पर भारतीय सेना क़ाबिज़ है. ये पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर पानी फेरने और उसका ग़ुरूर तोड़ने के लिए काफ़ी था.
सियाचिन में दोनों सेनाओं के बीच कई झड़पें हुई हैं. पाकिस्तान को हमेशा मुँह-तोड़ जवाब मिला है. क्योंकि भारतीय सीमा चौकियों का स्थान, सैनिकों की क्षमता और प्रशिक्षण का स्तर हमेशा पाकिस्तानियों के मुक़ाबले बहुत बेहतर रहा है. भारतीय सेना की ऐसी श्रेष्ठता के पीछे कर्नल नरेन्द्र की बहुत बड़ी भूमिका रही है. यही वजह है कि उनके जैसा सम्मान सेना में कभी किसी और को नहीं मिला. कर्नल होने के बावज़ूद सेना ने उन्होंने जनरल की हैसियत दी. उन्हें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च सम्मान मैकग्रेगर पदक (MacGregor Medal) से भी नवाज़ा गया. जनरलों को मिलने वाला सर्वोच्च सम्मान परम विशिष्ट सेवा पदक (PVSM) और युद्धकाल का सर्वोच्च सम्मान अति विशिष्ट सेना पदक (AVSM) पाने वाले अपने रैंक के वो इकलौते सैनिक हैं.
कर्नल नरेन्द्र के सीने पर चमचमाते कीर्ति चक्र और पदमश्री भी उनकी शोभा बढ़ाते हैं. लेकिन मज़े की बात ये भी है कि कर्नल नरेन्द्र की ये सारी उपलब्धियाँ उस दौर के बाद की हैं जब 1961 में पैर के अँगूठों को गँवाने की वजह से उन्हें अपाहिज़ माना गया था. इसके बाद फ़ौज में बने रहने के लिए कर्नल नरेन्द्र को उस ‘Non-Liability Form’ पर दस्तख़त करने पड़े जिसका मतलब था कि यदि उन्हें कुछ हो गया तो उनकी पत्नी क्षतिपूर्ति की हक़दार नहीं होंगी. हालाँकि, ग्लेशियरों को चुनौती देने के अपने शौक़ की वजह से देश के इस वीर सैनिक को आगे चलकर अपने पैर की बाक़ी अँगुलियों से भी हाथ धोना पड़ा.
सभी ग्लेशियरों की तरह सियाचिन का भी सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ का बेरहम मौसम ही है. वहाँ मुख्य रूप से मौसम ने ही सैनिकों को शहीद बनाया है. भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को क़रीब दोगुने सैनिकों को सियाचिन में गँवाना पड़ा है. इसी ज़मीनी सच्चाई को देखते हुए 1988 में पाकिस्तान ने सियाचिन को हथियाने के लिए नया पैंतरा तैयार किया. उसने सियाचिन के विसैन्यीकरण (Demilitarization) की पेशकश की. दलील दी गयी कि सियाचिन जैसे दुर्दान्त इलाके से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता. लिहाज़ा, दोनों देशों के ग़रीबों की तरक़्क़ी की क़ीमत पर सियाचिन में सेनाएँ रखने का भारी ख़र्च उठाना कोई समझदारी नहीं है.
1989 में भारत, सियाचिन को शान्ति क्षेत्र में तब्दील करने पर राज़ी भी हो गया. बशर्ते पाकिस्तान ये लिखकर दे कि वो सेना की मौजूदा स्थिति को ही नियंत्रण रेखा मानेगा. पाकिस्तान राज़ी नहीं हुआ. क्योंकि भीतरख़ाने उसकी बदनीयत ये है कि एक बार सियाचिन से भारतीय सेना हट जाएँ तो फिर वो मौक़ा देखकर ऊँची चोटियों पर कब्ज़ा कर लेगा. यदि एक बार ऐसा हो गया तो भारतीय सेना के लिए फिर से वहाँ क़ाबिज़ होना लगभग असम्भव होगा. यही वजह है कि सियाचिन को शान्ति क्षेत्र बनाने की कोशिशें नाक़ाम रही हैं. अलबत्ता, इसका एक ख़ुशगवार नतीज़ा ये ज़रूर रहा कि 2003 से सियाचिन में युद्ध-विराम लागू है.
युद्ध-विराम की वजह से अभी सियाचिन में सैनिकों पर गोलीबारी का क़हर तो बरपा नहीं होता, लेकिन वहाँ का ज़ालिम मौसम तो हमेशा अपने तेवर दिखाता रहता है. मौसम को हर क़ीमत पर मातृभूमि की रक्षा करने वाले जाँबाज़ों से कोई हमदर्दी नहीं रहती. इसीलिए लॉन्स नायक हनुमनथप्पा भी उन रणबाँकुरों में शामिल हो गये, जिन्हें कृतज्ञ राष्ट्र कभी नहीं भूलेगा. हनुमनथप्पा को गर्वोक्तिपूर्ण श्रद्धांजलि! उनके जुझारूपन ने सियाचिन के गौरवशाली इतिहास में एक और सुनहरा पन्ना जोड़ दिया. इससे पहले, सियाचिन की गौरवगाथा में नायब सुबेदार बाना सिंह ने 26 जून 1987 को बेजोड़ उपलब्धि हासिल की.
बाना सिंह ने ऑपरेशन राजीव के तहत पाकिस्तान के कब्ज़े से क़ायदे-आज़म जिन्ना के नाम पर बनी उस बेहद महत्वपूर्ण क़ायद चौकी को छीना था, जो 21,000 फ़ीट (6500 मीटर) की ऊँचाई वाली सियाचिन की सबसे ऊँची चोटी है. ये उपलब्धि इतनी शानदार थी कि बाना सिंह को सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से नवाज़ा गया. क़ायद चौकी से पाकिस्तान के कब्ज़े वाले सियाचिन के सालटोरो रेंज़ पर नज़र रखी जा सकती है.
वो पाँच सौ मीटर ऊँची बर्फ़ से चट्टानों से घिरे एक क़िले की तरह थी. 18 अप्रैल 1987 को क़ायद से गोलीबारी ने उस सोनम चौकी पर तैनात दो भारतीय सैनिकों को मार गिराया, जिस क्षेत्र में 3 फरवरी 2016 को लॉन्स नायक हनुमनथप्पा के दस साथियों के साथ जानलेवा हादसा हुआ. तब भारत ने क़ायद को अपने हाथ में लेने का फ़ैसला किया.
29 मई को सेकेंड लेफ़्टिनेंट राजीव पांडेय की टुकड़ी ने नाक़ाम कोशिश की. इसमें दस भारतीय सैनिक शहीद हो गये. फिर महीने भर की तैयारी के बाद उनकी याद में 23 जून को ऑपरेशन राजीव की अगुवाई मेज़र वीरेन्द्र सिंह ने की. वीरेन्द्र भी कई बार विफल हुए. तब 26 जून को बाना सिंह, चुन्नी लाल (अशोक चक्र, वीर चक्र, सेवा मैडल) और उनके तीन साथियों ने क़ायदा तक पहुँचने के लिए बेहद लम्बे और कठिन रास्ते को चुना.
बर्फ़ीले तूफ़ान के बीच बाना सिंह और साथियों ने क़ायदा चौकी पहुँचकर बंकर में हथगोला फेंका. इसमें छह पाकिस्तानी सैनिक मारे गये. कई चोटियों से क़ूदकर भागे. तब से वो चौकी ‘बाना पोस्ट’ के नाम से जानी जाती है. बाना के साथी नायब सुबेदार चुन्नी लाल उस ऑपरेशन के 20 साल बाद 2007 में कुपवाड़ा में आतंकियों से हुई एक मुठभेड़ में शहीद हो गये.
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