Tuesday, 23 February 2016

हमेशा धारा से अलग चला है जेएनयू @विनोद अग्निहोत्री

बात उन दिनों की है जब पंजाब अलगाववादी खालिस्तान आंदोलन की आंच में झुलस रहा था। स्वर्ण मंदिर में छिपे जरनैल सिंह भिंडरावाले और दूसरे आतंकवादियों के खिलाफ सेना का ऑपरेशन ब्लू स्टार हो चुका था और उसकी हिंसक परिणति इंदिरा गांधी की हत्या और सिख विरोधी दंगों के रूप में देश के सामने आ चुकी थी। सारे प्रमुख अकाली नेताओं को जेल भेजा जा चुका था। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल। हम जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जो समाजवादी विचारधारा के छात्र संगठन समता युवजन सभा से जुड़े थे, दिल्ली से अमृतसर तक की पदयात्रा निकाल कर आतंकवाद सांप्रदायिकता और अलगाववाद के खिलाफ अलख जगा रहे थे।

कांग्रेस उन दिनों वही कर रही थी जो भाजपा अब कर रही है, यानी देश की एकता अखंडता की पूरी जिम्मेदारी उसकी है और जो उसका विरोध करे वह देश की अखंडता के खिलाफ है। उन्हीं दिनों समाजवादी विचारधारा वाले छात्र संगठन समता युवजन सभा की जेएनयू इकाई ने जेल से तत्काली रिहा हुए शीर्ष अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की जनसभा विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित की। इसे लेकर विश्वविद्यालय में विवाद छिड़ गया। कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की जेएनयू इकाई ने जनसभा के विरोध में परिसर में पोस्टर और प्रचार अभियान छेड़ दिया। जिनमें लोंगोवाल को बुलाने का मतलब देश की अखंडता से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया गया। लेकिन तब भी आयोजक छात्रों को राष्ट्रविरोधी नहीं कहा गया और न ही किसी के खिलाफ पुलिस कार्रवाई हुई। लोंगोवाल आए और जनसभा जबर्दस्त तरीके से सफल हुई।

दिलचस्प बात यह है कि तब जेएनयू की एबीवीपी इकाई जो नाम मात्र की थी, ने जनसभा का समर्थन किया और एनएसयूआई के सिवा शेष सभी छात्र संगठनों एसएफआई, एआईएसएफ, पीएसओ, फ्री थिंकर्स ने लोंगोवाल की जनसभा में शामिल होकर उसे कामयाब बनाया। आज कमोबेश वही स्थिति फिर है जहां एबीवीपी के सिवा सभी छात्र संगठन एक साथ खड़े हैं।

इस घटना का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया कि जेएनयू में वाद विवाद मत विभिन्नता और असहमति की लंबी और पुरानी परंपरा है। जेएनयू केबाहर रहने वाले लोग इसे लेकर कई तरह केभ्रम पाले रहते हैं। जिनमें स्वेच्छाचारिता का अड्ड़ा, यौन स्वच्छंदता, मादक पदार्थों केसेवन की बहुतायत, अराजक विचारधारा और अराजक जीवन शैली. नक्सली बनाने की फैक्ट्री जैसे कई आरोप शामिल रहे हैं। इसके बावजूद देश के इस शीर्ष विश्वविद्यालय पर देशद्रोह को पनपाने केआरोप कभी नहीं लगे। हालाकि जेएनयू में आने केबाद जो तस्वीर मिलती है वह बाहरी धारणा से एकदम अलग होती है। एक खुला मुक्त वातावरण। जहां देश के हर हिस्से हर वर्ग और सामाजिक वर्ग के छात्र छात्राएं एकदूसरे से इस कदर घुल मिल जाते हैं मानों वर्षों से एक दूसरे को जानते हों। न जाति की दीवार, न धर्म की न भाषा की न क्षेत्र की उनके बीच आती है। शिक्षकों और छात्रों के बीच न सिर्फ गुरु शिष्य बल्कि साथी जैसे रिश्ते बनते हैं जो आजीवन चलते हैं।

सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि दूर दराज गांवों से आए छात्र छात्राओं के बीच ऐसे सहज सामान्य रिश्ते बनते हैं जो न सिर्फ यौन कुंठाओं को खत्म करते हैं बल्कि नर नारी समानता के विचार को व्यवहारिक भी बनाते हैं। विचारों की आज़ादी, तर्क करने की स्वतंत्रता और देश, समाज और दुनिया भर की समस्याओं की चिंता, अंतर्विरोधों पर बहस, इतिहास और समाज की तमाम तरह की व्याख्याओं के बीच अपनी समझ विकसित करने का मौका जो जेएनयू में मिलता है, वह देश के अन्य विश्वविद्यालयों में कितना मिलता है, कह नहीं सकता।

जहां तक जेएनयू से निकलने वाले छात्रों की वैचारिक निष्ठा और देशभक्ति का प्रश्न है तो यह जानना भी जरूरी है कि परस्पर वैचारिक अंतर्विरोधों के बावजूद इस विश्वविद्यालय केछात्र किसी भी दौर में देश में होने वाले किसी भी सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन में सक्रिय भागीदार रहे हैं।

हिंदी में सबसे पहले शोध निबंध लिखने की अलख जेएनयू में ही जगाई गई। 1971 के भारत पाक युद्ध के दौरान यहां के छात्रों ने सैनिकों के लिए रक्तदान किया। 1974-75 के जयप्रकाश आंदोलन के दौर में जिन जवाहर लाल नेहरू के नाम पर यह विश्वविद्यालय है, उनकी बेटी इंदिरा गांधी के खिलाफ जेएनयू के छात्र सड़कों पर उतरे। जेल गए। देश की राजनीति की हर धारा में उस दौर के छात्र नेता आज मुख्य भूमिका में नजर आते हैं। नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के सिख विरोधी दंगों में जब दिल्ली या तो दुबकी हुई थी, या उनमें शामिल थी, तब सबसे पहले जेएनयू के छात्र बाहर निकले और उन्होंने अपने आसपास के इलाकों में सिखों की सुरक्षा की। शांति मार्च निकाले और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के युवा डाक्टरों के साथ मिलकर दंगा पीडि़त परिवारों के लिए चिकित्सा और राहत सामग्री लेकर जेएनयू के छात्र और शिक्षक ही विश्वविद्यालय की बसों में बैठकर दिल्ली केउन इलाकों में गए जो दंगों की आग में झुलस रहे थे। यही नहीं दंगों के लिए कथित रूप से दोषी बताए जाने वाले कांग्रेस के बड़े नेताओं और राजीव गांधी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने वाले जेएनयू के ही छात्र थे। तब आज देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाले और आगे चलकर सिख विरोधी हिंसा पर सियासी रोटियां सेंकने वाले घरों में बैठे थे। इसके अगले ही महीने जब दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो सबसे पहले जेएनयू के ही छात्र उसके खिलाफ सड़कों पर उतरे। कई छात्र भोपाल गए। गैस पीडि़तों की मदद केसाथ उनकी आवाज को दिल्ली के दरबार तक पहुंचाने का जरिया बने।

जम्मू कश्मीर में राजीव गांधी ने फारुख अब्दुल्ली की सरकार को बर्खास्त करके उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बनाया तो जेएनयू के छात्रों ने फारुख को बुलाया और उनकी बात सुनी। श्रीलंका में जब तमिल गुटों के बीच हिंसक झड़पें हो रही थीं और लिट्टे दूसरे गुटों के सफाए में जुटा था तब जेएनयू के छात्रों ने फोटो प्रदर्शनी और वहां से बचकर आए तमिल नेताओं की सभाएं कराकर उसे सबके सामने लाने का काम किया। जाफना में तमिल जनता पर श्रीलंकाई फौज के दमन के खिलाफ जेएनयू के ही छात्र सड़क पर उतरे। प्राकृतिक संसाधनों की लूट से लेकर आदिवासियों पर जुल्म केखिलाफ जेएनयू से ही आवाज उठती रही है। बहुत कुछ है गिनाने के लिए। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद से लेकर देश के भीतर सामंतवादी अत्याचार, राजनीति केअपराधीकरण, विचारहीनता और पूंजीवादी शोषण से लेकर बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी का पर्दाफाश करने में जेएनयू के बौद्धिक जगत की अहम भूमिका है। इसके बावजूद अगर जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों की देशभक्ति को संदेहास्पद बनाकर उसे बंद करने की मुहिम इस देश के विरुद्ध एक बड़ी साजिश ही मानी जाएगी। जिसे राष्ट्रवाद की चाशनी में परोसकर पूरे वातावरण को जेएनयू के खिलाफ बनाने की कोशिश की जा रही है। जेएनयू से पढ़कर निकलने वाले छात्र वामपंथी, समाजवादी, गांधीवादी, उन्मुक्त चिंतक, अराजकतावादी और अब हिंदुत्ववादी तो हो सकते हैं, लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते। जेएनयू की वैचारिक खाद पानी में देशद्रोह का बीज है ही नहीं। जेएनयू से निकले छात्र देश और दुनिया के तमाम क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। मौजूदा केंद्र सरकार में भी केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण से लेकर अनेक अधिकारी जेएनयू केही पूर्व छात्र हैं।

जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय में भारत विरोधी नारेबाजी या कोई अन्य गतिविधि की जानकारी होते ही उसके खिलाफ तत्काली कानूनी कार्रवाई से किसे इनकार है। लेकिन अभी तक वह कथित छात्र नहीं पकड़े जा सके जिन्होंने भारत विरोधी नारेबाजी की। उन्हें पकडऩे की बजाय छात्रसंघ अध्यक्ष को आनन फानन में गिरफ्तार करके पुलिस अब उसके खिलाफ देशद्रोह के सबूत तलाश रही है। सरकार यह सब मौन होकर देख रही है। आखिर किस और किसके एजेंडे के तहत यह सब हो रहा है, यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब तलाशना होगा।

No comments:

Post a Comment