Thursday, 11 February 2016

आख़िर किसके हैं भगत सिंह? @राजीव लोचन

भगत सिंहImage copyrightGetty
भगत सिंह किसके? जब जब भारत देश को किसी तरह के उपदेवता की आवश्यकता हुई है उसने भगत सिंह को खोज निकाला. भगत सिंह में वे सारे गुण थे जो उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त बनाता है.
नौजवान थे, लिखने पढ़ने में माहिर, विचार संप्रेषण में अग्रणी, जवान उम्र में ही शहीद हो गए और वह भी कुछ इस तरह का घटनाचक्र रच कर कि देश में हर किसी के हृदय को झकझोर दिया.
जैसा कि हर हीरो के साथ होता है भगत सिंह को भी लोग तभी याद करते हैं जब समस्याएं बढ़ती नज़र आ रही हों और कोई मददगार न दिखे.
जिस भगत सिंह की जीते-जी राजनैतिक गठबंधनों ने अवहेलना की उसे ही अब सब अपना कहने पर आमादा हैं.
भगत सिंह जब अंग्रेज़ सरकार के हाथ लगे तो अख़बारों ने रिपोर्ट किया कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ़्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आमतौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे.
भगत सिंहImage copyrightRajiv Lochan
आख़िर पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में, कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें.
जिहाद के जाल में फँसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताज़ा करने में लगे हैं. आख़िर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह ज़मीन थी जो आज पाकिस्तान है.
वैसे कांग्रेस का भगत सिंह के साथ संबंध कुछ उलझाव भरा रहा है. कांग्रेस के नेता भगत सिंह के कार्यकलापों से इतना प्रभावित थे कि जब पहली बार भगत सिंह का नाम 1929 में सार्वजनिक हुआ, जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के मुखपत्र, कांग्रेस बुलेटिन में कोर्ट के समक्ष दी हुई भगत सिंह की संपूर्ण उद्घोषणा ही छाप डाली.
असहयोग आंदोलन के मंद पड़ने के बाद (1920-1922) कांग्रेस किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के फ़िराक़ में थी.
समस्या यह थी कि देश में कई लोग यह मानते थे कि आंदोलन में जनता और कांग्रेस की हार हुई.
भगत सिंहImage copyrightALOK PUTUL
साथ ही तेज़ी से फैलते हुए सांप्रदायिक ज़हर ने कांग्रेस को काफ़ी अकर्मण्य बना दिया था. देश के युवा, कांग्रेस से विमुख, क्रांति की लहर की तरफ़ झुकाव दिखाने लगे.
इस माहौल में जब 1928, में कुछ लोग लाहौर में अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या कर के भाग गए तो महात्मा गांधी ने तुरंत अपने लेख में इस कांड की भर्त्सना की और कहा कि इस तरह की हरकत हिंदुस्तानियों को शोभा नहीं देती.
गांधी जी ने लिखा कि इस तरह से मारपीट, ख़ून खराबा करने को वीरतापूर्ण क़रार देना अंग्रेज़ों की परंपरा रही है, भारतीयों की नहीं.
क्रांतिकारियों के लिए सांडर्स की हत्या तो बहरहाल एक अतिरिक्त कार्य था. प्रमुख कार्य तो लोगों को क्रांति के लिए प्रोत्साहित करना था. पिछले तीन सालों से भगत सिंह और साथी इस प्रयास में लगे थे.
भगत सिंह तो वैसे भी विचार संप्रेषण में अपनी महारत दिखा चुके थे. छात्र जीवन में ही उन्हें हिंदी निबंध में पुरस्कार मिल चुका था. पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हो चुके थे.
भगत सिंहImage copyrightSHIRAZ HASAN
काकोरी कांड (1925) के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथियों को यह भी समझ आ गया था कि अगर भारत में बदलाव लाना है तो जनता को साथ ले कर चलना होगा.
क्रांति की भाड़ अकेले क्रांतिकारियों से तो झोंकी नहीं जा सकेगी; उन्हें साधारण लोगों का समर्थन भी किसी तरह से हासिल करना होगा. इस प्रसंग से उन्होंने अपने संगठन के नाम के साथ साफ़ तौर पर ‘सोशलिस्ट’ शब्द डाल दिया.
अब वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे. साथ ही भगत सिंह की अगुआई में क्रांतिकारियों ने लोगों तक पहुँचने के नए तरीक़े इस्तेमाल करने शुरू कर दिए.
भगत सिंह के ज़िम्मे जो काम पड़ा वह था मायादीप (मैजिक लैंटर्न) के ज़रिए लोगों को काकोरी कांड जैसे क्रांतिकारी प्रकरणों के बारे में बताना, ताकि साधारण समाज में भी क्रांति की लहर तेज़ी से फैले.
इसी बीच भगत सिंह को विचार आया कि लोगों को उकसाने के लिए एक नए आख्यान की आवश्यकता थी जो नाटकीय भी हो और उत्तेजक भी.
इसलिए भगत सिंह की सलाह पर क्रांतिकारियों ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में बम विस्फोट का प्रोग्राम बनाया.
भगत सिंह
बम विस्फोट का लोगों पर क्या असर पड़ा यह तो ख़ैर अलग बात है, पर जवाहरलाल नेहरू ज़रूर बहुत प्रभावित हुए.
कोर्ट में भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत की दास्तां पर एक बड़ा धाकड़ बयान पेश किया.
साथ ही उन्होंने जेल की व्यवस्था के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया. नेहरू ने अपनी तरफ़ से जून 1929, के कांग्रेस बुलेटिन में असेंबली बम केस पर भगत सिंह के पूरे बयान को छाप दिया.
साथ ही क्रांतिकारियों द्वारा किए जा रहे उपवास के पक्ष में भी नेहरू ने लिख डाला. महात्मा गांधी को बम विस्फोट की इस तरह की प्रशंसा नागवार थी.
उन्होंने तुरंत नेहरू को डाँटते हुए पत्र लिखा (जुलाई 1, 1929). “मेरे प्यारे जवाहरलाल, इस बार का कांग्रेस बुलेटिन पढ़ा.
उस बयान का इस तरह से छापा जाना अनुचित था. वैसे भी वह उनके वक़ील के द्वारा बनाया बयान था ना कि उनकी आत्मा से आने वाली ईमानदार आवाज़.... मुझे तुम्हारे द्वारा उनके अनशन की हिमायत करना भी अच्छा नहीं लगा. मेरे मतानुसार इनका यह अनशन बेकार का है, बात का बतंगड़ बनाने जैसा. तुम ख़ुद ही सोच लो.”
नेहरूImage copyrightAP
पता नहीं नेहरू ने क्या सोचा पर हम इतना ज़रूर देख सकते हैं कि गांधी जी बम धमाके से इतने नाराज़ थे कि जिन लोगों के नाम पर बयान जारी हुआ था उनका नाम तक नहीं ले रहे थे.
इसके बाद, कई सालों तक गांधीजी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया.
बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेज़ी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई.
ऐसे ही समय फ़िल्म डायरेक्टर जगदीश गौतम ने 1954 में भगत सिंह पर फ़िल्म बनाई. चली नहीं. नौ साल बाद, 1963 में शम्मी कपूर भगत सिंह बनकर परदे पर आए. लोगों ने नोटिस तक ना किया.
इसी बीच भारत की चीन से लड़ाई हुई और लोगों को लगा की देश कि ख़ूब नाक कटी. नेहरू जी भी चल बसे.
देश की इस हताश हालत में जब अनजान नायकों को लेकर शहीद नाम से भगत सिंह की कहानी को 1965 में पर्दे पर लाया गया तो लोगों ने उसे ख़ूब सराहा.
महात्मा गांधीImage copyrightGetty
पर इसके बाद भी राजनैतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई ज़रूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझना या लोगों तक पहुँचने की कोई कोशिश नहीं की गई.
भगत सिंह को याद करना महज़ 26 जनवरी और 15 अगस्त को शहीद फ़िल्म के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी सी याद भी ख़त्म कर दी गई.
इसके बाद भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को 1997 में, देश की आज़ादी कि 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आज़ादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.
इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्रा 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए.
रेड फ्लैगImage copyrightGetty
इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के दुक्के बयान दिए, भगत सिंह की कुछ पैम्फ़्लेट्स के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई.
दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक़ जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालाँकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज़्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे.
किसी ने उन पर गेरुए वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.
इन सब बातों से इतना तो साफ़ ज़ाहिर है: अपनी शहादत के आठ दशक बाद भी भगत सिंह ही एक अकेला शख़्स मिलता है जो हर किसी के दिल को जीत सके.
फ़र्क़ बस इतना है कि जिसकी भावना जैसी हो उसने भगत सिंह की छवि वैसी ही गढ़ ली है.

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